Friday, 10 July 2015

जाटों व् जाट भाईचारा जातियों के यहां 'धाणी (ध्याणी/देहळ) की औलाद' का लिंग-समानता का स्वर्णिम नियम!


जाट व् समकक्ष भाईचारा जातियों में 'खेड़े के गोत' की मान्यता होती है| 'खेड़े के गोत' की परिभाषा लिंग समानता पर आधारित है जो कहती है कि गाँव में बसने वाली औलाद वो चाहे बेटा हो या बेटी, दोनों की औलादों के लिए खेड़े यानी बेटे-बेटी का ही गोत प्राथमिक गोत के तौर पर चलेगा| उदाहरण के तौर पर मेरे गाँव निडाना नगरी, जिला जींद में जाटों के लिए खेड़े का गोत मलिक है, धानक (कबीरपंथी) बिरादरी के खेड़े का गोत 'खटक' है, चमार (रविदासी) बिरादरी का 'रंगा' है, आदि-आदि|

तो 'खेड़े के गोत की परिभाषा' कहती है कि मलिक जाट का बेटा हो या बेटी, अगर वो ब्याह पश्चात निडाना में ही बसते हैं तो उनकी औलादों के लिए 'मलिक' गोत ही चलेगा| बहु ब्याह के आती है तो वो अपना गोत पीछे मायके में छोड़ के आती है और अगर जमाई गाँव में आ के बसता है तो वो भी अपना गोत अपने मायके में ही छोड़ के आएगा| यानी कि निडाना मलिक जाट की बेटी के उसकी ससुराल में जा के बसने पर उसकी औलादों के लिए जो गोत चलता वो उसके पति का होता, परन्तु अगर वो निडाना आ के बसती है तो उसकी औलादों का गोत पति वाला नहीं वरन बेटी वाला यानी मलिक होगा|

मेरे गाँव में 20 के करीब जाट परिवार ऐसे हैं जिनको धाणी यानी बेटी की औलाद बोला जाता है और उनका गोत उनके पिता का गोत ना हो के उनकी माँ यानी हमारे गाँव की बेटी का गोत मलिक चलता है|

बेटी के अपने मायके में बसने के निम्नलिखित कारण होते हैं:

1) अगर बेटी का कोई माँ-जाया (सगा) भाई नहीं है तो|
2) अगर बेटी का तलाक हो गया और दूसरा विवाह नहीं हुआ अथवा बेटी ने नहीं किया हो तो|
3) अगर बेटी के ससुराल में किसी विवाद या रंजिश के चलते, बेटी को विस्थापित हो के मायके आन बसना पड़े तो|

मुख्यत: कारण पहला ही होता है| दूसरे और तीसरे कारण में कोशिश रहती है कि तलाक ना होने दिया जाए या बेटी की ससुराल में जो भी विवाद या रंजिश है उसको बेटी का मायके का परिवार व् पंचायत मिलके सुलझवाने की कोशिश करते हैं|

यहां यह भी देखा गया है कि औलाद द्वारा पिता का गोत छोड़ माँ का धारण करने की सूरत पहले बिंदु में ज्यादा रहती है, जबकि दूसरे और तीसरे में निर्भर करता है कि मायके आन बसने के वक्त बेटी की औलादें कितनी उम्र की हैं| वयस्क अवस्था हासिल कर चुकी हों तो पिता व् माता दोनों की चॉइस रहती है| परन्तु पहले बिंदु में ब्याह के वक्त अथवा एक-दो साल के भीतर घर-जमाई बनने की सूरत में 'देहल' का ही गोत चलता है|

'धाणी की औलाद' का कांसेप्ट जींद-हिसार-सिरसा-भिवानी-कुरुक्षेत्र-करनाल-यमुनानगर, पंजाब की ओर पाया जाता है| वहीँ इसको रोहतक-सोनीपत-झज्जर-रिवाड़ी-गुड़गांव की तरफ 'देहल की औलाद' के नाम से जाना जाता है| बाकी की खापलैंड के क्षेत्र जैसे दोआब, दिल्ली और ब्रज में यह कैसे चलता है इसपे तथ्य जुटाने अभी बाकी हैं|

