एक मरे-से-मरे जगराते से भी औसतन 5000 की कमाई होती है| एक गाँव में आजकल
महीने में औसतन 2 जगराते/भंडारे/जागरण/सतसंग होने लगे हैं| यानि सालाना
न्यूनतम 1 लाख 20 हजार रूपये की आमदनी एक गांव से| अगर सिर्फ हरयाणा का भी
उदाहरण लिया जाए तो हरयाणा में करीब 6700 गाँव हैं| यानि 8 अरब 4 करोड़
रूपये का सालाना कारोबार|
और इस पर ना कोई सरकारी टैक्स, ना कोई मनोरंजन टैक्स और ना ही कोई पंचायती टैक्स? यह तो छोडो सबसे बड़ी बात तो यह है कि किसी को यह भी नहीं पता कि यह पैसा जाता कहाँ है, किन धंधों में प्रयोग होता है?
और इस पर ना कोई सरकारी टैक्स, ना कोई मनोरंजन टैक्स और ना ही कोई पंचायती टैक्स? यह तो छोडो सबसे बड़ी बात तो यह है कि किसी को यह भी नहीं पता कि यह पैसा जाता कहाँ है, किन धंधों में प्रयोग होता है?
मैं मुख्यमंत्री होऊं तो इसपे 50% तो पंचायती टैक्स लगाऊं, यानि जिस
गांव-गली-मोह्हले में जागरण हुआ और जितना पैसा आया, उसका आधा उस गाँव की
पंचायत या मोहल्ले की परिषद को गाँव/मोह्हले के सामाजिक कार्यों में प्रयोग
करने हेतु दे के आओ| बाकी में से 25% मनोरंजन टैक्स सरकार को दो और बचे
हुए 25% से अपनी रोजी-रोटी व् खर्चा चलाओ|
और वाकई में होता भी यही है इस पैसे का 75% से ज्यादा ऐसे कार्यों में प्रयोग होता है जिनके जरिये समाज में फूट डाली जाती है, जाट बनाम नॉन-जाट जैसे अखाड़े खड़े किये जाते हैं; कभी सीधे-सीधे दे के तो कभी इनडायरेक्ट दे के|
अब यहां कोई नादाँ अंधभक्त आ के अपना बासी ज्ञान मत सुनाने लग जाना कि तुम दूसरे धर्मों बारे भी तो बोलो; ऐसे नादानों को सिर्फ एक ही जवाब है कि दूसरे धर्म वाले दूसरे धर्म से भले ही कितनी ही नफरत करते हों, परन्तु अपने धर्म कार्यों से होने वाली आमदनी को अपने ही धर्म के भीतर जाट बनाम नॉन-जाट जैसे अखाड़े खड़े करने में नहीं लगाते| मुझे तो समझ यह नहीं आता कि आखिर यह धर्म ही कैसे हो जाता है जिसके अंदर एक जाति को दूसरी जाति से भिड़ाने हेतु पैसा भी धर्म के नाम पर उन्हीं से उगाहा जाता है?
या तो अपना उल्लू कटवाना और यूँ अपनी मौत का सामान करवाना बंद करो या इनपे टैक्स लगवा के इनका हिसाब-किताब लेना शुरू करो, जो अगर ना आँखें फ़टी की फ़टी रह जाएँ यह देख के कि यह लोग इस पैसे का इस्तेमाल क्या, कैसे और कहाँ करते हैं?
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
और वाकई में होता भी यही है इस पैसे का 75% से ज्यादा ऐसे कार्यों में प्रयोग होता है जिनके जरिये समाज में फूट डाली जाती है, जाट बनाम नॉन-जाट जैसे अखाड़े खड़े किये जाते हैं; कभी सीधे-सीधे दे के तो कभी इनडायरेक्ट दे के|
अब यहां कोई नादाँ अंधभक्त आ के अपना बासी ज्ञान मत सुनाने लग जाना कि तुम दूसरे धर्मों बारे भी तो बोलो; ऐसे नादानों को सिर्फ एक ही जवाब है कि दूसरे धर्म वाले दूसरे धर्म से भले ही कितनी ही नफरत करते हों, परन्तु अपने धर्म कार्यों से होने वाली आमदनी को अपने ही धर्म के भीतर जाट बनाम नॉन-जाट जैसे अखाड़े खड़े करने में नहीं लगाते| मुझे तो समझ यह नहीं आता कि आखिर यह धर्म ही कैसे हो जाता है जिसके अंदर एक जाति को दूसरी जाति से भिड़ाने हेतु पैसा भी धर्म के नाम पर उन्हीं से उगाहा जाता है?
या तो अपना उल्लू कटवाना और यूँ अपनी मौत का सामान करवाना बंद करो या इनपे टैक्स लगवा के इनका हिसाब-किताब लेना शुरू करो, जो अगर ना आँखें फ़टी की फ़टी रह जाएँ यह देख के कि यह लोग इस पैसे का इस्तेमाल क्या, कैसे और कहाँ करते हैं?
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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