जब हम भाई बहन टीवी में किसी व्रत या त्योहार का सेलिब्रेशन देख उत्साहित होते तो हमारी माँ डाँट लगाते हुए कहतीं, “ये सब बाहमन बनिया के काम हैं.”
जवान हुआ और यूनिवर्सिटी में चार अक्षर सीख आया तो मैंने माँ को जातिवादी डिक्लेअर करते हुए कहा, “आप हर बात में दूसरी जातियों को गालियाँ क्यों निकाल फेंकती हैं. त्योहार तो त्योहार होता है. क्या बनिये का क्या बाहमन का क्या जाट का.”
वह कुछ देर चुप रहीं. फिर बड़ी सहजता से बोलीं, “हम वे त्योहार नहीं मनाते जो फसल कटने के बाद आते हैं. वे हाथ आयी पूँजी को खर्च करवाने वाले रिवाजों के साथ आते हैं. हम वे त्योहार मनाते हैं जो फसल जुताई और पकाई के समय आते हैं. ताकि हम फसलों के उगने और फिर पकने का उत्सव मना सकें. बाहमन बनिये का तो मैं इसलिए कह देती हूँ क्योंकि इनके पास खर्च करने के लिए पैसे होते हैं. दान-पुन करने के भी. नये लत्ते कपड़े ख़रीदने के भी. किसी से लिया देयी (उपहार देने लेने) करने के भी. ग़रीब का एक ही त्योहार होता है, जो कमाया है वो बच जाए. ताकि अड़ी-भीड़ में उधार न लेना पड़े.”
मैंने उन्हें जात पर कमेंट करने पर टोका तो वह आर्थिकता पर आ गयीं. देसी हिसाब से कमाई बचाने का गणित समझाने लगीं. बाज़ार की चालाकी समझाने लगीं. फिर कहने लगीं, “ग़रीब की के (क्या) जात. ग़रीब तो बाहमन भी दुखी अर जाट भी.”
माँ अब दुनिया में नहीं है, लेकिन अब भी वे त्योहार नहीं मना पाता जिनमें दस पाँच हज़ार खर्च होते हों, जबकि इतना खर्च कर सकता हूँ. इतने तो माँ भी खर्च कर सकती थीं, लेकिन उनकी सास यानी मेरी दादी की ग़रीबी ने उन्हें खूब ही कंजूस बना दिया था. किसी त्योहार पर उन्हें पैसे खर्च करते नहीं देखा. चूरमे या खीर में ही बेवकूफ बना लेती थीं हमें.
Journalist Mandeep Punia
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