Tuesday, 30 July 2024

हरयाणवी त्यौहार-कल्चर-कस्टम का हिन्दीकरण करते हरयाणवीयों के लिए संदेश!

हरयाणवियों को अपने कल्चर-कस्टम्स को mold करके दूसरों को भी एडजस्ट होने की उदारता छोड़नी होगी; क्योंकि इससे हमारी शुद्धता कत्ल हो रही है व् हमारे कल्चर-कस्टम्स का हरयाणवीकरण बरकरार रखने की बजाए उनका हिन्दीकरण और हो जा रहा है:


1000 किलोमीटर दूर से आ के बिहारी दिल्ली-एनसीआर में छट मनाते हैं, क्या वो कभी इस चक्कर में कि तुम दिल्ली में हो बिहार में नहीं; उनके त्यौहार का हिन्दीकरण करते हैं? बिल्कुल नहीं वही 100 फीसदी भोजपुरी भाषा व् रिवाज के साथ मनाते हैं|

1500 किलोमीटर दूर से आ के बंगाली दिल्ली-एनसीआर में दुर्गा-पूजा मनाते हैं, क्या वो कभी इस चक्कर में कि तुम दिल्ली में हो बंगाल में नहीं; उनके त्यौहार का हिन्दीकरण करते हैं? बिल्कुल नहीं वही 100 फीसदी बंगाली भाषा व् रिवाज के साथ मनाते हैं| 

2000 किलोमीटर दूर से आ के मराठी-गुजराती दिल्ली-एनसीआर में क्रमश: गणेश-चतुर्थी व् डांडिया मनाते हैं, क्या वो कभी इस चक्कर में कि तुम दिल्ली में हो महाराष्ट्र-गुजरात में नहीं; उनके त्यौहारों का हिन्दीकरण करते हैं? बिल्कुल नहीं वही 100 फीसदी मराठी-गुजराती भाषा व् रिवाज के साथ मनाते हैं|

3000 किलोमीटर दूर से आ के तमिल-तेलुगु-मलयाली आदि दिल्ली-एनसीआर में क्रमश: उनके त्यौहार मनाते हैं, क्या वो कभी इस चक्कर में कि तुम दिल्ली में हो दक्षिण भारत में नहीं; उनके त्यौहारों का हिन्दीकरण करते हैं? बिल्कुल नहीं वही 100 फीसदी उनकी भाषा व् रिवाज के साथ मनाते हैं|

1947 में पाकिस्तान से आ के खापलैंड व् मिसललैंड पर बसने वाले अरोड़ा-खत्री दिल्ली-एनसीआर में उनके नवरात्रे व् करवाचौथ मनाते हैं, क्या वो कभी इस चक्कर में कि तुम दिल्ली में हो पाकिस्तान में नहीं; उनके त्यौहारों का हिन्दीकरण करते हैं? बिल्कुल नहीं वही 100 फीसदी उनकी भाषा व् रिवाज के साथ मनाते हैं|


तो फिर यह दिल्ली-एनसीआर के इन सबसे पुराने बाशिंदे यानि यहाँ के मूलनिवासी हरयाणवी; किस दिन यह बात समझेंगे कि तुम तो प्रवासी धरती पे भी नहीं हो; फिर तुम क्यों अपने त्योहारों का हिन्दीकरण करके उनके मूलस्वरूप का कत्ल करने पे तुले हो? त्यौहार-कल्चर-कस्टम वह होता है जिसके अनुसार आगंतुकों को ढलना होता है, आपको अपने त्यौहार-कल्चर-कस्टम का स्वरूप नहीं बिगाड़ना होता| यह गलती कर रहे हो, इसीलिए खटटर जैसे नौसिखिए भी 2015 में गोहाना के एक प्रोग्राम में "हरयाणवीयों को कंधे से नीचे मजबूत व् ऊपर कमजोर" के तंज मारते हैं; बावजूद इसके कि आप उनको अपने में समाहित करने को उदारता की ही अति कर देते हो; अपने त्यौहार-कल्चर-कस्टम का हिन्दीकरण तक कर डालते हो; फर्क पड़ता है उनको इससे; क्या आप छाप छोड़ पाते हो, उन पर अपनी; नहीं बल्कि उल्टा कंधों से ऊपर कमजोर होने का तमगा और ले बैठते हो| 


इसीलिए तो कहा गया है कि अति हर चीज की स्वघाती होती है; और यह ऊपर बताया किस्सा इसका सटीक उदाहरण है| Guts दिखाओ, इनकी भांति, अपने त्यौहार-कल्चर-कस्टम की शुद्धता पे टिके रहने की; वरना आज "कंधे से ऊपर कमजोर" के तंज झेल रहे हो, 35 बनाम 1 झेल रहे हो; कल को आपकी पीढ़ियों के लिए इससे भी भयावह स्तिथि दे के जाने वाले हो| 


जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

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