Friday, 29 May 2020

छोटा-मोटा कैपिटलिस्ट (Capitalist) मैं भी हूँ परन्तु एथिकल कैपिटलिस्ट हूँ मैं!

बचपन से बाप-दादा को मुनीम के जरिये मेरे घर में काम करने वाले सीरियों (वर्णवादयुक्त सामंतवादी जमींदारी में जिसको नौकर कहते हैं, हमारी वर्णवादमुक्त उदारवादी जमींदारी में उसको सीरी कहते हैं), के सीर बही में चढ़वाते देखते हुए जो बड़ा हुआ वो छोटा-मोटा कैपिटलिस्ट हूँ मैं; परन्तु एथिकल यानि नैतिक व् मानवीय कैपिटलिस्ट हूँ मैं| क्योंकि जो बही में रकम लिखी सिर्फ उतना नहीं बल्कि सीरी का तीन जून का खाना, वक्त-वक्त पर अपने खेतों का हरा चारा, लकड़ी, बणछटी, तूड़ा, अनाज, दूध तक से अपने सीरी के परिवार को सहारा देना सीखा और आज भी दस्तूर जारी है| भीड़ पड़ी में सीरियों की बहन-बेटियों के ब्याह-वाणे अपनी सगियों जैसे निबटवाने का दस्तूर है मेरे कैपिटलिज्म में| दरअसल यह जो कैपिटलिज्म खापलैंड के ग्रामीण आँचल का है मेरा परिवार तो उसको बताने का एक जरिया मात्र है अन्यथा खापलैंड का 90% उदारवादी जमींदार (10% वर्णवादी बुद्धि से ग्रसित वालों के लिए अपवाद स्वरूप छोड़ रहा हूँ) ऐसा ही कैप्टिलिस्ट होता है| सीरी तो सीरी बाप-दादाओं के वक्तों में तो घर के कुम्हार-लुहार-नाई-खाती-तेली-झीमर आदि तकों की बेटियों के ब्याह-वाणे ओटदे रहे उन उदारवादी जाट-जमींदारों के कल्चर का एक छोटा सा चिराग हूँ मैं| यह 35 बनाम 1 व् जाट बनाम नॉन-जाट तो 2016 की कहानी हैं, इससे पहले न्यूतम 2016 सालों से जो एथिकल कैपिटलिज्म पालता आया वह पिछोका है मेरा|

बचपन से जो अपने यहाँ पूर्वांचल-बिहार-बंगाल-झारखंड-नेपाल तक से मजदूर गेहूं कटाई, धान रोपाई, डंगर चराई व् वेस्ट यूपी से अधिकतर मुस्लिम मजदूर गंडा (गन्ना) छुलाई के लिए आते देखे, वह सब आते वक्त भी एडवांस पेमेंट ले के आते देखे और जाते वक्त भी एडवांस पेमेंट ले के जाते देखे| बाप-भाई रेलवे स्टेशंस पर से लाते देखे तो खैर-ख्व्वहा-खैरियत से रेलों में बैठा के भी आते देखे| एक-दो बार खुद लाने व् छोड़ने गया हूँ| सीजन खत्म होने पे वापिस जाते वक्त गाड़ी में बैठते हुए बिहारी मजदूर यह कहते हुए कि "बाबू जी, अगली बार किसी और टोली को मत बुलाइयेगा, हम ही आएंगे आपके यहाँ" कहते हुए मुझको यह तसल्ली देते हुए दिखे कि हमने हमारे कैपिटलिज्म को बड़ी नैतिकता यानि एथिक्स से निभाया तभी इन्होनें आगे की एडवांस बुकिंग की हमारे ही यहाँ की हमसे हाँ भरवाई|

