Saturday, 6 January 2018

आने वाले कल के नवदलित बन जायेंगे भारत के उदारवादी जमींदार अगर इन बातों पर गौर नहीं फ़रमाया तो!

धरती पर धन अर्जित करने के जरियों को मुख्यत: चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

1) धर्म के धंधों के जरिये
2) वस्तुओं व् मानवीय सेवाओं के व्यापार के जरिये
3) जमींदारी व् इससे संबंधित व्यापारों के जरिये
4) मजदूरी/कर्मचारी/नौकरी के जरिये

भारतीय जमींदारी में भी दो प्रकार हैं| एक सामंतवादी जमींदारी और एक उदारवादी जमींदारी| उत्तरी-पश्चिमी भारत में मुख्यत उदारवादी जमींदारी होती है, बाकी भारत में सामंतवादी जमींदारी होती है| दोनों में मुख्य अंतर् यह है कि सामंती जमींदारी छूत-अछूत,शूद्र-स्वर्ण व् ऊंच-नीच के भेद से चलती है जबकि उदारवादी जमींदारी सीरी-साझी यानि सुख-दुःख-आमदनी के वर्किंग पार्टनर कल्चर के मानवीय सिद्धांत पर| जहाँ-जहाँ देश में वर्णवादी व् शूद्र-स्वर्ण व्यवस्था हावी रही है वहां-वहां सामंती जमींदारी चली आई है और जहाँ-जहाँ सीरी-साझी संस्कृति रही है वहां उदारवादी जमींदारी|

इसको कुछ यूँ भी समझ लीजिये कि जहाँ-जहाँ उदारवादी जमींदारी है वहां के मजदूर को सिंपल दिहाड़ी करने हेतु भी इस क्षेत्र से कभी बाहर नहीं जाना पड़ा, उदाहरण के तौर पंजाब-हरयाणा-वेस्ट यूपी| और जहाँ-जहां सामंतवादी जमींदारी है वहां के मजदूर इतने पीड़ित-प्रताड़ित होते आये हैं कि उनको सम्मान व् इज्जत की बेसिक दिहाड़ी कमाने हेतु भी उदारवादी जमींदारी की धरती पर आना पड़ता रहा है, जैसे कि पंजाब-हरयाणा-वेस्ट यूपी में आने वाले प्रवासी मजदूर|

आज के दिन उदारवादी जमींदारी बाकी सबके निशाने पर है और इसको बचाये रखना है तो बाह्मण-राजपूत (इन दोनों का वह हिस्सा जो उदारवादी जमींदारी के तहत खेती करता है) जाट-गुज्जर-अहीर-सैनी-धानक-चमार आदि के तहत जो भी उदारवादी जमींदारी करने वाली जातियां हैं इनको समझना होगा कि जैसे धर्म के धंधे में बाह्मण वर्ण में भी सैंकड़ों जातियां होने के बावजूद यह लोग धर्म के जरिये अर्थ कमाने के उद्देश्य को ही सर्वोपरी रखते हैं|

जैसे बनिया-अरोड़ा-खत्री-जैनी-सिंधी आदि वस्तुओं व् मानवीय सेवाओं के व्यापार के जरिये धन कमाने के रास्ते में इनकी जातियों की भिन्नता को साइड रख, धन कमाने के मिनिमम कॉमन एजेंडा को आगे रख काम करते हैं|

और ऐसे ही मजदूरी/कर्मचारी/नौकरी, यह वर्ग भी अपनी न्यूनतम दिहाड़ी-तनख्वाह वगैरह के लिए जाति साइड में रख अर्थ की न्यूनतम सुनिश्चितत्ता किये रखते हैं|

ऐसे ही उदारवादी जमींदारी जातियों को भी दो वजहों से उनके बीच दिनप्रतिदिन बढ़ते जा रहे जातीय जहर को साइड करना होगा| दो वजह यानि एक तो खुद की निष्क्रियता, मिथक व् अज्ञान के चलते पैदा हुए मतभेद व् दूसरा धार्मिक व् व्यापारिक ताकतों द्वारा डाल दिए गए मतभेद|

जब तक इन दोनों को समझ के व् इनको अपनी जगह दिखाते हुए, अपने आर्थिक हितों पर ध्यान नहीं दिया जायेगा तो समझ लीजियेगा कि आने वाले समय के नवदलित आप ही होने वाले हो| चौड़े मत होना और किसी बहम में मत रहना, फिर बेशक उदारवादी जमींदार होते हुए आपकी जाति चाहे बाहमण ही क्यों ना हो, जाट, राजपूत, धानक चमार चाहे कुछ भी क्यों ना हो| जमींदार हो, शहरों में बसते हो तो भी आप आने वाले कल के नवदलित बनने वाले हो अगर समय रहते इस जातीय ईर्ष्या को साइड करके, उदारवादी जमींदारी जातियों का मिनिमम कॉमन एजेंडा बना के नहीं चले तो|

वैसे भी यह ईर्ष्या की बीमारी विगत सालों तक वर्णीय आधार पर तो देखने को मिल जाती थी परन्तु अब ऐसा लगता है कि यह 'खुद के सुवाद खुद ही लेने' जैसी जो एक बिमारी सी उदारवादी जमींदारों में लग चली है, अगर वक्त रहते इससे बाज नहीं आये तो यह जहर वर्णीय जहर से भी घातक होने वाला है| वर्णीय जहर जब तक था तब तक आप लोग कम से कम जातीय स्तर पर तो एक थे| अब तो आप खुद ही इसको खत्म करवाते जा रहे हो, कुछ 'खुद के सुवाद खुद लेने' के चक्रों में और बाकी धर्म-व्यापार-अंतरराष्ट्रीय ताकतों जैसी जो ताकतें मिलके आपको पीस रही हैं वह तो पीस ही रही हैं| और उनका यह पीसना तभी रुकेगा, जब आप इनके ही आपके बीच फेंके इस जातीय जहर के पाश को तोड़ने हेतु 'खुद के सुवाद खुद लेना' बंद नहीं करोगे| कर दो और मिनिमम कॉमन एजेंडा बना लो, वरना वही बात फिर तैयार रहो आने वाले वक्त के नवदलित कहलाने को|

अगर चाहते हो कि कल को प्रवासी मजदूरों की भांति आपको भी कहीं और से बेसिक दिहाड़ी कमाने जाना ना पड़े तो सतर्क हो जाईये| अपने पुरखों की विरासत में दी इस उदारवादी जमींदारी सिस्टम की सौगात और सोहरत पहचानिये कि सामंती जमींदारी के सताये लोग भी आपके यहाँ रोजगार और इज्जत पाते हैं| परन्तु अगर आपने ही इसकी पैरोकारी करनी छोड़ दी तो फिर कहीं खुद के ही उट-मटीले ना उठ जाएँ, दूसरों के सतायों को रोजगार देने तो सपनों की गर्भगाह जा ठहरेगी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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