आज मेरी एक फेसबुक फ्रेंडलिस्ट में 4402 फ्रेंड्स शो हो रहे हैं (दूसरी प्रोफाइल पहले से ही 5000 की लिमिट पार कर 2900 फोल्लोवेर्स पर चल रही है):
4402 को देख, इस 4400 सीरीज से बचपन का कनेक्शन कुछ यूँ याद आया कि जिंद-गोहाना-सोनीपत, जिंद-ढिगाणा वाया निडाणा रुट पर हमारी स्टूडेंट लाइफ के वक्त चलने वाली लगभग तमाम बसों की नंबर सीरीज दिमाग में घूम गई|
जिंद-ढिगाणा वाया निडाणा रूट पर चलने वाली रोडवेज नंबर HR16 - 4408 याद हो आई| इसके ड्राइवर नेग से दादा लगते थे परन्तु भंडर उपनाम से फेमस थे, असली नाम महा सिंह था| इस बस की नाईट-ड्यूटी खुंगा-कोठी होती थी जबकि ढिगाणा में नाईट का बसेरा HR 16 - 4400 का होता था, ड्राइवर आते थे दादा भल्ले सिंह| इनकी ख़ास बात जो मुझे बहुत प्रभावित करती थी वह यह कि यह रोज सुबह बस के शीशे ऐसे धोते थे कि उनमें चमक ऐसे पलके मारती आती जितनी तो आप अपने वार्डरोब या बाथरूम के शीशों में ही ला सकते हो|
जिंद-गोहाना-सोनीपत रुट पर उन दिनों 4401, 4402, 4403, 4404 से ले 4410 व् 3881 से 3889 सीरीज की जिंद डिपो की बसें ख़ास चलती थी|
मुझे जिंद-ढिगाणा रुट का सबसे शरीफ व् नेक बालक होने का ख़िताब हासिल रहा रोडवेज व् जब प्राइवेट बस आई तो प्राइवेट ड्राइवर-कंडक्टरों से| मुंह पर नहीं कहते थे परन्तु एक बार छोटा भाई बसपास लेने गया तो कंडक्टर के पास उसको मेरा बसपास बना भी दिख गया (फोटो व् नाम देख के); तो बोला कि यह भी दे दो यह मेरे बड़े भाई का है| छोटा भाई स्टूडेंट लाइफ में थोड़ा नटखट रहा है, जिसके चलते कंडक्टर ने अचरज करते हुए कहा कि, "यह और तेरा भाई; कहाँ यह बस में सबसे शाँत व् सीधा रहने वाला और कहाँ तू बस की छत पर चढ़े बिना तेरा सफर पूरा नहीं होता और जब देखो तेरे हाथों में बिंडे-डंडे मिलते हैं'| यह किस्सा छोटे भाई ने खुद सुनाया था मुझे|
जब भी यह किस्सा याद आता है तो हँसी बन आती है चेहरे पर|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
4402 को देख, इस 4400 सीरीज से बचपन का कनेक्शन कुछ यूँ याद आया कि जिंद-गोहाना-सोनीपत, जिंद-ढिगाणा वाया निडाणा रुट पर हमारी स्टूडेंट लाइफ के वक्त चलने वाली लगभग तमाम बसों की नंबर सीरीज दिमाग में घूम गई|
जिंद-ढिगाणा वाया निडाणा रूट पर चलने वाली रोडवेज नंबर HR16 - 4408 याद हो आई| इसके ड्राइवर नेग से दादा लगते थे परन्तु भंडर उपनाम से फेमस थे, असली नाम महा सिंह था| इस बस की नाईट-ड्यूटी खुंगा-कोठी होती थी जबकि ढिगाणा में नाईट का बसेरा HR 16 - 4400 का होता था, ड्राइवर आते थे दादा भल्ले सिंह| इनकी ख़ास बात जो मुझे बहुत प्रभावित करती थी वह यह कि यह रोज सुबह बस के शीशे ऐसे धोते थे कि उनमें चमक ऐसे पलके मारती आती जितनी तो आप अपने वार्डरोब या बाथरूम के शीशों में ही ला सकते हो|
जिंद-गोहाना-सोनीपत रुट पर उन दिनों 4401, 4402, 4403, 4404 से ले 4410 व् 3881 से 3889 सीरीज की जिंद डिपो की बसें ख़ास चलती थी|
मुझे जिंद-ढिगाणा रुट का सबसे शरीफ व् नेक बालक होने का ख़िताब हासिल रहा रोडवेज व् जब प्राइवेट बस आई तो प्राइवेट ड्राइवर-कंडक्टरों से| मुंह पर नहीं कहते थे परन्तु एक बार छोटा भाई बसपास लेने गया तो कंडक्टर के पास उसको मेरा बसपास बना भी दिख गया (फोटो व् नाम देख के); तो बोला कि यह भी दे दो यह मेरे बड़े भाई का है| छोटा भाई स्टूडेंट लाइफ में थोड़ा नटखट रहा है, जिसके चलते कंडक्टर ने अचरज करते हुए कहा कि, "यह और तेरा भाई; कहाँ यह बस में सबसे शाँत व् सीधा रहने वाला और कहाँ तू बस की छत पर चढ़े बिना तेरा सफर पूरा नहीं होता और जब देखो तेरे हाथों में बिंडे-डंडे मिलते हैं'| यह किस्सा छोटे भाई ने खुद सुनाया था मुझे|
जब भी यह किस्सा याद आता है तो हँसी बन आती है चेहरे पर|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
No comments:
Post a Comment