Friday, 22 May 2020

ना आर्यसमाज का सम्पूर्ण विरोध व्यवहारिक है और ना ही अंधसमर्थन!

सम्पूर्ण विरोध करना, पुरखों की करी-कराई मेहनत उनको सौंप देना है जो गिद्द की भाँति आर्य समाज की लैंड-प्रॉपर्टी पर नजर गड़ाए बैठे हैं बल्कि घुसे भी हुए हैं| यह लैंड-प्रॉपर्टी रोज-रोज खड़ी नहीं हुआ करती| ऐतराज है मुझे भी इससे कि इसके अंदर फंडी व् सनातनी यानि मूर्ती-पूजक घुस आये हैं जिनको इनसे बाहर होना ही होना चाहिए| मंत्रणा इस पर होनी चाहिए कि इनको कैसे बाहर किया जाए और चीजों को अपने नियंत्रण में ले कर वह ठीक किया जाए जो आज के दिन इसमें गलत है, या इसको अपनाने के वक्त इसमें डाला नहीं गया या आगे की 100-50 साल की रणनीति क्या होनी चाहिए| किसी को इस नाम से ही दिक्कत है तो उसका भी सलूशन है कि पहले नियंत्रण में लें, उसके बाद गुड़गांवां का गुरुग्राम बनाना या गुड़गाम्मा, तुम्हारे हाथ की बात रहेगी| यह बिना दार्शनिकता का विरोध या तो असमर्थ किया करते हैं या विज़न से रहित किया करते हैं या परिस्तिथि को और ज्यादा तहस-नहस करके, लोगों को कंफ्यूज करके; बंदर की भांति गुड़िया को ऐसे तोड़मोड़ देते हैं कि ना तो वह किसी के काम की रहती अपितु गिद्दों के मंसूबे पूरे करने में और सहायक होती चली जाती है|

अंधसमर्थन करने से पहले:
1 - आर्यसमाज में कुछ ऐसी बातें हैं जो एक हांडी में दो पेट वाली तर्ज पर रही हैं, जैसे शहरों में डीएवी होना, गांव में गुरुकुल; डीएवी इंग्लिश मीडियम से होना, गुरुकुल संस्कृत व् हिंदी, डीएवी में कोएजुकेशन होना, गुरुकुल में लड़कों का अलग, लड़कियों का अलग| इसको ठीक किया जाए|
2 - आर्यसमाज की विचारधारा से ले इनकी लैंड-प्रॉपर्टी में सनातनियों की मूर्ती-पूजा कौन डाल रहा है, आर्य समाज के मूर्ती-पूजा रहित समाज के बेसिक कांसेप्ट के विरुद्ध? है किसी के पास इनको इन घुसपैठियों से बचाने का प्लान? सनद रहे सनातनी वो जो मूर्ती-पूजा करे, आर्यसमाजी वो जो मूर्तिपूजा ना करे|
3 - आर्यसमाज में स्थापना के वक्त नहीं डाली गई चीजें ठीक की जावें: जैसे मूर्तिपूजा रहित हमारा समाज 1875 से पहले भी था, उसका सबूत दादा नगर खेड़े, दादे भैये हैं हमारे| इसलिए अंधसमर्थक जो यह स्तुति करने लगते हैं कि आपके समाज में ज्ञान-विकास 1875 के बाद ही आई, वह अपनी नियत ठीक रखें अपने पुरखों के आध्यात्म के प्रति| यह वो गलती थी ऋषि दयानन्द की जिसका जहाँ क्रेडिट बनता था वह नहीं दिया, जबकि कांसेप्ट मूर्ती-पूजा रहित का दादा खेड़ों से चुपके से उठा लिया; कौन इंकार करेगा इससे? बात इस मिसिंग कनेक्शन को जोड़ने की होनी चाहिए व् साथ ही हमारा समाज सिर्फ मूर्तिपूजा रहित ही नहीं मर्द-पुजारी सिस्टम रहित भी रहा है, इसको जोड़िये यहाँ| 100% औरत को धोक-ज्योत का अधिकार जो समाज देता आया उसमें मर्द पूजा-पदाधिकारी घुसाने का इल्जाम तो है आर्यसमाज पर| कैसे ठीक करेंगे इसको या इसका कोई मध्यम रास्ता निकालेंगे, इसपे बात की जाए|
4 - जो लोग यह कहते हैं कि आर्यसमाज ने उनको मानवता सीखा दी, या सभ्यता बता दी; वह यह ना भूलें कि जब आर्यसमाज स्थापित हो रहा था जाट जैसा समाज "धौली की जमीन" के तहत जमीनें दे-दे ना सिर्फ ब्राह्मणों को रैन-बसेरे-रोजगार के साधन कर रहा था अपितु दलित से ले ओबीसी हर जाति को अपने यहाँ बसा रहा था और उससे बहुत पहले बसाता आया है, "दादा नगर खेड़े के खेड़े के गौत" के नियम के तहत| 95% जाट बाहुल्य गामों को यही कहानी है, किसी को बहम हो तो बात कर ले| यहाँ तक दर्जनों तो बनियों को जानता हूँ मेरे आज के सर्किल में, जिनके दुकान-फैक्ट्री जाटों के यहाँ से लिए उधार या कर्जे पे बसे-बने-चले| बेशक आज वो अरबो-कऱोड़ोंपति हों; परन्तु हर चार में से एक बनिये की यह कहानी मिल जानी है, आज की पीढ़ी में नहीं तो दो-चार-पांच पीढ़ी पहले| इसलिए रहम कीजिये अपने पुरखों में मानवता-सभ्यता डालने का सारा क्रेडिट आर्यसमाज को देने बारे| यहाँ ऐसे-ऐसे साहूकार जाट रहे हैं जिनके घरों में पंडतानी ब्राह्मणी औरतें रसोई का रोटी-टूका-बर्तन करने आती रही हैं| इसमें पहला उदाहरण तो खुद मेरा बड़ा नानका रहा है| चाटुकारिता व् स्वभिमानहीनता की हद पर मत उतरिये|
5 - इस बात में कोई दो राय नहीं कि आर्यसमाज जाटों को सिखिज्म में जाने से रोकने हेतु मनाने हेतु लाया गया था, वरना यह गुजरात-महाराष्ट्र-बॉम्बे में क्यों नहीं फैला, जहाँ के कि खुद ऋषि दयानन्द थे? यह उसी इलाके में क्यों फैला जहाँ सिखिज्म बढ़ रहा था और जाट उसमें जा रहे थे?

