Sunday, 28 June 2015

एंटी जाट ताकतें वैसे ही नहीं जाटों के खिलाफ, एक तरफ़ा कार्यवाही का साहस जुटा गई!


यह सब कब से हुआ और कैसे हुआ उसको बड़े सलीके से अंजाम दिया गया है| और इसके परिणाम स्वरूप पहले जाट को चार धड़ों में अलग-थलग किया गया, एक शहरी जाट, दो खाप-परस्त जाट, तीन नेता व् पार्टी परस्त जाट और चार ग्रामीण जाट|

1) 3B ग्रुप ने शहरी जाट को अपने चश्मे में उतारा, उससे माताएं पुजवानी शुरू की, गैर-जाट ब्याह-शादी की चमकीली परन्तु बिना लॉजिक की परम्पराएँ प्रमोट करवाई| इससे शहरी जाट में इतना अरोगेंस भर गया कि रिटायर होने के बाद भी उसने अपने गांवों की तरफ मुड़ के नहीं देखा|

2) पूरा मीडिया और एंटी-जाट सभ्यता एनजीओ को जाट की खाप ब्रांड को धूमिल करने हेतु 2005 से उसके पीछे छोड़ा गया| इससे शहरी जाट को दूसरा कारण दिया गया गाँवों की तरफ मुड़ अपने ग्रामीण भाइयों को ना संभालने का|

3) पार्टी-परस्त जाट, इसका तो कहूँ ही क्या, इतनी तो देश में पार्टियां नहीं, जितनी जाट बहुल एक गाँव में मिल जाएँगी|

4) ग्रामीण जाट के संसाधनों व् संस्कृति को तितर-बितर करने हेतु तो सारा गेम खेला ही गया था|

और हमारे वाले अरोगेंस में बैठे रहे यह कहते हुए कि, "के बिगड़े सै, देखी जागी!"

इब तो एडी उचका-उचका देखण का ही काम रहवगा जब तक यह चार धड़ों में बंटा जाट एक हो के नहीं सोचता|
इसलिए सबसे पहले एक होवो, इनकी माता-मसानियों को अपने घरों से बाहर निकालो| खाप तंत्र को जो नहीं समझता उसको समझाओ| जो शहरी जाट है वो गाँव की तरफ मुङो| जिसको बोलना नहीं आता उसको बोलना सिखाओ| चाहे गाली खा के सिखाओ परन्तु सिखाओ|

क्योंकि एंटी-जाट 3B ताकतें जाट को दलित और पिछड़े से तोड़ रही हैं और जाट सिर्फ खड़े देख रहे हैं| जाटो जब तक आगे बढ़ के अपने आपको स्पष्ट नहीं करोगे, दलित-पिछड़ा आपके एंटी 3B की ही सुनेगा| अपने आपको प्रमोट करो, मार्किट करो और बोलना शुरू करो|

मैं यही नहीं कहता कि दलित-पिछड़े को ले के आपसे कोई गलती नहीं हुई होगी, परन्तु इतना भी जानता हूँ कि आप से कहीं कई गुना ज्यादा दलित-पिछड़े का नुक्सान इन्होनें किया है| और दलित-पिछड़े को इस बात का अच्छे से अहसास भी है, पंरतु अगर आप ऑप्शन ही खत्म कर दोगे तो वो आपके साथ कैसे जुड़ा रह पायेगा?

अत: जरूरत है तो वो उस नुकसान को आगे रखने की, दलित-पिछड़े का ऑप्शन बने रहने की| इसलिए सोशल मीडिया हो या जैसा भी प्लेटफार्म हो, चुप मत बैठो 'Tit for tat करो|' यह आपके अधिपत्य के किस्से दलित-पिछड़े के आगे रखते हैं तो आप इनके रखो| जैसे एमडीयू में जाट असफरों-प्रोफेसरों के साथ किया जा रहा है, ऐसे आप इन वालों के जिसको भी जहाँ जो भी भेदभाव और घपला दिखे उसको आगे लाओ| क्योंकि यह लोग दलित-पिछड़े को सिर्फ बहका के रखेंगे और रोजगार देंगे खुद के 3B ग्रुप को|

शर्म-शर्म में शर्मा के सामड जाओगे और दुश्मन सोचेगा कि यह तो मेरे से डर गया| इनकी नियत को बराबर उजागर करते रहोगे तो इस भीड़ पड़ी के वक्त में एक तो दलित-पिछड़े के दिल-दिमाग से दूर नहीं जाओगे, दूसरा दलित-पिछड़ा इनके इतना नजदीक नहीं जायेगा कि जिससे आपको जुड़े रहने में बाधा आये|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 27 June 2015

एक ही गोत (गोत्र) में ब्याह और यूरोप!


‘le mariage de même nom pas autorisé dans notre culture’ – as per my european friends

विगत सप्ताह एक फ्रेंच मित्र और उससे कुछ दिन पहले एक रोमानियाई मित्र से मुलाकात हेतु कंट्रीसाइड गया हुआ था| इन दोनों मुलाकातों में ही ऐसा संयोग बैठा कि संस्कृति और मान-मान्यताओं पर बातें चल निकली| उनसे हुई बातों के कुछ रोचक हिस्से हिंदी में रूपांतरित करके सुनाता हूँ|

गाड़ी में कंट्रीसाइड चल निकले तो बातें शुरू हुई| उन्होंने मुझसे कहा कि इंडिया में तो वर्ण व् जाति-व्यवस्था बहुत ऊँच-नीच फैलाती है| सुना है हिन्दू धर्म विश्व का इकलौता ऐसा धर्म है जिसमें धर्म के ही अंदर रंग-नश्ल के आधार पर भेदभाव होता है?

मैंने कहा कि रंग-नश्ल के आधार पर भेदभाव तो हर जगह है| तो वो बोले हाँ, पर खुद के ही धर्म वालों द्वारा खुद के ही धर्म वालों को रंग-नश्ल भेद का शिकार? तो मैंने कहा कि यह सब गन्दी राजनीति की वजह से होता है|
बोले कि फूल बनो मत हमारे आगे, हमें गूगल करना आता है| इस पर मैंने कहा कि अमेरिका में गोरे और काले की लड़ाइयां तो वर्ल्ड फेमस हैं, सुना है दोनों एक धर्म के होते हैं? इस पर झट से बचाव में जवाब आया कि काले पहले गौरों के गुलाम थे, उस वक्त उनका धर्म कुछ और था| तो यहाँ सवाल एथनिसिटी का भी बन जाता है, परन्तु तुम्हारी तो सबकी एथनिसिटी इंडियन ही है ना?

