Tuesday 19 March 2019

जातीय प्रेम की सुगंध रुपी कस्तूरी के नशे से पार पाईये!

विषय: जाट व् इसके समकक्ष जातियों की सबसे बड़ी समस्याएं!

सबसे बड़ी समस्या: इन जातियों को अपना जातीय अभिमान संभालने की इच्छाशक्ति नहीं होती| जिसकी वजह से यह बाहुबल के साथ-साथ बुध्दिबल का प्रयोग अपने साधन-सम्पदा संजोने की बजाये, उनको बाँटने, इस्तेमाल होने देने व् बिखरेने में ज्यादा करते हैं| और यह संभालने की इच्छाशक्ति नहीं होने की वजह से इन जातियों के जो कुछ एडवांस्ड लोग होते हैं वह दूसरी जातियों के साथ बिना-सोचे समझे, बिना किसी मिनिमम कॉमन एजेंडा के मर्ज हो अपनी असली एथनिसिटी-कल्चर बिसरा के जीवन जीने को ही क्लास मानते हुए जीवन व्यतीत कर देते हैं|

जातिगत प्रेम को जातिवाद का नाम दे के चिढ़ने और बिदकने वाले जाट से कोई पूछे कि क्या आप अमूमन ब्राह्मण-बनिया-दलित आदि से भी बड़े जातीय-अभिमान रखने वाले हो या उनसे भी ज्यादा जातिवाद-वर्णवाद नस्लीय ऊंच-नीच की भावना रखने वाले हो (यहाँ बात कम-ज्यादा की कर रहा हूँ किसी पर इल्जाम नहीं लगा रहा हूँ, वरना जातिवाद-वर्णवाद से रहित लोग इन जातियों में बहुतायत में होते हैं), तो जवाब मिलेगा बिलकुल भी नहीं| तो फिर जो सबसे ज्यादा जातिवाद या जातीयप्रेम रखने वाले हैं आप उनकी तरह आश्वस्त होकर क्यों नहीं चलते हो? आपको ही क्यों 36 बिरादरी भाईचारे टाइप की चीजों की सबसे ज्यादा चिंता रहती है? चिंता क्या, लगभग इसका झाल्ला ही अपने सर उठाये से रहते हो, कि जैसे तुमने इसको नहीं संभाला तो दुनिया खत्म| कम-ऑन रिलैक्स दो अपने कंधों और सर को इससे|

तो जो जातीय प्रेम, स्वाभिमान, अभिमान, सम्मान व् बहुतेरे मामलों में जातिवाद-वर्णवाद वाले जो हैं वह कैसे इन चीजों को जाट जैसी जातियों से भी ज्यादा अच्छे से करते हुए सबकुछ संभाल के रख लेते हैं और समाज को अपने चॉइस के फ़ील्ड्स में लीड कर लेते हैं?

मेरे अनुभव व् सूझबूझ से जवाब ढूंढता हूँ तो कुछ यूँ चीजें निकलकर सामने आती हैं:

1) ब्राह्मण-बनिया लोग सबसे पहले जातीय अभिमान-स्वाभिमान-घमंड आदि नाम की जो मृग की खुद की कस्तूरी रुपी सुगंध का नशा होता है उसको बचपन में ही साइड में रखना सिखाते हैं, मैनेज करना सिखाते हैं| जबकि जाट व् इसके जैसी जातियों इसकी कमी है| और वजह होती है इसको लेकर इच्छाशक्ति ना होना| 'देख ल्यांगे', 'देखी जागी', 'के बिगड़े सै' टाइप वाला ऐटिटूड, जो कि खुद की कस्तूरी रुपी सुगंध वाले जातीय अभिमान को मैनेज करने की इच्छाशक्ति नहीं होने के चलते आता है|

यह जातीय अभिमान, घमंड में तब्दील हो जाए इसके लिए विरोधी प्रोपेगंडा भी करते हैं; ताकि आप इसके घमंड में ही उलझे रहें और वह अपनी राहें आसान करते चले जाएँ| इन समाजों में इन प्रोपेगंडा व् इनको रचने-बचने वालों के पास क्या हल होते हैं, शायद कुछ भी नहीं? यह प्रोपेगंडा खेत में बिना बाद की खड़ी फसल पर आवारा जानवरों द्वारा हमला करने जैसा होता है| यह बाड़ कौन करेगा? आखिर क्यों फसल तक की बाड़ करने की सूझ-बूझ-हिम्मत-जज्बा रखने वाले लोग, जातीय स्वाभिमान को सॉफ्ट-टारगेट नहीं बनने देने बारे बाड़ क्यों नहीं करते या कर पाते? जवाब अमूमन मृग की कस्तूरी वाला ही है|

2) ब्राह्मण-बनिया लोग इस कस्तूरी रुपी नशे को अपनी जाति के लिए नाम-प्रसिद्धि-संसाधन-सत्ता-पावर को पीढ़ी-दर-पीढ़ी जोड़ते चले जाने में लगाते हैं| इसकी जरूरत इनको जातीय अभिमान की कस्तूरी के नशे में टूलने से ज्यादा सिखाई जाती है इसलिए यह जातीय प्रेम पर किसी भी अन्य जाति से ज्यादा संगठित होते हैं| ना होते हों तो बता दो| और इनकी इन क्वालिटीज़ का मैं कायल भी हूँ|

और क्या कहूं| फ़िलहाल इतना ही बहुत| लेख का निचोड़ यही समझिये कि जातीय प्रेम की सुगंध रुपी कस्तूरी के नशे से पार पाईये! इसके नशे में चढ़ टूलने, रिफल्ने, बिफरने या बिगोने की जरूरत नहीं होती अपितु इसको सही दिशा में प्रयोग करने की और चलना चाहिए|

इस नशे से पार नहीं पाने की स्थिति में विरोधी के हमले होने पर आप डिफेंसिव होते हो और डिफेंसिव हुए तो समझो सॉफ्ट-टारगेट हुए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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