धर्म और त्योहारों की अपनी पुरख-परिभाषाएं व् आइकॉन जिन्दा रखिए; अगर चाहते हैं कि इसकी आड़ में आपका सामाजिक स्थान व् एथनिसिटी जिन्दा रहे! अगर चाहते हो कि कोई उघाड़ा-उठाईगिरा आप पर "कंधे से नीचे मजबूत व् ऊपर कमजोर" के ताने ना मार जाए!
हर बात हर बार सिर्फ इससे भी नहीं चल सकती कि भाईचारा व् अपनापन दिखाने के चक्कर में अपने कॉपीराइट कल्चर आधारित त्योहारों को या तो साइड कर दो या उन पर कोई और लेप इस हद तक चढ़ाते जाओ कि 2-4 पीढ़ियों बाद वह त्यौहार ही ना रहे| इस बात पर चलने की आवश्यकता इसलिए भी है कि दुनिया में हर धर्म व् त्यौहार आपकी आर्थिक आज़ादी व् कल्चरल बुद्धिमत्ता से भी जुड़ा है| और जो यह नहीं करते उनको उघाड़े व् उठाईगिरे किस्म के लोग भी "कंधे से नीचे मजबूत व् ऊपर कमजोर" के ताने दे जाया करते हैं|
यह बात संतुलन में रखते हुए चलना भी इतना आसान नहीं होता, खासकर तब जब आपके इर्दगिर्द आपको "शेयर्ड-कल्चर" वालों की भावनाओं को भी ध्यान में रख के चलना होता है, वरना आप पर बाल ठाकरे टाइप का होने के इल्जाम भी लग सकते हैं| तो शेयर्ड-कल्चर के धर्म-त्यौहार व् इनके पहलुओं की गरिमा को कायम रखते हुए हम बात करेंगे:
खापलैंड के आज के दिन "गिरड़ी-धोक" व् कल यानि तड़के के दिन "कोल्हू-धोक" त्यौहारों की; और यह भला क्यों? क्योंकि क्या किसी भी पेशे-पिछोके के मिस्त्रियों ने अपने औजार धोकने बंद कर दिए? या मात्र व्यापारियों (मात्र इसलिए क्योंकि व्यापारी किसान भी होता है) ने धर्म के नाम पर बाज़ार सजाने बंद कर दिए? जवाब यही पाओगे कि नहीं?
हमारा बचपन कात्यक की काळी चौदस व् मौस के दिनों यह कहावत "आज गिरड़ी, तकड़ै दिवाळी; हिड़ो-रै-हिड़ो" गाते हुए बीता है| फंडियों के स्कूल से पहली से दसवीं की है मैंने (बड़ा हो के पता चला, तब पता चल जाता तो झांकता भी नहीं ऐसे मेरे त्यौहार व् कल्चर की हत्या करने वाले स्कूलों में); तो वहां गिरड़ी के दिन छोटी दिवाळी बोला व् बुलवाया जाता था! आज किधर है वह "गिरड़ी" शब्द? क्या आज की पीढ़ी को इस शब्द के त्यौहार बारे पता भी है? जो इन पहलुओं पर नहीं सोचते वही कंधे से ऊपर कमजोर होने के ताने सुनते हैं|
जैसे इन 2-3 दशकों में 'गिरड़ी' शब्द व् त्यौहार थारी जुबान से हटा दिया गया, ऐसे ही इससे पहले के दो-तीन दशकों में "कोल्हू-धोक" हटाई गई होगी; नहीं? और तुम्हें पता लगी? कब समझोगे यह खेल? दिवाली मनानी है बिल्कुल मनाओ (मैं भी मनाता हूँ शेयर्ड-कल्चर के त्यौहार के तौर पर) परन्तु अपने कॉपीराइट त्यौहारों का भी ख्याल रखो! एक दिया लक्ष्मी का लगाने लगे हो तो उसके लिए वह दिया बुझाने की क्या जरूरत है जो "कोल्हू" के नाम का लगता था? क्या बदला है उस कोल्हू के कांसेप्ट का; उसकी जगह शुगरमिल आ गई ना; तो उसके नाम का लगा लो? हमारे पुरखे यह दिए उन चीजों के नाम के लगाते थे जहाँ से उनको अर्थ अर्जन होता था; तुम कर रहे हो ऐसा? जहाँ कोल्हू है वहां उसका लगाओ व् जहाँ वह नहीं है वहां शुगरमिल का लगा लो, सरसों के तेल निकालने की मशीन का लगा लो; क्योंकि कोल्हू तो तेल निकालने वाले यंत्र को भी कहा जाता था?
सबसे बड़ी बात, "गिरड़ी-धोक" व् "कोल्हू-धोक" मनाने में सम्मान था; होड़ नहीं! तुम्हें मार्किट व् फंडी वर्ग ने धोक मारनी छोड़ धर्म के नाम पर होड़ व् मरोड़ करनी सीखा दिया है| और वह तुमसे यह करवा जाते हैं, इसलिए तुम्हें कंधे से ऊपर कमजोर कह जाते हैं|
कंधे से ऊपर की मजबूती चाहो तो दिवाळी के साथ-साथ अपनी "गिरड़ी-धोक" (आज का दिन) व् "कोल्हू-धोक" (तड़के का दिन) इनके भी दिए जलाओ! यूँ ही निरंतरता से जलाते जाओ व् पीढ़ियों से जलवाते जाओ जैसे म्हारे पुरखे जलाते थे| वह ऐसा करते थे इसलिए ब्राह्मणों से जाट जी व् जाट देवता कहलवाते व् लिखवा लेते थे (सत्यार्थ प्रकाश सम्मुल्लास 11 तो पढ़े होंगे?); तुम क्या पा रहे हो 35 बनाम 1 के षड्यंत्र?
जय यौधेय! - फूल मलिक
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