जैसे कि मोहनदास कर्मचन्द गांधी व् लाल लाजपतराय ने व्यापारी व् पुजारी वर्ग के पेशे के हितों की राजनीति करी, कामयाब रहे|
सर छोटूराम, सरदार प्रताप सिंह, सर फज़ले हुसैन व् चौधरी चरण सिंह ने किसान-मजदूर पेशे के की राजनीति करी, कामयाब रहे|
बाबा साहेब आंबेडकर ने हिन्दू धर्म में वर्णित शुद्र वाला पेशा करने वालों के पेशे के हितों की राजनीति करी, कामयाब रहे|
फिर आया ताऊ देवीलाल का दौर, गाँधी-सर छोटूराम-बाबा अम्बेडकर से भी बड़े राजनेता बनने की राह पर थे, परन्तु मंडी-फंडी से गच्चा खा गए और जातीय राजनीति की राह पर धकेल दिए गए| मण्डल कमीशन का विरोध करवाने हेतु अजगर गठबंधन में पेशे से एक जाट समाज से इसका विरोध करवा दिया| और ऐसे हुआ किसान-मजदूर राजनीति का पतन शुरू|
ताऊ देवीलाल ने "लुटेरा और कमेरा" का नारा दिया तो था शायद सर छोटूराम के "मंडी-फंडी" की नकल करते हुए, परन्तु वह इन शब्दों की शक्ति और बर्बादी नहीं पहचान पाए| किसी को लुटेरा कहना उसको चुनौती जैसा लगता है, जबकि फंडी कहना उसको अपराधबोध करवाता है| तो ताऊ ने जिनको लुटेरा कहा था, उन्होंने भी फिर जिद्द सी पकड़ ली थी कि चलो तुम्हारी सत्ता लूट के दिखाते हैं और वही हुआ| आप किसी को अपराधबोध करवाने की बजाए चैलेंज पे धरोगे तो वो भी तो फिर आपको चैलेंज पे धरेगा?
बाबा महेंद्र सिंह टिकैत ने जब तक किसान यूनियन के मंचों से हर-हर महादेव और अल्लाह-हु-अकबर दोनों के नारे बराबर लगवाए भारतीय किसान यूनियन बढ़ती ही चली गई, परन्तु जिस दिन अकेला जय श्रीराम का नारा लगवाया, तब से भारतीय किसान यूनियन ग्रहण में चल रही है|
एक मसीहा के तौर पर मैं इन दोनों हस्तियों की पूजा करने के स्तर तक इज्जत करता हूँ, परन्तु बड़ों से अनजाने में हुई गलती का जिक्र नहीं करूँगा तो आगे की पीढ़ियों को सजग कैसे कर पाउँगा|
ताऊ देवीलाल और बाबा टिकैत से जो हुआ वो अनजाने में हुआ, उनको इसके परिणाम का अहसास नहीं था कि यूँ उनके कदम से अजगर बिखर जायेगा और हिन्दू-मुस्लिम की धर्म की बजाये पेशे के आधार पर साझी किसान यूनियन गहती ही चली जाएगी| और जातीय राजनीति चल निकलती भी और चलती भी रहती परन्तु अगर इसमें जातीय जहर की राजनीति नहीं उतारी जाती तो| और यह करिश्मा किया मुलायम सिंह यादव व् बहन मायावती जी ने|
1996 में रक्षा मंत्री बनते ही मुलायम सिंह यादव ने सबसे पहला जातीय बहस दिखाने का जो कार्य किया वो था जाट रेजिमेंट में जाट रिक्रूटमेंट घटाने का काम| उसके बाद मुस्लिम को जाट से तोड़ के यादव से जोड़ने का काम| जबकि इनके राजनैतिक गुरु चौधरी चरण सिंह ने मुस्लिम के साथ तमाम हिन्दू किसान जातियों को जोड़ के किसान-मजदूर के पेशे की राजनीति की थी| परन्तु इन्होनें उसको सिकोड़ के जातीय जहर की राजनीति पर उतार दिया| और यह 2013 के मुज़फ्फरनगर दंगों में तो अपने उस उच्चत्तम घटिया स्तर तक पहुंची कि पश्चिमीं यूपी के जाट किसान ने सिर्फ इस बात पे बीजेपी को वोट दिया क्योंकि सपा की दंगो के बाद एकतरफा कार्यवाहियों से जाटों को जहां पहले बीजेपी-सपा दोनों शामिल दिखती थी, बाद में अकेली सपा में दोष दिखा| हालाँकि मुलायम को जाटों ने हराया हो ऐसा नहीं है, मुलायम को हराया महाशय के नफरत भरे कर्मों ने| बोये पेड़ बबूल के तो आम कहाँ से होये?
