लेख का निचोड़: किसी भी अवांछित व् अनजाने टकराव की जगह बचाव की राह पर चलना होगा, खासकर उदारवादी जमींदार को|
पहले तो यही समझते हैं कि जमीन-फैक्ट्री-मंदिर बनते कैसे हैं:
जमीन: ऐतिहासिक परिवेश से शुरू करें तो किसान के पुरखों ने जंगल-पहाड़ों-पत्थरों-रेही-बंजर जमीनें तोड़-काट के सर्वप्रथम खेती करने के लायक बनाई| इस काम में दिहाड़ी पर मजदूर लिए तो अधिकतर ने फसल पक के घर आने का इंतज़ार किये बिना दिन-के-दिन दिहाड़ियाँ दी| इसके बाद जितनी मेहनत इनको जमीन को खेती के लायक करने में लगी, उससे ज्यादा नानी याद दिलाई समय-समय पर हुए राजे-रजवाड़े-मुग़ल-अंग्रेज-सेठ-साहूकार-सरकारों आदि द्वारा कभी भूमिकर, तो कभी भारी माल-दरखास (टैक्स) भरवा के| कई बार यह टैक्स इतने भारी तक होते थे किसानों को कभी औरंगजेब के खिलाफ गॉड गोकुला की सरप्रशती में सशत्र विद्रोह करने पड़े तो कभी अंग्रेजों के खिलाफ जींद रियासत में लजवाना काण्ड जैसे विद्रोह करने पड़े, कभी गोहद की किसान क्रांति करनी पड़ी तो कभी वर्णवाद व् शुद्रवाद वाले चचों-दाहिरों-पुष्यमित्रों के खिलाफ युद्ध लड़ने पड़े| जाट जैसी जातियों ने तो इसकी रक्षा हेतु ऐसे बलिदान दिए कि इनके जमीन से प्यार को देखते हुए व् ऐसे भीषण अकालों में, शासनकालों में जब सेठ-साहूकार भी जमीनें सुन्नी छोड़ दिया करते तब भी जाटों ने अपने घर-ढोर तक गिरवी रख टैक्स भर जमीनें बचाई तो कहावत चली कि "जमीन जट्ट दी माँ हुंदी ए"! जहाँ-जहाँ उदारवादी जमींदारी थी वहां तो दलितों मजदूरो को फसल पक के घर आने का इंतज़ार किये बिना दिन-के-दिन दिहाड़ियाँ दी, परन्तु जहाँ सामंतवादी जमींदारी थी वहां-वहां बंधुवा मजदूरी ने दलितों को इतना परेशान किया कि दलित जमींदारों को दुश्मन समझने लगे| सामंती जमींदारी में तो पता नहीं परन्तु उदारवादी जमींदारी में जिन मजदूरों ने खेती को समझा उन्होंने अपनी लग्न व् मेहनत से खुद के खेत भी बनाये और जमींदार भी कहलाये|
फैक्ट्री: लगाने वाला मालिक एक होता है, इसमें काम करने वाले सैंकड़ों-हजारों दलित-ओबीसी-स्वर्ण तमाम तरह की जातियों के मजदूर| जिन मजदूरों ने इनसे सीखा उन्होंने मजदूरी छोड़ खुद की फैक्टरियां खड़ी कर ली|
यानि जमीन हो या फैक्ट्री, रिस्क, मेहनत-दिहाड़ी और इन्वेस्टमेंट मालिक की व् दिहाड़ी मजदूर की| अब आते हैं तीसरे पे|
मंदिर: यहाँ पे इन्वेस्टमेंट क्या है जमीन-फैक्ट्री व् दिहाड़ी वाले द्वारा दिया गया तथाकथित दान, परन्तु मालिक कौन, इस इनकम पर आधिपत्य किसका, पुजारी का|
