कभी सोचा है कि एक नाई, बाह्मण, लुहार, कुम्हार, खाती, छिम्बी आदि को उदारवादी जमींदारों के खेतों से जो 'एक गठड़ी तूड़ी' या 'एक मण या दो धड़ी अनाज' किस पैमाने के आधार पर मिला करता था या बहुतेरी जगहों पर आज भी लाते हैं?
इन्हीं सवालों के जवाब लिए आ रही है हमारी एक रिसर्च:
जो है खापलैंड की उदारवादी जमींदारी की एथिकल कैपिटलिज्म के "सीरी-साझी वर्क कल्चर" का "बार्टर इकोनॉमिक सिस्टम" मॉडल!
A research report on "Barter System Economic Model" of Ethical Capitalism of Udarwadi Zamindari of Seeri-Saajhi Working Culture of Khapland coming soon!
इस वीकेंड पर एक विस्तृत लेख आ रहा है जिसमें "Barter System Economic Model of Ethical Capitalism of Udarwadi Zamindari" पर विस्तृत शोध आ रहा है जो 1970-1985 तक सदियों से दुरुस्त लागू रहा|
इसमें बताया जाएगा कि एक नाई से ले लुहार, कुम्हार, खाती, छिम्बी, मिरासी, ब्राह्मण, रविदासी, कबीरदासी आदि को एक उदारवादी जमींदार के खलिहान में आई फसल का कितना हिस्सा मिलता था? यह इतना हिस्सा होता था कि इनमें से एक पर 30 जमींदार जजमान भी हुए तो इनकी कुल आमदनी एक सादे जमींदार के इर्दगिर्द ही पहुँच जाती थी|
यह रिसर्च बताएगी कि क्यों व् किनकी उदारता व् एथिकल सिस्टम की वजह से खापलैंड पर इंडिया में सबसे कम गरीब-अमीर का अंतर रहा है| क्यों यहाँ "आ जाट के", "आ नाई के", "आ ब्राह्मण के", "आ खाती के" बोल के casual सम्बोधन रहे हैं और अब इस खुलेपन को कैसे यह वर्णवाद खा गया|
यह रिसर्च हरयाणवी कल्चर व् सोशल इंजीनियरिंग की एक विशेषज्ञ हस्ती के साथ मिलकर निकाली गई है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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