Friday, 9 December 2016

वह आपको उनके प्रति गुस्सा दिलाकर, चिड़ा कर नाराज इसलिए रखे रहना चाहते हैं, क्योंकि!

सबसे पहले तो वह कौन?: वो यानी पुजारी, वो यानी व्यापारी, वो यानी ढोंगी-पाखंडी; मोटे तौर पर वो यानी तथाकथित व् स्वघोषित सवर्ण|

आप कौन: आप यानी किसान-वर्ग|

वो ऐसा क्यों रखना चाहते हैं: ताकि आप उनसे अपनी बात ना मनवा सकें, एक मिनिमम कॉमन एजेंडा ना बना सकें|

वो यह चीज क्यों नहीं चाहते?: हर इंसान ऐसा कार्य करना चाहता है जिससे उसको इस बात की अनुभूति मिले कि वह समाज पर परजीवी नहीं अपितु समाज का दाता है, समाज को कुछ ऐसा देने वाला है जो उसको सिवाय कोई और नहीं दे सकता|

अब किसान की समाज को ऐसी देन है खाद्दान यानी वह अन्नदाता कहलाता है|

तो ऐसे में उसको किसान का यह अहसान भी नहीं मानना और अपने आपको भी किसी न किसी चीज का दाता बताना है तो वह क्या करता है?

वह आपके बीच की मान-मान्यताओं, सम्बोधनों को अपनी मंशा और शब्दों के अनुरूप शब्द और अर्थ देकर उसको "आध्यात्म-ज्ञान-शिक्षा-सभ्यता" का लेबल लगाकर आपको ही चेप देता है|

उदाहरण के तौर पर राम शब्द| हरयाणवी और मारवाड़ी भाषा में राम शब्द का अर्थ होता आराम| जब आप आपस में राम-राम बोल रहे होते हो तो एक दूसरे का कुशलक्षेम पूछ रहे होते हो कि आप आराम से तो हो? वह ने जब यह देखा कि यह शब्द समाज में बड़ा ही प्रयुक्त शब्द है, इसको भुना के भगवान के स्टेटस का बना दूँ इसको अनंत-काल जितना पुराना दिखा दूँ तो समाज इसको मेरा योगदान मानेगा| और उसने राम शब्द के इर्दगिर्द पूरी रामायण घड़ दी| वर्ना यह बताओ, जब राम नहीं था तो आपके यहां राम-राम शब्द की जगह इसका समतुल्य सम्बोधन क्या था? (यहां यह बात ध्यान रखी जाए कि एक शब्द दूसरी भाषाओँ-क्षेत्रों-देशों में भी इसी सम्बोधन-अर्थ में मिल सकता है|)

अब आप इनके इनकी समझ में योगदान पर सवाल ना कर दो, इसलिए वर्ण बना के अपने चारों ओर ऊंच-नीच की प्रोटेक्शन वाल भी लगे हाथों खींच ली| ज्ञानी-अज्ञानी व् सभ्य-असभ्य की रेखा खींच ली| वर्ना जिसको दूसरों का पेट भरने की कला यानी खेती करने का ज्ञान आता हो, वह दुनिया के किस ज्ञानी से कम ज्ञानी हो सकता है?
खेती करना महज दो बैल जोड़ के हल जोतना मात्र तो नहीं? किस मौसम में कौनसी फसल, उसमें कितना पानी, उसमें कितना खाद, उसमें कितना बीज इत्यादि लगेगा, उसको कब नहलाना है, कब काटना है, कब रोपना है, कौनसा जंगली जानवर नुकसानदेह, कौनसा पक्षी मित्र-पक्षी इत्यादि, ऐसी-ऐसी तकनीकी व् बड़े-से-बड़े वैज्ञानिक स्तर की खेती की बातें भी चाहिए होती हैं| यह कृषि विश्विद्यालय या प्रयोगशालाएं तो अभी 50-60 सालों से ही बनी हैं; इससे पहले किसान को यह ज्ञान कौन देता था? यह ज्ञान किसान खुद अपने चिंतन-मनन-बुजुर्ग किसान की सीख व् तजुर्बे से हासिल करता था और आज भी करता है|

लेकिन यह अचंभित कर देने वाले ज्ञान की कला ऐसी है कि इसमें हाथ-पैर चलाने नहीं होते, बस बैठ के सोचने के लिए अच्छी जगह और अच्छा खाना चाहिए|

इसलिए इनसे नफरत करने की या इनके ही द्वारा आपको इनसे नफरत करने की राह पर डालने की परिपाटी किसान को छोड़नी होगी, इससे बचना होगा| और इन बातों पर समझौते करने होंगे कि आप इनको पेट भरने हेतु दान-चन्दा या व्यापार देंगे परन्तु साथ ही दान-चन्दे वाला आपको उसका हिसाब किताब दे के, आपकी सलाह से ही समाज के भले के कार्यों में लगाएगा, आप भी उस दान-चन्दे में लाभ के हिस्सेदार होंगे| और दूसरा व्यापारी उसी की भांति आपको भी आपके उत्पाद यानी कृषि खाद्द्यानों के विक्रय मूल्य स्वंय निर्धारित करने की पालिसी में शामिल करेगा|

तमाम चिंतन-मनन के बाद किसान की राह का जो सबसे बड़ा रोड़ा नजर आता है वो यही इनसे चिड़ने-नफरत करने की राही नजर आती है| हालाँकि गारंटी इस बात की भी नहीं दी जा सकती कि इनके साथ एक मिनिमम कॉमन एजेंडा बनाने निकलोगे तो यह इतने सहज मान जायेंगे। ऐसी बात करने पर यह आपको यह कह कर चिढ़ाएँगे कि तुम मूढ़-अज्ञानी-अछूत-नीच हमसे समझौते करोगे? परन्तु इनके इस रवैये के बाद भी इनको समाज के साथ मिमिनम कॉमन एजेंडा बनाने पर मजबूर करना होगा| वर्ना यह स्थिति यथावत बनी रही तो फिर यह ऐसे ही आपके ही दान-चन्दे और व्यापार के जरिये आपसे मनचाहे भावों वाले दाम ले के, इसी पैसे से जाट बनाम नॉन-जाट जैसे अखाड़े खड़े करते रहेंगे| और आपको दुश्मन के नाम पर मुसलमान-ईसाई इत्यादि दिखाते रहेंगे| और आप ना दुश्मन पहचान पाओगे और ना ही बढ़िया बोल बोल के किसी समझौते पे पहुँच पाओगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

No comments: