जैसे एक किसान, खेत में अन्न उगाकर समाज का पेट भरता है, ठीक ऐसे ही दुनियाभर के औजार-हथियार-मकान, खाती-बढ़ई-लोहार-मिस्त्री-मैकेनिक बनाते हैं; यह उनका अभिमान व् स्वाभिमान है| उनको यह अभिमान है कि किसान अन्न उगाता है तो क्या, रहता तो मेरे बनाए मकान में है, चलता तो मेरी बनाई गाड़ी में है, खेत-खलिहान से चारा-अनाज लाता तो मेरी बनाई बुग्गी में है; मेरे बिना किसान क्या?
यही अभिमान एक नाई को है कि मैं बाल ना काटूं तो यह सब असभ्य, जंगली-जानवर लगें| वह इस बात में अभिमान लेता है कि संसार के प्राणियों में सुदंरता तो मैं ही भरता हूँ|
ऐसे ही एक चर्मकार को यह अभिमान है कि यह अन्न पैदा करते हैं तो क्या, मैं जूतियां ना बनाऊं तो इनके पैर छिल जाएं| झोटे-बैल के पैरों में नाळ लगाने वाला, उनके सींग-खुर्र रेतने वाला इस बात में अभिमान लेता है कि हम यह काम ना करें तो इनके जानवर दो दिन, दो कदम ना चल सकें; बैल हल ना जोत सके; झोटा बुग्गी ना खींच सके|
व् ऐसे ही अन्य तमाम काम व् कारीगर गिन लीजिये|
इसीलिए किसान जो करता है, माना वह मूल है सभी का| माना कि आदमी बाल कटवाए बिना जी सकता है, माना कि आदमी बिना मकान के भी रह सकता है; परन्तु फिर संसार से "लक्सरी" शब्द "सेवा" शब्द खत्म हो जाएगा| इसलिए किसान "भूख की लक्ज़री" देता है तो बाकी सब भी अपने-अपने तरीके से संसार को "सर्विस-सेवा की लक्ज़री" देते हैं|
व् यही एक उदारवादी जमींदार का, खाप-खेड़े-खेत का ऐतिहासिक विज़न रहा है, समाज को, व्यक्तियों को, उनकी सेवाओं को, उनके सहयोग को समान देखने का नजरिया है|
इसी बात को थोड़ा और विस्तार से रख देता हूँ: "अन्नदाता" शब्द किसान की श्रुति-शुश्रुषा हेतु "निट्ठले-ठाली, पैर-से-पैर भिड़ा के फिरने वाले फंडी -फलहरियों" की ईजाद रही है, क्योंकि उनको ऐसा बोल के आप से अनाज-रोटी चाहिए होती थी| परन्तु फंडी के अलावा आप बाकी किसी और के आगे इस शब्द के साथ जाओगे तो यह उसके अभिमान-स्वाभिमान को लगता है| और यही बात किसान को समझनी चाहिए| वैसे भी आप फंडी-फलहरी-बाबा-मोड्डे के अलावा किसी को भी फ्री में अनाज नहीं देते हो, जो वह आपको अन्नदाता कहेंगे; अपितु वह भी आपको बदले में सर्विस देते हैं| अत: यह अन्नदाता शब्द सुनने की फंडियों की लगाई बुरी लत से दूर रहे किसान व् उदारवादी जमींदार|
जय यौधेय! - फूल मलिक
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