Sunday, 22 August 2021

सम्मोहन में लपेटी मार्केटिंग व् मिथ्या आध्यात्म, घरों की उधमिता (entrepreneurship) को खा जाते हैं व् जनता को बड़ी ब्रांड्स की मात्र 'कंज़्यूमर-मार्किट' बना छोड़ते हैं!

निचौड़: उधमिता सिर्फ आपको इकॉनमी नहीं अपितु कल्चर भी बचा कर देती है| अकेले मर्दों के ताश नाश ना कर रहे, लुगाई भी बराबर की आहुति डाल रही हैं| वह कैसे, नीचे पढ़ते चलिए:

आज से 25-30 साल पहले ग्रेटर हरयाणा व् पंजाब का हर ग्रामीण परिवार आधा व्यापारी खुद ही होता था, जो मुख्य धंधे कृषि के समानांतर ऐसी उधमिता करता था कि हर घर के 50% से ज्यादा खर्चे, घर की उधमिता से ही सुलट जाते थे| जैसे कि
मर्द, खाली वक्तों में पटशन (जूट/सणी) के पोड तोड़ते थे| बैठकों-दरवाजों-हवेलियों के आगे बैठ उनसे विभिन्न प्रकार की रस्सियां बुनते/बांटते थे| इससे कृषि से ले डांगर-ढोर व् घर की तमाम तरह की रस्से (मोटे-पतले)-सूतली-ज्योड़ी-नेज्जू-गांडली आदि की जरूरतें घर की घर में पूरी हो जाती थी| बाँट-बाँट रस्से-रस्सियां इतनी खाटें भर लेते थे कि बाजे-बाजे के यहाँ तो चाहे पूरी बारात/झंज रोक लेते; इतनी खाटें होती थी| अब बैठकों-दरवाजों तो छोडो, गाम की परस-चौपाल में खाट इकठ्ठी करनी पड़ जाएँ तो मर हो जाती है| ब्याह-वाणों में तो खाटों की जगह अब लगभग हर दूसरे को गद्दे चाहियें| एक यह उधमिता चली जाने से कितना सारा कल्चर भी इसके साथ या तो चला गया या जा रहा है अंदाजा लगा लीजिये| और यह तो सिर्फ एक उधमिता का उदाहरण है| और आज इसकी जगह किसने ले ली है? सारा खाली वक्त सिर्फ ताश पीटने की बीमारी ने, हर दूसरा इस आदत से ग्रस्त है| इन ताश की महफ़िलों में एक और बीमारी आन पली जो पहले सिर्फ लुगाईयों के बाँटें बताई जाती थी यानि चर्चा-चुगली| बैठे-बैठे आँख-दाड़-दिमाग पिसें जाएंगे कि फलाने के बालक ठीक काम रहे हैं तो क्यों? फलाने का नाश कोडबे सी हो; आदि-आदि|
मर्द ही क्यों, आ जाओ अब औरतों की सुन लो; मर्दों से दो चंदे अगाड़ी बेशक कूद रही हों; पछाड़ी का तो सवाल ही नहीं|
औरतें, खाली वक्तों में चरखे कातती थी, चर्घे भर्ती थी; जिससे सूत तैयार होता था| उस सूत से दरी-खेश-बिस्तरे व् ब्याह-वाणे में काम आने वाले खरड़-पल्लड़ बनते थे| आज अंदाजा लगा लो जब से यह गायब हुए हैं, हर घर पर दरी-खेश-बिस्तरों का कितना अतिरिक्त बोझ बढ़ा है व् ब्याह-वाणे में लगने वाले टेंट-शामियानों का कितना अतिरिक्त खर्च बढ़ा है? जब से मिथ्या आध्यात्म चला है, जरा अंदाजा लगाओ कितने शुद्ध तार्किकता व् हकीकत आधारित लोकगीत, छंद, कविताई गायब हो गई? और इसकी जगह किसने ले ली? हद से ज्यादा तुके-बेतुके चलने वाले टीवी सीरियल्स ने; जिनमें घर की औरतों में थोथे अहम्, रानी-महारानी होने के घमंड भरने के सिवाए धांस भी नहीं होती| तीज-त्योहारों पे इनके पल्टे-कोंचे नहीं चलते बस महारानियों की तरह लिस्ट थमा देती हैं कि जाओ और बाजार से ले आओ| जो देवरानी-जेठानी-ननंद-सासु टोल-के-टोल बैठ आपसी प्यार में चूर चरखे कातती थी; अब टीवी द्वारा परोसी गई झूठी मैथोलोजियों की फ़ोक्की वीरता-महानता भर दिमागों में; एक दूसरी के चोटे पाडती ज्यादा दिखती हैं अन्यथा जोहड़ में आन बड़ी दूसरी भैंस को जैसे भैंस टेढ़ी आँख व् गर्दन करके देखती हैं; यह दशा इनकी लगभग हर दूसरी की हो रखी है|
जबकि यह जो बाजार इन लोगों ने अपने यहाँ उतार लिया है; इनको जरा यह सामान इन तक पहुंचाने वाले घरों की तसवीर दिखाई जाए तो पता लगे इनको कि बहुतेरे तो डबल शिफ्ट करते हैं| आचार जैसे धंधे तो इनकी लुगाईयों ने डाट रखे हैं; वही लुगाई जो घर से बाहर इनको चिढ़ाएँगी कि हमारे तो ये हमारे तो वो; परन्तु घर के अंदर झांकों तो वही औरतें-मर्द फ़टे-पुराने कपड़े डाल कोई आचार डाल रही होगी तो कोई करघे पे जुटा खड़ा होगा|
लगा लीजिए अंदाजा कि कैसे उधमिता का खोना, ना सिर्फ आपकी आर्थिक हैसियत गौण कर देता है अपितु आपकी कल्चरल ताकत भी खा जाता है| हालाँकि परफेक्ट ये भी नहीं, क्योंकि इनकी उधमिता अनएथिकल कैपिटलिज्म वाली है परन्तु इनकी निरंतरता एथिकल कैपिटलिज्म वालों पर उधमिता नहीं करने के चलते भारी पड़ रही है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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