Monday, 18 May 2015

जै जाट गेल पड़े उलझेड़याँ म्ह!

जै 'जाट जी' कह कैं बोलोगे, तो स्यर लग भी ब्यठा ल्यांगे,
जै जाट गेल पड़े उलझेड़याँ म्ह, तै दाहुँ धूळ म्ह ला दयांगे||

एक दयानंद महर्षि, 'सत्यार्थ-प्रकाश' म्ह जाट को 'जाट जी' जो कहग्या,
जो उल्टी राह्याँ चले मंदिर आर्यसमाज के, महर्षि तैं सिर्फ दयानंद रहग्या|
ढोंग दिखाईयो मत ना, पूरी खापलैंड पै स्यर ब्यठवा दयांगे|
जै जाट गेल पड़े उलझेड़याँ म्ह, तै दाहुँ धूळ म्ह ला दयांगे||

राजपूत को भी जिन्होनें कभी 'जी' ना लगाया,
उन्हीं ब्राह्मणों ने जाट को 'जाट जी' फ़रमाया|
जाट-देवता यूँ ही ना कुहाया, रहे धर्म तैं ऊँची मानवता बतांदे,
जै जाट गेल पड़े उलझेड़याँ म्ह, तै दाहुँ धूळ म्ह ला दयांगे||

'जाट-देवता' बाज्जे कदे तैं हम, बोद्दा म्हारा ढाहरा नहीं,
उलझण की राह चालियो ना, जाट को थारे तैं प्यारा नहीं|
हमनें जहर भी खारा नहीं, जै सुच्ची नीत तैं प्या द्योगे|
जै जाट गेल पड़े उलझेड़याँ म्ह, तै दाहुँ धूळ म्ह ला दयांगे||

'चौधर' किसे तैं खोस कैं ना चलाई, अर खेतां ढोळ बैठ कैं कदे ना खाई,
च्यारूं वर्ण छयकाये सदा, रोजगार पुगाये सदा, तब चौधर स्यर धराई|
मत सामन्तियों के भुकायां आईयो, थारै मोरणी अटारियां चढ़ा दयांगे|
अर जै जाट गेल पड़े उलझेड़याँ म्ह, तै दाहुँ धूळ म्ह ला दयांगे||


खून-पसीने तैं सींची हुई या, म्हारी हरयाणे की माटी सै,
जितणे दाब्बो उतने उभरां, सदा येहिं अळसेठ पाँटी सैं|
शर्मांदे भीतर बैठे सां, ना तै लोहागढ़ और भतेरे बणा दयांगे,
जै जाट गेल पड़े उलझेड़याँ म्ह, तै दाहुँ धूळ म्ह ला दयांगे||

'फुल्ले-भगत' सूं 'दादे खेड़े' की, चैन तैं हमनें जी ल्यण द्यो,
राहसर ल्य्कड़ो-राहस्यर बड़ो, सांस चैन की भर ल्यण द्यो|
ना तैं गढ़ी भतेरी घड़ी सैं हमनें, गुरिल्ल्याँ ढाळ नचा दयांगे|
जै जाट गेल पड़े उलझेड़याँ म्ह, तै दाहुँ धूळ म्ह ला दयांगे||

जै 'जाट जी' कह कैं बोलोगे, तो स्यर लग भी ब्यठा ल्यांगे,
जै जाट गेल पड़े उलझेड़याँ म्ह, तै दाहुँ धूळ म्ह ला दयांगे||

शब्दावली:
 
हरयाणा/खापलैंड = वर्तमान हरयाणा + दिल्ली + पश्चिमी यू. पी. + उत्तराखंड + उत्तरी राजस्थान|
सामन्तियों = मंडी-फंडी
च्यारूं वर्ण = चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व् शूद्र
गुरिल्ल्याँ = गुरिल्ला युद्ध कला, जो विश्व को जाटों की देन है, मुग़लों ने जिसको जाटों से सीखा, शिवाजी महाराज ने खापों-योद्धेयों को बुलवा मराठों को सिखवाया|
लोहागढ = भारतीय इतिहास का एकमात्र किला, जिसको अंग्रेज 13 बार हमले करके भी जीत नहीं सके, मुग़ल जिसकी तरफ नजर उठा के नहीं देख सके और राजपूत-मराठे-होल्करों की सात-सात सेनाएं मिलकर भी जिसको बींध नहीं सकी|
गढ़ी = उदाहरणत: रोहतक की साँपलागढ़ी, हिसार की राखीगढ़ी, दिल्ली की मोरीगेट, लालकिले वाली जाटगढ़ी, भरतपुर की बदनगढी, पानीपत की सिवाहगढ़ी, कलानौर की गढ़ी-टेकणा, करनाल की गढ़ी बीरबल, गढ़ी रोढाण, जींद की गढ़ी बधाना, बागपत की हजूराबाद गढ़ी आदि| ऐसा स्थान जहां खाप युद्ध करने से पहले, अंडरग्राउंड शेड बना के वृद्धों व् बच्चों को सुरक्षित छोड़ युद्धों में उतरा करते थे|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 17 May 2015

क्या पूरे भारत को हरयाणा व् एनसीआर में ला के बसाने का इरादा है?

आखिर नया लैंड बिल बना किसलिए है? ताकि एनसीआर में हर रोज अन्य राज्यों से चले आ रहे लोगों को बसाने के लिए फैक्ट्री-मकान-इंफ्रा दिया जा सके? और इससे जो स्थानीय यानी नेटिव एनसीआर निवासी हैं, उनपे जो मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक असर पड़े रहे हैं, उसका क्या?

अब यह आवाज उठाई जानी चाहिए की एनसीआर में बहुत हो लिया विकास, इन विकास के आकाओं को कहा जाए कि यह सुदूर राज्यों में भी जा के फैक्टरियां लगावें, ताकि एनसीआर के लोगों को बे-मापे हुए, गैर जरूरी मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक दबाव व् तनाव से बचाया जा सके|

लैंड बिल का विरोध कर रहे तमाम संगठनों को इस विरोध को इस एंगल से उठाना चाहिए, यही सबसे कारगर रास्ता है इसका, ताकि इसके साथ-साथ स्थानीय आबादी के मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक मुद्दों की आवाज भी बुलंद की जा सके|

हम हरयाणवी तो अब हरयाणवी हो के भी हरयाणवी नहीं रहे| बाहर से आने वालों की चिंता बहुत हो ली और कर ली, बहुत मानवता और भाईचारा दिखा लिया| कहते हैं कि अति हर चीज की ना सिर्फ बुरी होती है, अपितु स्वघाती भी होती है और अब यह स्वघात वाले स्तर तक पहुँच चुकी है| 1947 में पाकिस्तान से पंजाबी आते हैं तो तीन पीढ़ियां गुजरने पर वो हरयाणवी नहीं (सांस्कृतिक ना सही जन्म के आधार पर भी खुद को हरयाणवी नहीं कहते, जबकि इस सच को तो भगवान भी नहीं झुठला सकता) बन पाये, 1984-86 में पंजाब के आतंकवाद से तंग हो कर यही पंजाबी लोग एक बार फिर हरयाणा में शरण लेते हैं तो नतीजा अभी ताजा-ताजा स्थानीय जातियों के अधिकारों की आवाज के विरुद्ध (जाट आरक्षण के विरुद्ध) वो भी इनका उससे कोई मतलब ना होते हुए आवाज उठाने में तब्दील हो जाता है; फिर हरयाणा के मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर मिलकर लड़ने की बात तो गई भांग के भाड़े|

अगर बाहर से आये लोग शांति से बसने की बजाये जाट बनाम नॉन-जाट का जहर फैलाएंगे तो फिर कैसे चलेगा? स्थानीय हरयाणवी में फूट पड़ेगी तो हमारे आर्थिक-मानसिक-संस्कृति मुद्दों पर कौन लड़ेगा? और अब जब से बिहारी-बंगाली-असामी यहां आया है, तब से उधर के जो भी लोग मीडिया या जेएनयू जैसी यूनिवर्सिटीज में बैठे हैं सब हरयाणा की संस्कृति पे जहर उगल रहे हैं| यानी हम अच्छे हैं या बुरे इसके एक तरफ़ा सर्टिफिकेट ना सिर्फ पूरे देश को वरन विश्व स्तर तक बाँट रहे हैं|