क्योंकि अभी पूरी खपलांड का शोध नहीं किया गया है इसलिए मैं किसी किवदंति अथवा अपवाद से इंकार नहीं करता| परन्तु जो भी हो, इन जातियों और समाजों के इस नियम में लिंग-समानता का इतना बड़ा तथ्य विराजमान करता है, यह अगर एंटी-जाट मीडिया (सिर्फ एंटी-जाट सारा मीडिया नहीं), एन.जी.ओ. और रेड-टेप गोल-बिंदी गैंग जानेंगे तो कहीं उल्टी-दस्त के साथ-साथ चक्कर खा के ना गिर जावें|

खापलैंड और पंजाब के भिन्न-भिन्न कोनों में बैठे, मेरे दोस्त-मित्रों से अनुरोध है कि उनके यहां इस तथ्य का क्या प्रारूप और स्वरूप है, उससे जरूर अवगत करवाएं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 8 July 2015

दक्षिण भारतीय हिन्दू वैवाहिक परम्परा - खुलेपन की निशानी अथवा औरत की जुबान बंद करने की चालाकी?

एक लाइन में: औरत द्वारा जमीन-जायदाद में हिस्से के लिए आवाज ना उठाने का रास्ता!

इसको समझने के लिए पहले नजर डालते हुए चलते हैं कि दक्षिणी भारत में किस-किस प्रकार के नजदीकी रिश्तेदारों में विवाह हो सकते हैं!

1) मामा अपनी भानजी यानी बहन की बेटी से विवाह कर सकता है- कारण साफ़ है ताकि बहन  जमीन-जायदाद में हिस्सा ना मांगने लग जाए, इसलिए बहन की बेटी ब्याह के सब घर-की-घर में रख लो। 
2) बुआ की लड़की से शादी - कारण साफ़ है ताकि बुआ जमीन-जायदाद में हिस्सा ना मांगने लग जाए, इसलिए बुआ की बेटी ब्याह के सब घर-की-घर में रख लो।

साफ़ है कि हकीकत में दक्षिणी भारतीय हिन्दू मर्द उत्तरी भारतीय मर्द से कहीं ज्यादा प्रो-पुरुषवादी है और इतना ज्यादा पुरुषवादी कि औरतों द्वारा जमीन-जायदाद में हक की बात करने की नौबत ही नहीं आने देते।

उत्तरी भारत में भी स्वघोषित धर्मध्वजा वाहक समुदाय व् व्यापारिक समुदायों में कुछ-कुछ ऐसी ही चालाकी देखने को मिलती है, लेकिन अधिकतर लव मैरिज के मामलों में ही। जब कोई एक ही परिवार या स्वगोत में ऐसा लव मैरिज के केस का पेंच फंसता है तो यह लोग लड़की को मामा का गोत (गोत्र) दिलवा कर मामला नक्की करवा डालते हैं। लड़के का गोत नहीं बदला जाता क्योंकि

1) एक तो लड़का कुल-वंश का दीपक होता है|
2) दूसरा उसका गोत बदला तो खानदान की लाइन फिर किसी और ही गोत पे चली जाएगी। और फिर लड़के के प्रॉपर्टी राइट्स ट्रांसफर करने का लफड़ा। 
3) तीसरा लड़का फिर कहीं जो उसको अपना गोत देता है उसकी प्रॉपर्टी में हक ना क्लेम कर बैठे।

लड़की का क्या है मामा का गोत ले या बाप का, भेजना तो लड़के के साथ है, जिसमें प्रॉपर्टी देने का तो बाई-डिफ़ॉल्ट ऑप्शन ही नहीं होता। वैसे कायदे से देखो तो लड़की ने जिस भी रिश्तेदार का गोत अडॉप्ट किया, उसको अडॉप्ट करना तो तभी कहा जायेगा ना जब अडॉप्ट करने वाला परिवार लड़की को अपनी जमीन-जायदाद में भी हिस्सा देवे। ऐसा करने वाले इन डेढ़ स्यानों को यह भी नहीं इल्म रहता कि लड़की ने अगर अडॉप्ट करने वाले की प्रॉपर्टी में क्लेम कर दिया तो? खैर क्लेम तो बेचारी तब करेगी ना जब यह एडॉप्शन ऑफिसियल होता हो। कई लोग इसको लव मैरिज समस्या का आसान हल बताते हैं, परन्तु वास्तव में है यह औरत की प्रॉपर्टी को अपने कब्जे में बनाये रखने की चालाकी।