मैंने कहा जो भी हो परन्तु लड़ाईयां तो हैं? इस पर मैंने टॉपिक को घुमाते हुए कहा कि चलो इंडियन और यूरोपियन कल्चर में कुछ कॉमन ढूंढते हैं|

1) गॉड फिलोसोफी मिलाई तो वो नहीं मिली| वो बोले कि हमारे यहां तो जीसस ही को मानते हैं सब| मैंने कहा हमारे यहां ऐसी कोई बाध्यता नहीं, आप जिसको चाहे मानो| पर उन्होंने मुझे इसपे घेर लिया| बोले कि ऐसा है तो फिर दलितों को मंदिरों में चढ़ने से क्यों रोका जाता है? वो भी तो जिसको चाहें मान सकते हैं| मैं मन ही मन कुंधा कि पूरी रिसर्च करके बैठे हैं|

2) फिर बात आई साधु-संत परम्परा की| इसपे कॉमन बात मिली कि जैसे स्थानीय संत-महापुरुष हमारे यहां होते हैं ऐसे ही यूरोप-फ्रांस में क्षेत्र के हिसाब से अपने-अपने होते हैं|

3) शादी के रीति-रिवाजों की बात चली तो मुझे उत्सुकता हुई और उनसे पूछा कि तुम्हारे यहां शादी पे गोत-वोत (गोत्र) छोड़ने जैसा कोई सिस्टम है क्या? तो वो बोले कि हाँ है, आपको सेम-सरनेम में शादी का विधान नहीं है| तो वो बोले की इंडिया में कैसे होता है? तो मैंने कहा कि है तो हमारे यहां भी कुछ-कुछ ऐसा ही परन्तु सिर्फ जाट-बाहुल्य इलाकों में| बोले कि वही जाट जिनकी आर्मी की टुकड़ी की हिटलर ने भी डिमांड की थी कि मेरे पास जाट टुकड़ी होती तो युद्ध मेरे पाले होता? मैंने कहा हाँ वही जाट|

वो आगे बोले कि ऐसा क्यों कि धर्म एक परन्तु विवाह के नियम अलग? मैंने कहा वास्तव में जाट-सभ्यता के नियम अलग हैं| तो बोले कि शादी वाला तो हमारे जैसा हुआ? मैंने ख़ुशी से कहा कि हाँ, बिलकुल|

ऐसे बातें करते-करते हम अपनी मंजिल पर पहुँच गए| वहाँ रात को डिनर पे बैठे-बैठे हमारे होस्ट के आगे भी यही बातें चली तो उसने सेम-सरनेम मैरिज का एक इशू बताया| बोली कि le mariage de même nom pas autorisé dans notre culture.

ऐसे कुछ दिन पहले जिस रोमानियाई मित्र से मिला था उन्होंने तो सेम-सरनेम मैरिज इशू का एक एक्साम्पल भी बताया| वो पेरिस में रहती हैं, बेसिकली हैं रोमानिया की| बोली कि 2009-10 में मेरे पास जो लड़की रहती थी, उसका अफेयर उसके चचेरे भाई से चल निकला था तो उसके पेरेंट्स ने लड़की को घर से निकाल दिया था| और लड़की माइग्रेट हो के फ्रांस आई तो मैंने आया के तौर पर रख लिया| परन्तु फिर अगले ही साल जब वो वापिस रोमानिया गई तो वो अपने लवर से मिली, परन्तु तब दोनों की फैमिली ने फिर से पींघे बढ़ती दिखी तो लड़के-लड़की को बहुत मारा और लड़की फिर से वापिस फ्रांस आ गई|

हालाँकि मुझे वर्ड-टू-वर्ड याद नहीं परन्तु ऊपरी तौर पर दोस्त ने मुझे यही कहानी बताई| चर्चों से पता चला तो पाया कि जो लोग चर्च में कॉन्फेशन करने जाते हैं उनमें ऐसे केस भी होते हैं जो अपनी कजिन, रिलेटिव या सेम-सरनेम में कोई अफेयर हुआ तो उसका कॉन्फेशन भी करते होते हैं|

कुछ भी हो मुझे इस बात से संतुष्टि हुई कि मेरी सभ्यता से इनकी सभ्यता में इतनी बड़ी चीज मिलती है, कि उसको सोशल लाइफ का 'कोड ऑफ़ कंडक्ट' यह भी मानते हैं और हमारे वाले भी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 26 June 2015

लोकदिखावा, सोशल रेपुटेशन अथवा मनी पावर दिखाने और जताने के अपने पैमाने बदलो!


क्या आपको कावड़ लाने की सलाह देने वाला खुद कावड़ लाता है कभी?

क्या आपको मृत्युभोज/काज करने की प्रेरणा देने वाला, खुद के पुरखों का मृत्युभोज आयोजित करता है कभी?

क्या आपसे सवामनी लगवाने वाला या जगराते करवाने वाला खुद यह करता है कभी?

तो फिर क्यों बावले हुए टूल रहे? कारण साफ़ है उसके लिए यह सिर्फ पैसा कमाने का धंधा है|

दिखावे या समाज में इज्जत और रेपुटेशन या फिर मनी पावर दिखाने के लिए अगर आप ऐसा करते हैं तो वो तो मृत्युभोज के पैसे से किसी गरीब और साधनहीन होशियार बालक की शिक्षा में लगा के भी कर सकते हो?

अपने घर-रिश्तेदारी में होने वाले ऐसे आयोजनों पर उनको बोलें कि आप यही पैसा आसपास के किसी जरूरतमंद के शिक्षा खर्च हेतु बोल दीजिये| गाँव की चौपाल से बुलवा दीजिये, अखबारों में निकलवा दीजिये, कि फलां-फलां ने अपने अतिवृद्ध पिता अथवा दादा की मृत्यु पर एक-दो-चार या जितना भी सामर्थ्य हो उतने गरीब बच्चों की एक-दो-चार या जितने तक हों उतने साल की शिक्षा का खर्च वहन करने का बीड़ा उठाया|

मेरे ख्याल से इससे आपको ज्यादा यश, वैभव और प्रतिष्ठा के साथ-साथ आपके पुरखे की आत्मा को भी संतुष्टि मिलेगी| बात तो दिखावे की ही हैं ना, तो अखबारों में निकाल के आपका दिखावे का चाव भी पूरा और डायरेक्ट आपके हाथों से धर्म का धर्म|

कसम से अगर किसी जरूरतमंद की सहायता करने से भी आपको बहु या मनोकामना नहीं मिलती तो कावड़ लाने से मिलेगी ऐसा तो सपने में भी मत सोचना|

इसको पढ़ के आया एक भेद और समझ कि यह फंडी-पाखंडी लोग आपको गुप्तदान की क्यों बोलते हैं अथवा दान दे के भूल जाने की अथवा दान को गाने-बताने की चीज नहीं होती ऐसा क्यों बोलते हैं? ताकि कहीं आप खुद दान-पुन ना करने लग जावें और इनके धंधे चौपट हो जावें| अखबारों में अगर आप इनको निकलवाओगे तो आप खुद ही भगवान बन जाओगे, तो फिर इनके घड़े हुओं को कौन पूछेगा| बड़ा गहरा रहस्य बता दिया है, अपने भगवान खुद बनिए और खुद के दान को जी भर के लोकदिखावा करते हुए, गरीब बच्चों की मदद कीजिये|

फुलटूस बाकायदा होर्डिंग्स लगवाइये, बैनर लगवाइये परन्तु अपने हाथों से दान-पुन कीजिये| अपने पुरखे की मृत्यु पे बेशक स्पीकर लगा के, यहां तक कि चाहो तो टीवी पे लाइव दिखवा के गरीब और जरूरतमंत को अडॉप्ट कीजिये अथवा दान दीजिये, परन्तु खुद कीजिये| ऐसे लोगों की तोंदों पे वसा चढ़वाने वाले लोकदिखावों से सिवाय समाज में असामनता-अराजकता और हीन भावना फैलने के कुछ हासिल नहीं होगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 23 June 2015

औरत के अधिकार कुचले तो तालिबान और जो अन्य मानवताओं (मर्द-औरत दोनों) के भी अधिकार कुचले वो क्या?