आखिर इस पलायन के स्थानीय समाज पर पड़ने वाले इस नकारात्मक पहलु पर कौन ध्यान देगा? इन लोगों के हमारे स्थानीय मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक पहलुओं पर होने वालों हमलों से हमें कौन बचाएगा? मुंबई के मराठे गलत नहीं थे अगर उन्होंने वहाँ से उत्तर भारतियों को भगाया था तो; परन्तु हाँ उनका तरीका गलत था पर उनका कदम सही था|

अब हरयाणा व् एनसीआर में बैठी तमाम नेटिव जातियों को इस मुद्दे को कानूनी रूप से टैकल करवाना चाहिए और इनके यहां आने से हमें यानी नेटिव्स को जो मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक प्रताड़नाएं सहन करनी पड़ती हैं, इनका हिसाब सरकार से ले तमाम बुद्धिजीवी प्रकोष्ठों व् अन्य संबंधित विभागों से माँगना शुरू कर देना चाहिए|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

बिजनेसमैन बनाम अफसर:

कमाल का देश है हमारा भी, कोई पीएम की पीठ भी थपथपा दे तो भी 'पीएम रिजाईम' का प्रोटोकॉल नहीं टूटता परन्तु अगर एक अफसर सनग्लास भी पहन ले पीएम के आगे तो प्रोटोकॉल तोड़ने का नोटिस थमा दिया जाता है| यह नोटिस पीएम की पीठ थपथपाने वाले को थमाने की हिम्मत क्यों नहीं हुई किसी की?

वही "ढाक के तीन पात, चौथा होने को ना जाने को"; वही के वही सांतवीं सदी के लच्छन जिनकी वजह से देश ने 1300 वर्ष की गुलामी झेली|

An officer should not be judged by his clothes or satire rather he/she should be judged by his attitude and committment towards thou duty and funcitionality. These kind of incidents and political attitudes shows that ours is still to be launched on path of developed country.

Well if to see from such angle then PM himself is a govt. employee sitting on primemost post of nation, so when he can wear anything stylish or whatever he shows through his daily selfies (Huffington Post... has made fun of him for this), then why can not an employee like DM Amit Kataria, what is wrong in that?

This is the difference between a developed country and still to be a developed.

Public should take cognizance of this notice:

I have never seen any administration officer bound to any dress-code in Indian system and its not even in place til date. Dress code only implies to defense, police and security job sectors. Then how can this notice be legal to an administration officer?
I have fully read article 3(1) in which it is talked about integrity of duties and not of any dress as such.

News: http://abpnews.abplive.in/…/article5…/Who-is-DM-Amit-kataria

https://www.facebook.com/abdulhk1/posts/10200730287297604

Legal notice copy:
 

Thursday, 14 May 2015

सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या!

Presenting a poetic tribute to Late. Dada Ch. Baba Mahendra Singh Tikait Ji on thou 4th death anniversary (15/05/2011). -

धर्म छोड्या ना, कर्म छोड्या ना, फिरगे पाखंडी चौगरदे कै|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें खागे चूंट तेरे भोळे नैं||

धर्म नैं चिलम भरी थारी हो, थमनै होण दी ना पाड़ कदे,
अल्लाह-हू-अकबर - हर-हर-महदेव, राखे एक पाळ खड़े|
अवाम खड़ी हो चल देंदी, जब-जब थमनें हुम्-हुंकार भरे,
सिसौली से दिल्ली अर वैं ब्रज-बांगर-बागड़ के मैदान बड़े|
चूं तक नहीं हुई कदे धर्म पै, आज यें हाजिरी लावैं ढोंगियों कै|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें खागे चूंट तेरे भोळे नैं||

किसान यूनियन रोवै खड़ी, पाड़ उतरगी भीतर म्ह,
तीतर-बटेरों का झुण्ड हो रे, खा गये चूंट कैं चित्र नैं|
स्याऊ माणस लबदा ना, यू गहग्या सोना पित्तळ म्ह,
राजनीति डसगी उज्जड न्यूं, ज्यूँ कुत्ते चाटें पत्तळ नैं||
एक्का क्यूकर हो दादा, खोल बता ज्या इस त्यरे टोळे नैं|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें खागे चूंट तेरे भोळे नैं||

मंडी भाव-खाणी रंडी हो री, दवन्नी पल्लै छोड्ती ना,
आंधी पिस्सै कुत्ते चाटें, त्यरे भोळे की भोड़ती ना|
कमर किसान की तोड़दी हाँ, या आढ़त खस्मां खाणी,
गए जमाने लुटे फ़साने, कर्मां बची फांसी कै गसखाणी||
अन्नदाता की राहराणी बणै, तू ला ज्या बात ठिकाणे नैं|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें खागे चूंट तेरे भोळे नैं||

खाप त्यरी यैं बिन छतरी-चिमनी का हो री चूल्हा,
बूँद पड़ी अर चौगरदे नैं धूमम्म-धूमा-धूमम्म-धूमा|
टकसाळाओं की ताल जोड़ दे, ला चबूतरा सोरम सा,
'फुल्ले-भगत' मोरणी चढ़ा दे, अर पैरां तेरे तोरण शाह||
या चित-चोरण सी माया तेरी, करै निहाल सारे जटराणे नैं|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें खागे चूंट तेरे भोळे नैं||

धर्म छोड्या ना, कर्म छोड्या ना, फिरगे पाखंडी चौगरदे कै|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें खागे चूंट तेरे भोळे नैं||

शब्दावली: भोळा/भोळे = किसान

जय योद्धेय! - फूल मलिक

जाटों को रूढ़िवादी वर्ण व् जाति व्यवस्था के प्रभाव व् उद्दंडता से बाहर आना होगा:


भारतीय सामाजिक व्यवस्था में आदिकाल से दो धाराओं का आध्यात्मिक व् वैचारिक टकराव रहा है; ब्राह्मणों की बनाई हुई वर्ण व् जाति व्यवस्था और जाटों की बनाई खाप व् दादा खेड़ा व्यवस्था|

एक तरफ जहां ब्राह्मण रचित वर्ण व् जाति व्यवस्था पूर्णत इसके रचयिताओं के प्रभुत्व को लागू करने व् उसको पोषित-संरक्षित रखवाए जाने हेतु रंग-वंश-वर्ण-नश्ल भेद पर आधारित रही है, वहीँ दूसरी ओर जाटों की खाप व् दादा खेड़ा व्यवस्था सम्पूर्णत: समाज में समान न्याय, भागीदारी, हकदारी व् हर चीज की न्यूनतम शुल्क पर उपलब्धता आधारित रही है|

परन्तु ब्राह्मणी व्यवस्था जाट व्यवस्था को अपने रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा मानती रही है, क्योंकि जो नियम ब्राह्मण व्यवस्था बनाती आई है, जाट व्यवस्था विभिन्न खाप महापंचतयों के जरिये उनको नकारती व् ना अपनाने की वकालत करती आई है| उदाहरणत: पितृ श्राद्ध, मृत्यु भोज नहीं करने की वकालत, कम बारात व् विवाह में अधिक तामझाम से बचने की वकालत, विवाह में दहेज़ ना लेने-देने की वकालत (ध्यान दीजियेगा दहेज़ रोकने की सार्वजनिक वकालत आजतक सिर्फ खाप क्षेत्रों में खापों द्वारा ही हुई है, गैर खाप क्षेत्रों में इसके बारे कोई सामूहिक मंथन नहीं होते), आदि-आदि|

इसके अतिरिक्त विधवा विवाह समर्थक, नर अथवा पशु बलि विरोधी, सती-साक्का-जौहर प्रथा विरोधी व् कई और इसी प्रकार की अमानवीय मान्यताएं जैसे कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो जाट समाज आदिकाल से करता आ रहा है और इसी कारण जाट को एंटी-ब्राह्मण का तमगा ब्राह्मण समाज का प्रबुद्ध वर्ग अनंत काल से देता आ रहा है|

अन्य दूसरा सबसे बड़ा अंतर जो जाट थ्योरी का ब्राह्मण थ्योरी से प्रतिवाद करता है, वह है जाट की "सीरी-साझी सभ्यता", जो कि ब्राह्मण थ्योरी की "नौकर-मालिक सभ्यता" के बिकुल विपरीत धारणा पर है| सीरी-साझी सभ्यता जहां इतनी लचीली है कि यह नौकर को भी साझीदार-भागीदार बोलने को कहती है, वहीँ नौकर-मालिक सभ्यता इसके नाम को चरितार्थ करती है| और जाटलैंड को छोड़कर यह देश के किसी भी अन्य क्षेत्र में नहीं पाई जाती, गैर-जाटलैंड क्षेत्रों में सिर्फ "नौकर-मालिक" प्रणाली पाई जाती है|

