याद करो वह कातक-नहाने जाने के जमाने, घणी दूर घणे पीछे ना गए वो दिन| अपनी बुआ-भाहणों से ही पूछ लो; डोगे-खंडके-धोती-कुडते-जूती वाले मर्दों व् दामण-चूंडा-चुंदड़ी वाली लुगाइओं का वह कल्चर जिसमें सुबह के 4 बजे गाम की छोरियों-सुवासनों-कोरों के टोल-के-टोल गाम के कुए-जोहड़ों पर नहाने जाया करते और क्या मजाल कि एक लोछर-लफंगा भी उधर पैड तक मार ज्याता? असल तो 99% मर्द इतने अनुशासित होते थे बुड्ढे-बडेरों द्वारा कि कोई देर-सवेर खेत से पानी लगा के लौट भी रहा होता तो वह रास्ते छोड़ के आया करते जिन रास्तों गाम की कौरें नहाया करती अन्यथा तो खाप व् पंचायतें खाल उतार लिया करती गुस्ताखी करने वाले की| फैसले भी एक सिटींग में ही दिया करते, ताबड़-तोड़ दूध का दूध और पानी का पानी करके; कोई तारीख-पे-तारीख सिस्टम नहीं था|
और आज, आज तुम्हारी अपने कल्चर के प्रति नीरसता व् उदासीनता ने वह आलम बना दिए हैं कि 15-20 साल के नवयुवा पीढ़ी के बालकों को तो यह बात पढ़ना ही सपना लगती होगी कि क्या ऐसा भी होता था हमारे ही यहाँ वह भी मात्र एक-डेड पीढ़ी पहले ही? होता था युवाओ, बैठो अपने बाप-दादे, माँ-दादियों के पास और जानो इन बातों बारे कि वह क्या तरीके थे, वह क्या सिस्टम थे; जो इंसान में इतना संयम, इतनी शर्म, इतनी हया भरते थे कि पता होते हुए भी कि इस वक्त "गाम की कौरें जोहड़-कुओं पर नहा रही होंगी" तो उधर नहीं जाना; जबकि आज वालों को ऐसा होता पता लग जाए तो 90% का वहीँ जमघट लग जाए जैसे हालातों पर आ लिए तुम उन डोगे-खंडके-चूंडा-चुंदड़ी वालियों के वंश|
और यह ज्ञान किसी कथावाचक किसी ग्रंथ या किसी इन्हीं से संबंधित फिल्म या टीवी सीरियल में नहीं मिलेगा, मिलेगा तो अपने बडेरों के पास बैठ उनको सुनने से मिलेगा|
सोचो इस पर, कि किधर जा रहे हो?
"पापा की परी" बना के बेटियाँ पालने से उक्ता तो गए होंगे ना यह सब देख के? तो आ जाओ उसी ढर्रे पर जिसपे चल के थारी-म्हारी नाम में "कौर" टाइटल वाली बुआ-भाहँण दुष्ट-लंगवाड़े टाइप लोछरों की "डटिए रे मेरा तल्लाकी, देखूं कुणसी का दूध पिया होया सै" टाइप की दहाड़ में अगले का गोबर सा खिंडा दिया करती| जिगरा भरो जिगरा इनमें, जैसे हर कौर में होता था; फिकरा नहीं| याद है वह दादी समाकौर गठवाली, जिसने पूरी कौम हिला दी थी और उसकी अपील पर ही गठवालों के आह्वान पर सर्वखाप ने "कलानौर रियासत का किला ही मलियामेट कर दिया था"? किधर है वह समाज जो बेटी की एक आवाज पर रियासत-की-रियासत तोड़ फेंकता था, आज तो वैसे भी तुम्हारी ही चुनी हुई सरकार है; रियासतें तो फिर भी थोंपी हुई भी कही जा सकें परन्तु यह सरकार; यह तो तुमने ही चुनी हैं ना?