बुद्ध-धर्म की थ्योरी खोज, स्वछँदता और आधुनिकता से परिपूर्ण दिमाग पैदा करती है, इसका जीता-जागता उदाहरण हैं जापान, सिंगापुर, कोरिया और चीन आदि| जो टेक्नोलॉजी वांछित और शांतिप्रिय दिमाग इनके पास है वो हमारे पास आने में दशकों लगेंगे और तब दशकों बाद वो दशकों आगे होंगे| क्योंकि हम आज भी जाति-रंगभेद-नश्लवाद-छूत-अछूत में उलझ के समाज के मानव-संसाधन का ना सिर्फ यथोचित प्रयोग नहीं कर पाते हैं अपितु उसको इससे वंचित भी रखने वाली सामाजिक व् धार्मिक व्यवस्था में जीते हैं| और दशकों बाद भी हमारी यही कहानी रहती नजर आती है; अगर हमने इस व्यवस्था को नहीं तोड़ा अथवा बदला तो| हाँ मैं शत-प्रतिशत गारंटी लेते हुए नहीं लिख रहा क्योंकि चमकते हुए चाँद में भी दाग बताते हैं परन्तु इतना जरूर कहूँगा कि बुद्ध धर्म सर्वोत्तम सोच के मानव पैदा करने वाला धर्म है|

वह धर्म हो ही नहीं सकता जो आज इक्सवीं सदी में आकर भी किसी को सिर्फ इस बात पे कलम ना उठाने की वकालत करता हो कि वो उनके अनुसार अछूत है, इसलिए उसको ऐसा अधिकार नहीं है| वह धर्म हो ही नहीं सकता जो आज इक्सवीं सदी में आकर भी ऐसी बातों से लिखी पुस्तकों-सोचों में सुधार नहीं करता हो और इनको अविरल बहने दिए जाने पे आमादा हो| ऐसी मानसिकता विश्व की सबसे घातक मानसिकता है| यह धर्म ना हो कर एक कबीलाई जाति की भांति सिर्फ अपनी पहचान ना खो जाए इस डर से खुद के लिए खड़ा किया हुआ सुरक्षा कवच है|

अथवा फिर इसको मानने वालों में दोष है, जो इसके प्रतिउत्तर में अपनी खुद की सोच नहीं खड़ी करते| इन्हीं की भांति अपनी सोच के इर्दगिर्द सुरक्षा-कवच नहीं बनाते|
ऐसी मानसिकता सिर्फ चोरी-चकारी-चाकरी-छीना-झपटी (आज की भाषा में कॉपी-कट-पेस्ट) की मानसिकता के दिमाग पैदा कर सकती है|

सोचो अगर सिर्फ औरत के हक पे लगाम लगने से कोई सोच तालिबानी कहलाती है तो वह सोच क्या कहलाएगी जो औरत के साथ-साथ रंग-नश्ल विशेष के मानव को भी उसके अधिकारों से वंचित रखती हो (जिसमें कि औरत के साथ-साथ मर्द भी आ जाता है)? या उसको अलगाव यानी आइसोलेशन में बाँध देने पर आमादा हो? दुर्भाग्य है परन्तु हम यही सोच, धर्म और आर्दश समाज के नाम पर ढो रहे हैं|

इसको समर्थन देकर उनके सुरक्षा कवच को मजबूत करने के सिवाय कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता| यह विश्व की मानव-गुलामी की थ्योरी की सबसे भयावह और न्यूनतम दर्जे की थ्योरी है| जो इसको बनाने वाले को जितना पोषित करती है, इसका अनुसरण करने वाले अथवा इसको शीश झुकाने वाले को उतना ही शोषित और दूषित|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

हरयाणवी समाज से निवेदन है कि वो ब्याह-शादी के कार्डों में चार लोगों के कन्धों पे वाली डोली के सिंबल की जगह चार-पहियों वाली डोली यानी बैल्हड़ी-रथ का सिंबल प्रयोग करें!

स्वछंद हरयाणवी सभ्यता इतनी मानवीय रही है कि पुराने जमाने में जहां दूसरे राज्यों-समाजों में दुल्हन की डोली उठाने के लिए किसी जानवर की भांति चार दलित लोग लगाए जाया करते थे और आगे घोड़ी पे दूल्हा चला करता था; वहीँ हरयाणा और इसमें भी खासकर जाटों के यहां चार लोगों की जगह चार पहिये वाली बैल्हड़ी-रथ होता था और उसको दो बैल खींचते हुए, घोड़े पे बैठे दूल्हे के पीछे चला करते थे|

अपनी शुद्ध सभ्यता को जिन्दा रखें और मानवीयता को बनाये व् पाले रखें| किसी भी इंसान को गुलाम की भांति पालना अथवा रखना, ना ही तो हरयाणवी सभ्यता रही है और जाट की तो रही ही नहीं है| और इसलिए शुद्ध हरयाणवी सभ्यता में नौकर को नौकर नहीं साझी बोला जाता है साझी यानी पार्टनर| वैसे भी चार कन्धों (वो भी अपनों के गुलामों या बेगानों या भाड़े के नहीं) पे अर्थी जाती हुई अच्छी लगा करती है, डोली नहीं|

बचपन में मेरी दादी बताती थी कि जब अंग्रेज कलकत्ते से नए-नए खापलैंड पे आये और खापलैंड के दिल दिल्ली में राजधानी शिफ्ट करी तो यहां की सभ्यता में यह अनोखी चीज देख अचंभित थे| कहते थे कि कलकत्ता देखा, जयपुर देखा, हैदराबाद देखा यहां तक मद्रास देखा, परन्तु कहीं भी दुल्हन रथ में जाती नहीं देखी| वो कहते थे कि राजे-रजवाड़ों तक के यहां दुल्हन चार कन्धों वाली मानव डोली में जाती है परन्तु इस हरयाणे की धरती पर तो क्या छोटा और क्या बड़ा किसान-इंसान, सबकी दुल्हनें बैल्हड़ी-रथ में जाती हैं| और इसीलिए हमारे यहां इसको डोली नहीं 'डोहळा' बोला जाता था| दादी कहती थी कि वो अक्सर कहते थे कि कोई ताज्जुब नहीं कि 1857 की क्रांति दबाने में खापलैंड के लोगों ने हमें क्यों नाकों-चने चबवा दिए और क्यों इनकी वजह से राजधानी कलकक्ते से दिल्ली लानी पड़ी| यह लोग कितनी स्वछंद सभ्यता के हैं इनकी इन्हीं चीजों से अंदाजा लग जाता है| ऐसा प्रतीत होता है कि यहां हर कोई राजा है, भिखारी तो इस धरती पर दीखते ही नहीं| ना कोई यहां के गाँवों-नगरों में भूखा सोता| यह चमक और धाक होती थी हरयाणवी सभ्यता की|

तो जो हरयाणवी, आज इन नए छद्म आधुनिक राष्ट्रवादिता और सभ्यता के पैरोकार बने लोगों के बहकावे में आ रहे हैं वो इनके साथ जुड़ने अथवा इनकी किसी भी प्रकार की दानवीय सभ्यता के बहकावे में आने से पहले इनसे यह सुनिश्चित जरूर करवा लेवें कि आपकी मानवीय सभ्यता के रक्षण-संरक्षण व् पालन के लिए इनके पास क्या है| वरना दो-एक दशक बाद ऐसा अहसास होगा जैसा धोबी के कुत्ते को घर के ना घाट के वाला होता है|

इसलिए कुछ भी करें, किसी के भी साथ करें, परन्तु अपनी रॉयल हरयाणवी सभ्यता (यानी सबसे मानवीय सभ्यता) को साथ ले के चलें|

चलते-चलते मेरा हरयाणवी फिल्मकारों से भी निवेदन है कि बॉलीवुड ना सही परन्तु आप तो अपनी इस रॉयल-हरयाणवी सभ्यता के ऐसे-ऐसे सुनहरे पहलुओं को अपनी फिल्मों-सीरियलों में उतारना शुरू कीजिये|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 22 June 2015

इसे योग नही भोग कहते है!