परन्तु बावजूद इस सबके भी ऐसा क्या है कि जाट को अपनी इन मानवीय मान्यताओं को स्थाई व् सार्वजनिक मान्यता व् पहचान दिलाने में आज तक संघर्ष ही करते देखा गया है? इसकी मुख्य वजहें हैं:

1) जाट द्वारा इन चीजों को लिखकर एक स्थाई संदर्भ व् निर्देश पुस्तक का रूप ना देना|
2) जाट द्वारा अपनी दादा खेड़ा संस्कृति में वर्ण व् जाति भेद को घुसने देना|
3) जाट द्वारा अपनी इन मान्यताओं व् सभ्यताओं को काल व् समयानुसार पुरस्कृत, प्रचारित व् प्रमाणित ना करना|

और यह नहीं करने के परिणाम:
1) जाट समुदाय मौकापरस्त लोगों के सॉफ्ट-टारगेट पर बना रहता है|
2) सारे देश में जाट बनाम नॉन-जाट का जहर फैलाने वाले डंके की चोट पर इसको बढ़ावा देते हैं|
3) जाट युवा व् प्रौढ़ में समन्वय नहीं रहता|
4) शहर की तरफ निकल जाने वाला जाट, बहुत कम अपनी दादा खेड़ा व् जाट थ्योरी को तवज्जो देता है|
5) आडंबर व् पाखंड फैलाने वालों को जाट समाज एक ओपन मार्किट की तरह उपलब्ध रहता है|
6) जाट समाज को दलित व् ओबीसी जातियों के साथ संघर्षरत रहना पड़ता है अथवा पूर्वनिर्धारित एजेंडा के तहत गैर-जरूरी संघर्षों में झोंक दिया जाता है|
7) दलित व् ओबीसी समाज, जाट व्यवस्था के अधिक मानवीय होने के बावजूद भी इसकी प्रतिवादी व्यवस्था की तरफ ज्यादा झुकाव बनाये रखता है|
8) जाट उहापोह में डोलता रहता है, ना शुद्ध रूप से मानवीय बन पाता है और ना ही शुद्ध रूप से नश्लभेद का दूत|

और इस उहापोह की जाटों के लिए कितनी भयानक तस्वीर बन सकती है, उसको समझने और जानने के लिए उसके इर्द-गिर्द बनी हुई वर्तमान समय की परिस्थितियों से बेहतर कोई शिक्षक नहीं हो सकता|

इन दो विचारधाराओं के टकराव की बिलकुल यही स्थिति सांतवीं सदी में देश में मुग़लों की एंट्री से पहले थी| इन तेरह-सौ साल की गुलामी झेलने के बावजूद भी नस्लभेद के दूतों ने इससे कोई सबक नहीं लिया और थोड़ी सी आज़ादी मिली नहीं कि अपनी उन्हीं परिपाटियों को फिर से पकड़ लिया|

खैर, इससे निकलने के लिए हमें किसी के खिलाफ ना ही तो आवाज उठाने की जरूरत और ना ही हथियार उठाने की जरूरत; बस किसी एक जमाने से पुरानी-खाली-वीरान जालों-मकड़ियों-चमगादड़ों से सनी पड़ी किसी हवेली की भांति, अपनी हवेली में वापिस लौटने की जरूरत है| उसके जाले साफ़ कीजिये, उसकी रंगाई-पुताई करवाइये और उसको आधुनिक समयानुसार रहने के लायक बनाइये|

भरतपुर के अजेय लोहागढ़ किले की तरह अपने किले की दीवारों को मजबूत करना शुरू कीजिये; दुश्मन तो उस किले की दीवारों को तोड़ने में ही रींग जाएगा| हमें उनको हथियार अथवा धमकियां देना अथवा यहां तक कि उनकी तरफ घुर्राने की भी जरूरत नहीं| याद है ना कि 13 बार आक्रमण करने पर भी दुनिया में जिनके राज के सूरज नहीं छिपा करते थे, जिनकी विजय के सूर्यरथ नहीं थमा करते थे, वो कैसे लोहागढ़ के किले की दीवारों से टकरा-टकरा के खुद ही घुटने टेक गए थे? इसलिए बस अपनी खुद की आदिकालीन व्यवस्था में विश्वास रखते हुए, इसको मजबूत करने की जरूरत है|

वरना तो भाई फिर नश्लभेद का दूत तो आपको समाज में 35 बिरादरियों से काट, अकेला भटकने को छुड़वाने पे आमदा है ही|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 10 May 2015

धनखड़ साहब, आपकी बात और तर्क को मैं दुरुस्त किये देता हूँ|:

आपसे मुखातिब बाबत: आपने कहा कि "ब्राह्मणों ने अपने गोत्र ऋषियों के नाम पर रख लिए और जाटों के पशुओं के नाम पर|"

पहली तो बात आप यह भान रखिये कि जाटों के यहां "गोत्र" नाम का कोई सिस्टम नहीं, हमारे यहां "गोत" होता है सिर्फ गोत| शायद आपकी गलती नहीं, क्योंकि अधिकतर पढ़ा लिखा और आपकी तरह खुद को एडवांस समझने वाला जाट अपनी ही इन चीजों का ज्ञान लेना, रखना, सम्भालना जरूरी नहीं समझता| खैर कोई नहीं, परन्तु आप याद रखिये कि जाटों की गोत प्रणाली ब्राह्मण गोत्र प्रणाली से एक दम भिन्न है| और ना ही हमारे गोत ब्राह्मणों के रखे हुए और ना ही हमने उनसे कभी रखवाए| हमारे गोत हमारे खुद के पुरखों के रखे हुए हैं|
अब दूसरी बात आपने कहा कि ब्राह्मणों ने अपने गोत्र ऋषियों के नाम पर रखे, नहीं ऐसा नहीं है खुद ऋषियों से ले इनके वंशजों ने भी अपने गोत्र पशुओं, हथियारों, कागज किताबों के नाम पर भी रखे हुए हैं, यह देखिये उदाहरण:

पशुओं के नाम पर ब्राह्मण ऋषि व् गोत्र: गोस्वामी, गौतम
लोहा-हथियारों के नाम पर ब्राह्मण गोत्र: परशुराम, चौबे (कील)
कागज-किताबों के नाप पर ब्राह्मण गोत्र: द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी

अब आता हूँ जाटों के उन गोतों पर जिनका आपने अपने उदाहरण में जिक्र किया:

आपने खुद का गोत उठाया "धनखड़": यह बना है धन और खड़ (हरयाणवी में ढेर) यानी धन के ढेर जिनके यहां होते थे वो धनखड़ कहलाये| इसमें जानवर का कोई अंश नहीं|

दूसरा आपने उठाया "ढांढा": कुरुक्षेत्र के पास एक कस्बा है ढांढ नाम का, जहां कहीं ओर की अपेक्षा ब्राह्मण अधिक घनत्व में हैं| और ढांढ का मतलब होता है हांड के ढाहने वाला| यानी दुश्मन को भगा-भगा के मारने वाला| अब अगर यह एक पशु का भी पर्यायवाची है तो वह संयोग मात्र है| यहां एक और रोचक बात यह ध्यान दीजियेगा कि ढांढा, गौ का खसम भी होता है|

तीसरा आपने गोत उठाया "खरे": हरयाणा में शब्द होता है "खरा" यानी "निग्र" यानी शुद्धतम और इसक बहुवचन होता है "खरे"। जैसे कई बार हरयाणवी में कहते हैं कि भाई फैलाने के बालक एक दम खरे हैं, खरा सोना हैं| इसमें जानवर का कोई अंश नहीं|

चौथा आपने उठाया "जाखड़": यानी के जहां भी जाए वहाँ खड़ के यानी अधिपत्य से बसो| और जाखड़ कहलाओ|

पांचवा आपने उठाया खोखर: यानी खो + खर यानी बुजुर्गों ने आशीर्वाद दिया कि तुम दुश्मन का खो (हिंदी में खात्मा) करके खर से बसने वाले हो| और जब दादावीर रामलाल जी खोखर ने मोहमद गौरी जैसे दुश्मन को मारा तो उन्होंने अपने नाम को सिद्ध किया, कि हम दुश्मन का खो करके खर से बसने वाले हैं|

