लंगर: गुरु नानक देव जी के जमाने से चल रहा है| दाता का नाम, पता, ओहदा गुप्त होता है| शुद्ध मानवता की सेवा की सही वाली निस्वार्थ नियत से लगाया जाता है| आसपास जो कोई किसी भी धर्म-जात से भूखा हो, वह खा सकता है|
भंडारा: नाम की भूख, पाप धोने का लालच, बोल रखा था इसलिए खिलाना, तथाकथित मन्नत पूरी हुई तो खिलाना या किसी बात का भय दूर भगाने हेतु खिलाना आदि-आदि| भंडारा स्थल पर सबको पता होगा कि कौन खिला रहा है, अथवा अगला स्वत: ही बड़ा बैनर लगाए मिलता है कि मैं खिला रहा/रही हूँ| इसके साथ एक और अवधारणा जुडी है कि इसको जरूर इलेक्शन लड़ने होंगे, बड़ा समाजसेवक दिखाना चाहता/चाहती है खुद को आदि-आदि| निस्वार्थ शब्द झलका कहीं इसके उद्देश्यों में? बल्कि इसमें तमाम वो वजहें हैं जो लोगों को कम्पटीशन की भावना में डाल के जो इसको नहीं भी करना चाहते हों, उनको भी इसको करने को मजबूर करती हैं| अन्यथा तान्ने एक्स्ट्रा तैयार मिलते हैं कि "के धरती म्ह हाथ टिक रे सें", "कीमें धर्म-कर्म भी कर लिया करो", "धर्म नैं मानदे ए कोन्या के" आदि-आदि|
भंडारों से अच्छा तो म्हारे पुरखों का सदियों पुराना यह सिद्धांत रहा है कि "गाम-नगर खेड़े में कोई भूखा-नंगा नहीं सोना चाहिए" - इसके तहत मैंने मेरी दादी समेत गाम की बहुत औरतों-मर्दों को गाम के किसी भी लाचार व्यक्ति को खाना-कपड़ा देते बालकपन से देखा| गाम की परस में कोई राह चलता रैन-बसेरे रुका तो उसको खाना पहुंचाते/पहुंचवाते देखा (परन्तु वाकई में राहगीर हुआ तो, वरना कोई फंडी-फलहरी इस बात का फायदा उठाने हेतु आया तो वह लठ भी खूब खा के जाता देखा)| और यह लाचार व्यक्ति चाहे जिस किसी जाति-धर्म का रहा हो गाम से, सबके बारे हमारे दादे/दादी यही कहते थे कि "खेड़ों की सदियों पुरानी बसावट से नगर-खेड़ों (भैयों-भूमियों) का यह सिद्धांत रहता आया है| इसका सबसे बड़ा फायदा यह होता था कि अगर गाम-की-गाम में कोई बेऔलादा, निर्धन या बेवारसा बूढा/बुढ़िया/मंदबुद्धि आदि भूखा होता तो वह हक से भी गाम के किसी भी घर में जा के खा सकता था या कोई-कोई घर ऐसे किसी भी जरूरतमंद को स्थाई तौर पर खाना देते रहते थे| घर के आगे से या गली से निकलते वक्त मुलाकात होती तो आगे से पूछ लेते थे कि आज खाना खाया तो सामने वाला बता देता था व् पूछने वाला उसको अपने घर से आदरसहित बिना दिखावे के खाना दे देता था| और यही वह सिद्धांत रहा है "गाम-नगर खेड़े में कोई भूखा-नंगा नहीं सोना चाहिए" जिसके चलते खापलैंड बारे यह कहावत मशहूर हुई कि, "यहाँ के गाम-नगर खेड़ों में कोई भिखारी नहीं मिलता/होता"| अगले की हालत देख, आगे से खुद ही हाथ बढ़ा के बिना तंज-ताने के उसको खाना दे देना; ताकि अगले की सेल्फ-एस्टीम व् सेल्फ-रेस्पेक्ट भी कायम रहे|
आज हम इसको कितना पाल रहे हैं, पता नहीं| आज तो खाना खिलाना भी प्रदर्शन का विषय जो हो चला है या कहो कि फंडियों के फैलाए इस भंडारे के कांसेप्ट ने इससे मानवता निकाल कोरी प्रसिद्धि व् स्वार्थसिद्धि की लालसा का सौदा बना छोड़ा है; जो पूरी हुई कि नहीं यह खुद इसको लगाने वाले अधिकतर को नहीं पता चल पाता|
विशेष: आशा है कि मैंने भंडारे की तमाम सम्भव परिभाषा देने की कोशिश करी है, फिर भी कोई अन्यत्र पक्ष रह गया हो तो इसमें बिना तू-तू मैं-मैं के शांति से बता दीजिएगा; मैं सीखने को हर वक्त तैयार रहता हूँ| हाँ, भंडारे में इतनी ईमानदारी तो है कि सामने वाला घोषित करके बता चुका होता है कि मैं यह इस स्वार्थसिद्धि के लिए कर रहा हूँ; यही इसका पॉजिटिव एंगल है; बाकी धर्म-कर्म का इसमें कोई बीज तब तक आ ही नहीं सकता, जब तक इसमें "निस्वार्थ" का कांसेप्ट नहीं डलेगा; वह डला तो यह लंगर या खेड़ों वाला ऊपर बताया कांसेप्ट हो जाएगा| धर्म किसी भी कम्पटीशन से बाहर रहने का नाम है; वह धर्म कैसे हो जाता है जहाँ कम्पटीशन-जलनवश या लोगों के तानों से बचने हेतु चीजें की जाती हों? भंडारा वही तो है या कहीं धर्म का भी कुछ है इसमें? अच्छी बात है स्वार्थ के लिए भंडारे लगाओ परन्तु फिर इसको धर्म का चोला क्यों पहनाते हो; यह पहनाते हो इसीलिए तुम्हारे आंतरिक भय-क्लेश-द्वेष-लोभ-लालसा कट नहीं पाते व् आजीवन भरमते फिरते हो|
जय यौधेय! - फूल मलिक
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