पहर के दादी
का कुडता-दामण, मार के दादी की चूंदड़ी का ढाठा; जब तक 8-10
बैठकों/नोहरों/दरजवाजों/घेरों में 10-20 माणसां कै ज्योडे (रस्से) वाले
कोरड़े नहीं ठोंक आया करता, तब तक आपणी होळी पूरी नहीं मना करती|
कुणसे में हिम्मत है आज के दिन, जो ज्योडे वाले (लत्ते वाला नहीं) कोरडे गेल 4-4 घंटे भाभियों का आग्गा ले ज्या? मैं लिया करता| और वो भी भट्टा-भट्ट सर-कड़-टाँग हर जगह पै बरसा करते, पर मैदान छोड़ के नहीं भाज्जे कदे; अगली ए "यो तो पाक्की होई ब्यूच हो लिया" बोल के ज्योड़ा (कोरडा) बगा (फेंक) जाया करती|
दिन की शुरुवात होती थी, दादा मोलू जी के खरक वाले टिल्ले से| ट्रालियों में रख के गीली मिटटी और पानी के कनस्तर या ड्रम; सारा रास्ता पब्लिक को भिगोते आते| पिता जी ड्राइव कर रहे होते, अगर रस्ते में गीली मिटटी और पानी खत्म हो जाता और दादी-ताइयों के कहने पर भी बाबू ट्रॉली नहीं रोकता तो गीली मिटटी का आखरी लोंदा बाबू की कड़ में लगा करता| होली-फाग वाले दिन मैंने नहीं बाबू-काका-दादा-दादी-ताई कुछ भी देख्या, सब कुछ लपेटता चला करता| तो फिर बाबू को ट्राली रोकनी पड़ती, हम साथ लगते खेत से अपना रसद-पानी यानि गीली मिटटी व् पानी भरते और तब आगे चलते|
घर आते ही बेर-लड्डू-गुलदाना-बताशे-हलवा-खीर आदि खाते और निकल जाते फाग खेलने| कोई भाभी तो कती गऊ की जाई हुआ करती, कोरडा मारती तो इतना डरती हुई कि जैसे दर्द उसी को होगा| और एक आधी ऐसी कटखाणी आती कती पूंझड़ ठाई बुरकाई हुई म्हास की ढाल कि सब क्याहें का पानी सा पाडती चाल्या करती| और ऐसी-ऐसी के आगे हम हा के हया करते| हारे-चूल्हे की राख से ट्रीट किया हुआ स्पेशल पानी इनकी खुराक हुआ करता| हरयाणवी अंताक्षरी के गाने गा-गा बिन पिए ऐसा माहौल जमाया करते कि हमारा फाग देख रही काकी-ताई कहने लगती कि "यु जरूर पी रह्या है नहीं तो ज्योडे के कोरडे आगै इतना ठहर कौन जा"| जबकि उनको यह भली-भांति पता होता था कि इसका बाप इस मामले में कसाई है, जो पीने की पता लग गई तो घेसला खाल तार लेगा इसकी, परन्तु फिर भी अपना खेल उनसे यह बात कहलवा ही देता था कि जरूर पी रह्या होगा| बाकी सूं बलधा की जिंदगी में ड्रिंक ही नहीं करी कभी| तो हाँडीवारे तक, यही वाणे-बान्ने-न्योंदे से चल्या करते|
फिर घर आते, नहाते, खाते-पीते, थोड़ा रेस्ट करते और दादी की ड्रेस पहन के बन जाते, "फुल्ला इन ओल्हा" वाली भाभी| और फिर जुणसे-जुणसे खड़ूस टाइप काके-ताऊ हुआ करते, उनका लगता लपेटा| एक-आधा शरीफ भी फटफेडा चढ़ता| जब तक उनको समझ आती कि यू तो फूल सै और वो पकड़ा-पकड़ाई करने दौड़ते, इतनें में तो अगली बैठक की तरफ काक्कर काढ़ दिया करते|
इन्हीं लाइफटाइम सुनहरी यादों के साथ सबको होली-फाग की शुभकामनायें| पीना-पिलाना मत करना, होशो-हवास में खेली हुई होली की कोई होड़ नहीं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
