स्थानीय हरयाणवी यानि दिल्ली-हरयाणा-वेस्ट-यूपी खासतौर से|
केजरीवाल दिल्ली में आये पूर्वोत्तर के दलित-महादलित-ओबीसी को यह बात समझाये रखने में कामयाब होते हैं कि बीजेपी-आरएसएस उन्हीं लोगों का समूह है, जिनके वर्णीय व् जातीय व्यवस्था के नश्लभेदी उत्पीड़न के चलते आप लोग मात्र बेसिक दिहाड़ी हेतु भी हरयाणा-पंजाब-दिल्ली-वेस्ट यूपी चले आते हो| इनको वोट देना मतलब उस व्यवस्था को यहाँ भी ले आना| मैंने अक्सर बहुत से हरयाणवी लीडर्स को भी यह बात कही है कि आप हरयाणा के पूर्वोत्तर के माईग्रेंट्स को यह बात समझाने में जिस दिन कामयाब हो गए, उस दिन बीजेपी-आरएसएस यहाँ एक सीट लेने तक को तो क्या किसी पोलिंग स्टेशन के आगे अपना बूथ लगाने तक को तरसेगी|
नोट कीजिये कि हरयाणा-पंजाब का कोई भी दलित-स्वर्ण मात्र बेसिक दिहाड़ी हेतु कभी इस क्षेत्र से बाहर गया हो, ढूंढें से भी ना मिले शायद| यहाँ पूर्वोत्तर के स्तर की वर्णीय व् जातीय ज्यादतियाँ कभी नहीं रही| यहाँ दलित हैं परन्तु महादलित नहीं| और यह सिर्फ इसलिए है क्योंकि पूर्वोत्तर में जमींदारी "सामंती यानि वर्ण-जाति भेद वाली चलती है" जबकि हमारे यहाँ खापों की खापोलॉजी के चलते जमींदारी उदारवाद वाली चलती आई, जिसमें "नौकर, नौकर नहीं बल्कि सीरी-साझी यानि काम का ही नहीं अपितु सुख-दुःख का भी पार्टनर माना जाता है, उसको नौकर नहीं अपितु नेग से बोला जाता है"| हाँ कुछ-एक प्रतिशत को यहाँ भी वर्णीय दम्भ का कीड़ा वक्त-बेवक्त डसता रहता है परन्तु ऐसे लोगों की संख्या कम है|
अब बात कल शाम रवीश कुमार, NDTV वाला की| वाले की जगह वाला इसलिए क्योंकि ज्यादा आदर इस इंसान को मैं दो वजहों से नहीं देता, एक तो खापों के बेवजह व् गैरजरूरी मीडिया ट्रायल्स की जब-जब बात आएगी, इस आदमी के प्रोग्राम्स ही सबसे ज्यादा मिलेंगे व् दूसरा इसलिए क्योंकि एक 1875 में आया था "जाट जी" व् "जाट देवता" कहता-लिखता गुजरात से; उसके इस सराहे का असर यह हुआ कि उसके पीछे-पीछे आज हर आर्य-समाजी गुरुकुल में कच्छाधारी गुर्गे घुस आये हैं| हो सके तो अपने पुरखों की दान की जमीनों पर उनके ही पैसों से बने गुरुकुलों से इनकी सेंधमारी रोकिये व् इनको आधुनिक स्कूल-कालेजों में तब्दील करवाने की मुहीम चलवाई जाए, ताकि यह अंधभक्ति-कटटरता-नफरत के अड्डे बनने से बचाये जा सकें|
खैर, रवीश कुमार यहाँ के स्थानीय लोगों (उसने सिर्फ जाट-गुज्जर का नाम लिया, जबकि यह उदारता यहाँ की सभी बिरादरियों में है) की जिस उदारता की बात कर रहा था वह इसी खापोलॉजी से आती है| अत: स्थानीय लोग प्रमोट करें अपनी इस उदारता को| मेरे जैसे कुछ-एक को तो दशक से ज्यादा हुआ इसको प्रमोट करते हुए; आप भी कीजिये|
और दूसरी उदारता जिसके चलते स्थानीय हरयाणवियों के यहाँ रवीश कुमार की बनिस्पद यहाँ के गामों तक में माईग्रेंट्स बेख़ौफ़ रहते-बसते हैं उसका मूल जिधर से आता है वह है खापों के पुरखों द्वारा, "धर्म-धोक-ज्योत" में पुरुष का प्रतिनिधित्व नहीं रखने से| हमारे पुरखों के बनाये "दादा नगर खेड़े" धाम देख लीजिये| वह पुरखे मानवता व् जेंडर सेंसिटिविटी के प्रति इतने उदार व् समझदार थे कि इन खेड़ों में मर्द-पुजारी का सिस्टम ही नहीं रखा और ना ही कोई मूर्ती रखी| धोक-ज्योत का 100% प्रतिनिधत्व औरतों को दिया जो कि आजतलक भी कायम है|
