मैं इस नोट का लेखक, जाट-जमींदार है मेरा पिछोका; मेरे नानके के यहाँ "काकी भल्ले की बाह्मणी" रसोई का रोटी-टूका करने व् बर्तन-भांडा मांजने आती थी| मेरे दादा जब मेरी माँ को देखने गए थे तो इन काकी ने खाना बनाया था व् दादा ने खाना खा कर नाना को काकी के खाने की तारीफ करते हुए कहा था कि, "चौधरी, मिश्राणी खाना तो सुवाद बनावै सै"| यहाँ यह बात मैं उन काकी के खाने की तारीफ़ हेतु लिखी है व् समाज को यह बताने के लिए लिखी है कि सामाजिक-समरसता का बैलेंस मत बिगाड़ो, किन्हीं विशेषों को अति-विशेष बना के या समझ के; कोई इसको अन्यथा ना ले| और ले तो ले, सच्चाई लिखी है किसी फंडी की तरह फंड नहीं रचे| जब इतना भिग्न समाज में मच चुका है तो यह सच्चाइयां सामने लानी जरूरी हो चुकी हैं| खासकर उन घमंडी व् नखरैल लोगों के लिए जो बना के वर्णवादी व्यवस्था समाज को ऊंचे-नीचे वर्णों में बांटने को आमादा हुए फिरते हैं| इन नीचों की बेशर्मी की हद देखो कि जिनके यहाँ यह चीजें कहने को रही हैं वह इन बातों को तवज्जो नहीं देते परन्तु जिनके यहाँ कभी थी ही नहीं, जमीनें तक दानों में पाई हैं वह समाज को वर्ण-व्यवस्था समझाते हैं|
अपने कल्चर के मूल्यांकन का अधिकार दूसरों को मत लेने दो अर्थात अपने आईडिया, अपनी सभ्यता और अपने कल्चर के खसम बनो, जमाई नहीं!
Wednesday, 28 April 2021
जब तक अपनी औरतों और फंडियों के बीच तार्किकता की बाड़ नहीं करोगे, फंडी को नहीं हरा सकते!
इस खून व् पिछोके का मैं, इसीलिए इनकी बकवासों से कभी प्रभावित नहीं होता| अब सुनिए दो ऐसे ही किस्से जो मेरे घर में मेरी दादी व् मेरे पिता की जिंदगी से सीखे; अपने घर के उदाहरण दे कर यह बातें इसलिए समझा रहा हूँ ताकि आपको इस लेख के शीर्षक की महत्वता समझ आए|
मैं आठवीं में पढ़ता था, तब एक बार मेरी दादी को दो बाणनी व् एक विधवा बुआ जाटणी बहका के मेरे पिता-दादा से छुपा के निडाना गाम की कोकोबगड़ी में सतसंग में ले गई थी| इसका पता लग गया मेरे पिता को| मेरे पिता ने दादी को सिर्फ एक ही बात कही थी कि, "माँ, जिनके यहाँ रात बिता के आई है; क्या उनके घरों की औरतें भी किसी गैर के घर, गैर बख्त गाती-बिगोती-मटकती हांडें सैं? जो अगर इनके घरों में इहसा ही भगवान उतर रह्या सै तो इनके मर्द म्हारे गेल क्यों ना मुंह-माथा होते; यु कुणसा मतलब सै घर की लुगाईयों के जरिये म्हारे घरों में पाड़ लगाने का? के उनके एक भी मर्द नैं नहीं कही तेरे ताहिं कि, "ए फलाने की बहु, फलाने की माँ; बेटी गैर टेम दूसरे बगड़ किहसी आई"? सुबह का वक्त था, बाबू धार काढ़ के घर देने आया था; दूध ले के आता था सुबह बाबू तो रुक्के मारया करता, "माँ, उठ लो धार काढ़ ल्याया सूं"| जिसके साथ ही मैं भी उठ जाया करता था| यूँ कहो कि बाबू का सुबह के 5 बजे के अड़गड़े का यह रुक्का मेरा मॉर्निंग-अलार्म होता था| वो दिन था और दादी का मरण-दिन, आजीवन कभी किसी सतसंगी की चौखट नहीं देखी| हालाँकि बाबू, दादी से पूरा एक महीने अनबोल रहा था, उस वक्त|
ऐसा नहीं है कि सिर्फ बेटा (यानि मेरा बाप) ही अपनी माँ के साथ इतना वोकल था| माँ (मेरी दादी) अपने बेटे पे इससे भी ज्यादा वोकल थी| दादी बताती थी कि थम छोटे हुआ करते थे, तो घर-कुनबे के ही कुछ जलकंडों ने तेरे बाप को दारु पीने की राह पर डालने की जी-तोड़ कोशिशें करी| परन्तु वह तो मैं इतनी चौकस हुआ करती थी कि थारे दादा तक बात जाने से पहले ही थारे बाप को सीधा कर देती थी| एक बार हुआ यूँ कि कुनबे के जलकंडों के यहाँ कोई सी छोरी का बटेऊ आया हुआ था और वह दारु पी रहे थे तो चुपके से तेरे बाप को भी ले गए बुला के| तेरे बाप को ले के