छठा आपने उठाया "मोर": क्यों जब ब्राह्मण के लिए "कमल" का फूल (एक पौधा) शुद्ध हो सकता है, ब्राह्मण के लिए गाय (एक पशु) शुद्ध हो सकती है तो जाटों के लिए "मोर" (एक पक्षी) शुद्ध क्यों नहीं हो सकता? फिर भी आपको बता दूँ, "मोर", "मौर्य" शब्द का हरयाणवी रूपांतरण है| लेकिन मोर पक्षी की एक जाट के लिए वही महता है जो एक ब्राह्मण के लिए गाय की|

इस विषय पर मेरे पास कहने को बहुत कुछ है, परन्तु वो सब कभी अगर जीवन में आपसे साक्षात मुलाकात हुई तो, तब|

फ़िलहाल आपने से इतनी ही उम्मीद करता हूँ कि अपने व्यस्तम जीवन से दो पल अपनी सभ्यता-संस्कृति-शब्दावली-इतिहास का सही-सही ज्ञान समझने व् अर्जित करने पे भी लगाएं| धन्यवाद|

अपील: इस लेख की प्रति हरयाणा के कृषि मंत्री माननीय चौधरी ओम प्रकाश धनखड़ तक पहुंचाने वाले भाई का धन्यवाद| हालाँकि मैं भी कोशिश करूँगा इसको उन तक पहुंचाने की, परन्तु मेरी लिस्ट में जो भी बीजेपी का कार्यकर्त्ता हो और जागरूक जाट हो वो इसको उन तक जरूर पहुंचाए, मैं आपका आभारी होऊंगा|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

वह खबर जिसके जवाब में मैंने यह लेख लिखा!

 

Saturday, 9 May 2015

जाट, जमीन, आरक्षण और खडदू-खाड़ा:


पहली बात: इनको आरक्षण की क्या जरूरत, इनके पास तो जमीन है? अरे तो भाई आप कौनसे आस्मां पे रहो, जमीन पे ही रहो| खेत ना होगा तो मकान-कोठी-बाग़-फैक्ट्री-मंदिर आपके पास कुछ तो होगा; वो कहाँ बन रे, जमीन पे ही ना?

दूसरी बात: जमीन रखनी, साह्मणी और पालनी कौनसी सबके बस की बात हो? 1980-90 के दशक में (असल तो पूरे भारत अन्यथा उत्तरी भारत में तो पक्का) कुछ पिछड़ी व् एस.सी./एस.टी. जातियों (सही-सही जाति का नाम उन जातियों की मान-मर्यादा को ध्यान में रखते हुए नहीं उछाल रहा, परन्तु तथ्य हेतु यह बात प्रयोग कर रहा हूँ) को गाँवों की सामलातों, खाली पड़ी जमीनों व् पंचायती जमीनों में से सरकार ने 1.75 एकड़ प्रति परिवार खेती करने को जमीन दी थी| परन्तु हरयाणा में तो आज हालत यह है कि 95% उस जमीन को बेच चुके हैं| उत्तर प्रदेश में मायावती ने इस प्रकार दी गई जमीन को बेचने पे रोक लगा दी थी, वरना वहाँ भी ऐसे ही होता| तो कहने का मतलब और जिनको यह बहम हो कि खेती हर कोई कर सके है, तो यह उदाहरण सामने है कि अगर जो खेती इतनी ही आसान और हर कौम-नश्ल के बन्दे के करने की बस की बात है तो यह लोग क्यों बेचते इसको? सरकार ने तो दिया था मौका मजदूर से जमींदार बनने का, परन्तु जमींदारी इतनी आसान चीज होती तो, इसको कुत्तेखानी कौन कहता|

तीसरी बात: जाट कहो या खापलैंड पर रहने वाली तमाम किसानी जातियां जैसे कि अजगर व् ब्राह्मण का किसान, कोई बिहार-बंगाल-पूर्वी भारत का ठाकुर या भूमिहार ब्राह्मण पद्द्ति पे खेती करने वाला किसान नहीं है कि खेत की मैंड पे या हवेलियों की अटालिकाओं पे खड़ा हो के आर्डर देवे और दलित-पिछड़ा मजदूर उसके लिए कमा के देवे; वो मजदूर के साथ खेत में कंधे-से-कन्धा मिला के उनके संग खुद खट के खेती करता है| और इसीलिए आज खापलैंड और पंजाब ही देश के अनाज के कटोरे कहलाते हैं, वर्ना बिहार-बंगाल की जमीनों को जितना पानी लगता है इतना पूरे भारत में कहीं की भी जमीनों को नहीं लगता| पर वहाँ का मजदूर (यहां तक कि जमींदार भी) धक्के खा के हमारे यहां ही रोजी-रोटी जोहता-खोजता हुआ चला आता है|

क्योंकि हम खेत की मैंड/डोल पे खड़े हो के नहीं अपितु खुद खेतों में उत्तर के खेती करी और अपनी भूमि को अपने खून-पसीने से सींच के दूसरों के भी रोजगार हेतु काम्मल बनाया|

चौथी बात: यह बात रखते हुए मैं दलितों या पिछड़ों को उलाहना नहीं दे रहा, और ना ही सरकार ने उनकी भलाई के लिए जो कदम उठाये उनको बुरा बता रहा; अपितु सरकार के उन क़दमों का जाट अथवा किसान पे क्या नकारात्मक प्रभाव पड़ा उसको बता रहा हूँ| सरकार ने दलित-पिछड़े को विभिन्न प्रकार के मुवावजे देने शुरू किये, आर्थिक से ले आवासीय, अनाज से ले चिकित्सीय हर सुविधा मुफ्त में या सस्ते में उपलब्ध करवानी शुरू करवाई; जिससे किसान को या तो मजदूर मिलना बंद हो गया अथवा महंगा मिलने लगा| जबकि सरकार को चाहिए था कि दलित-पिछड़े की इस भलाई के काम के साथ-साथ इस बात पर भी "सोशल इम्पैक्ट स्टडी" (social impact study) करवाती कि इसका किसान पे क्या आर्थिक प्रभाव होगा? अथवा किसान के खेत के लिए मिलने वाले मजदूर की बढ़ी मजदूरी सरकार वहन करती, अथवा उसको किसान की फसलों के दामों को बढ़ाने के जरिये पूरा करती| परन्तु ऐसा नहीं हुआ, क्यों?

क्योंकि यह था मंडी-फंडी का किसान को बर्बाद-लाचार-असहाय व् भूखा बनाने का पहला खड़दू-खाड़ा| अब इन इम्पैक्ट (impact) के ऐवज में भी जाट किसान को कुछ नहीं मिला और अब आरक्षण मांग रहा है तो आवाज उठा रहे? कर दो इसका हिसाब बराबर नहीं लेंगे आरक्षण|

पांचवीं बात: जाटों की जमीन की कीमत करोड़ों की है, इनके यहां तो सुख-समृद्धि छाल मर रही है| म्हारे हरयाणवी में कह्या करैं, "घूं कुत्त्याँ का छाळ मार रहा थोड़ा", सबकी तली लिकड़ी पड़ी है| हर नगरी-गाम गेल कोई दो-चार किसान इह्से हैं, जिनके सर कर्जा नहीं या जिनके घर भुखमरी नहीं, वर्ना सारे गरीबी और लाचारी ने तोड़ रखे| यह बात कहने वालों को जाट यह तर्क दे के समझाए कि जिस प्रकार बिज़नेस में करंट (current) यानी अलाइव (alive) व् फिक्स्ड (fixed) यानी डेड एसेट (dead asset) होते हैं, धरती डेड एसेट (dead asset) है| और इसकी प्रोडक्शन वैल्यू (production value) मंडी-फंडी की दमनकारी नीतियों के कारण कभी नहीं बढ़ती, इसलिए यह किसान पे डेपेरिसिअशन वैल्यू ऑफ़ एसेट (depreciation value of asset) की तरह 'सफ़ेद हाथी' बनके बैठी रहती है| यानी कुत्ते की हड्डी वाला हाल, जिसको ना निगलने से बनता और ना उगलने से|

इसको और सही से ऐसे समझो, मान लो एक व्यापारी ने एक बड़ी सी फैक्ट्री की बिल्डिंग खड़ी कर दी, परन्तु उसके अंदर बनने वाले उत्पाद का मूल्य मैनेजमेंट मेथड ऑफ़ डिफिायनिंग दी सेलिंग प्राइस ऑफ़ ए प्रोडक्ट (management method of definning the selling price of a product) के तहत नहीं, अपितु ठीक वैसे तय होता है जैसे साकार सरकार फसलों के एमएसपी (M.S.P.) निर्धारित करती है; तो वो व्यापारी दो दिन में या तो खुद को दिवालिया घोषित कर देगा अन्यथा जहर अथवा फांसी लगा के प्राण छोड़ देगा| चैलेंज करता हूँ, ज्यादा नहीं बस एक साल के लिए फैक्ट्री के उत्पादों का विक्रय मूल्य निर्धारण किसान वाले एमएसपी के तरीके से करवा दो, अगर आधे से ज्यादा व्यापारी फांसी पे ना झूल जाएँ तो| लेकिन फिर भी हम इन अनजस्टीफाईड (unjustified) तरीकों को झेल रहे हैं| और तुम कह रहे हो कि आरक्षण क्यों मांग रहे?

