या फिर यह 14 जनवरी 1761 को पुणे के पेशवाओं की घायल सेना पर सर्वखाप द्वारा की गई मानवीय उदारता की प्रकाष्ठा के "सर्वखाप मानवता दिन" को समाज से छुपाने का चोला है? या यह दो त्यौहार हैं व् पड़ते एक ही तारीख को हैं?
विषय विवेचना:
1) अंग्रेज उनकी ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ भारत आए 1600 में; तो इससे पुराना तो अंग्रेजी कैलेंडर हो नहीं सकता भारत में; या था?
2) अगर संकरात देसी त्यौहार है तो यह अंग्रेजों से पहले कौनसी तारीख को मनता था? मनता था तो कोई देसी तारीख ही रही होगी? वह देसी, इस अंग्रेजी तारीख से क्यों, कब से व् किसलिए बदली गई?
3) तर्क आते हैं कि सर्वखाप तो सिर्फ उत्तरी भारत में है परन्तु यह त्यौहार तो लगभग पूरे ही भारत में मनता है| यह तो फैलाया गया भी हो सकता है, जैसे सन 1891 में गंगाधर तिलक द्वारा मुंबई से शुरू किया गया "गणेश चतुर्थी" लगभग सवा एक सदी में ही इतना फ़ैल गया| 1947 में पाकिस्तान से आया त्यौहार "नवरात्रे" व् "करवा-चौथ" हो या बिहारी प्रवासी मजदूरों के साथ आया नया-नया "छट पूजा" या बंगालियों के साथ आई "दुर्गा पूजा" यह तो अभी हाल ही के ताजा उदाहरण हैं; जो इतने कम समय में इतने फ़ैल गए, तो संकरात तो 14 जनवरी 1761 से शुरू हुआ; वह तो फ़ैल ही जाएगा| तो यह तर्क भी इसका जवाब नहीं|
4) और इसको सूर्य के उत्तरार्द्ध में आने से जोड़ के और पुख्ता सा बनाने की कोशिश भी सही नहीं लगती| क्योंकि अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार तो सूर्य 25 दिसंबर (उनका बड़ा दिन कहते हैं इसको) से उत्तरार्ध में आना शुरू हो जाता है|
हालाँकि यह ऐसी विवेचना है जिससे लोगों की धारणाएं चैलेंज होती हैं जो कि लेखक का उद्देश्य कतई नहीं है| लेखक सिर्फ इतना चाहता है कि इस तारीख के दिन ही इतिहास में सर्वखाप-किनशिप का वह सबसे महान दिन हुआ था जिस दिन मानवता सबसे ज्यादा बरसी थी (शायद विश्व भर की तारीखों में सबसे ज्यादा मानवता वाली तारीख हो यह); उस दिन को भी मनाया जाए| मनाया जाए अगर "कंधे से नीचे मजबूत व् ऊपर कमजोर" के तंज नहीं सुनने व् "35 बनाम 1" नहीं झेलना तो|
तो क्या है हर साल 14 जनवरी को मनाया जाने वाला "सर्वखाप मानवता दिन"?:
किस्सा जुड़ता है 14 जनवरी 1761 को हुई पानीपत की तीसरी लड़ाई से| ज्यादा डिटेल्स में नहीं जाऊंगा परन्तु इतना जानते हुए चलते हैं कि इस लड़ाई में अहमदशाह अब्दाली ने पुणे की पेशवाई सेना को हरा दिया था| यह सेना यहाँ के स्थानीय राजाओं को हटा, खुद राज करने आई थी; जैसे अब्दाली आया था| और इनकी इस छुपी बदनीयत का परिचय इसके सेनापति सदाशिवराव भाऊ ने उस वक्त के उत्तर भारत सबसे ताकतवर शासक महाराजा सूरजमल (जो कि इनसे मिलकर पानीपत लड़ने हेतु संधि बनाने को इनके कैंप में इनसे मिलने आए थे) को ही बंदी बनाने की अपनी कोशिशों से जाहिर कर दी थी| जाहिर सी बात है कि ऐसा दम्भी व् अल्पमति इंसान फिर अकेला ही रह जाता है व् ऐसा ही हुआ; यानि पानीपत की लड़ाई पेशवा हार गए|
इसकी हारी हुई सेना, जनवरी की कंपकपाती ठंड में घायल-मूर्छित अवस्था में तीतर-बितर आसरा ढूंढ रही थी| अब्दाली के डर से कोई राजा-नवाब इनको शरण नहीं दे रहा था| तब यहाँ चारों तरफ पाई जाने वाली सर्वखाप की जनता खासकर जाट आगे आए व् इनके घायल सैनिकों-घोड़ों को रसद-मरहमपट्टी-आसरा दिया| घायलों को कंबल-खेस-चद्दर ओढ़ाए गए| और ऐसे उतरी थी उस दिन इस धरती पर मानवता की उदारता की सबसे दयालु मूरत कि उनके ही महाराजा को बंदी बनाने वाली सेना को हारने पर यह मदद इनायत की गई| साथ ही यह बात धोई गई कि हम अब्दाली से डरते नहीं हैं अपितु पेशाओं की हमारे ही प्रति बदनीयती के चलते, पेशवाओं ने ही हमारी मदद लड़ाई में नहीं ली|