मुझे पूर्वाभास हो जाते हैं कि जरूर किते गलत जगह गया है| रात के 8 बजे, आसुज का महीना, बाजरा पैर (खलिहान) में पड़ा तो मैंने पहले तो सीरी उधर दौड़ाया कि जा देख के आ वहां पहुंचा कि नहीं, क्योंकि जब पैर लगते थे तो तेरे बाप की सोने की ड्यूटी वहीँ की लगा करती थी, सुबह की धार-डोकी तेरा दादा देखा करता| सीरी खाली हाथ आया तो मेरा माथा ठनका, भंते में तेरे ताऊ तेलु होर के खन्दाया तो उड़ै भी ना पाया| तब मैं खुद लिकड़ी, न्यूं छटपटाती हुई ज्यूँ बिन बाछ्डू गाय हो जाया करै; उन जलकंडों के घर भी पूछी, जड़ै बिठा के दारु प्यावें थे तेरे बाप नैं; पर वें मना कर गए कि बेबे (दादी की जेठानी) उरै तो कोनी आया| तो मैं फेर पैर कानी भाजी, मखा पैर में ही पहोंच लिया हो? बाखै पै नाइयां आळे कोणे पै, तेरे बाप की अर मेरी सेटफेंट| वो चेतु आळी गली तैं लड़खड़ाता चाल्या आवै और मैं मैदान आळी सदर गाळ में| मैंने देखते ही बोल्या, "कड़ै हांडै सै तिगना (दामण) ठाएं इस गैर-टेम?" मैंने उसकी बांह पकड़ कें झिड़कते हुए कही कि, "कोए ना, क्यों छोह मान रह्या इस बात का; इन्हें राह्यं रह्या तो दुनियां ए ठा देगी इस तिगने नैं तो| और मेरे-मेरे नैं के तेरी बाहणां अर बहु के नैं भी ठावैगी|" बस इतनी सुणी थी तेरे बाप नैं अर सीधा पैर में जा कें पाछा देखा, एक शब्द और नहीं लिकड़ा मुंह तें| फेर मेरे कुणसा चैन, बेरा पाड़ कैं छोड्डी अक किन ठाईगिरा की करतूत थी| वें दारु प्यानिये तो पाछै देखे पहल्यां वो बटेऊ को ही सुनाई अच्छी-अच्छी जिसके आने की ख़ुशी में वा पार्टी हो री थी और फेर सुनाई उस जेठानी को| वो बटेऊ तो फेर जिंदगी भर स्याहमी नहीं आया मेरै| सबेरै तेरा बाप आया, पैर म्ह तैं; मेरी आँख बळें और जाड करड़ावें| अपने हाथां घी में रोटी बेल्ले में दाब कें धरया करती और आ कें मेरे पै ही मांग्या करता| इहसा जी नैं क्लेश करया था कई दिन; वें दिन सैं अर आज का दिन, कदे फेर दारु के हाथ नहीं लगाया| और यह सच भी है मेरा पिता जी दारु-स्मोकिंग, यहाँ तक कि घर पर तो चाय भी नहीं पीते|
अब नोट कीजिए: इन दोनों किस्सों को; किसी ओपरी-पराई का साया मान के, या घर में क्लेश मान के खुद घर-की-घर में हैंडल करने की बजाए मेरा बाप या मेरी दादी, फंडियों के चक्करों में पड़ते तो क्या कभी यूँ इतने प्रेरणादायक तरीके से अपने घर को सहेज पाते? बस डायलॉगिंग रखिये अपने घरों में| आपके तर्क में दम होगा तो चाहे घर में गलत कोई औरत हो या मर्द; सब लाइन पे रहेंगे| और जो उदारवादी जमींदार हो गया या इस किनशिप का हो गया; वह गृहस्थ रहते हुए भी साधू है, उसके घर रोज सतसंग है| कम्युनिकेशन गैप पैदा ना करें, अपने घर के सदस्यों से; कुछ गुबार हो भी जाए आपस में तो कुवाड़ मार के भीतर बैठ के निकाल लें|
यह फंडी कोई सौदा नहीं, चढ़ी में चाँद तक और उतरी में थारी जूतियों में| समत्व भाव निष्काम कर्मयोग के असली वारिस भी हम ही हैं; फंडी नहीं| फंडियों का आपको बौद्धिक-आर्थिक तौर पर बर्बाद व् कंगाल करने का सबसे बड़ा "modus-oprendi" होता है आपके यहाँ आपकी औरतों के जरिए सेंधमारी करना| और वह घर इनके पहले निशाने होते हैं जिन घरों में धन है और क्लेश भी है| अपने क्लेश मिटा के रखो घर-की-घर में| और किसी आध्यात्मिक विचारधारा को मानना भी है तो उसको जो आपके दान-पुण्य के बदले आपको सोशल सिक्योरिटी व् बराबरी का सम्मान दे; उन उठाईगीरों को नहीं जो आपके दिए दान से ही आप पर आपके समाज पर ही "जाट बनाम नॉन-जाट" यानि 35 बनाम 1 रचते फिरें|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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