छटी बात: इनका तो अधिपत्य है, यह तो बहुसंख्यक हैं| अरे तो हैं तो फेर के किते कुँए-जोहड़-झेरे म्ह खोये जावां? थारा ठा लिया किमें, अक किमें खोस कैं खा लिया अक कोए-से की झोटी (ध्यान दियो जाट झोटी खोल्या करै तथाकथित राष्ट्रवादियों वाली गाय-गौकी नहीं) खोल ली? अरे सदियों से थारे भी तो रोजगार का साधन हम ही रहे? यें और जो अपने आपको सभ्य-सुशील कहलावैं हैं इनकी तरह किसी की बहु-बेटी देवदासी बना के सार्वजनिक तौर पर मंदिरों में ना बैठाई हमनें; बल्कि साबते गाँव की बेटी को अपनी बेटी कहने का और मानने का सिद्धांत चलाया है जाट ने| आज भी जाट किसी ब्याह-बारात के मौके पर हर सच्चा जाट उस गाँव-नगरी में अपने गाँव-नगरी की छत्तीस ज्यात (जाति) की बेटी की मान-मनुहार करकें आवै| और फिर भी थाम न्यू कहो अक यें दबंग सैं| फेर भी इनके बहुसंख्यक होने पे आपत्ति| हाँ रै न्यूं बताओ, जो अगर यें मंदिरों में देवदासी पालने वाले बहुसंख्यक हो जां, फेर आ जागा चैन थारे को?

आज खापलैंड पे अगर किसी दलित-पिछड़े के बेटी देवदासी बना के मंदिरों में ना बैठे जाती अगर तो वो हम जाटों की वजह से है, वर्ना जा के देखो दक्षिण-पूर्वी भारत में क्या हाल है आज भी| हाँ हैं हम दबंग परन्तु सबकी बहु-बेटी को अपनी बहु-बेटी कहने वाले दबंग, सबकी बहु-बेटी को इन देवदासियां पालने वालों से बचाने वाले दबंग|

सांतवीं बात: कैसे लैंड बिल के जरिये मंडी-फंडी कभी भी किसान को उसकी हैसियत और औकात दिखा सकते हैं, यह अब किसी से छुपा नहीं| किसान सिवाय बंधुआ मजदूर के कुछ भी नहीं| साधारण मजदूर की दिहाड़ी तो कम से कम उसको उसकी मर्जी से मिल जाती है, यहां तो किसान की फसल के भाव भी मंडी और व्यापारी तय करते हैं? यह तो सरकार ने जाट के पास इसलिए छोड़ रखी है क्योंकि और कोई इतनी बढ़िया खेती कर नहीं सकता; वरना कल को सरकार को कोई मिल जाए तो सबसे पहले जाट से जमीन ही छीनने का काम करे|
जाओ मंडी-फंडी के इन चन्गुलों से आज़ाद करवा के हमें हमारी खेती के उत्पादों के विक्रय मूल्य निर्धारण का हक़ दे दो, नहीं मांगेंगे आरक्षण|

और आज के जमाने में तुमको जमीन इतनी ही प्यारी है तो आ जाओ ले लो साल-दो साल के पट्टे पे मेरी जमीन| इस बात की गारंटी के साथ दूंगा कि अगर अकाल-बाढ़-ओला पड़ गया तो फसल के नुक्सान के अनुपात में पट्टा छोड़ दूंगा| आओ कौनसे-कौनसे हैं इस बात की ढींग हांकने वाले कि जाटों के पास तो जमीन है फलाना है ये है वो है करने वाले सारे ही आ जाओ मेरे खेतों में और खट के तो दिखाओ साल-दो साल| वो नेवा कर राखा, "अक अगला शर्मांदा भीतर बड़ ग्या, अर बेशर्म जाने मेरे से डर गया|" जिनको पादने के लिए भी टांग उठाने तक को नौकर चाहियें, वो जाटों पे जमीन को ले के तंज कसते हैं|

इसलिए जाटो, 11 मई को बिंदास भर दो जंतर-मंतर को| और इतना भर दो कि वो जवाहरलाल की कही हुई बात का अहसास दिल्ली में बैठे हर गैर-हरयाणवी को हो जाए कि दिल्ली के बाहर-भीतर-चारों ओर भी कोई बसै है, जो थारा हलक सुखा सकै है| आच्छी ढालाँ कटिये काट-काट कैं, भड़क बिठा कैं आना है राष्ट्रवादियों और खोदी जी कै |

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 7 May 2015

मंडी-फंडी के गुर्गों की घड़ियाली राजनीति!


अभी विगत पांच मई को कांधला में स्वर्गीय बड़े चौधरी साहब चरण सिंह जी की प्रतिमा के टूटने की झूठी अफवाह फैला के जाटों की बेइज्जती हो गई का ओढ़ा करके विधवा-विलाप करने वाले मंडी-फंडी के गुर्गो, तुम उस दिन कहाँ गए थे जब चौधरी साहब की समारक 12 तुगलक रोड को खाली करवाया गया था? उस दिन ना दिखी तुम्हें जाट कौम की बेइज्जती?

यह तो धन्यवाद हो कांधला के जाटों का कि उन्होंने मामले को सूझबूझ और संयम से लिया, वर्ना तो हो गया था एक और मुज़फ्फरनगर|

रै मंडी-फंडी के चक्करों में उलझे थोड़े बहुत जाटो बाज आ जाओ और निकल आओ इनके चंगुल से, क्यों कौम को अपने हाथों मिटवाने पे तुले हो|

दिखे ऐसी ही घुन्नी राजनीती की वजह से एक बार सन 1492 में मोखरा नगरी (गैर-हरयाणवी की भाषा में गाँव), रोहतक का मलिक जाट उजड़ गया था| एक बनिए ने ताकू-तकिया करके एक जाट और राजपूत में झगड़ा लगवा दिया वहाँ, और फिर जब जाट राजपूतों पे भारी पड़े तो, उसी बनिए ने राजपूतों को सलाह दी कि इनको बाड़े जैसी जगह पे घेर के जला दो| और फिर रचा गया था मोखरा में बहुत बड़ा काण्ड, राजपूतों ने पहले जाटों से संधि करी और फिर एक बड़ी सामूहिक दावत का आयोजन किया लकड़ी-फूस-चारे के मजबूत बाड़े में और धोखे से जब सारे जाट उस बाड़े में आ लिए तो ऐसा प्रपंच रचा कि बाड़े को बंद करके आग लगा दी, सारे जाट धूं-धूं कर जल गए थे| सिर्फ उस वक्त गर्भवती दादीराणी रामकौर बची थी| तब उन दादी जी ने अपने मायके "देपाल" - हांसी में जा के दोबारा मोखरा के मलिक जाटों का वंश चलाया था|

इसलिए कित चढ़े घूम रहे इन मंडी-फंडी के फंदों में एक दिन सूली पे चढ़ा के ऐसा मारेंगे कि खोज नई टोह्या पावैगा|

और एक बात समझ लो वहीँ कांधला में ही 5 मई के इर्द-गिर्द ही एक जैन मंदिर पे पथराव हुआ वो भी वास्तविक, उसकी तो ना खबर उड़वाई मंडी-फंडी ने थारे से कि आओ रे जाटो देखो मंदिर पे हमला हुआ, यह चौधरी साहब की मूर्ती टूटने की झूठी अफवाह ही क्यों फैलवाई? साफ़ है कि इस बार इनको दंगा भड़काने को हिन्दू-मुस्लिम टैग की जरूरत नहीं, सीधा जाट-मुस्लिम का जंग छिड़वाना चाह रहे|

धन्य हो कांधला के जाटों को जिन्होनें इस बार संयम से काम लिया| हम ऐसे ही चलते रहे तो अपने जाट-मुस्लिम भाईचारे को एक बार फिर सुदृढ़ कर लेंगे| उम्मीद है कि पश्चिमी यू. पी. का मुस्लिम भी अब इस धार्मिक उन्माद की गन्दी राजनीती से सबक ले के संभल चुका होगा और आगे बीजेपी, सपा या आरएसएस जैसी धार्मिक उन्मादी तत्वों ने कोई अफवाह फैलाई तो संयम और सूझबूझ से काम लेगा|

इनसे सिर्फ और सिर्फ कारोबारी रिश्ता रखो, ज्यादा भाईचारे के डोरे डालने या मुंह लगाने से मंडी-फंडी गले की फांसी बनता आया है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 6 May 2015

ओ.बी.सी. भाईयो चॉइस आपकी है!