अब समझते हैं दलितों की जमीन की मांग: अगर दलित जमीन मेहनत से कमाने हेतु मांग रहे हैं तो सरकार ने पहले भी जमीनें दलितों को दी हैं| उदाहरण के तौर पर लगभग 3-4 दशक पहले हरयाणा के लगभग हर गाम में 1.75 एकड़ जमीन कुछ दलित जातियों को प्रति परिवार दी थी| इनमें जो मेहनती और लग्न वाले थे वह इस 1.75 की डबल-ट्रिप्पल व् इससे भी ज्यादा बना चुके हैं, बाकी अधिकतर बेच चुके हैं| इससे पहले सर छोटूराम की सरकार में तीन लाख एकड़ के करीब खाली व् बंजर जमीन मुल्तान की तरफ वाले पंजाब में दी गई थी| वहां अब कितनी दलितों के पास व् कितनी किधर जा चुकी, इसका कोई पता नहीं लग सकता क्योंकि उसके बाद से वह एक अलग देश बन चुका है| परन्तु आज कई दलित ऐसे भी हैं जो जैसे जाट पंजाब-हरयाणा-वेस्ट यूपी में छोटी पड़ती जोत को देखते हुए मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में पट्टे पे या अन्य तरह के कॉन्ट्रैक्ट्स पर जमीनें लेकर वहां की पथरीली जमीनों को अपने पुरखों की भांति समतल बना खेती कर रहे हैं, ऐसे ही यह दलित भाई भी कर रहे हैं| और मेहनत करके जमींदार बनने की चाह रखने वाले हर जाट-दलित या अन्य जाति के किसान के पास यह एक खुला रास्ता है|
तो जमीन और फैक्ट्री तो ऐसा सिस्टम है कि इन पर तो मलकियत मेहनत के सरल रास्ते पर चलते हुए बड़ी आसानी से पाई जा सकती है|
परन्तु इन तीनों में मंदिर चीज ऐसी जो बनती सर्वसमाज की कमाई से है लेकिन इनसे होने वाली आमदनी पर एकछत्र कब्ज़ा पुजारी वर्ग का चल रहा है| इसके लिए दलित अगर आवाज उठावें तो इसमें कोई कानूनी दांवपेंच भी नहीं क्योंकि यह किसानों व् फैक्ट्री वालों की भांति अधिकतर केसों में टैक्स भी नहीं भरते हैं, सिवाय कुछ 1-2% सरकार द्वारा अधिग्रहित मंदिरों को छोड़ कर| और जिनमें टैक्स भरा जाता है उनमें भी बाकी की इनकम पुजारी वर्ग अकेला हजम करता है जबकि बँटनी वह सर्वसमाज में बराबरी से चाहिए| या सर्वसमाज के कार्यों में सर्वसमाज से पूछ कर लगनी चाहिए| परन्तु दोनों ही काम नहीं होते|
अब मैं इस बात पर तो नहीं जाना चाहूंगा कि यह सिर्फ जमीन चाहियें वाली बातें ही क्यों उठ रही हैं और कौन उठा या उठवा रहा है| परन्तु ऐसी आवाजों को चाहिए कि सबसे पहले मंदिरों के चंदे-चढ़ावे की सर्वसमाज में बराबरी से बंटवारे बारे आवाज उठावें| क्योंकि जमीन-फैक्ट्री वाला तो इस बात के कानूनी कागज भी पेश कर देगा कि उसने या उसके पुरखों ने वह जमीन या फैक्ट्री मेहनत से बनाई है, दान-चंदे के चढ़ावे से नहीं| इसलिए अगर ऐसी आवाज उठानी या उठनी ही है तो ऐसी सर्वसमाज की प्रॉपर्टी व् इनकम के लिए उठे जो बनती सबके योगदान से है परन्तु उसको भोगता सिर्फ पुजारी वर्ग है|