यहाँ बता दूँ कि 100% दिहाड़ीदारप्रवासी मजदूर वहां के वर्णवादी सामंती जमींदारों के अत्याचार के सताये हुए आते हैं| मेरे घर आने वाली हर टोली से व्यक्तिगत रिसर्च के आधार पर कह रहा हूँ, सबने यही कहा कि हमारे यहाँ भूमिहार ब्राह्मण-ठाकुर हमें इज्जत से हमारा जायज भी कमाने दे तो हम क्यों आवें यहाँ; हमारे यहाँ क्या पानी की, नदियों की, उपजाऊ जमीन की हरयाणा-पंजाब से कमी है? कमी है तो इंसानियत की जो कि धरती की सबसे घटिया वर्णवादी व्यवस्था हमारे यहाँ पनपने नहीं देती| कहते थे मुझे सीधे की आप जाट-जमींदार बेशक खूंखार हो परन्तु इंसानियत में लाजवाब हो; बाबू जी अपनी इस इंसानियत को इन वर्णवादियों की चपेट से बचाये रखना, आपकी धरती यूँ ही पूरे इंडिया की सबसे सम्पन्न व् समृद्ध धरती रहेगी| वरना जिस दिन इन वर्णवादी गिद्दों की गिरफ्त यहाँ बढ़ी, समझ लेना बिहार-बंगाल से भी बड़ा उज्जड-बियाबाँ बना छोड़ेंगे ये यहाँ|

खैर, आज भी घर में कभी दो, कभी तीन सीरी रहते हैं, सब मुस्लिम हैं और वेस्ट यूपी के हैं; परन्तु बरतेवा इनसे भी एथिकल कैपिटलिस्ट्स वाला है|

मैं खुद छोटा-मोटा डिजिटल मार्केटिंग का बिज़नेस कर लेता हूँ, इससे पहले दो साल इ-कॉमर्स की वेबसाइट चलाई; जितनी भी दो-चार-पांच-सात वर्कफोर्स की जरूरत या रहती आई, सबको यही ट्रीटमेंट दिया जो घर-आंगन से पुरखों से सीखा यानि एथिकल कैपिटलिस्ट वाला|

बाबा नानक ने जो सच्चा सौदा 1469 में किया था मेरे कल्चर के पुरखे यह सच्चा सौदा "गाम-गुहांड में सर्वधर्म-सर्वजाति का कोई इंसान भूखा-नंगा नहीं सोना चाहिए" के नियम के तहत कईयों 1469 सालों से पालते आये; इसीलिए जब भी बाबा नानक बारे सोचता हूँ तो यही पाता हूँ कि सिख बनने से पहले बाबा जी जिस भी परिवार-कल्चर से रहे होंगे जरूर मेरे वाले इस "एथिकल कैपिटलिज्म" वाले कल्चर जैसे ही रहे होंगे|

अभी हरयाणा के पांच-छह कोनों से, गामों व् दोस्तों से फीडबैक लिया कि हमारे यहाँ से कितना परदेशी मजदूर पलायन करके गया है कोरोना के चलते? तो जवाब आया कि उदारवादी जमींदार को छोड़ के कोई नहीं जाने वाला, 70% यहीं है हमारे पास| जो गया है वो शहरी फैक्ट्रियों-इंडस्ट्री वालों का गया है|

जानकर अहसास हुआ कि यूँ ही नहीं उदारवादी कहला गए मेरे कल्चर के पुरखे| पैसा जोड़ने के मामले में इतने बड़े कैपिटलिस्ट सोच के कि उनके पैसे जोड़ने के तरीकों के आगे मूंजी से मूंजी व् कसाई से कसाई भी शर्मा जाए| परन्तु फिर भी कभी जिंदगी में ऐसा मंजर नहीं दिखाया हमारे एथिकल कैपिटलिज्म ने खेतों के सीरियों से ले प्रवासी मजदूरों व् कॉर्पोरेट वर्कफोर्स को, जैसा यह वर्णवादी सामंती मानसिकता से ग्रसित अनएथिकल यानि अनैतिक-बेगैरत कैपिटलिज्म दिखा रहा है कि जो इनके घर-आंगन सींचने-पोछने से ले फैक्टरियों को चलाने वालों के लिए ना इनके पास इनको घर लौटने को देने हेतु पैसे हैं, ना साधन, ना सरकारों के नाक में डंडा कर इन लाचारों के लिए इनके घरों तक जाने का सुखद इंतज़ाम करवाने की कूबत तक उठाने का मर्म, 99% में नहीं|

दुनियां का सबसे खून-चूसने वाला कैपिटलिज्म है सामंती वर्णवादी मानसिकता वाला अनएथिकल कैपिटलिज्म| यह जितना जल्दी खत्म हो उतना इंडिया का उद्धार होगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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