शरद यादव कहते हैं कि ओ.बी.सी. का आरक्षण कोटा जो कि आज ओ.बी.सी. की जनसंख्या के अनुपात का आधा है, इसको अगर पूरा-पूरा लेना है तो हमें जाटों को ओ.बी.सी. में शामिल करना ही होगा, क्योंकि जाट जुनूनी है, दृढ-संकल्पी है और वह हमसे जुड़ा तो फिर हमारा आधा हक और 'बैकलॉग" का स्लॉट कोई जनरल वाला नहीं मार पायेगा|

और यह बात सच भी है| मेरा मानना है कि मंडी-फंडी इस बात से ज्यादा बौखलाया हुआ है कि अगर जाट और ओ.बी.सी. एक हो गए तो फिर यह लोग अपना हक़ अपनी जनसंख्या के अनुपात में मांगेंगे और तुम्हारे (मंडी-फंडी के) मुफ्त में मलाई मारने के दिन लद जायेंगे| इसलिए जाटों और ओ.बी.सी. में "बांटो और राज करो" का पासा फेंका हुआ है| और राजकुमार सैनी जैसे ओ.बी.सी. कौम के कुछ नादान सिपाही इनके झांसे में आये हुए हैं| अब चॉइस आपकी है कि आपको इस पासे का जवाब कैसे देना है|

कि आपको इनके झांसों में आके अपना दोहरा नुक्सान करना है या जाट के साथ मिलके आपका जो हक़ यह लोग खा रहे हैं वो वापिस लेना है| फिर भले ही आपको ओ.बी.सी. में भी जातीगत बाउंड्री चाहिए तो वो खिंचवा लेना| परन्तु इन मंडी-फंडी के बहकावों में आ के खुद ही अपने पैरों पे कुल्हाड़ी मत मारो| क्योंकि इतना तो शरद यादव जैसे पहुंचे हुए दिग्गज भी समझ रहे हैं कि बिना जाट को साथ लिए, मंडी-फंडी 27% आरक्षण को 54% नहीं होने देगा आपके लिए|

इस बीच मेरे जाट समाज से इतनी अपेक्षा चाहूंगा कि जब तक मंडी-फंडी की यह ओ.बी.सी. और जाट को बाँट के राज करने की 'एक्सपेरिमेंटल पॉलिटिक्स' के बादल ना छंटे, तब तक धैर्य बनाये रखें| क्योंकि सारा ओ.बी.सी. हमारा विरोधी हो ऐसा तो मैं मान ही नहीं सकता| हमें धीरज धार के सिर्फ और सिर्फ सही वक्त का इंतज़ार करना होगा| परन्तु हाँ इस बीच एक यह सुदृढ़ संकल्प जरूर कर लो कि जब तक ओ.बी.सी. भाईयों को यह राजनीती समझ में आवे और वो वापिस हमारे साथ जुड़ें, तब तक हम यह रणनीति बना चुके हों कि कैसे ओ.बी.सी. के साथ मिलके मंडी-फंडी से हमारी जनसंख्याओं के अनुपात में ना सिर्फ सरकारी वरन प्राइवेट नौकरियों में इसी अनुपात का आरक्षण लेना है|

इसलिए जाट कौम के लिए यह वक्त बहुत ही धैर्य धारण करके मंडी-फंडी की चालों को समझने व् ओ.बी.सी. भाईयों के मंडी-फंडी चालों से बाहर आने तक इंतज़ार करने का है|

शायद ओ.बी.सी. को अभी और वक्त लगेगा यह बात समझने में कि यह सब नाटक किसलिए हो रहा है और यह आभास फिर से तरोताजा करने में कि मंडी-फंडी कितना ही तुम्हारा होने का नाटक कर ले अथवा तुमको जाट से अलग-थलग करने के प्रपंच चल ले, परन्तु तुमको तुम्हारी जनसंख्या के अनुपात का आरक्षण कभी नहीं देगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

यदि ऐसी बात है तो पंजाबी खत्रियों की "जय माता दी" को जाट अब अपनी "माता दी" कहनी बंद करें:


(गाँव-गाँव गली-गली डी.जे. की तरह जगरातों पे बैन लगा दो|)

कल के रोहतक से निकलने वाले एक मुख्य अखबार में पढ़ा कि अब पंजाबी खत्री भी जाटों के आरक्षण के विरोध में उतरेंगे|

हाल ही में जाटों के आरक्षण को ले के राजकुमार सैनी (सारा सैनी समाज नहीं) के नेतृत्व में जो बवाल तथाकथित राष्ट्रवादियों के इशारे पर चल रहा था, उसमें जुड़ते हुए जिस तरीके से पंजाबी खत्री समाज ने उनका ओबीसी कोटे से कोई लेना-देना ना होते हुए भी इसके विरोध में कूदने का जो झटका जाटों को दिया है; अब इनके ही अंदाज में जाटों को भी आपसी-भाईचारे और समरसता के चलते जो इनकी "जय माता दी" को अपनी "माता दी" कहने का अपनापन छेड़ा हुआ था, उसको झटका देने का वक्त आ गया है|

हर इस उस दिन कहीं जगराते तो कहीं सतसंगों के जरिये इनकी जेबें कमाई से भरने का जो एक जरिया जाटों ने इनको खोल के दे रखा है उसपे अब ब्रेक लगाने की जरूरत है|

मैं वैसे ही थोड़े कहता रहता हूँ, कि अपने खुद के "दादा खेड़ों को पूजना छोड़ के" हर इस-उस के दिए विचारों को पालोगे और पूजोगे तो यह लोग तुम पर ही उल्टा झपटेंगे| इसलिए छोड़ों इन माता और जगरातों को और लौटो अपने दादा खेड़ों की शरण में| और वक्त है शहरी जाटों के लिए अब जाट आरक्षण की मुहीम में इस तरीके से भूमिका निभाने का, क्योंकि आप लोगों के घरों में माता ज्यादा बड़ी बैठी है या आप लोगों ने बैठाई अथवा बैठने दी है| हम जाट देवता होते हैं, किसी के मान-मान्यताओं को अपने घरों में जगह दे देवें तो इसका मतलब यह नहीं कि हमारा देवत्व धुल गया| इसलिए करो इति श्री!

और गाँवों वाले जाट भी जैसे डी.जे. को पंचायतें कर-करके अधिकतर गाँवों ने बैन कर दिया था, अब ऐसे ही बैन हमारे गाँवों में इन जगराते वालों के घुसने पे घोषित करवाने शुरू किये जावें| तब पता लगेगा इनको सबसे मित्र कम्युनिटी के विरुद्ध खड़ा होने का|

वैसे भी जो अपने खुद के भगवानों को बिसरा के दूसरों के को सर पे उठाये फिरें, उनके साथ फिर ऐसा ही होता है जैसा आज पंजाबी खत्री समाज जाट समाज के आरक्षण से इनका कुछ लेना-देना ना होते हुए भी कर रहा है| जाट समाज इनके तमाम जगरातों की बुकिंग रद्द करे और हर सोशल मीडिया पर बैठा जाट इस बात का प्रचार अपने शहर-गली मोहल्ले में ले के जावे|

कोई असली जाट का जाम होगा तो यह बात पक्की गड़ेगी उसको और आज ही जा के अपने घरों से इनकी गढ़ाई हुई चौकियों-माताओं को उठा के जब बाहर का रास्ता दिखाएंगे, तब अक्ल आएगी इनको कि तुम्हें बिज़नेस देने वालों के खिलाफ खड़ा होने का क्या शबब होता है|

इन्होनें तो वो फितूर मचा रखा अक, "अगला शर्मांदा भीतर बड़ गया, और बेशर्म जाने मेरे से डर गया", हम तो भाईचारे और समाज की समरसता ढो-ढो छक लिए और ये, "माँ तो चौथी-चौथी नैं फिरै और बेटा बिटोड़े ही बिसाह दे|" वाली कर रहे हमारे साथ|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

हिन्दू धर्म में एकता और बराबरी के ठेकेदारों का फर्ज बनता है कि वो सैनी साहब को रोकें, हिन्दुओं को ऐसे बांटने से!