जरूर यह देवदासी मानसिकता से ग्रसित इंसान है। इनको अपनी बहु-बेटी को छोड़ के बाकी सबकी बहु-बेटियों में देवदासियां नजर आती रही हैं। और यही इनकी अंतिम मंजिल होती आई है।

और इसकी बेशर्मी तो देखो कितने इत्मीनान से हाथ जचाये हुए है, इस बेशर्म को इतनी भी चिंता नहीं कि पब्लिक स्पॉट पे तू ऐसा कर रहा है। इनको भान तो रहना चाहिए ना कि योग दिवस को योग दिवस ही रखो उसको कामसूत्र दिवस मत बनने दो। दादा जी को सफेद बाल आये हुए हैं फिर भी लज्जा और योग कराने का सलीका नहीं|

इसलिए जाटों और हरयाणवियों से कहता रहता हूँ कि सदियों के त्याग और बलिदान से आपके पुरखों ने आपकी धरती को इन देवदासी मानसिकता के लोगों से बड़ा संभाल के बचा के रखा हुआ है, मत हवा दो इनको| इनको औकात पे आने में ज्यादा समय नहीं लगता।

ऐसे-ऐसों के दिमाग के शैतानी कीड़ों को ठीक करने का सिर्फ एक ही इलाज है, ओन दी स्पॉट झाड़-झाड़ के जूते मारो।

फूल मलिक


 

राइट के राष्ट्रवाद और लेफ्ट के साम्राज्यवाद के फफेड़ों में बिलखता सेंट्रल-लिबरल खापवाद!


खापवाद यानी हरयाणावाद और मीडिया के लिए खापवाद का मतलब जाटवाद!

वास्तव में खापवाद सोशल इंजीनियरिंग व्यवस्था की प्रणाली है जो चलाई तो जाटों ने थी परन्तु अपनाई सर्वसमाज ने| आदिकाल से समाज में ब्राह्मण की धार्मिक इंजीनियरिंग और जाट की सोशल इंजीनियरिंग में टकराव रहा है और यही इसकी सबसे बड़ी वजह है कि राइट विंग खाप को अंदरखाते दीमक की तरह चाट रहा है| लेफ्ट का साम्राज्यवाद तो तीन-एक सदी पुराना है, परन्तु भारत में इसके जो पैरोकार हैं वो बंगाल की ऐसी भूमि से उठ के आते हैं जहां सामंतवाद का बोलबाला रहा है| और दुर्भाग्य की बात यह है कि लेफ्ट की बागडोर भी सामंतवाद की सोच को पोषित करती है, वरना पैंतीस साल तक बंगाल में एकछत्र राज रहने पर भी बंगाल आज भी सामंतवाद विचारधारा की ही ना बना रहता|

खापवाद इन दोनों के बीच इसलिए पिस रहा है क्योंकि इसकी बागडोर उस जाट जाति के हाथ रही है जो खुद की कमी को स्वीकार कर उसको अपनों के बीच बैठ सुधारने की बजाय, दूसरों की बुराई को गले लगाना ज्यादा सहजता से मंजूर कर लेता है| इसलिए इस विचारधारा से जीवनयापन करने वाली जाट के अतिरिक्त अन्य सभ्यताएं भी अपना रोल निभाने की बजाय, मूक बनना ज्यादा पसंद करती हैं| दूसरा खापवाद विकेन्द्रित व्यवस्था तो है परन्तु चूल्हे की उस चिमनी की भांति जिसपे कोई छतरी नहीं है| और वह छतरी ना होने की वजह से हो यह रहा है कि कोई भी लेफ्ट-राइट वाला दो बूँद विषाद-द्वेष-मतभेद-लांछन की उसमें से टपका देता है और नीचे चूल्हे में ठीक-ठाक जल रही आग धूँ-धूँ करके सारे घर को धुंए से भर देती है| और खाप-थ्योरी के लोग उस चिमनी को ढंकने की बजाय तितर-बितर हो जाते हैं|

और जब तक इस चिमनी पे खाप-वाले यह छतरी नहीं चढ़ाएंगे ऐसे ही परेशान रहेंगे| इस छतरी की अनुपस्थिति का जो सबसे बड़ा नुकसान खाप को उठाना पड़ता है वो है इसके काबिल और टैलेंटेड लोगों द्वारा इनके यहां से पलायन कर जाना अथवा विमुख हो जाना और लेफ्ट या राइट के लिए काम करते पाये जाना|

मुझे भी बहुतेरे कहते हैं तू फ्रांस में बैठ के भी क्या खाप-खाप चिल्लाता रहता है| अब मैं उनको क्या बताऊँ कि खाप थ्योरी विश्व की सबसे महान सोशल इंजीनियरिंग थ्योरी है यह मैंने फ्रांस आ के ही तो जाना है| और फिर बीमारी और घाव तो मानवशरीर के साथ लगते चले आये| ऐसे में कोई खाप थ्योरी का विरोधी खाप को गलत बताता है तो क्या मैं इस थ्योरी को सिरे से ख़ारिज कर दूँ? सम्पूर्ण उत्तरी-भारत का इतिहास गवाह है कि हजारों सालों से यहां की सामाजिक व्यवस्था खापों ने ही चलाई थी| सो अगर इसमें कुछ इतना ही बुरा होता तो इसके सामने राजे भी हुए, रजवाड़े भी हुए, अंग्रेज भी हुए और मुग़ल भी हुए; यह सब आने-जाने हुए परन्तु खाप फिर भी जिन्दा रही, आखिर क्यों? क्योंकि खाप कोई राज करने का तंत्र नहीं अपितु अपनों के द्वारा अपनों के लिए समाज चलाने का तंत्र रही हैं| बस एक बार वो जो ऊपर से चिमनी खुली पड़ी है उसको छतरी ढक दो और फिर देखो करिश्मा|

एक मोटा अंतर इन तीनों थेओरियों में यह है कि जहां राइट और लेफ्ट अपना फैलाव करने के लिए लिबरल-सेंट्रल का कचरा जनता के आगे रखती हैं, वहीँ सेंट्रल लिबरल भीड़ पड़ी में इन्हीं के काम आता है| और इसी उदारता के चलते सेंट्रल-लिबरल को कई बार राइट-लेफ्ट के बीच पिसना पड़ जाता है और निसंदेह ऐसा ही एक दौर अब चला हुआ है| लेफ्ट विगत दस साल से ऐसे छोटे-छोटे मामले जो हुए तो खापों की जातियों में परन्तु खापों का उसमें रोल ना होते हुए भी मीडिया की सहायता से खापों पे जी-भर के लांछन लगा कीचड़ उछाला| और लेफ्ट का दुर्भाग्य यह कि दस साल की अथक मेहनत से खाप की महत्ता को समाज में धूमिल कर जो बिसात बिसाई उसपे प्यादे राइट विंग चल गई और सत्ता पर काबिज हो गई| और लेफ्ट को इससे इतना बड़ा सदमा लगा कि पिछले एक साल से इनके चेहरों की बुढ़िया सी मरी हुई, साफ़ देखी जा सकती है|

अब कहीं का पाप कहीं तो जा के बैलेंस होगा ही ना, जो करते हैं उन्हीं पे जा के बैलेंस हुआ तो और भी अच्छा हुआ| लेफ्ट को आगे से सबक रहेगा कि राजनीति किसी दूसरी राजनैतिक विचारधारा पे कीचड़ उछाल के नहीं हुआ करती अपितु अपने वाली को सुदृढ़ करके हुआ करती है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 21 June 2015

पहले के जाट नेताओं और आज के जाट नेताओं में फर्क!


