बैटल ऑफ हांसी - 13 सिंतबर 1192 AD - सर्वखाप बनाम कुतुबमीनार बनवाने वाले कुत्तबुद्दीन ऐबक
कुत्तुब्बुद्दीन ऐबक बनाम दादावीर चौधरी जाटवान मलिक जी गठआळा (गठवाला) - आज उस देदीप्यमान दिवस की बेला पर ऐतिहासिक literary तथ्यों के साथ विशेष प्रस्तुति!
सन् 1192 ई० में मोहम्मद गौरी ने दिल्ली के सम्राट् पृथ्वीराज चौहान को तराइन के स्थान पर युद्ध में हरा दिया और दिल्ली पर अधिकार कर लिया। मोहम्मद गौरी ने अपने सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली का शासन सौंप दिया और स्वयं गजनी लौट गया । कुतुबुदीन ऐबक ने आम जनता पर तरह तरह के कर लगा दिए और अत्याचार करने शरू कर दिए जाटो को ये अत्याचारी अधर्मी नया शासक सहन नही हुआ और उन्होंने खाप-यौधेय दादावीर जाटवान मलिक जी के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। जाट इतिहास पृ० 714-715 पर ठा० देशराज ने दादावीर जाटवान के विषय में लिखा है कि इसी समय हांसी के पास दीपालपुर में गठवालों ने अपने नेता दादावीर जाटवान मलिक के साथ कुतुबुदीन ऐबक के सेनापति नुसुरतुदीन को हांसी में घेर लिया और मार दिया। गठवाले उसे भगाकर अपने स्वतन्त्र राज्य की राजधानी, हांसी को बनाना चाहते थे। इस खबर को सुन कर कुतुबुद्दीन पूरी सेना लेकर एक ही रात में 12 फसरंग (ध्यान रहे 1 फसरंग 12 km के बराबर होती हैं ) का सफर करके अपने सेनापति का बदला लेने के लिए हांसी पहुंचा
(“हसन निजामी जो कुतुबुद्दीन के दरबारी लेखक थे जो अपनी किताब तुमुल सिमिर / Taju-l Ma-asir में pp 218 पे लिखते हैं जिसका इंग्लिश अनुवाद :- " When the 3rd day of honoured month of Ramazan, 588 H ( according to today that is 13th of September 1192 AD ), the season of mercy and pardon, arrived, fresh intelligence was received at the auspicious Court, that the accursed Jatwan, having admitted the pride of Satan into his brain, and placed the cup of chieftainship and obstinacy upon his head, had raised his hand in fight against Nusratu-d din, the Commander, under the fort of Hansi, with an army animated by one spirit." Digressions upon spears, the heat of the season, night, the new moonday , and the sun. — Kutbu-d din mounted his horse, and " marched during one night twelve parasangs.") ”
तो दादावीर जाटवान मलिक ने संख्याबल और हथियारों की कमी को देखते हुए छापामार युद्ध कौशल का प्रयोग किया, धीरे धीरे कुतुबुदीन को अपने चक्रव्यूह खानक की पहाड़ियों (जिस आजकल डाडम या तोशाम की पहाड़िया कहा जाता हैं) जिसमे संख्याबल महत्वहीन हो गया दोनों सेनाये 3 दिन 3 रात तक अपना अपना युद्ध कौशल दिखाती रही खुद Taju-l Ma-asir /तुमुल सिमिर के मुस्लिम लेखक हसन निजामी आगे लिखते हैं “The armies attacked each other " like two hills of steel, and the field of battle became tulip-dyed with the blood of the warriors." — The swords, daggers, spears, and maces struck hard. - The locals were completely defeated, and their leader Jatwan slain but he showed tremendous bravery.”
युद्ध बहुत घमासान हुआ जैसे दो पहाड़ आपस में टकरा गए हों। धरती रक्त से लाल हो गई थी। बड़े जोर के हमले होते थे |जाट थोड़े थे पर फिर भी वो खूब लड़े| सुल्तान स्वयं घबरा गया। जाटवान ने उसको निकट आकर नीचे उतरकर लड़ने को ललकारा। किन्तु सुल्तान ने इस बात को स्वीकार न किया। जाटवान ने अपने चुने हुए साथियों के साथ हमारे गोल में घुसकर उन्हें तितर-बितर करने की चेष्टा की और मारा गया |
एक अत्याचारी की खिलाफ पहली तलवार उठाने वाला योद्धा दुर्भाग्य से तीसरे दिन, रात को युद्ध में शहीद गया| बेशक हार हुई पर गुलाम वंश यह मुस्लिम बादशाह युद्ध में हुई इस अप्रत्याशित क्षति को देखकर बोला कि “अगर मैं इस यौद्धा को संधि करके बहका लेता तो अपने साम्राज्य का बहुत विस्तार कर सकता था” और दिल्ली को राजधानी बनाने का विचार त्याग कर लाहौर चला गया| जाटवान के बलिदान होने पर गठवालों ने हांसी को छोड़ दिया और दूसरे स्थान पर आकर गोहाना के पास आहुलाना, छिछड़ाना आदि गांव बसाये। वीर जाटवान के बेटे हुलेराम ने संवत् 1264 (सन् 1207 ई०) में ये गांव बसाये| जाटवान मलिक के मारे जाने के बाद शाही सेना ने भयंकर तबाही मचाई जिससे गठवालो का यह गढ़ टूट गया, हजारों परिवारों को दूर जा कर बसना पड़ा। इसके बाद मलिक जाट अलग अलग दिशाओं में विभक्त हो कर उत्तरी भारत में फ़ैल गया। एक शाखा गोहाना, सोनीपत, पानीपत,रोहतक के आस पास फ़ैल गई। काफी संख्या में मलिक यमुना पार कर शामली, बडोत,मुज्जफर नगर,मेरठ तक बस गए, एक शाखा बीकानेर नागौर में जा बसी जिन्हें अब गिटाला, गथाला, गाट, घिटाला नाम से भाषा भेद के कारण जाना जाता है, इसी तरह एक शाखा बहादुरगढ़,दिल्ली,नोएडा,गाजियाबाद तक गई।वर्तमान में यदि सीमाओं को हटा कर बात की जाए तो गठवाला को 640 गांव का सबसे बड़ा खेड़ा भी कहा गया है, आज गठवाला गौत को मलिक के अलावा 12 से ज्यादा नामों से जाना जा सकता है।
दादा वीर जाटवान मलिक अपने हजारों साथियों के साथ बलिदान हुए और अपने वीरतापूर्ण जीवन के साहस एवं शौर्य से उन्होंने अपने पूर्वजों को गौरवान्वित किया जो सदा ही आने वाली नस्लो के लिए प्रेरणापुंज की तरह काम करता रहेंगा। यह बात शत-प्रतिशत सही है कि जिस कौम का इतिहास लिपिबद्ध नहीं होता, वह मृतप्राय हो जाती है। उसका स्वाभिमान और गौरव नष्ट हो जाता है। आज सर्वखाप के समाजों में गौरव और स्वाभिमान की भावना पैदा करने के लिए अति आवश्यक है कि ऐसे यौधेयों-यौधेयाओं की गौरवगाथाओं को लिपिबद्ध कर प्रचारित किया जाए, जिन्होंने अपनी अणख व् धरती हेतु और मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए सर्वशः बलिदान कर दिया ताकि आने वाली संतान संरक्षित और गौरव का अनुभव कर सके।
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