देखना आज कैसे-कैसे फंडी (जो मुस्लिमों को रोज दफना के सोते है) मुस्लिमों पर प्यार बरसाते मिलेंगे, इनका यही नहीं पता कि यह कितने मुंहें सांप हैं| खैर इन मानवता के कलंकों को साइड में रखते हुए विश्व की तमाम मुस्लिम बिरादरी को रमादान मुबारक|
और मेरे गाम निडाना की उन चारों बिरादरियों कुम्हार-लुहार-तेली-मिरासी के मुस्लिम मेरे काके-दादे-भाई-भतीजों को खासकर मुबारक, जिनकी वजह से मेरे जैसों के घरों में मिटटी के बर्तन आते रहे, खेती के औजार आते रहे, तेली का निकाला तेल आता रहा| और वो दादी डूमणी जिसको हम आदर से "दादी सुरजे की डूमणी" कहा करते थे उस दादी को खासतौर से मुबारक| शायद वह दादी आज जिन्दा नहीं परन्तु जब भी आती थी तो जो आल्हे का झलकारा सा लगाती थी वो कच्चा-पक्का आज भी याद है| दादी कहती थी कि, "हो दादा घासी के पोते, हो गठवाले राजाओं के खूम, हो राजा, हो जजमान, थारे खेत-खेड़े बसदे लिकड़ो| बने रहो जजमान, खब्बीखान"| और मैं दादी को बार-बार कहता कि दादी तेरा तो पोता हूँ मैं, मुझे शर्मिंदा ना किया कर| तू हक से बोल क्या चाहिए|
गेहूं के पैर पड़ते ही मिरासी आया करते| कुछ-एक के तो नाम भी याद हैं मुझे, परन्तु लिखूंगा नहीं| उन्होंने मेरी खास पहचान की हुई थी| जिस खेत में गेहूं निकलवाने में मेरा डेरा होता था, वहां उनको पक्का आना होता था| क्योंकि मैं उनको तसले भर-भर अनाज डाल देता था| परन्तु उनके मांगने में फंडियों वाला छलावा नहीं होता था कि तुमसे ही लिया और तुम पे घुर्राया| कृतज्ञता होती थी हर एक में| और ये फंडी, इनके कितने ही हांडे से पेट भर देना, मौका लगते ही तुम्हारी पीठ पे वार करें ही करें|
मिरासियों के साथ विश्वास इतना बंधता है कि इतना तो महर्षि दयानन्द के लिखे-बोले "जाट जी" और "जाट देवता" शब्दों में नहीं बंधता| आदर में कम और छल में ज्यादा लिखे प्रतीत होते हैं ये शब्द| अब मैं क्या करूँ, तुम्हारी मार्किट वैल्यू ही तुमने यह बनाई है सदा से तो, और दूसरी तरफ देखो एक मुस्लिम दादी जाटों के आल्हे गाती थी तो वास्तविक प्रतीत होती थी|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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