आशा है कि जाट को बीजेपी से आशानुरूप व्यवहार मिले और कम से कम मुज़फ्फरनगर दंगों के वक्त से जेलों में पड़े जाट बालक बाहर आवें, उनके उजड़े परिवारों को उचित मुवावजे मिलें और पूरे यूपी की आर्थिक धुर्री कहे जाने वाले वेस्ट यूपी का चहुमुखी विकास जरूर हो|
यही हश्र दलित राजनीति को जातीय राजनीति बना देने वाली मायावती का हुआ| एक तो मैडम के हरयाणा में आ-आ के गैर-जाट सीएम बनाने की घोषणा करने के किस्से, ऊपर से दलितों में भी चमार उर्फ़ जाटवों (जाटव नाम इनको मुरसन नरेश राजा महेंद्र प्रताप जी ने दिया था) को ज्यादा तवज्जो देना और तीसरा पेशे की राजनीति से छिंटक के पुजारी वर्ग को रिझाने में मशगूल हो जाना|
बाकी यह मत सोचो कि मुलायम और मायावती के हारने से जातीय राजनीति खत्म हो गई, यह तो खत्म होगी उस दिन जिस दिन हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट की राजनीति करने वाली बीजेपी को भी जनता यूपी जैसा ही जवाब देगी; तब मानना कि वाकई जातीय जहर की राजनीति के दिन लद चुके|
लेकिन जाति से भी खतरनाक राजनीति तो अब शुरू हुई है| यह वही राजनीति है जो अंग्रेज और मुग़लों के भारत में आने से पहले चलती थी, और जिसकी वजह से देश गुलाम हुआ था| सर छोटूराम व् बाबा आंबेडकर ने दलित व् किसान वर्गों के धार्मिक शोषण से छुटकारा पाने हेतु जो पेशे की राजनीति चलाई थी आज के लोग उसको भूल कर, वापिस उसी खाई में जा गिरे हैं, जिससे इनको फिर से निकालने हेतु नए छोटूराम व् आंबेडकर को आना पड़ेगा| तब तक राजनीति में पेशे के ऊपर धर्म को चुनने वाले यूँ ही बिरान रहेंगे, बर्बाद व् पथभृष्ट रहेंगे|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
सर छोटूराम, सरदार प्रताप सिंह, सर फज़ले हुसैन व् चौधरी चरण सिंह ने किसान-मजदूर पेशे के की राजनीति करी, कामयाब रहे|
बाबा साहेब आंबेडकर ने हिन्दू धर्म में वर्णित शुद्र वाला पेशा करने वालों के पेशे के हितों की राजनीति करी, कामयाब रहे|
फिर आया ताऊ देवीलाल का दौर, गाँधी-सर छोटूराम-बाबा अम्बेडकर से भी बड़े राजनेता बनने की राह पर थे, परन्तु मंडी-फंडी से गच्चा खा गए और जातीय राजनीति की राह पर धकेल दिए गए| मण्डल कमीशन का विरोध करवाने हेतु अजगर गठबंधन में पेशे से एक जाट समाज से इसका विरोध करवा दिया| और ऐसे हुआ किसान-मजदूर राजनीति का पतन शुरू|
ताऊ देवीलाल ने "लुटेरा और कमेरा" का नारा दिया तो था शायद सर छोटूराम के "मंडी-फंडी" की नकल करते हुए, परन्तु वह इन शब्दों की शक्ति और बर्बादी नहीं पहचान पाए| किसी को लुटेरा कहना उसको चुनौती जैसा लगता है, जबकि फंडी कहना उसको अपराधबोध करवाता है| तो ताऊ ने जिनको लुटेरा कहा था, उन्होंने भी फिर जिद्द सी पकड़ ली थी कि चलो तुम्हारी सत्ता लूट के दिखाते हैं और वही हुआ| आप किसी को अपराधबोध करवाने की बजाए चैलेंज पे धरोगे तो वो भी तो फिर आपको चैलेंज पे धरेगा?