पर नहीं, शायद नहीं ही उठोगे क्योंकि तुमने खुद को व् अपने बच्चों को इन टीवी व् फिल्मों की काल्पनिक कल्पनाओं वाली मैथोलॉजिकल स्टोरीज में ढाल के "बेचारे लाचार परी व् परे" बनना सीख लिया है; सीख लिया है कि उदारवादी जमींदारी का कल्चर सबसे खड़ूस व् खराब होता है, इसलिए इससे दूर रहो चाहे खुद इसी से ही क्यों ना हो|
यह छुईमुई सी बना के पालने वाले कल्चर ना हमें फाबे और ना फबैं| यह देवी और परी मंदरों में धरी, दीवारों पर टंगी या टीवी सीरियल्स में चमकती सुथरी लागैं; गलियों में उतरते ही "कौर" बने बिना गुजारा नहीं|
और दूसरा इन लोछरों को सिंह बनाओ सिंह, "ओटडा कूद बन्दडे नहीं"|
और खुद भी आम-जिंदगी में ना सही तो तीज-त्योहारों-ब्याह-बारातों के मौकों पर ही सही परन्तु उन डेठे पुरखों वाले डोगे-खंडके-धोती-कुडते-जूती व् दामण-चूंडा-चुंदड़ी बाँध लिया करो, पहर लिया करो; ताकि बालकों को यह पता लगता रहे कि तुम्हारा असली-निग्र पिछोका क्या रहा है| जब बंगाली-बिहारी-पंजाबी-मराठी-तमिल-तेलुगु सब अपने ट्रेडिशनल बाणे ओढ़ैं-पहरें ऐसे मौकों पर तो थमने के मौत आ रही सै अक थम हरयाणवी कीमें न्यारे उतरे हो ऊपर तैं?
जय दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर!
गाम-गौत-गुहांड में छत्तीस-बिरादरी व् हर धर्म की बहन-बेटी-बुआ सबकी बहन-बेटी-बुआ होती है के संयम-शर्म-शालीनता भरे कल्चर पर वापिस आ जाओ समय रहते:
वरना फ़िलहाल तो हालात इतने बिगड़े हैं कि "ओटडे कूद बंदड़ों" के "घरवालों को नींद की गोली देने वाली बंदड़ियों" के साथ किस्सों पर हँसते हो, "अच्छा हुआ सालों के यहाँ" की फील ले के दम सा भरते हो या खामोश रहते हो| परन्तु यह ख़ामोशी और ज्यादा चली तो कल को बढ़ते-बढ़ते यह बातें इतनी बढ़ जाएँगी कि "हैदराबाद वाली प्रियंका वाला काण्ड" व् "दिल्ली वाला निर्भया काण्ड" उन चौधरियों के गली-मोहल्लों के भी हर चौक-चौराहों के किस्से होंगे जो बहन-बेटी-बुआ की इज्जत करते वक्त ना कभी धर्म देखते थे, ना वर्ण और ना जाति| एक वह पुरख थे जो 36 बिरादरी की गाम-गौत-गुहांड की बुआ-बहन-बेटी सबकी बुआ-बहन-बेटी के कालजयी नियम बनाते थे उनको पालते थे और एक हम-तुम हैं जिनको पड़ोस में क्या अच्छा या बुरा हो रहा है पर या तो ख़ामोशी ओढ़े होते हो या अगले का सही बुरा हुआ पे बदला सा उतरने की फील लेते हो| ऐसे कल्चर रेफुजियों-शरणार्थियों के होते हैं, खानाबदोशों के होते हैं; ठहरे हुए कुणबे-ठोलों के नहीं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
और आज, आज तुम्हारी अपने कल्चर के प्रति नीरसता व् उदासीनता ने वह आलम बना दिए हैं कि 15-20 साल के नवयुवा पीढ़ी के बालकों को तो यह बात पढ़ना ही सपना लगती होगी कि क्या ऐसा भी होता था हमारे ही यहाँ वह भी मात्र एक-डेड पीढ़ी पहले ही? होता था युवाओ, बैठो अपने बाप-दादे, माँ-दादियों के पास और जानो इन बातों बारे कि वह क्या तरीके थे, वह क्या सिस्टम थे; जो इंसान में इतना संयम, इतनी शर्म, इतनी हया भरते थे कि पता होते हुए भी कि इस वक्त "गाम की कौरें जोहड़-कुओं पर नहा रही होंगी" तो उधर नहीं जाना; जबकि आज वालों को ऐसा होता पता लग जाए तो 90% का वहीँ जमघट लग जाए जैसे हालातों पर आ लिए तुम उन डोगे-खंडके-चूंडा-चुंदड़ी वालियों के वंश|
और यह ज्ञान किसी कथावाचक किसी ग्रंथ या किसी इन्हीं से संबंधित फिल्म या टीवी सीरियल में नहीं मिलेगा, मिलेगा तो अपने बडेरों के पास बैठ उनको सुनने से मिलेगा|
सोचो इस पर, कि किधर जा रहे हो?
