Thursday, 21 October 2021

35 बनाम 1 क्यों झेलना पड़ रहा है जाट समाज को!

इस पोस्ट का उद्देश्य: दलित-ओबीसी व् जाट को उन पहलुओं पर विचार करने को केंद्रित करना, जिसकी वजह से उनके बीच फंडी बेहोई दखलंदाजी किये हुए है|

हालाँकि 35 बनाम 1 अभी यह ढलान पर जा रहा है, परन्तु फरवरी 2016 में पीक पर था! तो क्यों हुआ ऐसा?
सबसे ज्यादा जाट के साथ रहने वाला, जाट से भाईचारा निभाने वाला दलित-ओबीसी क्यों छींटका जाट से?
कारण बड़ा सीधा है: जाट समाज की पिछली एक-डेड पीढ़ी ने (गामों से शहरों को सबसे तीव्र पलायन वाले दौर में, जिसको 1980 से 2010 तक का काल माना जा सकता है) ने पुरखों की वह अणख फंडियों के यहाँ गिरवी रख दी जिसके चलते पुरखे इन फंडियों को इनकी लिमिट व् जगह पर रखते थे| व् इनको वह मान-सम्मान देने पर ज्यादा केंद्रित हो गए जो पाकर फंडी अपने असली कमीनेपन पर आता है|
दूसरा, जाट समझता है कि फंडी जितना शराफत से उससे सन्मुख व्यवहार करता है; उतना ही उसकी पीठ पीछे करता होगा| जबकि है इसका विपरीत, इतना विपरीत कि जाटों के एक छोटे से छोटे दोष को दलित-ओबीसी के आगे विकराल दबंगई आदि बना के फैलवाता है व् यह बात लेखक व् उसके साथियों ने गांव में प्रैक्टिकल टेस्ट की है| जाट का इस तरफ ध्यान ही नहीं है कि जैसे आवारा जानवर से फसल की बाड़ करनी होती है, ऐसे ही इंसानों में आवारा नामक फंडी जानवर से अपनी नश्ल, सोशल आइडेंटिटी व् साख की रक्षा करनी होती है; जिसके लिए कि सरजोड़ के रखने होते हैं|
तो ऐसे में जब दलित-ओबीसी ने देखा कि जब यही इनके आगे अपने स्टैंड बदल गए हैं और इनका प्रभाव जाने-अनजाने मानने व् बढ़ाने लगे हैं तो फिर उसके साथ रहो ना जिसका समाज पर सबसे ज्यादा प्रभाव व् योगदान दीखता है| और ऊपर से फंडियों के दुष्प्रचारों से अपनी बाड़ करनी छोड़े देना, जो कि पुरखे बड़े अच्छे से करके रखते थे| और ऐसे बड़ी सहजता से दलित-ओबीसी, जाट से छींटका लिया गया; खासकर फरवरी 2016 में| वैसे इसकी असली शुरुवात मुज़फ्फरनगर 2013 दंगों से होती है; जहाँ जाटों ने इनको खुद ही यह स्कोप परोस के दे दिया|
2013 के बाद जून 2020 में पंजाब से ऊठे किसान आंदोलन ने वापिस वही अणख लौटाई है| यह इसी अणख का कमाल है कि मोदी-शाह, बिग फिश कॉर्पोरेट से ले सबसे बड़े कोर्टों के जजों तक के पसीने छुटे हुए हैं परन्तु किसानों को घेर नहीं पा रहे|
इन फंडियों को यूं आपके पुरखों वाली लिमिट में लेते जाओ; क्योंकि यह बात दलित-ओबीसी भी समझ चुके हैं कि समाज में बैलेंस तो किसान समाज ही रख सकता है| इस हद से ज्यादा बढ़ चली महंगाई हो, देश की संस्थाएं प्राइवेट को देने की गुस्ताखी हो या उलटे-सीधे कानून लाने की बेलगाम प्रक्रिया; इनको अंजाम तक ले जाने वाला विरोध, खुली चेतावनी व् प्रतिकार किसान समाज की अगुवाई में ही हो सकता है|
यह किसान आंदोलन ना सिर्फ काले कृषि कानून वापिस करवाएगा, अपितु फंडियों ने जो तथाकथित ज्ञानी, शरीफ, राष्ट्रवादी, सर्वहितैषी आदि-आदि होने का हुलिया आसमान में चढ़ाया हुआ था; उसको भी धराशायी करेगा| और यह हुलिया धराशायी होवेगा इन कानूनों को वापिस लेने से, यही फंडियों के गले की सबसे बड़ी फांस बनी हुई है|
जय यौधेय! - फूल मलिक

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