बाबा महेंद्र सिंह टिकैत ने जब तक किसान यूनियन के मंचों से हर-हर महादेव और अल्लाह-हु-अकबर दोनों के नारे बराबर लगवाए भारतीय किसान यूनियन बढ़ती ही चली गई, परन्तु जिस दिन अकेला जय श्रीराम का नारा लगवाया, तब से भारतीय किसान यूनियन ग्रहण में चल रही है|
एक मसीहा के तौर पर मैं इन दोनों हस्तियों की पूजा करने के स्तर तक इज्जत करता हूँ, परन्तु बड़ों से अनजाने में हुई गलती का जिक्र नहीं करूँगा तो आगे की पीढ़ियों को सजग कैसे कर पाउँगा|
ताऊ देवीलाल और बाबा टिकैत से जो हुआ वो अनजाने में हुआ, उनको इसके परिणाम का अहसास नहीं था कि यूँ उनके कदम से अजगर बिखर जायेगा और हिन्दू-मुस्लिम की धर्म की बजाये पेशे के आधार पर साझी किसान यूनियन गहती ही चली जाएगी| और जातीय राजनीति चल निकलती भी और चलती भी रहती परन्तु अगर इसमें जातीय जहर की राजनीति नहीं उतारी जाती तो| और यह करिश्मा किया मुलायम सिंह यादव व् बहन मायावती जी ने|
1996 में रक्षा मंत्री बनते ही मुलायम सिंह यादव ने सबसे पहला जातीय बहस दिखाने का जो कार्य किया वो था जाट रेजिमेंट में जाट रिक्रूटमेंट घटाने का काम| उसके बाद मुस्लिम को जाट से तोड़ के यादव से जोड़ने का काम| जबकि इनके राजनैतिक गुरु चौधरी चरण सिंह ने मुस्लिम के साथ तमाम हिन्दू किसान जातियों को जोड़ के किसान-मजदूर के पेशे की राजनीति की थी| परन्तु इन्होनें उसको सिकोड़ के जातीय जहर की राजनीति पर उतार दिया| और यह 2013 के मुज़फ्फरनगर दंगों में तो अपने उस उच्चत्तम घटिया स्तर तक पहुंची कि पश्चिमीं यूपी के जाट किसान ने सिर्फ इस बात पे बीजेपी को वोट दिया क्योंकि सपा की दंगो के बाद एकतरफा कार्यवाहियों से जाटों को जहां पहले बीजेपी-सपा दोनों शामिल दिखती थी, बाद में अकेली सपा में दोष दिखा| हालाँकि मुलायम को जाटों ने हराया हो ऐसा नहीं है, मुलायम को हराया महाशय के नफरत भरे कर्मों ने| बोये पेड़ बबूल के तो आम कहाँ से होये?
आशा है कि जाट को बीजेपी से आशानुरूप व्यवहार मिले और कम से कम मुज़फ्फरनगर दंगों के वक्त से जेलों में पड़े जाट बालक बाहर आवें, उनके उजड़े परिवारों को उचित मुवावजे मिलें और पूरे यूपी की आर्थिक धुर्री कहे जाने वाले वेस्ट यूपी का चहुमुखी विकास जरूर हो|
यही हश्र दलित राजनीति को जातीय राजनीति बना देने वाली मायावती का हुआ| एक तो मैडम के हरयाणा में आ-आ के गैर-जाट सीएम बनाने की घोषणा करने के किस्से, ऊपर से दलितों में भी चमार उर्फ़ जाटवों (जाटव नाम इनको मुरसन नरेश राजा महेंद्र प्रताप जी ने दिया था) को ज्यादा तवज्जो देना और तीसरा पेशे की राजनीति से छिंटक के पुजारी वर्ग को रिझाने में मशगूल हो जाना|
बाकी यह मत सोचो कि मुलायम और मायावती के हारने से जातीय राजनीति खत्म हो गई, यह तो खत्म होगी उस दिन जिस दिन हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट की राजनीति करने वाली बीजेपी को भी जनता यूपी जैसा ही जवाब देगी; तब मानना कि वाकई जातीय जहर की राजनीति के दिन लद चुके|
लेकिन जाति से भी खतरनाक राजनीति तो अब शुरू हुई है| यह वही राजनीति है जो अंग्रेज और मुग़लों के भारत में आने से पहले चलती थी, और जिसकी वजह से देश गुलाम हुआ था| सर छोटूराम व् बाबा आंबेडकर ने दलित व् किसान वर्गों के धार्मिक शोषण से छुटकारा पाने हेतु जो पेशे की राजनीति चलाई थी आज के लोग उसको भूल कर, वापिस उसी खाई में जा गिरे हैं, जिससे इनको फिर से निकालने हेतु नए छोटूराम व् आंबेडकर को आना पड़ेगा| तब तक राजनीति में पेशे के ऊपर धर्म को चुनने वाले यूँ ही बिरान रहेंगे, बर्बाद व् पथभृष्ट रहेंगे|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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