"पापा की परी" बना के बेटियाँ पालने से उक्ता तो गए होंगे ना यह सब देख के? तो आ जाओ उसी ढर्रे पर जिसपे चल के थारी-म्हारी नाम में "कौर" टाइटल वाली बुआ-भाहँण दुष्ट-लंगवाड़े टाइप लोछरों की "डटिए रे मेरा तल्लाकी, देखूं कुणसी का दूध पिया होया सै" टाइप की दहाड़ में अगले का गोबर सा खिंडा दिया करती| जिगरा भरो जिगरा इनमें, जैसे हर कौर में होता था; फिकरा नहीं| याद है वह दादी समाकौर गठवाली, जिसने पूरी कौम हिला दी थी और उसकी अपील पर ही गठवालों के आह्वान पर सर्वखाप ने "कलानौर रियासत का किला ही मलियामेट कर दिया था"? किधर है वह समाज जो बेटी की एक आवाज पर रियासत-की-रियासत तोड़ फेंकता था, आज तो वैसे भी तुम्हारी ही चुनी हुई सरकार है; रियासतें तो फिर भी थोंपी हुई भी कही जा सकें परन्तु यह सरकार; यह तो तुमने ही चुनी हैं ना?
पर नहीं, शायद नहीं ही उठोगे क्योंकि तुमने खुद को व् अपने बच्चों को इन टीवी व् फिल्मों की काल्पनिक कल्पनाओं वाली मैथोलॉजिकल स्टोरीज में ढाल के "बेचारे लाचार परी व् परे" बनना सीख लिया है; सीख लिया है कि उदारवादी जमींदारी का कल्चर सबसे खड़ूस व् खराब होता है, इसलिए इससे दूर रहो चाहे खुद इसी से ही क्यों ना हो|
यह छुईमुई सी बना के पालने वाले कल्चर ना हमें फाबे और ना फबैं| यह देवी और परी मंदरों में धरी, दीवारों पर टंगी या टीवी सीरियल्स में चमकती सुथरी लागैं; गलियों में उतरते ही "कौर" बने बिना गुजारा नहीं|
और दूसरा इन लोछरों को सिंह बनाओ सिंह, "ओटडा कूद बन्दडे नहीं"|
और खुद भी आम-जिंदगी में ना सही तो तीज-त्योहारों-ब्याह-बारातों के मौकों पर ही सही परन्तु उन डेठे पुरखों वाले डोगे-खंडके-धोती-कुडते-जूती व् दामण-चूंडा-चुंदड़ी बाँध लिया करो, पहर लिया करो; ताकि बालकों को यह पता लगता रहे कि तुम्हारा असली-निग्र पिछोका क्या रहा है| जब बंगाली-बिहारी-पंजाबी-मराठी-तमिल-तेलुगु सब अपने ट्रेडिशनल बाणे ओढ़ैं-पहरें ऐसे मौकों पर तो थमने के मौत आ रही सै अक थम हरयाणवी कीमें न्यारे उतरे हो ऊपर तैं?
जय दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर!
गाम-गौत-गुहांड में छत्तीस-बिरादरी व् हर धर्म की बहन-बेटी-बुआ सबकी बहन-बेटी-बुआ होती है के संयम-शर्म-शालीनता भरे कल्चर पर वापिस आ जाओ समय रहते:
वरना फ़िलहाल तो हालात इतने बिगड़े हैं कि "ओटडे कूद बंदड़ों" के "घरवालों को नींद की गोली देने वाली बंदड़ियों" के साथ किस्सों पर हँसते हो, "अच्छा हुआ सालों के यहाँ" की फील ले के दम सा भरते हो या खामोश रहते हो| परन्तु यह ख़ामोशी और ज्यादा चली तो कल को बढ़ते-बढ़ते यह बातें इतनी बढ़ जाएँगी कि "हैदराबाद वाली प्रियंका वाला काण्ड" व् "दिल्ली वाला निर्भया काण्ड" उन चौधरियों के गली-मोहल्लों के भी हर चौक-चौराहों के किस्से होंगे जो बहन-बेटी-बुआ की इज्जत करते वक्त ना कभी धर्म देखते थे, ना वर्ण और ना जाति| एक वह पुरख थे जो 36 बिरादरी की गाम-गौत-गुहांड की बुआ-बहन-बेटी सबकी बुआ-बहन-बेटी के कालजयी नियम बनाते थे उनको पालते थे और एक हम-तुम हैं जिनको पड़ोस में क्या अच्छा या बुरा हो रहा है पर या तो ख़ामोशी ओढ़े होते हो या अगले का सही बुरा हुआ पे बदला सा उतरने की फील लेते हो| ऐसे कल्चर रेफुजियों-शरणार्थियों के होते हैं, खानाबदोशों के होते हैं; ठहरे हुए कुणबे-ठोलों के नहीं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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