मन की बात के लागदार जी, "3 नए कृषि बिलों के जरिए आपने किसान और सरकार के बीच से बिचौलिये नहीं निकाले अपितु सरकार निकाल दी है| और सरकार निकाल के किसान को बिचौलियों के बीच खुला डाल दिया है कि लो चूंट-नोंच लो इसको जितना चूंट-नोंच सको|"
अरे हे तथाकथित हिन्दू राष्ट्र के प्रहरी, हे तथाकथित राष्ट्रवाद के प्रणेता; आप राष्ट्रवाद तो छोडो धर्मवाद ही ढंग से निभाना सीख लो पहले? अपने ही धर्म के किसान पे कोई इतना जुल्म बरपाता है क्या कि उनकी आर्थिक सुरक्षा का कवच APMC ही हटाने चले हो?
हे वसुधैव कुटुंभ्कम के तथाकथित धोतक, जरा वसुधा के किसी कोने में यह तो दिखा दो कि, "यह किसानों से बिना पूछे, बिना कंसल्ट किये" वाले कृषि कानून कौनसे फलाँ देश में लगे देखे, जो यह वसुधा के उस कुटुम्भ की बात यहाँ लागू कर रहे हो? ईसाई धर्म के किसी देश में देखी या थारे मोस्ट फेवरेट enemy religion वाले मुस्लिम देश में देखी?
कोई ऐसा मुस्लिम या ईसाई देश नहीं जिसमें क्रमश: मौलाना-मौलवी व् पादरी-पॉप, क्रमश: अपनी-अपनी मस्जिद या चर्च से बाहर निकल एमएलए/एमपी बनने को लालायित रहते हों| एक यह म्हारै वाले ही अनूठे हैं कि क्या मजाल जो इनका दीदा मंदिर-मठ-डेरे में बैठे टिक जाए| दो डोब्बे ज्ञान के क्या आ जावें इनके भेजे में कि लगें बंदर की तरह कूद-फांद करने कि अरे ओ समाज वालो, ो धर्म वालो तुम दूर हटो; तुमको हमने अपने धर्म का होने नाते मोल ले लिया है इसलिए हम ही तो धर्मस्थल संभालेंगे और हम ही सविंधानस्थल संभालेंगे| या फिर इनको संसदों-विधानसभाओं में बैठाते हो तो दो इनके डेरों-मंदिरों पर भी धरने| कुछ तो करो, या तो पूरे इस साइड चल लो या उस|
भारत के किसान हों, मजदूर, व्यापारी या विधार्थी; तुम्हारी दुर्गति की सबसे बड़ी वजह ही यह है कि "वसुधैव कुटुंभ्कम" का नारा देने वाले, एक भी वसुधा के नियमों का पालन नहीं करते; जबकि बाकी सारे करते हैं; दो उदाहरण ऊपर दिए|
और यकीन मानना जब तक आप इस चक्र में रहोगे तब तक आप विश्व के सबसे पिछड़े समुदाय में हो (खुद मैं भी), और देश को तो विश्व का सबसे पिछड़ा देश यह बंदर आने वाले सालों में बना ही देंगे, अगर यूँ ही सत्ता रुपी बंदूक इन बंदरों को दिए रखी तो| अगर चाहते हो अपना भला और वाकई में विश्वगुरु बनना तो सबसे पहले इनको मंदिर-डेरे-मठों में बंद करो, ठीक वैसे ही जैसे ईसाईयों ने पादरी-पॉप कर चर्च तक सिमित कर रखे हैं और मुस्लिमों ने मौलाना-मौलवी मस्जिदों तक|
इनको सबको समझ है कि समाज का चौधरी समाज से होना चाहिए, बस एक हमें ही पता नहीं कब समझ आएगी, जो समाज से भागे हुए भगोड़ों व् जोग लिए हुओं से देश के विकास की उम्मीद करते हैं; किसान-मजदूर-विधार्थी के भले की उम्मीद करते हैं|
ग्राउंड वालों को क्या आएगी, अभी तो उन एनआरईयों को ही समझनी बाकी है जो ईसाई व् मुस्लिम देशों में बैठे हैं और यह ऊपर कही बातें प्रैक्टिकल में रोज देखते-बरतते हैे परन्तु फिर भी इन बातों पर गौर नहीं फरमाते? और तो और मूर्ती-पूजा नहीं करने वालों के वंशों वाले भी ना फरमाते|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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