विभिन्न किसानी संगठनों (खासकर उदारवादी जमींदारी वाले) से अनुरोध रहेगा कि एक तो सबसे पहले इस नाजुक पहलु पर मिनिमम कॉमन एजेंडा के तहत इकठ्ठे होईये (मेरे ख्याल से इस पर किसी भी संगठन की दो राय या दो रास्ते नहीं होंगे) और इस पर मिलकर काम कीजिये| दलितों के बीच जाईये और उनसे पूछिए आप जमीन मेहनत करके पाना चाहते हैं ना? अन्यथा इससे पहले कि देर हो जाए और स्थिति विकराल रूप ले ले, इस लेख की भांति अपना पक्ष उनके आगे रखिये| मुझे आशा ही नहीं उम्मीद है कि दलित आपके मर्म को समझेंगे और जिससे वास्तव में ऐसे हक़ मांगने चाहियें यानि मंदिर, उनसे ही आमदनी में हिस्सेदारी बारे आवाज उठाएंगे और इसमें फिर उदारवादी जमींदारी को दलितों का साथ देना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए|
वरना फंडी ऐसी आवाजों के जरिये दलित-किसान जातियों के बीच एक और भीषण महासंग्राम की तैयारी करवा रहा है जिसको समय रहते व् सूझ-बूझ से जल्द-से-जल्द नहीं सुलझाया गया तो दलित-किसान तो आपस में माथा फोड़ेंगे ही, समानांतर में उधर फंडी इसके जरिये अगली 2-4 पीढ़ियों का तो न्यूनतम बैठ के खाने का जुगाड़ बना जायेंगे| इस मुद्दे पर दलित से नफरत मत कीजिये, भय मत खाईये; इन भाईयों के बीच जाईये बात कीजिये, अन्यथा फंडी-पाखंडी तो चाहता ही है कि आप लोग इस मुद्दे पर बिना बात किये बस कोरी नफरत के आधार पर आपस में कट-मरो| और ऐसा करोगे तो फिर आप चिंतक-विचारक किस नाम के हुए? इसलिए जागरूक व् लॉजिकल दलित और किसान इस नाजुक मुद्दे पर आगे आवें और न्यायकारी हल निकाला जाए| क्योंकि फंड-पाखंड व् वर्णवाद का भुग्तभोगी अकेला दलित नहीं अपितु उदारवादी जमींदार भी रहा है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
पहले तो यही समझते हैं कि जमीन-फैक्ट्री-मंदिर बनते कैसे हैं:
जमीन: ऐतिहासिक परिवेश से शुरू करें तो किसान के पुरखों ने जंगल-पहाड़ों-पत्थरों-रेही-बंजर जमीनें तोड़-काट के सर्वप्रथम खेती करने के लायक बनाई| इस काम में दिहाड़ी पर मजदूर लिए तो अधिकतर ने फसल पक के घर आने का इंतज़ार किये बिना दिन-के-दिन दिहाड़ियाँ दी| इसके बाद जितनी मेहनत इनको जमीन को खेती के लायक करने में लगी, उससे ज्यादा नानी याद दिलाई समय-समय पर हुए राजे-रजवाड़े-मुग़ल-अंग्रेज-सेठ-साहूकार-सरकारों आदि द्वारा कभी भूमिकर, तो कभी भारी माल-दरखास (टैक्स) भरवा के| कई बार यह टैक्स इतने भारी तक होते थे किसानों को कभी औरंगजेब के खिलाफ गॉड गोकुला की सरप्रशती में सशत्र विद्रोह करने पड़े तो कभी अंग्रेजों के खिलाफ जींद रियासत में लजवाना काण्ड जैसे विद्रोह करने पड़े, कभी गोहद की किसान क्रांति करनी पड़ी तो कभी वर्णवाद व् शुद्रवाद वाले चचों-दाहिरों-पुष्यमित्रों के खिलाफ युद्ध लड़ने पड़े| जाट जैसी जातियों ने तो इसकी रक्षा हेतु ऐसे बलिदान दिए कि इनके जमीन से प्यार को देखते हुए व् ऐसे भीषण अकालों में, शासनकालों में जब सेठ-साहूकार भी जमीनें सुन्नी छोड़ दिया करते तब भी जाटों ने अपने घर-ढोर तक गिरवी रख टैक्स भर जमीनें बचाई तो कहावत चली कि "जमीन जट्ट दी माँ हुंदी ए"! जहाँ-जहाँ उदारवादी जमींदारी थी वहां तो दलितों मजदूरो को फसल पक के घर आने का इंतज़ार किये बिना दिन-के-दिन दिहाड़ियाँ दी, परन्तु जहाँ सामंतवादी जमींदारी थी वहां-वहां बंधुवा मजदूरी ने दलितों को इतना परेशान किया कि दलित जमींदारों को दुश्मन समझने लगे| सामंती जमींदारी में तो पता नहीं परन्तु उदारवादी जमींदारी में जिन मजदूरों ने खेती को समझा उन्होंने अपनी लग्न व् मेहनत से खुद के खेत भी बनाये और जमींदार भी कहलाये|
फैक्ट्री: लगाने वाला मालिक एक होता है, इसमें काम करने वाले सैंकड़ों-हजारों दलित-ओबीसी-स्वर्ण तमाम तरह की जातियों के मजदूर| जिन मजदूरों ने इनसे सीखा उन्होंने मजदूरी छोड़ खुद की फैक्टरियां खड़ी कर ली|
यानि जमीन हो या फैक्ट्री, रिस्क, मेहनत-दिहाड़ी और इन्वेस्टमेंट मालिक की व् दिहाड़ी मजदूर की| अब आते हैं तीसरे पे|
मंदिर: यहाँ पे इन्वेस्टमेंट क्या है जमीन-फैक्ट्री व् दिहाड़ी वाले द्वारा दिया गया तथाकथित दान, परन्तु मालिक कौन, इस इनकम पर आधिपत्य किसका, पुजारी का|
अब समझते हैं दलितों की जमीन की मांग: अगर दलित जमीन मेहनत से कमाने हेतु मांग रहे हैं तो सरकार ने पहले भी जमीनें दलितों को दी हैं| उदाहरण के तौर पर लगभग 3-4 दशक पहले हरयाणा के लगभग हर गाम में 1.75 एकड़ जमीन कुछ दलित जातियों को प्रति परिवार दी थी| इनमें जो मेहनती और लग्न वाले थे वह इस 1.75 की डबल-ट्रिप्पल व् इससे भी ज्यादा बना चुके हैं, बाकी अधिकतर बेच चुके हैं| इससे पहले सर छोटूराम की सरकार में तीन लाख एकड़ के करीब खाली व् बंजर जमीन मुल्तान की तरफ वाले पंजाब में दी गई थी| वहां अब कितनी दलितों के पास व् कितनी किधर जा चुकी, इसका कोई पता नहीं लग सकता क्योंकि उसके बाद से वह एक अलग देश बन चुका है| परन्तु आज कई दलित ऐसे भी हैं जो जैसे जाट पंजाब-हरयाणा-वेस्ट यूपी में छोटी पड़ती जोत को देखते हुए मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में पट्टे पे या अन्य तरह के कॉन्ट्रैक्ट्स पर जमीनें लेकर वहां की पथरीली जमीनों को अपने पुरखों की भांति समतल बना खेती कर रहे हैं, ऐसे ही यह दलित भाई भी कर रहे हैं| और मेहनत करके जमींदार बनने की चाह रखने वाले हर जाट-दलित या अन्य जाति के किसान के पास यह एक खुला रास्ता है|
तो जमीन और फैक्ट्री तो ऐसा सिस्टम है कि इन पर तो मलकियत मेहनत के सरल रास्ते पर चलते हुए बड़ी आसानी से पाई जा सकती है|
परन्तु इन तीनों में मंदिर चीज ऐसी जो बनती सर्वसमाज की कमाई से है लेकिन इनसे होने वाली आमदनी पर एकछत्र कब्ज़ा पुजारी वर्ग का चल रहा है| इसके लिए दलित अगर आवाज उठावें तो इसमें कोई कानूनी दांवपेंच भी नहीं क्योंकि यह किसानों व् फैक्ट्री वालों की भांति अधिकतर केसों में टैक्स भी नहीं भरते हैं, सिवाय कुछ 1-2% सरकार द्वारा अधिग्रहित मंदिरों को छोड़ कर| और जिनमें टैक्स भरा जाता है उनमें भी बाकी की इनकम पुजारी वर्ग अकेला हजम करता है जबकि बँटनी वह सर्वसमाज में बराबरी से चाहिए| या सर्वसमाज के कार्यों में सर्वसमाज से पूछ कर लगनी चाहिए| परन्तु दोनों ही काम नहीं होते|
