यह घटना 1688 ईस्वी से शुरू होती है जब सौंख गोवर्धन क्षेत्र पर जाट राजा ठाकुर सुखपाल सिंह तोमर का अधिपत्य था। उनके कुँवर हठी सिंह तोमर थे। जब भारत के अन्य सभी राजा मुगलो को अपनी बहिन बेटी दे कर समझौता कर चुके थे। लेकिन जाटों को यह गुलामी मंजूर नही थी आज़ादी की यह ज़िंदगी उन ही अमर शहीद जाट वीरो की सौगात है।
---जब जाटों ने मथुरा ,भरतपुर ,आगरा समेत सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र को आज़ाद करवा दिया था। ऐसे समय में अत्याचारी मुगलो ने अपने सेनापति जयपुर (आमेर) के विशन सिंह (मुगल नौकर)मुस्लिम सेना के साथ सौंख गढ़ भेजा सितम्बर सन 1688 ईस्वी में विशन सिंह ने सौंख गढ़ी पर घेरा डाला था| कुंवर हठी सिंह के पिता उस समय यहाँ के अधिपति थे| कुछ इतिहासकारों ने हठी सिंह को यहाँ का शासक लिखा है बिशन सिंह प्रारंभिक युद्ध में इतना अधिक उदास हो गया था की उसने युद्ध में विजय मिलने की आश छोड़ दी थी | सौंख गढ़ के वीरो ने मुगलों की विशाल फ़ौज को सितम्बर के महीने में लडे गए इस युद्ध में इतनी करारी शिकस्त दी की बिशन सिंह युद्ध समाप्त कर के आमेर चलने को तैयार हो गया था|
इतिहासकार उपेन्द्र नाथ शर्मा के अनुसार जब इस घटना की खबर दिल्ली के बादशाह को प्राप्त हुई तो उसने बिशन को लालच दिया की यदि वो इस गढ़ को जीत लेता है तो उसका मनसब बढ़ा दिया जाएगा साथ ही मुगलों की विशाल आरक्षित सेना बिशन सिंह की सहायता के लिए सौंख गढ़ भेजी गई थी|
मुग़ल सेनापति बिशन सिंह की सेना जाट सेना से इस कदर भयभीत थी| उन्होंने अपना पड़ाव तक सौंख से सुरक्षित दुरी पर लगाया था| सौंख गढ़ की एक सैनिक टुकड़ी ने मुग़ल सेना पर फराह की तरफ से हमला कर के उनकी रसद और हथियार छीन लिए थे| मुगलों की अतरिक्त सेना जब सौंख गढ़ पहुंची तो उनका जाटों से भयंकर युद्ध हुआ जिस में सौंखगढ़ की सेना विजयी हुई थी| परन्तु लम्बे समय से संघर्ष करते करते सौंख गढ़ में हथियारों और रसद की कमी होने लगी थी|
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा ॥
जनवरी 1689 ईस्वी में बड़े संघर्ष और अपने अनेको अजेय योद्धाओं को खोने के बाद ही मुग़ल मनसबदार बिशन सिंह इस पर कब्ज़ा कर पाए
सौंख की गढ़ी कब्ज़ा करने में बिशन सिंह को चार महीने लग गये थे | यह कब्ज़ा कुछ समय तक ही रहा इस युद्ध में हठी सिंह अपने चाचाजगमन व बनारसी सिंह के साथ सकुशल निकल कर अपने रिश्तेदारों के पास पहुचने में सफल रहे थे|
सौंख गढ़ को पुनःप्राप्त करने के लिए अपनी सेना को पुनः संगठित करने के लिए धन और हथियारों की आवश्यकता थी| इसलिए इन वीरो ने मुगलों की सैनिक चौकी और थानों को निशाना बनाना शुरू कर दिया था|
जाटों ने राजोरगढ़ (वर्तमान राजगढ़ ) और बसवा को निशाना बनाया था| जाटों ने 1689 ईस्वी में रैनी को लूट लिया था| यहाँ से यह टुकड़ी बसवा पहुंची यहाँ इन वीरो ने मुगलों और जयपुर की सभी चौकियो और ठिकानो से कर वसूल किया था|
डॉ राघवेन्द्र सिंह राजपूत भी कुंवर हठीसिंह और जयपुर की मुगल सेना के मध्य युद्ध होना लिखते है|
डॉ राघवेन्द्र सिंह के अनुसार यह जाट मथुरा के समीप (सौंख )क्षेत्र के निवासी थे| जयपुर सेना और इनके मध्य भीषण युद्ध लड़ा गया था| डॉ राघवेन्द्र सिंह के अनुसार इस युद्ध की साक्षी अनेको छतरी और चबूतरे आज भी बसवा में मौजूद है|
जयपुर इतिहास में यह युद्ध कार्तिक माह में संवत 1746 (1689 ईस्वी) में होना लिखा है|
हाथी सिंह ने एक सेनी टुकड़ी दौसा के समीप ठिकाने से कर वसूलने भेजी थी| इस टुकड़ी में गये कुंतल वीरो ने यहाँ खूटला नाम से एक ग्राम बसाया था| जो आज भी मोजूद है| यहाँ से यह टुकड़ी रणथम्भोर क्षेत्र में चली गई थी| यहाँ इन्होने कुंतलपुर(कुतलपुर) जाटान नाम से एक और ग्राम बसाया था |
राजा हठी सिंह ने कुछ समय बाद सौंख पर कब्ज़ा कर लिया था । इसके बाद 1694 ईस्वी में मुगलो और जाटों के मध्य सौंख का युद्ध एक बार पुनः हुआ जिस में हाठीसिंह के जाट वीरो ने मुगलो को करारी शिकस्त दी इस युद्ध मे 800 से ज्यादा मुगल मुस्लिम बंदी बनाए गए सैकड़ो मुगल मुस्लिम अल्लाह को प्यारे हो गए इस विजय के बाद सौंख में विजय उत्सव बनाया गया था| जनश्रुतियो के अनुसार रण(युद्ध) से विजयी होने पर सभी वीरो की वीरांगना रणस्थल से सौंख गढ़ तक विजयी उत्सव मनाते हुए आई थी|
गावत विजय गीत सुहागने चली आई बहि थान
जहाँ खड़े रण रस में सने वीर बहादुर तोमर जट्ट जवान।।।
Source: FB Page Jatt Chaudharys
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