2014 के विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी थक हार के जब कोई भी पैंतरा नहीं चल रहा था तो हिसार में भाषण देते हुए कहते हैं कि एक जाति के राज से हरयाणा को मुक्त करो।

लेकिन इनेलो जैसी पार्टी, जिनके मसीहा ताऊ देवीलाल खुद उसी एक जाति के थे, उन जैसा बाण पास में होते हुए भी, मोदी को वापिस यह जवाब नहीं दिया कि, 'ओ मोदी, वो इस 'एक जाति' का ही लीडर था जिसने सेंटर में प्रधानमंत्री बनने का अवसर होते हुए भी 2-2 राजपूतों वी. पी. सिंह और चंद्रशेखर को आगे करके पीएम बनाया और अजगर धर्म निभाया। कसम से इनेलो की सरकार भले ही ना बनती परन्तु बीजेपी को स्पष्ट बहुमत की सीटें शायद ही मिलती। कांग्रेस व् अन्यों के पास तो मोदी के इस बाण का जवाब नहीं था परन्तु इनेलो के पास था। खैर मौका था गया सो गया।

जब मुज़फ्फरनगर में दंगा हुआ तो अजित सिंह चुप रहने की बजाये जनता के बीच एक बार चौधरी चरण सिंह की मजगर थ्योरी ले के जाते और अपना पक्ष ईमानदारी से रखते और जाट और मुस्लिम को यह कहते कि दोनों मेरे हो। आप लोगों को कोई तीसरा भिड़ा रहा है तो ऐसे में मैं किधर जाऊं आप खुद ही बता दो। सच्ची कह रहा हूँ, रालोद को इतना नुक्सान तो कम से कम नहीं होना था कि अजित सिंह भी चुनाव हार जाते।

यह दोनों उदाहरण दे कर मैं यह बात कहना चाहता हूँ कि पहले के जाट नेता सिर्फ जाट के लिए राजनीति नहीं करते थे, उसूलों के लिए राजनीति करते थे। उसमें जाति का भला तो अपने-आप हो जाता था।

इनेलो जाट-आरक्षण के वक्त तो जरूर दिखा देती है कि वो इकोनोमिक आधार पे सबके लिए आरक्षण चाहती है, परन्तु उपर्लिखित मौकों का लाभ उठाने से चूक जाती है| मतलब इकनोमिक आधार बोल के सर्वजातीय-हित वाली जो भूमिका तैयार करती है वो मोदी जैसों को नहले पे दहले वाले जवाब होते हुए भी ना देने से वहीँ की वहीँ धरी रह जाती है|

दूसरा आज के अधिकतर जाट नेता जाति शब्द से एक षड्यंत्र के तहत कुछ इस तरह चिपका दिए गए हैं कि वो इसके मोह-पास में फंस चुके हैं। एंटी-जाट ताकतें इन नेताओं की सोच को दिन-भर-दिन सिर्फ एक जाति विशेष तक संकुचित करते जा रही हैं और क्योंकि जाट का वोट शेयर ही इतना है कि यह लोग उसके मोह में फंसे राजनीति का जवाब राजनीति से देना ही भूल जाने लगे हैं।

ऐसा ही हाल जाट-आरक्षण से जुड़े अधिकतर नेताओं का हो चुका है। वो तो जाति से भी आगे जा के क्षेत्रवाद में जा घुसे हैं। इनके दिल-जिगर इतने सिकुड़ चुके हैं कि इनमें कइयों को तो खापों का साथ भी गँवारा नहीं। इनको डर सताने लग जाता है कि कहीं खाप तुम्हारी क्रेडिबिलिटी ही ना खा जाएँ, इसलिए इनको छोटे से एरिया की दिखाने और बताने लग जाओ। और जब ऐसी सोच पैदा होती है तभी शुरू होता है, 'जाटड़ा और काटड़ा अपने को ही मारे" की थ्योरी का कहर।

इसलिए पहले तो जाट नेताओं को आपस में क्रेडिबिलिटी मैनेजमेंट सीखना होगा। आप जाट हो तो खाप भी जाट हैं यह सोच के उनकी महत्ता खुद ही घटाने लग जाने की बजाय, उनको एडजस्ट करना होगा।

और ब्राह्मण की भांति राजनीति करनी होगी। ब्राह्मण जब राजनीति में होता है तो वो यह कदापि नहीं सोचता कि मुझे ब्राह्मण कंट्रोल या मैनेज करना है, वो सिर्फ मुझे 36 कौम मैनेज करनी हैं, ऐसा सोचता है। जबकि आज के अधिकतर जाट-नेता सिर्फ जाट को ही मैनेज करने तक सिमित पड़े हैं। सर छोटूराम जैसे लीडरों की तरह सोच ले के चलना होगा। अगर चलने से पहले कौम को ही मैनेज करने से ही डरने लग जाओगे और उसको मैनेज करने के चक्कर में कौम के कल्चर व् इतिहास को ही संकुचित करके तोड़ने लग जाओगे तो बन लिए लीडर, उल्टा जाट कौम को दोजख में पहुँचा दोगे।

एक-दो लीडर हैं जो जाट शब्द से नहीं चिपके हुए हैं परन्तु मन में जाट रखते हुए बहुत अच्छा कर रहे हैं और मुझे उम्मीद है कि वो आने वाले वक्त में बहुत अच्छा बन के उभरेंगे।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 20 June 2015

योगा विज्ञान को कृषक कार्य से चोरी किया गया है!

पहले के जमाने में जब कृषक व् कृषक सहयोगी, आज की भांति मशीनों की अपेक्षा मानव-तंत्र से जब खेतों में कार्य करते थे तो यह निठ्ठले बैठे बाबा व् फंडी लोग उनको कार्य करते देखते थे। और जैसा कि सभी जानते हैं कि कृषि के विभिन्न कार्यों में मानव शरीर की ऐसी ही मुद्राएँ बनती हैं जैसी कि योगा में होती हैं।

इन निठ्ठले क्रेडिट चोरों ने उन मुद्राओं के बस नाम रख के और जैसे किसान को करते देखा वैसे-वैसे ही करने के नियम लिख के और किसान से थोड़ा सा भिन्न दिखाने के चक्कर में दो-चार शब्द कम-ज्यादा लिख-लिख कापियाँ छाप दी। और इस ज्ञान के मूल-स्त्रोत व् चलती-फिरती डिक्शनरी रहे किसान को इसका क्रेडिट भी नहीं दिया।

उदाहरण के तौर पर:

पद्मासन - जब किसान खेत में पानी लगाते वक़्त पानी की नाली के पास उकडू अथवा पालथी मार के बैठा होता है तो वह पद्मासन की ही विभिन्न मुद्राएं करता है|

जब उसके खेत पे असमय बारिश अथवा ओले पड़ते हैं या खलिहान में पड़ी फसल पर आंधी-तूफ़ान का कहर बरपता है तो वो आकाश की तरफ हाथ जोड़ कर भगवान से रहम की जो कृपा मांगता है तो उसी से ऊपर हाथ उठा के की जाने वाली तमाम योग-मुद्राएं और आसन निकले हैं|

सूर्यासन अथवा सूर्य-नमस्कार आसन: जब आप खेत में किसी मशीन अथवा गिर्डी (रोलर) को धक्का लगाते हैं तो उसमें सूर्यासन निहित होता है| और किसान के रोलर योग और आकाश की तरफ हाथ करके रहम मांगने की मुद्रा दोनों को मिला दें तो इससे पूरा सूर्यासन हो जाता है|