अब मैं इस बात पर तो नहीं जाना चाहूंगा कि यह सिर्फ जमीन चाहियें वाली बातें ही क्यों उठ रही हैं और कौन उठा या उठवा रहा है| परन्तु ऐसी आवाजों को चाहिए कि सबसे पहले मंदिरों के चंदे-चढ़ावे की सर्वसमाज में बराबरी से बंटवारे बारे आवाज उठावें| क्योंकि जमीन-फैक्ट्री वाला तो इस बात के कानूनी कागज भी पेश कर देगा कि उसने या उसके पुरखों ने वह जमीन या फैक्ट्री मेहनत से बनाई है, दान-चंदे के चढ़ावे से नहीं| इसलिए अगर ऐसी आवाज उठानी या उठनी ही है तो ऐसी सर्वसमाज की प्रॉपर्टी व् इनकम के लिए उठे जो बनती सबके योगदान से है परन्तु उसको भोगता सिर्फ पुजारी वर्ग है|
विभिन्न किसानी संगठनों (खासकर उदारवादी जमींदारी वाले) से अनुरोध रहेगा कि एक तो सबसे पहले इस नाजुक पहलु पर मिनिमम कॉमन एजेंडा के तहत इकठ्ठे होईये (मेरे ख्याल से इस पर किसी भी संगठन की दो राय या दो रास्ते नहीं होंगे) और इस पर मिलकर काम कीजिये| दलितों के बीच जाईये और उनसे पूछिए आप जमीन मेहनत करके पाना चाहते हैं ना? अन्यथा इससे पहले कि देर हो जाए और स्थिति विकराल रूप ले ले, इस लेख की भांति अपना पक्ष उनके आगे रखिये| मुझे आशा ही नहीं उम्मीद है कि दलित आपके मर्म को समझेंगे और जिससे वास्तव में ऐसे हक़ मांगने चाहियें यानि मंदिर, उनसे ही आमदनी में हिस्सेदारी बारे आवाज उठाएंगे और इसमें फिर उदारवादी जमींदारी को दलितों का साथ देना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए|
वरना फंडी ऐसी आवाजों के जरिये दलित-किसान जातियों के बीच एक और भीषण महासंग्राम की तैयारी करवा रहा है जिसको समय रहते व् सूझ-बूझ से जल्द-से-जल्द नहीं सुलझाया गया तो दलित-किसान तो आपस में माथा फोड़ेंगे ही, समानांतर में उधर फंडी इसके जरिये अगली 2-4 पीढ़ियों का तो न्यूनतम बैठ के खाने का जुगाड़ बना जायेंगे| इस मुद्दे पर दलित से नफरत मत कीजिये, भय मत खाईये; इन भाईयों के बीच जाईये बात कीजिये, अन्यथा फंडी-पाखंडी तो चाहता ही है कि आप लोग इस मुद्दे पर बिना बात किये बस कोरी नफरत के आधार पर आपस में कट-मरो| और ऐसा करोगे तो फिर आप चिंतक-विचारक किस नाम के हुए? इसलिए जागरूक व् लॉजिकल दलित और किसान इस नाजुक मुद्दे पर आगे आवें और न्यायकारी हल निकाला जाए| क्योंकि फंड-पाखंड व् वर्णवाद का भुग्तभोगी अकेला दलित नहीं अपितु उदारवादी जमींदार भी रहा है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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