कई जगह प्रयास हो रहे हैं इन खेड़ों को मर्दवादी मर्द-पुजारी सिस्टम में ढालने के, कृपया इससे भी सावधान रहिये| औरत को जो 100% प्रतिनिधित्व दे धोक-ज्योत में ऐसी धार्मिक फिलोसोफी पूरे विश्व में सिर्फ और सिर्फ खापोलॉजी की उदारवादी व्यवस्था में ही देखने को मिली है मुझे आज तक| इसको बड़े ही अभिमान-स्वाभिमान व् आदर-मान के साथ सहेजे रखिये|
इसलिए इन दोनों उदारताओं यानि "उदारवादी जमींदारी के सीरी-साझी कल्चर" व् "दादा नगर खेड़ों की मर्द-पुजारी व् मूर्ती से रहित व्यवस्था" को जारी रखिये एक किनशिप की भाँति व् अग्रिम पीढ़ियों को इसको ज्यों-का-त्यों पास कीजिये| बल्कि अब इन दोनों कॉन्सेप्ट्स के चर्चे इतने व्यापक होने चाहियें कि कोई मस्ताया हुआ तो बेशक फंडियों के बकहावे में आवे परन्तु जानते-बूझते या नादानी में इनके फंडों में ना फंसे|
क्योंकि इस उदारता के साइड-इफेक्ट्स कभी ना भूलें:
साइड इफ़ेक्ट नंबर एक - पंजाब में हुआ जून 1984
साइड इफ़ेक्ट नंबर दो - हरयाणा में हुआ फरवरी 2016
साइड इफ़ेक्ट नंबर तीन - पुरखों की जमीनों पर बने गुरुकुलों में कच्छधारियों की घुसपैठ
इसलिए अपनी प्रसंशा सुनते रहिये परन्तु फिर सतर्क भी डबल रहिये|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
केजरीवाल दिल्ली में आये पूर्वोत्तर के दलित-महादलित-ओबीसी को यह बात समझाये रखने में कामयाब होते हैं कि बीजेपी-आरएसएस उन्हीं लोगों का समूह है, जिनके वर्णीय व् जातीय व्यवस्था के नश्लभेदी उत्पीड़न के चलते आप लोग मात्र बेसिक दिहाड़ी हेतु भी हरयाणा-पंजाब-दिल्ली-वेस्ट यूपी चले आते हो| इनको वोट देना मतलब उस व्यवस्था को यहाँ भी ले आना| मैंने अक्सर बहुत से हरयाणवी लीडर्स को भी यह बात कही है कि आप हरयाणा के पूर्वोत्तर के माईग्रेंट्स को यह बात समझाने में जिस दिन कामयाब हो गए, उस दिन बीजेपी-आरएसएस यहाँ एक सीट लेने तक को तो क्या किसी पोलिंग स्टेशन के आगे अपना बूथ लगाने तक को तरसेगी|
नोट कीजिये कि हरयाणा-पंजाब का कोई भी दलित-स्वर्ण मात्र बेसिक दिहाड़ी हेतु कभी इस क्षेत्र से बाहर गया हो, ढूंढें से भी ना मिले शायद| यहाँ पूर्वोत्तर के स्तर की वर्णीय व् जातीय ज्यादतियाँ कभी नहीं रही| यहाँ दलित हैं परन्तु महादलित नहीं| और यह सिर्फ इसलिए है क्योंकि पूर्वोत्तर में जमींदारी "सामंती यानि वर्ण-जाति भेद वाली चलती है" जबकि हमारे यहाँ खापों की खापोलॉजी के चलते जमींदारी उदारवाद वाली चलती आई, जिसमें "नौकर, नौकर नहीं बल्कि सीरी-साझी यानि काम का ही नहीं अपितु सुख-दुःख का भी पार्टनर माना जाता है, उसको नौकर नहीं अपितु नेग से बोला जाता है"| हाँ कुछ-एक प्रतिशत को यहाँ भी वर्णीय दम्भ का कीड़ा वक्त-बेवक्त डसता रहता है परन्तु ऐसे लोगों की संख्या कम है|