सर्वांगासन - यह आसन तो किसान के बच्चे ट्रेक्टर-बुग्गी के एक्सेल पे पैर लगा पहिये या बुग्गी को उठाने के बहाने यहां-वहाँ आसानी से करते देखे जा सकते हैं|

शीर्षासन - जब भी कोई खेतों में गन्ना-फल-सब्जी चोरी करते हुए पकड़ा जाता है तो उसको अक्सर इसी आसान में बाँध के पीटा जाता है|

और ऐसे ही अन्य भी बहुत से आसन, जो कि किसानी से चोरी किये गए हैं अथवा उनका आधार भिन्न-भिन्न कृषि मुद्राएं रही हैं|

अब क्योंकि निठ्ठला बैठा आदमी कोई काम-हल्ला ना करे तो उसका शरीर स्थूल व् सुस्त पड़ जाता है| और कई कार्य ऐसे भी होते हैं जिनमें आपको शरीर को हिलाने-डुलाने की जरूरत नहीं होती, जैसे कि दुकानगिरी, मांग के खाना, डरा-धमका के अथवा पाखंड रच के खाना व् चमचागिरी| तो जब बाबा लोगों ने कृषि कार्यों से चोरी कर यह नियम बनाये तो यहां बताये कार्य करने वाले शारीरिक सुस्ती और वेदनाओं से ग्रस्त लोगों ने इनको हाथों-हाथ लिया, और इनका  महिमामंडन कर दिया| और ऐसे जो किसान की दिनचर्या होती है वह इन के लिए योगविज्ञान बन गई|

परन्तु इस बीच किसान को किसी ने इसका क्रेडिट भी नहीं दिया| इसलिए अगर कोई योगदिवस बनता है तो वो सिर्फ कृषक को समर्पित बनता है।

मुझे हंसी आती है सोच के ही कि बाबा-लोग योग के असली जनक किसान को योग सिखाएंगे|

मजे की बात तो यह है कि जिनको पादने हेतु टांग उठाने के लिए भी नौकर की जरूरत पड़ती है वो तो योग के प्रचारक देखे हैं मैंने।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 19 June 2015

नजदीकी खून के गोतों (गोत्रों) में शादी की मान्यता वाले समुदाय में 56% लोग थैलिसीमिया बीमारी से ग्रस्त!


हिन्दू पंजाबी खत्रियों के बाद अब बंगाल के टोटो समुदाय के इस बीमारी की चपेट में होने की बात सामने आई है|

जाट के गोत (गोत्र) सिस्टम के पीछे पड़ने वालों और खुद को खुले-विचारों का बताने के लालच में इसके लिए जाटों को अपनी मनचाही भर्तसना का निशाना बनाने वालों के लिए, जाटों के गोत सिस्टम के पक्ष में एक और वैज्ञानिक साक्ष्य|

पश्चिमी बंगाल की जलपाईगुड़ी इलाके की टोटो जनजाति जिनमें मामा-चाचा के बच्चों {नजदीकी खून के गोतों (गोत्रों)} की शादी की जाती है, अपनी घटती संख्या को लेकर समुदाय गहरे संकट में है| कोलकाता के नेताजी सुभाष चंद्र कैंसर रिसर्च सेंटर ने टोटो जनजाति के लोगों के खून के नमूने लिए। इन नमूनों का जब नतीजा आया तो जानकारों के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। जांच में पता चला कि टोटो जनजाति के 56 फीसदी लोग थैलीसीमिया के शिकार हैं। चूंकि इस जनजाति के लोगों ने अपनों में ही शादी के रिवाज बनाए हैं इसलिए इस बीमारी का खतरा और बढ़ जाता है।

इससे पहले हैदराबाद रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट्स के अतिरिक्त दयानंद मेडिकल कॉलेज, लुधियाना पंजाब के प्रोफेसर सोबती ने उनकी 17 मई 1990 की शोध रिपोर्ट में पाया था कि पाकिस्तान पंजाब से आई नश्लों में भी 7.5% लोग थैलिसीमिया की बीमारी से ग्रस्त हैं| डॉक्टर सोबती ने इस बीमारी से निजात पाने के लिए इन समुदायों को वैवाहिक दायरे जैसे कि ब्लडलाइन से दूर के गोत (गोत्र) व् अंतर्जातीय विवाह करने के सुझाव दिए थे|

Read the recent report revealed about Toto Community: http://khabarindiatv.com/india/national-girls-become-mothers-before-marriage-in-west-bangal-1307.html
Also read what is the Gaut System of Jats and Khaps: http://www.nidanaheights.net/EH-gotra.html

फूल मलिक|

Thursday, 18 June 2015

CAT complex, no damage control mechanism and credibility juggling in Khaps proving termite for it!


Though it’s an age’s old irony but in modern era it is the second decade going on when the credit of all positive social and human deeds stacked by Khaps is either under spurious reckoning by credit snatchers for their shake or distorted to malign Khaps in dark shadows of deprivation and disgust. Pathetic and pitiable is that Khaps are letting it happen to them. And who is responsible for it? Who is to blame for it?

Be it the men sect or the women, no one is unidirectional, motivated and determined enough for historical reforms within the system pending for addressing since beginning of current century in specific and for decades in general. What crouching stance is drowning this ancient and historically the most viable and successful social engineering system the most?

Problem jolts threefold within as follows:

1) CAT (conservation, arrogance and tantrum) fights in both men as well as women wings of the honorary system: It was 7th of January 2013 when Khaps went to Supreme Court against a case framed by an NGO Shakti-Vahini and fought it so well that until then a seemingly squeezed to Jats only body gets a Brahmin Khap leader entry in name of Col. Vats in February the following month. I would credit it to Khaps valour and patience that they made it realized to Supreme Court that they are not a yesteryear chapter and still bear a determined viability in the society. But why it was on the call of Supreme Court only and why the things developed so ironically around them that propagators reached to Supreme Court against them. Why not were the proactive measurements in place before?

I spoke to many a leaders of my personal connectivity in Khaps to know the response, and innocence emerges due to democratic approach was the answer. They gently said in one fold that we are not sharp enough to snatch the social, historical and spiritual credibility of others rather we don’t believe in it. But then shook them how to protect the own? Response was as simple as them; they said you the young generation lead the cause. And since then I am churning in grinder of thoughts that what to get rid of if to really protect our own identity and answers to problem frames a CAT i.e. conservation in thoughts and nature, arrogance in sharing and expressing and the tantrum on difference of opinion. This CAT is what the Khap leaders really need to bell!

2) No damage control mechanism: I would say a system without cap on the fireplace of the limekiln. And it cannot restore until Khaps don’t opt to organize themselves in a systematic acumen. They need one systematically elected body taking at least 2 persons per 100 of their representatives. In India after Sikhism they are the only body which bears the capacity of buttoning their women in equal participation. And image spoiling of Khaps by media, their anti-NGOs and whosoever is the area where Khaps need well trained and educated women to take charge for.

3) Credibility Juggling: Absence of any official and unanimous recording and documentation body for recognizing and accrediting the good work of its prestigious members and important dates, absence of a promotional body to promote such positive deeds and dates of the system and nil minimum common agendas across different Khaps to further keep healthy inhalation of purpose and scrutiny, all together are leading to hefty credit crisis issue. This drawback generates ego problems, self-centralism, remorseful unfaithfulness and dubious dialogues. All the cases of disparity or bifurcation of even big Khaps into two or more newly borne wings is thrashing the most crucial reforms in Khaps for infinite time. Even the woman wing is no exception and seen indulged in safeguarding own identity just for own that too within the system. They are crawling multi directions yielding an aforesaid threatening leading to entity crisis. Needlessly to name people and persons who have spread beyond expectations in undetermined direction keeping back towards an imaginative focal point somewhere in thoughts only.

