जैसे एक खाती-बड़ई-लुहार अपने औजारों की धोक हेतु "विश्वकर्मा" दिवस मनाता है| एक कुम्हार के चाक को तो सिर्फ कुम्हार ही नहीं बल्कि अन्य समाजों की लुगाई भी धोकने जाती हैं; व् इन सब में इनको गर्व ही महसूस होता है कोई शर्म या ऊंचा-नीचा स्टेटस नहीं! व् इस प्रक्रिया से आध्यात्मिक व् कारोबारी भावनाएं बराबर फलीभूत होती हैं; ऐसे ही मैं भी आज मेरे पुरखों द्वारा "आध्यात्मिक व् कारोबारी भावनाओं" दोनों को कायम रखने वाला त्यौहार यानि "कोल्हू-धोक" दिन मना रहा हूँ, बीते हुए कल "गिरड़ी-धोक" मनाया था! पुरखों का संदेश साफ़ था सीधा लक्ष्मी की बजाए, लक्ष्मी जिससे अर्जित होती हो उस साधन को धोकीए! अत: कोल्हू व् गिरड़ी दोनों को प्रणाम जिनकी वजह से जिस कौम व् किनशिप से मैं आता हूँ उसका आध्यात्म, कल्चर व् अर्थ तीनों आते व् बनते रहे हैं! यही म्हारा कॉपीराइट कल्चर रहा है! हाँ, साथ-साथ शेयर्ड-कल्चर दिवाली की भी सबको शुभकामनाएं!
Happy Kolhu-Dhok, Happy Girdi-Dhok, Happy Diwali!
जय यौधेय! - फूल मलिक
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