Thursday 7 March 2019

आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है, कुछ "खाप-खेड़ा-खेत" कल्चर में महिलाओं व् उनके स्थान बारे बतला लें!

मैं जाट हूँ, मैं हरयाणवी भी हूँ और मेरी एक खाप भी है| गठवाला (मलिक) खाप, हिंदुस्तान की सबसे बड़ी खाप| ऐसी खाप जिसके गढ़ गज़नी से ले लिसाढ़-शामली तक गढ़-गढ़ी-खेड़े-खेड़ी-किस्से-कहानी बिखरे पड़े हैं|
अब पढ़ क्या रहे हो? पढ़ के डरो मुझसे| क्योंकि एक तो मैं जाट, ऊपर से हरयाणवी और सबसे बिघन की बात "खाप वाला जाट"; खाप यानी खौफ?

माफ़ करना परन्तु तुमको नेशनल मीडिया से ले, तथाकथित एनजीओ, तथाकथित गोल बिंदी गैंग, तथाकथित जाट बनाम नॉन-जाट, तथा कथित 35 बनाम 1, तथाकथित फंडी-पाखंडियों ने जाट-खाप-हरयाणा इन तीन शब्दों से दशकों से डराया ही इतना जो हुआ है! अरे सिर्फ तुम क्या, आधे से ज्यादा तो खुद जाट इन तीनों पहचानों से परेशान हैं| इतने परेशान कि बहुतेरे तो खुद को जाट ही कहने से घबराते हैं, बहुत से हरयाणवी शब्द से कन्नी काटते हैं और खाप शब्द तो बाजे-बाजे सुनना ही नहीं चाहते| और जहाँ मैं पहुँच चुका हूँ यानि पेरिस-लिल्ल-फ्रांस में, यहाँ बैठ के जाट-खाप-हरयाणा पे बात करूँ तो इसको पिछड़ापन कहने वाले भी बहुतेरे हैं कि देखो इस मूर्ख को, वहां बैठ के भी जाट-खाप-हरयाणा करता रहता है|

परन्तु मैं ठहरा जन्मजात प्रचारक| वर्णवादियों की तरह किसी से ना खुद को बड़ा बताता और ना किसी को छूत-नीच-गंवार कहता| बस प्रचार करता हूँ, इस जूनून की वजहें पूरा लेख पढ़ के समझ आएँगी| इसलिए पढ़ने लग तो गए ही हो 2-4-5 मिनट लगा के अंत तक पढ़ना|

बहुत बार सोचा करता हूँ कि नेशनल मीडिया द्वारा इतना एंटी जाट-खाप-हरयाणा प्रचार के बावजूद भी आज के दिन सारे भारत के हर कोने की ओर से कामगारों-मजदूरों-रेफुजियों-शरणार्थियों-व्यापारियों का माइग्रेशन इसी "जाट-खाप-हरयाणा" की छाप से बाहुल्य धरा की तरफ है| कमाल है मीडिया इनको इनसे इतना डराता है और यह फिर भी यहीं खिंचे चले आते हैं? तो कुछ तो है जालिम इस "जाट-खाप-हरयाणा" में कि ऊपर गिनाए आधा दर्जन-भर से ज्यादा इन शब्दों से नफरत वालों के बावजूद भी हर कोई इन्हीं की तरफ खिंचा चला आता है| तो ऐसा क्या माद्दा-जज्बा है यहाँ कि यह धरती सबको आसरा देती है, उनको भी जो कभी टीवी के डब्बों में तो कभी सामाजिक नफरतों में "जाट-खाप-हरयाणा" को पानी पी-पी के कोसते हैं?

बस ओये फूल कुमार बहुत हो चुका, अब पाठकों को मुद्दे की बात पर ले आ| और बता तेरे यहाँ हॉनर किलिंग, भ्रूण हत्या आदि की बदनामी के अलावा औरतों के नाम पर कुछ पॉजिटिव भी है या नहीं? तो चलिए आज "अंतराष्ट्रीय महिला दिवस" के अवसर पर जानते हैं कि इस "खाप-खेड़े-खेत" में औरतों के लिए मुस्कराने व् गर्व करने जैसा क्या है|

यूरोप में एक कहावत है कि जेंडर न्यूट्रैलिटी (यह लोग औरत को देवी या दुर्गा कहने की कभी नहीं कहते, बस उसको अपने बराबर मान लो वही बहुत है) जितनी ज्यादा रखोगे उतने समर्थ-समृद्ध और शालीन बनोगे| अब सोचोगे कि "जाट-खाप-हरयाणा" और "जेंडर न्यूट्रैलिटी"; क्यों मजाक करते हो साहेब|