अत: यहाँ इस बात को इस अहम-डिग्निटी से जोड़ के देखिये कि वह ब्राह्मण जो धोक-पूजा की मोनोपोली में किसी को ऊँगली भी नहीं धरने देता, उसने इसमें जाटों की हिस्सेदारी स्वीकार की| स्वीकार ही नहीं की अपितु ब्राह्मण की सनातनी परम्परा के समानांतर जाट की मूर्ती-पूजा रहित दादा नगर खेडाई (1875 के बाद आप इसको आर्य-समाज कह सकते हैं) स्वीकारी| यह डिग्निटी थी हमारे पुरखों की कि यहाँ रहे भी तो इस डिग्निटी के साथ कि ब्राह्मण हमारे धोक-पूजा-कर्मकांड-हवन-यज्ञ में दखल नहीं देगा| जिसमें कि आज के दिन हद दर्जे से ऊपर तक जा के हो रहा है|

अगर खुद को अपने पुरखों से स्याना-बेहतर-जागरूक व् क्रांतिकारी समझते हो तो इसको रोकने पर व् पुरखों की वह डिग्निटी यानि अणख कायम रखवाने पर काम होना चाहिए| जिसपे मैं और मेरे जैसे बहुत से भाई चुपचाप दिनरात लगे रहते हैं| और गजब देखिये हमारी पोस्टों पर कभी ऐसे विरोधाभाष भी नहीं होते, हम इस स्टाइल से काम कर रहे हैं| क्योंकि हमें काम करना है, हमें जो चाहिए वो पाना है| आप भी हासिल पे ध्यान दिजिये, मात्र हस्तक्षेप पर नहीं; बल्कि हस्तक्षेप करने वाले तो आर्यसमाज से बाहर निकालने हैं या निकलवाने हैं| ऐसे ही और बिंदु है इस लेख के शीर्षक के दोनों भागों के लिए, वह फिर कभी|

और हाँ 1937 के आर्य मैरिज एक्ट में सिर्फ इतना है कि आप अंतर्जातीय व् अंतरधर्म विवाह कर सकते हो, उसमें यह कहीं नहीं लिखा कि आप एक गाम या एक गौत में भी ब्याह कर सकते हो| ऐसा होता तो उस वक्त सर छोटूराम की सरकार थी यहाँ वह नहीं होने देते| इतना भरोसा रखिये अपने उस पुरखे पर| समझ नहीं आती कि अपने बेसिर-पैर के प्रोपगैण्डे आगे करते-करते कब उसी व्यक्ति के राज में हुई चीजों (यह आर्य मैरिज एक्ट इस केस में) पर ही उँगलियाँ उठाने लग जाते हैं जिसको अपने मिशन का फिगर व् आइडियल पुरुष बना कर चले हुए हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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