मैं ना तो मोदी को ढूंढ रहा, ना समाज के ठेकेदारों को, और ना तथाकथित राष्ट्रवादियों को; मैं तो हिन्दू धर्म के उन ठेकेदारों को ढूंढ रहा हूँ, जो लोकसभा इलेक्शन से पहले हिन्दू धर्म में एकता और बराबरी की बात करते थे| ....... यह लोग मिल भी गए तो नहीं आएंगे आगे| क्योंकि हिन्दू धर्म है ही नहीं, होता तो कोई इतनी जुर्रत कर पाता कि उसके अपने धर्म वाले ऐसे फाड़ करने पे तुले हैं और धर्म वाले चुसक भी नहीं रहे| वही धर्म वाले जिनको जब वोट चाहिए होती हैं तो पता नहीं कहाँ ख्वाबी-ख्यालों से हिन्दू एकता और बराबरी का जुमला उठा लाते हैं|
निसंदेह हिन्दू कोई धर्म नहीं अपितु मानवता का धंधा है, जिसको दान-पुन: के नाम पर सिर्फ पैसे कमा के अपना पेट भरना आता है| बाकी इसमें राजनैतिक सरकार और तथाकथित राष्ट्रवादियों का जो हाथ है सो तो है ही|

ऐसे-ऐसे किस्से सबक हैं उन नादानों जाट बालकों के लिए जिनको हिन्दू धर्म वाले यह कह के बहका लेते हैं कि, सदियों से बिछड़े रहे तो गुलाम रहे, अब तो एक हो जाओ| क्या यही सब देखने और झेलने के लिए एक हो जाओ, कि जो जाति समाज की रीढ़ की हड्डी है, उसके खिलाफ कोई जहर उगले और ना धर्म वाला और ना कोई समाज वाला उसका मुंह थोबे?

और हम गुलाम इस वजह से नहीं हुए थे कि हम एक नहीं थे, अपितु इन्हीं हरकतों और साजिशों के चलते हुए थे जो आज फिर से मंडी-फंडी जाट के खिलाफ बाकी के पैंतीस बिरादरी के समाज को खड़ा करके रच रहा है| बाज आ जा मंडी-फंडी, और अगर शर्म ना हो तो इतिहास की तारीखें पलट के देख ले, जाट ने हमेशा तुझे आईना दिखाया है|

कभी मुसलमान खा जायेंगे का डर दिखा के एक होने की बात करते हैं, जबकि हमें तो मुसलामानों से डर लगता भी नहीं, क्योंकि हम मुस्लिमों से डंके की चोट पर भाईचारा निभाना जानने वाली कौम रहे हैं| हमें कोई खायेगा तो यह खुद हिन्दू धर्म वाले खाएंगे जाटो, इसलिए लामबंध और एक होना है तो इन मंडी-फंडी की ताकतों के खिलाफ एक होवो| ताकि आपको एक देखकर यह ओबीसी भाई भी इन मंडी-फंडी की साजिशों में फंस इन सैनी साहब की तरह आपके विरुद्ध मोहरे की तरह इस्तेमाल ना हो पावें|

फूल मलिक


 

यदि ऐसा है तो फिर 1984-86 में पंजाब से हरयाणा आया पंजाबी खत्री अब वापिस पंजाब लौटे, क्योंकि वहाँ आतंकवाद खत्म हो चुका है!


1947 में सबसे ज्यादा पंजाबी खत्री हरियाणा की धरती पर आ कर बसा और हमने बड़े स्नेह से गले लगा के अपने भाईयों को हमारे यहां बसाया| मेरी स्वर्गीय दादी जी के बताये किस्से मुझे आज भी याद हैं कि कैसे वो हमारी निडाना नगरी (गैर-हरयाणवियों की भाषा में गाँव) में बसने वाले पाक्सस्तानी (उस जमाने में इसी नाम से इन भाइयों को पुकारा जाता था; हालाँकि वो अलग बात है कि आज तीसरी पीढ़ी हो चली है भाइयों की हरयाणा में, परन्तु हरयाणा की धरती पर जन्म लेने के बावजूद आज भी संस्कृति से भले ना सही परन्तु जन्म से भी खुद को हरयाणवी कहने में झिझक रखते हैं) भाईयों की कैसी-कैसी आर्थिक और मानवीय मदद किया करती थी| और कैसे अल्पसंख्यक होते हुए भी कभी भी स्थानीय शरारती व् गैर-सामाजिक तत्वों द्वारा आप लोगों (पंजाबी खत्री) पर ताने गए भाषवाद अथवा क्षेत्रवाद के मुद्दों को हवा नहीं लेने दी| और एकमुश्त हो अपने सगे भाईयों की तरह सीने से लगाया|

लेकिन अगर इस भाईचारे को भुला, आज यही पंजाबी भाई जाटों के आरक्षण के विरोध में उतर रहे हैं तो अब जाट समाज को भी इस पर कड़ा रूख अख्तियार कर लेना चाहिए| वैसे भी सर्वविदित है कि हरयाणा में जो जाट बनाम नॉन-जाट का जहर बोया जाता है उनमें आप पंजाबी भाई सबसे अग्रणी भूमिका निभाते सुने गए हैं| और अब ऐसे विषय को ले के जिससे कि जाटों को ओ.बी.सी. में आरक्षण मिलने अथवा ना मिलने से आप पर कोई प्रभाव भी नहीं पड़ना, फिर भी आप लोग हमारे विरोध में उतर रहे हैं तो अब जाटों को कम से कम आप में से उन पंजाबी भाइयों के वापिस पंजाब में चले जाने की मांग को पुरजोर से उठाना शुरू करना चाहिए, जिन्होनें कि 1984-86 में पंजाब के आतंकवाद से ग्रस्त माहौल से सुरक्षित माहौल हेतु हरयाणा की जी. टी. रोड बेल्ट पर आकर शरण ली थी| हालाँकि यह लिखते हुए मैं इतनी मानवता जरूर रखना चाहूंगा कि जो 1947 में पाकिस्तान से सीधे हरयाणा में आये थे वो हरयाणा में रहें, परन्तु जो 1984-86 में पंजाब में आतंकवाद के चलते हरयाणा में शरण लिए थे, उनको अब वापिस पंजाब में चला जाना चाहिए, क्योंकि अब वहाँ आतंकवाद ख़त्म हो चुका है और स्थिति सामान्य हो चुकी है|

एक तरफ जहां सरकारों से ले के समाज तक जम्मू-कश्मीर से आतंकवाद के चलते विस्थापित कश्मीरी पंडितों की घर-वापसी की बात करते हैं, और आपको हरयाणा का माहौल ऐसे ही बिगाड़ना है तो फिर ऐसे ही आपकी भी घर-वापसी हो और आप लोग पंजाब में वापिस लौट जाएँ|

क्योंकि अगर जाट और हरयाणा की दरियादिली का आप लोगों ने हमें यही सिला देना है तो फिर इसका यही एक रास्ता बचता है कि आप लोग कृपया पंजाब में वापिस लौटें और फिर यह जातिगत जहर उगलें या ना उगलें, वहाँ जा कर सोचें| धुर ईसा पूर्व तीसरी सदी के सिकंदर से ले के और आजतक हम जाटों ने अपने हरयाणा को हर प्रकार के जातिवाद, धर्मवाद और भाषावाद के उन्माद से बचा के रखा है| और आप लोग इतने कम समय में बेशक आपकी अपनी मेहनत से इतने समर्थ बने तो इसमें हमारी इस सदियों पुरानी रीत का भी योगदान है| और इससे बड़ी मानवीय समरसता की मिशाल जाट और अन्य तमाम हरियाणवी कोई दे नहीं सकते|