मजाक नहीं, दावा भी नहीं परन्तु इतना कहैबा जरूर करूँगा कि जो कोई हिंदुस्तान में यह दावा करता हो कि हिंदुस्तान में उनके समाज-समूह-राज्य में सबसे ज्यादा जेंडर न्यूट्रैलिटी है या रही है, वह "जाट-खाप-हरयाणा" वाले समाज में औरत बारे एक बार यह नीचे लिखे पहलु जरूर पढ़ लें|

वैसे आगे बढ़ने से पहले मैं "जाट-खाप-हरयाणा" शब्दों को "खाप-खेड़ा-खेत" यानि "उदारवादी जमींदारी, दादा नगर खेड़ा व् सर्वधर्म सर्वजातीय सर्वखाप" टर्मिनोलॉजी से बदल कर इस लेख की असली आत्मा में जाना चाहूंगा| दरअसल "जाट-खाप-हरयाणा" तो इसको मीडिया व् इसके एंटी लोगों ने बना छोड़ा है| अन्यथा यह है "खाप-खेड़ा-खेत" यानि "उदारवादी जमींदारी, दादा नगर खेड़ा व् सर्वधर्म सर्वजातीय सर्वखाप" का कल्चर|

तो यह रही हैं "खाप-खेड़ा-खेत" कल्चर में औरत के मान-सम्मान-स्थान-किरदार-हैसियत-हस्ती की स्वर्णिम बातें-रीतें-रवाजें:

1) धोक-पूजा-पुजारी का विभाग शुद्ध रूप से है ही औरतों का इस कल्चर में: दादा नगर खेड़ा (दादा भैया, गाम खेड़ा, ग्राम खेड़ा आदि) में मूर्ती नहीं होती, पूर्वजों को ही भगवान माना है इस कल्चर ने| इन खेड़ों में कोई पुजारी नहीं होता| दिया-ज्योत सब औरतें करती हैं, खुद करती हैं| यहाँ तक कि मर्दों को बच्चे से वयस्क और वयस्क से ब्याहता होने तक के तमाम मुख्य पड़ावों पर मर्द की पूजा (धोक मारना) तक औरत करवाती हैं| है ना गजब की बात? पूरे विश्व में यह इतनी सुंदर परम्परा व् औरत के महत्व की बात मैंने तो आज तक नहीं देखी| और यही वजह रही कि यहाँ कभी देवदासी कल्चर नहीं मिलता| क्योंकि पूजा-धोक आदि के कार्य में पुरुष ने कभी दखलंदाजी ही नहीं करी इस कल्चर में| परन्तु जहाँ-जहाँ करी वहां देख लो दक्षिण-पूर्वी-मध्य भारत में देवदासियों से ले प्रथमव्या व्रजसला की सामूहिक सीलभंग के रिवाज जैसी कितनी घिनौनी हरकतें होती हैं धर्मस्थलों के गृभगृहों में| और हमारे पुरखे पुरुष को पुजारी बनाने के यह नेगेटिव पहलु जानते थे इसीलिए कभी दादा खेड़ों की पूजा पुरुष के सुपुर्द नहीं की बल्कि आज भी यह महिलाओं के ही हाथ में है|

2) माँ का सरनेम (गौत) औलाद का सरनेम हो सकता है: और पूरे विश्व में यह अद्भुत सिस्टम इस "खाप-खेड़ा-खेत" वाले कल्चर वालों के यहाँ पाए जाने वाले "ध्याणी-देहल की औलाद" व् "दादा नगर खेड़ा के जेंडर न्यूट्रैलिटी" नियम के तहत होता है| बताओ और कहीं होता हो तो पूरे हिंदुस्तान तो क्या विश्व तक में?

3) स्वेच्छा से विधवा पुनर्विवाह अथवा दिवंगत पति की सम्पत्ति पर आजीवन बसे रहना: यह बात अपनी विधवा बेटी-बहुओं को उसके दिवंगत पति की प्रॉपर्टी से बेदखल कर वृन्दावन व् गंगा के घाटों वाले विधवा आश्रमों में भेजने वालों या विधवा को मनहूस बता ताउम्र काल-कोठरियों में गुजरवा देने वालों को जरूर अटपटी लगेगी| परन्तु यह होता है "खाप-खेड़ा-खेत" कल्चर में| और यह होता है "शादी से पहले बेटी का हक बाप के और शादी के बाद पति के" नियम के तहत| शादी के बाद पति का हक वाकई में उसका रहता है फिर चाहे पति पहले मर जाए या बाद में| मेरे कुनबे-ठोले में मेरी चार काकी-ताइयाँ ऐसी हैं जो विधवा होते हुए भी स्वेच्छा से पुनर्विवाह नहीं करते हुए, अपने दिवंगत पतियों की प्रॉपर्टी पर शान से बसती हैं| कोई माई का लाल उनको उनके पतियों की सम्पत्ति से बेदखल कर विधवा आश्रमों में बिठवाने की कह के तो दिखा दे, जो ना खाल तार लें तो साले की|