कुणसे में हिम्मत है आज के दिन, जो ज्योडे वाले (लत्ते वाला नहीं) कोरडे गेल 4-4 घंटे भाभियों का आग्गा ले ज्या? मैं लिया करता| और वो भी भट्टा-भट्ट सर-कड़-टाँग हर जगह पै बरसा करते, पर मैदान छोड़ के नहीं भाज्जे कदे; अगली ए "यो तो पाक्की होई ब्यूच हो लिया" बोल के ज्योड़ा (कोरडा) बगा (फेंक) जाया करती|
दिन की शुरुवात होती थी, दादा मोलू जी के खरक वाले टिल्ले से| ट्रालियों में रख के गीली मिटटी और पानी के कनस्तर या ड्रम; सारा रास्ता पब्लिक को भिगोते आते| पिता जी ड्राइव कर रहे होते, अगर रस्ते में गीली मिटटी और पानी खत्म हो जाता और दादी-ताइयों के कहने पर भी बाबू ट्रॉली नहीं रोकता तो गीली मिटटी का आखरी लोंदा बाबू की कड़ में लगा करता| होली-फाग वाले दिन मैंने नहीं बाबू-काका-दादा-दादी-ताई कुछ भी देख्या, सब कुछ लपेटता चला करता| तो फिर बाबू को ट्राली रोकनी पड़ती, हम साथ लगते खेत से अपना रसद-पानी यानि गीली मिटटी व् पानी भरते और तब आगे चलते|
घर आते ही बेर-लड्डू-गुलदाना-बताशे-हलवा-खीर आदि खाते और निकल जाते फाग खेलने| कोई भाभी तो कती गऊ की जाई हुआ करती, कोरडा मारती तो इतना डरती हुई कि जैसे दर्द उसी को होगा| और एक आधी ऐसी कटखाणी आती कती पूंझड़ ठाई बुरकाई हुई म्हास की ढाल कि सब क्याहें का पानी सा पाडती चाल्या करती| और ऐसी-ऐसी के आगे हम हा के हया करते| हारे-चूल्हे की राख से ट्रीट किया हुआ स्पेशल पानी इनकी खुराक हुआ करता| हरयाणवी अंताक्षरी के गाने गा-गा बिन पिए ऐसा माहौल जमाया करते कि हमारा फाग देख रही काकी-ताई कहने लगती कि "यु जरूर पी रह्या है नहीं तो ज्योडे के कोरडे आगै इतना ठहर कौन जा"| जबकि उनको यह भली-भांति पता होता था कि इसका बाप इस मामले में कसाई है, जो पीने की पता लग गई तो घेसला खाल तार लेगा इसकी, परन्तु फिर भी अपना खेल उनसे यह बात कहलवा ही देता था कि जरूर पी रह्या होगा| बाकी सूं बलधा की जिंदगी में ड्रिंक ही नहीं करी कभी| तो हाँडीवारे तक, यही वाणे-बान्ने-न्योंदे से चल्या करते|
फिर घर आते, नहाते, खाते-पीते, थोड़ा रेस्ट करते और दादी की ड्रेस पहन के बन जाते, "फुल्ला इन ओल्हा" वाली भाभी| और फिर जुणसे-जुणसे खड़ूस टाइप काके-ताऊ हुआ करते, उनका लगता लपेटा| एक-आधा शरीफ भी फटफेडा चढ़ता| जब तक उनको समझ आती कि यू तो फूल सै और वो पकड़ा-पकड़ाई करने दौड़ते, इतनें में तो अगली बैठक की तरफ काक्कर काढ़ दिया करते|
इन्हीं लाइफटाइम सुनहरी यादों के साथ सबको होली-फाग की शुभकामनायें| पीना-पिलाना मत करना, होशो-हवास में खेली हुई होली की कोई होड़ नहीं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
No comments:
Post a Comment