परन्तु अब अगर आप लोगों को बिना वजह और बेतुके ही जाटों से भिड़ना है, वो भी तब जबकि जिस मुद्दे को ले के आप जाटों से भिड़ रहे हो उससे आपका कोई नफ़ा-नुक्सान नहीं, तो फिर अब जाट के लिए यही रास्ता बचता है कि आप जितने भी पंजाब के आतंकवाद के चलते हरयाणा में शरण लिए, आपको वापिस पंजाब भेजने हेतु आवाज उठाई जावे|

वाह रे पंजाबी खत्री भाइयों, आप लोगों को आतंकवाद से शरण लेने को सबसे सुरक्षित जगह चाहिए तो वो जाटों और तमाम हरियाणवियों का हरयाणा और बिना-वजह जिसका कि कोई तुक ही नहीं बनता उसपे लड़ने को चाहिए तो वो भी जाट| इससे साबित होता है कि हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट का जो जहर फैलाया हुआ है, उसमें आप लोग ही सबसे अग्रणी हो|

खैर, तथाकथित राष्ट्रवादियों के उकसाए हुए राजकुमार सैनी जैसे सांसद क्या पहले से कम थे, जो अब आप लोग भी सींग पिना चले आये| खाम्खा ही यह कहावत कही जाती है कि "जाटड़ा और काटड़ा अपने को मारे"| यह कहावत तो ऐसे होनी चाहिए कि, "जाट जिसको भाई मान के शरण और सुरक्षित माहौल दे, वही जाट की गोभी खोदे|"। हाँ यह सुरक्षित माहौल हम जाटों की वजह से ही आप लोगों को हरयाणा में मिला था जब आप पंजाब के आतंकवाद से उकताए हुए पलायन ढूंढ रहे थे और हमने कभी इसकी रॉयल्टी भी नहीं मांगी, ठीक वैसे ही जैसे आज व्हट्स अप्प और फेसबुक जैसों से मोबाइल कंपनियां इंफ्रा के नाम पे रॉयल्टी और प्रॉफिट शेयरिंग मांग रही हैं|

मेरा निवेदन है पंजाबी खत्री समाज के उन बुद्धिजियों से जो जाट को भाई मानते हैं कि वो इन मनचलों को समझावें और मेरे और आपके हरयाणा को एक और जातीय जंग का अखाडा ना बनावें| क्योंकि अगर मेरे जैसे पंजाबी कौम को अपना सुदृढ़ मित्र मानने वाले को यह बात आघात पहुंचा सकती है तो फिर आम जाट का क्या होगा| मेरी बचपन से पंजाबी लड़कों से गहरी दोस्ती रही है और आपको इस-उस वक्त "रफूज" या "रफूजी" कहने वाले दोस्तों-तत्वों का पुरजोर विरोध किया है और उनको समझाया है| तो मैंने अगर यह विरोध किये थे आपके पक्ष में तो आज यह सुनने के लिए नहीं कि आपके समाज के कुछ मनचले मेरे ही समाज के विरुद्ध उस चीज के लिए खड़े हो जायेंगे कि जिसके हमें मिलने या ना मिलने से आप लोगों को कोई फर्क ना पड़ता हो|
अंत में उन बचपन से ले के आजतक के मेरे तमाम पंजाबी दोस्तों से मेरा अनुरोध है कि आप लोग समझाए इन आपके समाज के बहके हुए लोगों को कि कुछ नहीं मिलना इन चूचियों में हाड ढूंढने के चिलतरों से, सिवाय आपके और मेरे बीच और खटास पैदा करने के|

जय यौद्धेय! -फूल मलिक

Please see photo news in reference which became the reason behind writing of this article:

 

Monday, 4 May 2015

ये मंडी-फंडी जाट को तीनों-जहान से खो के मानेंगे:

(यह लड़ाई है "नौकर-मालिक" बनाम "सीरी-साझी" सभ्यता की)


1) 1991 में जाटों द्वारा बनाया गया लगभग 80 बरस पुराना 'अजगर' (अहीर-जाट-गुज्जर-राजपूत) गठबंधन तोड़ के ये माने|
2) 2005 में हरयाणा में कभी गोहाना तो कभी मिर्चपुर कांड करवा के जाट-दलित का भाईचारा ये बिखरा के माने|
3) 2013 में मुज़फ्फरनगर दंगे के जरिये 1857 से चला आ रहा जाट-मुस्लिम भाईचारा, हिन्दू-मुस्लिम के पचड़े में पड़वा के तुड़वा के ये माने|
4) 2015 में अब जाट - ओ.बी.सी. भाईचारे पे इनकी नजर आन जमी है| और इनकी चली तो इसको भी तुड़वा के दम लेंगे|


और जाट हैं कि फिर भी एक नहीं हो रहे? जाटों इससे भी बड़ी बर्बादी की बाट जोह रहे हो क्या?


इसमें समझने की बात यह है कि जाट ही अकेली ऐसी कौम है जिसको ब्राह्मण ने "जाट जी" कहा है| जाट ही एक ऐसी कौम रही है जो ब्राह्मण के किसी सभा में आने पे खड़ी नहीं होती| वर्ना राजपूत तक इनके आने पे खड़े हो के प्रणाम करते हैं इनको| राजपूत तक को भी इन्होनें कभी 'जी' लगा के नहीं बोला| 1875 में जब आज का हरयाणा अंग्रेजों ने पंजाब में दिया था तो सिख धर्म के प्रभाव के चलते सारे जाट सिख धर्म की तरफ रूझान करने लगे थे, तब 1875 में ब्राह्मणों ने मुंबई में दयानंद सरस्वती को यह जिम्मा सौंपा और जाट को सिख धर्म में जाने से रोकने के लिए "सत्यार्थ प्रकाश" लिखवा के उसमें "जाट" को "जाट जी" लिखवाया| और सब जानते हैं कि हमारी संस्कृति में "जी" जमाई के नाम के आगे लगाया जाता है|


तो कहने का मतलब यही है कि इनके किसी भी मिथ्या प्रचार में या प्रभाव में आ के मत भटको| ओ.बी.सी. और दलित भाई भोले हैं, वह लोग यह सोच बैठते हैं कि मंडी-फंडी ने तुम्हें थोड़ा सा मान दे के उकसाया और तुम जाट के खिलाफ बोले और तुम ब्राह्मण के बराबर आ गए|


किसी भी ओ.बी.सी. भाई को इस बात का बहम हो तो वह यह याद रखे कि ब्राह्मण से 'जी' शब्द सिर्फ "जाट जी" ही कहलवा सकता है| इसलिए ज्यादा बहम में ना पड़ के, जाटों के साथ मिलके आज के दिन के 27% से अपनी जनसँख्या के अनुपात का 62% आरक्षण लेने के लिए एक हो जाओ| नहीं तो ना कोई इधर का रहेगा और ना उधर का|


और जाट भी अब अपनी धार्मिक मान्यता को स्थिरता प्रदान करें| याद रखें आप लोग चाहे जितने प्रयास कर लेना परन्तु यह आपके जींस में ही नहीं कि आप ब्राह्मण थ्योरी को धारण कर सको| क्योंकि ब्राह्मण थ्योरी जहां नौकर-मालिक की संस्कृति पर चलती है, वहीँ जाटों की 'सीरी-साझी' की संस्कृति पर चलती है| और इन दोनों का मेल ना तो वैचारिक तौर से हो सकता है और ना ही व्यवहारिक तौर से|


इसलिए जितने भी जाट इस नौकर-मालिक की ऊंच-नीच की संस्कृति में पड़, दलित या ओबीसी को अपने से छोटा-बड़ा समझने लगते हैं, फिर उसी का फायदा उठा मंडी और फंडी आप लोगों में फूट डलवाता है| लेकिन अगर अपनी 'सीरी-साझी' यानी नौकर को नौकर नहीं अपितु पार्टनर समझने की संस्कृति पे कायम रहोगे तो ना दलित आपसे दूर होगा, ना ओबीसी और ना मुस्लिम|


असल में यह लड़ाई है ही "नौकर-मालिक" बनाम "सीरी-साझी" सभ्यता की| जो इसको जितना जल्दी समझ के अपने "दादा खेड़ा धर्म" में सम्पूर्ण ध्यान लगा एक रहेगा, वो आर्थिक-आध्यात्मिक-सामाजिक-शारीरिक सब तरह से सक्षम और खुशहाल रहेगा अन्यथा कुत्तेखानी जैसी यह स्थिति और बद से बदतर होती चली जाएगी|


जय यौद्धेय! - फूल मलिक