Though a ray of light sparkles in terms of leaders like Dada Kuldeep Singh Dhanda, Madam Santosh Dahiya, Dada Nafe Singh Nain, Dada Ramkaran Solanki, Dada Naresh Tikait, Dada Ishwar Singh Lohan head of Satrol Khap and more recently emerging out of Ahlawat Khap chief Dada Gajender Singh Ahlawat taking front on "Miss Tanakpur" and Youngsters like Sunil Jaglan, who can be named as the gear changer of the saga. But if to see and as per the need of hour, most of them still wish to play on countryside without bothering or getting legal system of nation for support. Khaps have to understand that time has arisen to dent the opportunity by thrusting ownself into legal machinery and get registered with in it. In this desert of seemingly ‘ekla chalo re’ or ‘hum auron ko kuchh nahin kahte, isliye wo humen kyon tang karen’ approach, a lady is proving her iron by taking the system’s support. I won’t hesitate to claim it as an historical step taken by Dr. Santosh Dahiya the chief of lady wagon of Khaps against misdeeds of an elected MP of a government in power. But this is just not sufficient enough against what Khaps capacity is and should be known for, but at least she lit a ray of change, which I have been dreaming for my proudy Khap system.

I beg my pardon if any subsequent name of well doer is forgotten, I am sure they won't mind and will take the article in assessment of their work too.

Have so many plans and caricatures to draw on future expectations and expectations of this system, hope soon the time would knock and motivate me to further pen down them on papers.

I pray to God to get this system mobilize and let them make the driven to enter the legal system now.

Jai Yoddheya! – Phool Malik

Monday, 15 June 2015

"मिस टनकपुर हाजिर हो" बनाने वालो हरयाणे की पंचायतें कोई टोणे-टोटके वाले बाबे-साधु-तांत्रिक नहीं हैं जो इंसानों के जानवरों से फेरे करवाते हों!


(फिल्म रिलीज़ होने से पहले ही फिल्म का रिव्यु)

मैं तो अक्सर कहा करता हूँ कि पब्लिक स्टेजों पे होने वाली नौटंकियों ने जब से सिल्वर स्क्रीन का कवच ओढ़ा है तब से इनके खुले बारणे (पौ-बारह) और चौड़े डंके हो गए हैं| पहले जब डायरेक्ट पब्लिक के बीच स्टेजों पे नौटंकी-नाटक-सांग-रागणी हुआ करते थे तो थोड़ी सी भी भांडगिरी दिखाने पे पब्लिक वहीँ के वहीँ हिसाब-किताब कर दिया करती थी| खैर आजकल शुद्ध भाषा के ना तो सांग-सांगी रहे और ना ही दर्शक। वर्ना हरयाणा की धरती (पश्चिमी-पूर्वी-मध्य तीनों हरयाणे यानी खापलैंड) पे तो बीते दशकों तक इनके अधिकतर आयोजन गाँवों के बाहर गोरों-समाणों-जंगलों में हुआ करते थे| और रात के तो सारे प्रोग्राम ही गाँव की बसासत से बाहर हुआ करते थे| गाँव-चौपाल के अंदर सिर्फ वो प्रोग्राम अलाउड हुआ करते थे जिनको बहु-बेटी भी देख सकती थी जैसे कि साफ़-सुथरे बिना गन्दी बोली के सांग अथवा दादा चन्द्र बादी जैसों के खेल-तमाशे या गए दशक तक आर्य समाजियों के प्रवचन|

परन्तु मिस टनकपुर जैसी फ़िल्में देख-सुन के तो लगता है कि इनको सिल्वर स्क्रीन क्या मिल गई, मतलब बाजे-बाजे ने तो भांडगिरी फुलटूस फुल स्पीड में गियर पकड़ा रखी है| बताओ हरयाणे की पंचायतों को भी 70-80 के दशक के ठाकुर समझ लिया। कि यह लोग फिल्मों में किसी ठाकुर की नकारात्मक छवि दिखाएंगे, उनको विलेन-जुल्मी-डाकू-निर्दयी-अत्याचारी और क्रूर दिखाओगे और सारी ठाकुर बिरादरी चुप बैठी रहेगी।

खैर कोई नी अबकी बार आपका पाला हरयाणे की पंचायतों से पड़ा है; ऐसे ही बिना विरोध के आप अपना गंद परोसोगे और सब चुपचाप सह जायेंगे; ना बावलों ना सोचना भी मत, और बहम तो पालना ही नहीं| अभी पीछे 2011 में खाप फिल्म बनाई थी तब प्रसाद चख के मन नहीं भरा था क्या कि फिर से न्यूनतम दर्जे वाली भांडगिरी का कीड़ा उठ खड़ा हुआ? चिंता ना करो 2011 वाली का जो हाल हुआ इसका भी कुछ-कुछ ऐसा ही होने वाला है| और अगर नीचे दिए source number 1 की खबर को सच मानूं तो अबकी बार तो ठाकुर बिरादरी भी सम्भल चुकी है और साथ में विरोध को कूद पड़ी है| थम चढ़ाओ इसको खापलैंड के सिनेमाओं की स्क्रीन पे, थारे चीचड़ से ना चूंडे जावें तो|

यह तो थी ठेठ हरयाणवी में थारी फिल्म और दिमाग की सोच और क्वालिटी का पोस्टमॉर्टेम| अब सीरियस वाला फीडबैक सुनो आपकी फिल्म का:

पूरी फिल्म देखने की जरूरत नहीं, ट्रेलर देख के ही लिख रहा हूँ| क्योंकि हरयाणवी हूँ तो हरयाणा के बारे क्या सही होगा या क्या गलत, किसी खत के मजबून को देख के बताने वाली अदा में ही बता सकता हूँ| मुझे जिन-जिन बातों से यह फिल्म ऊपर लिखित भर्तसना वाले क्रिटिक (critic) के योग्य लगी, वो हैं एक तो इसका कांसेप्ट (concept), दूसरा इसकी नीयत और तीसरा इसका संदेश|

ज्यादा तो कहूँगा नहीं लेकिन क्योंकि इसमें हरयाणवी भाषा और वेशभूषा प्रयोग की हुई है तो हरयाणा के संदर्भ में ही आप लोगों को दो टूक में रिव्यु देता हूँ| ऐसा है डायरेक्टर, राइटर ऑफ़ थिस फिल्म (director, writer of this film), हरयाणा पे तीन तरह की पंचायतें पाई जाती हैं| एक सरकारी तंत्र वाली, दूसरी खापें और तीसरी सेल्फ-स्टाइल वाली किसी भी ऐरे-गैरे द्वारा सही-गलत मंशा से on the spot बटली (बुलाई) कर दी गई| ध्यान दीजियेगा खाप-पंचायत कभी भी on the spot नहीं बुलाई जाती और ना ऐसे वो आती| उनको स्पेशल बुलावा यानी official invitation दे के बुलाने का विधान है, जिसका कि बाकायदा रिकॉर्ड भी रखा मिलता है हर खाप-पंचायत के पास|