इस सेना का कुछ हिस्सा भागकर भरतपुर भी पहुँच गया था; जहाँ महाराजा सूरजमल ने भी अपनी सर्वखाप किनशिप वाली उदारता से ही इनका इलाज करवाया| व् बाद में इनको जाट सेना भेज वापिस पुणे-नासिक आदि छुड़वाया| हालाँकि इस उदारता को देख तो पेशवे पसीजे और इनको छोड़ने गई जाट सेना को वहीँ नासिक में बसा लिया; वापिस नहीं आने दिया| जितने जाट परिवार वाले थे, उनके परिवार नासिक बुला लिए गए व् जो अनब्याहे थे, उनको स्थानीय पेशवा-मराठी लोगों ने अपनी बेटियां ब्याह दी| यहाँ भी जाटों ने अपनी किनशिप के स्वभावरूप खाप बनाई जिसको "जाट बाईसी" के नाम से जाना जाता है|
यहाँ सनद रहे, हरयाणा में पाई जाने वाली रोड बिरादरी, जिसको कि अक्सर इन्हीं में से उस वक्त यहाँ रहे लोग मान लिया जाता है; यह ये नहीं हैं अपितु यह यहाँ की स्थानीय जाति है|
14 जनवरी 1761 को क्योंकि इस मानवता की शुरुवात हुई थी तो स्थानीय लोग इसको एक याद एक रूप में उसी अंदाज में मनाने लगे| और धीरे-धीरे इस बात ने एक त्यौहार का रूप ले लिया व् हर साल 14 जनवरी को ठंड में ठिठुरते लोगों को गर्म वस्त्र व् खाने की सामग्री देने से चलता-चलता घर के बड़ों को मानाने हेतु भी ऐसे कंबल-खेस-शॉल देने का चलन बढ़ चला|
अब फंडियों को इससे कुलमुलाहट हुई; क्योंकि यह ठहरे "बदले की भावना" से काम करने वाले जींस के लोग; आप इनके लिए गर्दन भी काट के रख दो तो यह उसको आपका अहसान की बजाए इनका हक मानते हैं तो इनको कहाँ यह अहसान सदियों-सदियों ज्यों-का-त्यों याद रहने देना था| इसलिए चढ़ा दिया इस यह दूसरा लेप; जिसमें ना सर्वखाप की महानता बताई जाती ना उसका जिक्र ही होने दिया|
परन्तु खैर कोई नहीं, यह चीजें कब तक छुपेंगी| हम हैं ना सर्वखाप के बेटे-बेटी| जो आ गए हैं अपनी "किनशिप" की चीजों को संजों के रखने की महत्वता को समझने की मति लिए| इनको बिना शिकायत किये, बिना उलाहना दिए; हम मनाएंगे इसको "सर्वखाप मानवता दिन" के रूप में| तो आप सभी को "सर्वखाप मानवता दिन" की भी बधाई|
14 जनवरी 1761 को क्योंकि इस मानवता की शुरुवात हुई थी तो स्थानीय लोग इसको एक याद एक रूप में उसी अंदाज में मनाने लगे| और धीरे-धीरे इस बात ने एक त्यौहार का रूप ले लिया व् हर साल 14 जनवरी को ठंड में ठिठुरते लोगों को गर्म वस्त्र व् खाने की सामग्री देने से चलता-चलता घर के बड़ों को मानाने हेतु भी ऐसे कंबल-खेस-शॉल देने का चलन बढ़ चला|
अब फंडियों को इससे कुलमुलाहट हुई; क्योंकि यह ठहरे "बदले की भावना" से काम करने वाले जींस के लोग; आप इनके लिए गर्दन भी काट के रख दो तो यह उसको आपका अहसान की बजाए इनका हक मानते हैं तो इनको कहाँ यह अहसान सदियों-सदियों ज्यों-का-त्यों याद रहने देना था| इसलिए चढ़ा दिया इस यह दूसरा लेप; जिसमें ना सर्वखाप की महानता बताई जाती ना उसका जिक्र ही होने दिया|
परन्तु खैर कोई नहीं, यह चीजें कब तक छुपेंगी| हम हैं ना सर्वखाप के बेटे-बेटी| जो आ गए हैं अपनी "किनशिप" की चीजों को संजों के रखने की महत्वता को समझने की मति लिए| इनको बिना शिकायत किये, बिना उलाहना दिए; हम मनाएंगे इसको "सर्वखाप मानवता दिन" के रूप में| तो आप सभी को "सर्वखाप मानवता दिन" की भी बधाई|
जय यौधेय! - फूल मलिक
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