अब बात कल शाम रवीश कुमार, NDTV वाला की| वाले की जगह वाला इसलिए क्योंकि ज्यादा आदर इस इंसान को मैं दो वजहों से नहीं देता, एक तो खापों के बेवजह व् गैरजरूरी मीडिया ट्रायल्स की जब-जब बात आएगी, इस आदमी के प्रोग्राम्स ही सबसे ज्यादा मिलेंगे व् दूसरा इसलिए क्योंकि एक 1875 में आया था "जाट जी" व् "जाट देवता" कहता-लिखता गुजरात से; उसके इस सराहे का असर यह हुआ कि उसके पीछे-पीछे आज हर आर्य-समाजी गुरुकुल में कच्छाधारी गुर्गे घुस आये हैं| हो सके तो अपने पुरखों की दान की जमीनों पर उनके ही पैसों से बने गुरुकुलों से इनकी सेंधमारी रोकिये व् इनको आधुनिक स्कूल-कालेजों में तब्दील करवाने की मुहीम चलवाई जाए, ताकि यह अंधभक्ति-कटटरता-नफरत के अड्डे बनने से बचाये जा सकें|
खैर, रवीश कुमार यहाँ के स्थानीय लोगों (उसने सिर्फ जाट-गुज्जर का नाम लिया, जबकि यह उदारता यहाँ की सभी बिरादरियों में है) की जिस उदारता की बात कर रहा था वह इसी खापोलॉजी से आती है| अत: स्थानीय लोग प्रमोट करें अपनी इस उदारता को| मेरे जैसे कुछ-एक को तो दशक से ज्यादा हुआ इसको प्रमोट करते हुए; आप भी कीजिये|
और दूसरी उदारता जिसके चलते स्थानीय हरयाणवियों के यहाँ रवीश कुमार की बनिस्पद यहाँ के गामों तक में माईग्रेंट्स बेख़ौफ़ रहते-बसते हैं उसका मूल जिधर से आता है वह है खापों के पुरखों द्वारा, "धर्म-धोक-ज्योत" में पुरुष का प्रतिनिधित्व नहीं रखने से| हमारे पुरखों के बनाये "दादा नगर खेड़े" धाम देख लीजिये| वह पुरखे मानवता व् जेंडर सेंसिटिविटी के प्रति इतने उदार व् समझदार थे कि इन खेड़ों में मर्द-पुजारी का सिस्टम ही नहीं रखा और ना ही कोई मूर्ती रखी| धोक-ज्योत का 100% प्रतिनिधत्व औरतों को दिया जो कि आजतलक भी कायम है|
कई जगह प्रयास हो रहे हैं इन खेड़ों को मर्दवादी मर्द-पुजारी सिस्टम में ढालने के, कृपया इससे भी सावधान रहिये| औरत को जो 100% प्रतिनिधित्व दे धोक-ज्योत में ऐसी धार्मिक फिलोसोफी पूरे विश्व में सिर्फ और सिर्फ खापोलॉजी की उदारवादी व्यवस्था में ही देखने को मिली है मुझे आज तक| इसको बड़े ही अभिमान-स्वाभिमान व् आदर-मान के साथ सहेजे रखिये|
इसलिए इन दोनों उदारताओं यानि "उदारवादी जमींदारी के सीरी-साझी कल्चर" व् "दादा नगर खेड़ों की मर्द-पुजारी व् मूर्ती से रहित व्यवस्था" को जारी रखिये एक किनशिप की भाँति व् अग्रिम पीढ़ियों को इसको ज्यों-का-त्यों पास कीजिये| बल्कि अब इन दोनों कॉन्सेप्ट्स के चर्चे इतने व्यापक होने चाहियें कि कोई मस्ताया हुआ तो बेशक फंडियों के बकहावे में आवे परन्तु जानते-बूझते या नादानी में इनके फंडों में ना फंसे|
क्योंकि इस उदारता के साइड-इफेक्ट्स कभी ना भूलें:
साइड इफ़ेक्ट नंबर एक - पंजाब में हुआ जून 1984
साइड इफ़ेक्ट नंबर दो - हरयाणा में हुआ फरवरी 2016
साइड इफ़ेक्ट नंबर तीन - पुरखों की जमीनों पर बने गुरुकुलों में कच्छधारियों की घुसपैठ
इसलिए अपनी प्रसंशा सुनते रहिये परन्तु फिर सतर्क भी डबल रहिये|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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