4) तलाक का गुजारा भत्ता: हिंदुस्तान में तो तलाक पर गुजारे भत्ते हेतु कानून 2014 में आया परन्तु इस कल्चर में "दो जोड़ी जूती व् नौ मण अनाज" के नियम के तहत यह कानून सदियों से चलता आया| तो सोचो जो कल्चर तलाक के बाद भी औरत के हक-हलूल बारे सदियों पहले से जागरूक रहा हो, उसमें औरत का सम्मान किस दर्जे का रहा है? और ये काल के कुतरु, 2014 में इस पर कानून बनवा के औरतों के अधिकारों के मसीहा बनने को फिरते हैं और चले आते हैं इस कल्चर को औरत के हक-हलूल सिखाने| यह तो मेरी दादी वाली वही बात हो गई कि "छाज तो बोले, छालणी भी क्या बोले जिसमें बहतर छेद"|

5) गाम-गौत-गुहांड की बेटी सबकी बेटी (यह जट्टचरयता का नियम है): कोई कहता है कि ब्रह्मचारी रहने हेतु औरतों से दूर रहो, ब्रह्मचर्यता करो; कोई कहता है कि गुरुकुलों में रहो; परन्तु "गाम-गौत-गुहांड" का नियम यानि जट्टचरयता कहता है कि समाज में रहते हुए जट्टचारी रहो और बस मुझे निभा दो, संयम-सामर्थ्य-संकल्प-साहस सब सहसा ही आ जायेगा| बताता चलूँ कि ऐतिहासिक वजहों से कई गाम ऐसे भी हैं जो गौत को छोड़ते हैं, गाम व् गुहांड को नहीं| तो कह रहा था कि जरूरत ही नहीं कान फड़वाने या दर-दर मंगता बनने की| बस गौत भी छोड़ दो, गुहांड-गाम छोड़ दो तो और भी बढ़िया| बाकी, कृपया हमारे इस नियम को योगी आदित्यनाथ के "एंटी रोमियो स्क्वैड" या "बजरंगदल" वालों से मत तोलना| क्योंकि "गाम-गौत-गुहांड" छोड़ के सबसे ज्यादा लव-मैरिज हमारे यहाँ ही होती हैं| चार लव मैरिज तो मेरे ही परिवार में हैं| दो और होती, परन्तु उनके अपने गलत व् जल्दबाजी भरे चुनाव के चलते सिरे नहीं चढ़ पाई| हाँ तो अब चार लव मैरिज कह दी तो क्या सबकी लव-मैरिज ही हो जाएगी, कोई गलत चॉइस करेगा तो पीछे भी हटना पड़ जाता है|

बाकी यह भ्रूण-हत्या जैसी चीजें सब एक्स-रे व् अल्ट्रा साउंड की मशीनें आने के बाद के चोंचले हैं| मेरी आठ बुआ हैं, मेरे बाप-काका-ताऊ-फूफा-मामा वाली पीढ़ियों में सबकी 5-5, 6-6 बहनें हैं| तो बताओ पुराने जमाने में किधर थी भ्रूण हत्या या बेटियों को जिन्दा होते ही मारने की रवायतें? यह सब अभी के नए चोंचले हैं और वह भी तथाकथित पढ़े लिखों के ज्यादा|

अक्सर महसूस करता हूँ कि "जाट-खाप-हरयाणा" में औरतों इतनी ज्यादा दुखी या प्रताड़ित होती जितनी कि इनकी एंटी-ताकतें दिखाती हैं तो प्रकृति ही नहीं बनाती इस धरा को इतना समृद्ध व् हरा-भरा|

बिंदु-पहलु और भी बहुत हैं, परन्तु लेख बड़ा ना हो जाए इसलिए यहीं विराम ले रहा हूँ| इस लेख का उद्देश्य ध्यान में रखते हुए हरयाणा में औरतों की बुरी दशाओं बारे किसी अन्य लेख में लिखूंगा| आशा करता हूँ कि लेख को पढ़ना सार्थक रहा होगा| आपको आपकी कल्चर बारे सुखद अहसास व् गर्व अनुभव करने की बातें जानने को मिली होंगी|

बस एक चीज सीखी जगत में, कल्चर से मत भटको; भटके तो खुद को यूँ जानो ज्यूँ बिना पते की चिठ्ठी| फिर चाहे गाम में रहो, शहर में या विदेश में; अपने कल्चर को अपनी पहचान को ओढ़ के चलो| रोजगार-व्यापर आदि के चलते जरूरत पड़े तो नफरत करने वालों को इसे मत दिखाओ, बेशक उनसे छुपा के रखो परन्तु दिल-आत्मा-दिमाग में सजा के रखो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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