तो पहले तो सुध इंसानी भाषा में आपको बता दूँ कि इनमें से कोई सी भी पंचायत ऐसी गिरी हुई नहीं है कि जो बाबा-साधु-तांत्रिकों वाले असामाजिक काम करती हो| यानी जैसे बाबे-साधु-तांत्रिक पूर्वी-दक्षिणी और मध्य भारत में कहीं लड़के की शादी कुतिया-गधी आदि से तो कहीं लड़की की कुत्ते-गधे आदि (थोड़ा गूगल सर्च कर लेना फोटो भी मिल जाएँगी बाकायदा) से करवाती हो और लड़का-लड़की भी चुपचाप कर लेते हों| वैसे सच-सच बताना आपकी टीम में कौन-कौन इस एरिया से आता है जहां इंसान की शादियां जानवरों से करवाई जाती हैं? और टीम में कोई भी हरयाणवी नहीं था क्या जो इतना तो ज्ञान देता आपको कि भाई हमारे इधर इंसान इंसानों से ही शादी करते हैं, जानवरों से नहीं| और सामाजिक परिवेश में तो बिलकुल भी नहीं, हाँ कोई माता-मसानी-बाबा-बाबन की दुनियां की भेंट चढ़ा हो तो अलग बात है|

दूसरी बात इन तीनों तरह की पंचायतों में एक हैं खाप पंचायत| अब आप इतने मूढ़-मति तो हो नहीं सकते कि खाप पंचायत क्या होती है इसका आपको पता ही ना हो? हालाँकि मैं जानता हूँ आपने खाप-पंचायत शब्द का जिक्र नहीं किया होगा फिल्म में, परन्तु हरयाणा का परिवेश दे दिया तो देखने वाले ने पहले झटके ही इसको खाप पंचायत से जोड़ लेना है (मेहरबानी मीडिया की जिसने हरयाणा की ऐसी पृष्ठभूमि बना रखी है)।

वैसे ऐसा करने के लिए बाबे-साधु-तांत्रिक-फंडी-पाखंडियों ने आपको सुपारी-रिश्वत खिला रखी है क्या कि भाई यह हरयाणवी लोग कभी हमारे बहकावे में नहीं आते और ना ही हमें अपने मनचाहे तरीके से समाज में पाखंड फैलाने देते हैं, इसलिए यह लो पहले तो एक भैंस का एक इंसान से बलात्कार करवा दो और फिर एक पंचायत के जरिये फरमान सुनवा के उसके उसी भैंस से फेरे पढ़वा दो; और बना दो इनको भी हमारी ही गली-सड़ी सोच का? नहीं मतलब सच्ची बताना, कुछ ऐसा ही है क्या?

चलो इंसानियत के नाते पहले तो आपको 19 पेज की खापों पे इंग्लिश में बनाई एक केस स्टडी (see source link 3) पढ़वा देता हूँ। अब एक अनलॉजिकल स्टडी (analogical study) आप भी करके देखो और पता लगाओ कि सामाजिक अपराधों के मामले सुलझाने में सबसे तेज, न्यूनतम लागत का और इन वन सिटींग (in one sitting) में न्याय करने का रिकॉर्ड हमारे देश की सवैंधानिक अदालतों का बेहतर है या हरयाणे की पंचायतों का? प्रतिशत के हिसाब से गलत-सही निर्णय देने का अनुपात कानूनी अदालतों का बढ़िया है या हरयाणे की खाप पंचायतों का? कंस्यूमर सैटिस्फैक्शन (consumer satisfaction) वाला बढ़िया न्याय करने का बढ़िया रिकॉर्ड देश की कानूनी अदालतों का बढ़िया है या इन पंचायतों का? कसम से अगर इन पंचायतों का रिकॉर्ड देश की अदालतों से खराब मिले तो मुझे देश की कानूनी न्याय व्यवस्था की ऐसी तुलना करने के जुर्म में देश के कानून से ही फांसी तुड़वा देना, चूं भी नहीं करूँगा|

यार कुल मिला के यही कहना है कि अगर आप समाज को जोड़े रखने और उसकी सकारात्मक सोच को जिन्दा और पोषित रखना चाहते हो तो कृपया करके ऐसी बचकानी फ़िल्में मत बनाया करो कि जिससे मेरे जैसे अनाड़ी को भी, जिसको कि फ़िल्में बनाने की एबीसी भी नहीं आती, आप लोगों को अव्वल दर्जे का भांड कहना पड़े| और आपकी ऐसी कठोर निंदा करनी पड़े|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Source of critic made above:
1) http://hindi.eenaduindia.com/State/UttarPradesh/2015/06/14193537/Khap-panchayats-intensified-Miss-Tanakpur-opposed.vpf
2) https://www.youtube.com/watch?v=qtg99-HNBmI
3) http://www.nidanaheights.net/Panchayat.html
4) https://www.facebook.com/MissTanakpurHaazirHo

Sunday, 14 June 2015

"जो अनाज-फल-सब्जी पैदा करेगा वो और उसी की बिरादरी उसको खायेगी!" यह आरक्षण लागू हो जाए तो कैसा हो?

क्योंकि वैसे भी धर्म वाले को देखो तो उसने यही आरक्षण लागू कर रखा कि बस हमारी ही बिरादरी का पुजारी-पंडित-महंत बनेगा|

क्योंकि वैसे भी व्यापारी को देखो तो उसने यही आरक्षण लागू कर रखा कि बस कोई भी उत्पाद हो (चाहे इन्होनें उगाया-बोया-बनाया-मैनुफैक्चर भी ना किया हो, उदाहरणत: किसान की फसल) उसका विक्रय मूल्य यह तय करेंगे|

"जिन्हें अपने ज्ञान और मेहनत पर भरोसा नहीं होता वही आरक्षण माँगा करते हैं" की दलीलें देने वालो, बोलो अगर यह मेरा बताया आरक्षण भी लागू कर लेवें तो अपने पेट तो भर लोगे ना इस घमंड भरी दलील से?

और ज्ञान का इतना ही घमंड है तो बिना पर्ची के दान (जगह-जगह दान-पेटियां रख के) क्यों लेते हो? ज्ञान का इतना ही घमंड है तो तमाम तरह की धर्म के नाम की सर्विसों की लिखित गारंटी और रिटर्न क्लेम की फैसिलिटी क्यों नहीं देते हो?

ज्ञान का इतना ही घमंड है तो विकास के नाम पे विकास के पापा से करोड़ों रूपये की सब्सिडयां और मुवावजे क्यों लेते हो? वैसे भी तुम्हारी तो सारी मैनुफैक्चरिंग छतों के नीचे होती है, किसान की तरह खुले आस्मां के नीच थोड़े ही कि ओले-बारिश टाइप की प्राकृतिक आपदा नुक्सान कर देती हो| परन्तु फिर भी देश में सबसे ज्यादा मुवावजे और सब्सिडी डकारते हो और धौंस दिखाते हो ज्ञान की?

तुम्हारा ज्ञान, ज्ञान, और किसान-मजदूर का ज्ञान पानी? कभी एक सीजन तपती धूप और ठिठुरती रातों में खुले आसमान तले भगवान भरोसे रह के फसल उगा के देखो, सारे ज्ञान के मायने ही ना बदल जाएँ तो|

पेट भरने के लिए भोजन उगाने के ज्ञान से ले तन ढांपने के लिए कपास उगाने के ज्ञान तक तुम किसान के ज्ञान पे निर्भर हो, फिर भी अपने ज्ञान की धौंस दिखाते हो? परजीवी ज्ञान वाली ज्ञानियों की श्रेणी का ज्ञान रखते हो और परजीवी को भी जो पाल दे उस ज्ञान वाले के ज्ञान को धत्ता बताते हो| आखिर सामाजिक गैर-जिम्मेदारी, बेशर्मी और अहसानफ़रामोशी की भी कोई हद्द होती है|

चिपकाओ ऐसी दलीलें देने वालों की हर एक की वाल पे इस तर्क को| देखें क्या जवाब आता है|

जय योद्धेय! - फूल मलिक