ऐसे में भारत में औरत को सबसे अधिक व् पक्षपात रहित हक देने वाली वैवाहिक प्रणाली है तो वह है जाट-कौम की। हालाँकि ऐसा नहीं है कि इसमें सुधारों की गुंजाइश नहीं| है, परन्तु इतनी नहीं जितनी कि इन औरों के यहां है। 

1) जहां इन ऊपर बताये समुदायों में माँ के गोत की कोई कद्र ही नहीं, वहीँ जाट सभ्यता कहती है कि माँ-बाप दोनों के गोत बराबरी की अहमियत से छूटेंगे।
2) जहां ऊपर बताये समुदायों की वैवाहिक प्रणाली औरत को उसकी जायदाद को बिना अवरोध के धूर्त चालाकी से अपने कब्जे में रखने की है, वहीँ जाट इसमें ज्यादा ईमानदारी बरतता है कि वो कम से कम औरत की जमीन को हथियाये रखने के लिए गोत टालने के वैज्ञानिक कारणों को ताक़ पे नहीं रखता है। उदाहरण के तौर पर पश्चिमी बंगाल की जलपाईगुड़ी इलाके की टोटो जनजाति जिनमें मामा-चाचा के बच्चों {नजदीकी खून के गोतों (गोत्रों)} की शादी की जाती है, जिसकी वजह से व् कोलकाता के नेताजी सुभाष चंद्र कैंसर रिसर्च सेंटर की शोध के अनुसार इस समुदाय में 56 फीसदी लोग थैलीसीमिया के शिकार हैं। दयानंद मेडिकल कॉलेज, लुधियाना पंजाब के प्रोफेसर सोबती के शोध के अनुसार इन्हीं वजहों के चलते पाकिस्तान पंजाब से आई नश्लों में भी 7.5% लोग थैलिसीमिया की बीमारी से ग्रस्त हैं| यहां तक कि विश्व के ईसाई समुदाय में भी नजदीकी खून व् सगोतीय विवाह वैज्ञानिक आधार पर मान्य नहीं हैं।
3) जाट समुदाय में औरत का सम्पत्ति हक विवाह से पहले पिता के यहां रहता है और विवाह पश्चात पति की सम्पत्ति में स्थानांतरित हो जाता है। जबकि इनके यहां औरत के विधवा होने पर उसको उसके पति की सम्पत्ति से बेदखल कर विधवा-आश्रमों में भेजने की परम्परा है| जो साबित करता है कि इन्होनें औरत को यह हक किसी  भी सूरत में दिए ही नहीं हैं जबकि जाटों के यहां उसके पति की विरासत तो उसकी रहती-ही-रहती है साथ-साथ उसको पुनर्विवाह की भी अनुमति रहती है। 

ऐसे ही अन्य और भी बहुत से पहलु हैं जो जाट वैवाहिक प्रणाली ने ज्यादा खूबसूरती व् निष्पक्षता से पाले हुए हैं।

आखिर 2005 में यह कानून क्यों बनवाया गया कि औरत को पैतृक सम्पत्ति में हक होना चाहिए?:  वजह साफ़ है इन समुदायों को इस कानून से कोई खतरा ही नहीं, क्योंकि भतीजी-भांजियों से ब्याह करने की परम्परा होने की वजह से इनकी स्थिति में कोई बदलाव आना नहीं। इनके यहां औरत आवाज उठाएगी भी तो सम्पत्ति स्थांतरित कहाँ होएगी …… वहीँ घर की घर में ही? तो फिर अचानक यह औरत की प्रॉपर्टी के हक बारे जुबान को इतनी चालाकी से अपने ही घर में लपेट लेने वाले इतने प्रो-औरत कैसे बन गए? कारण साफ़ है ताकि युगों-युगों से भारत की सबसे प्रो-औरत कम्युनिटी जाट (हालाँकि सुधारों की गुंजाइस इनके यहां भी है) के यहां सामाजिक व् पारवारिक ताने-बाने में उथल-पुथल मचाई जा सके। वरना यह लोग और प्रो-औरत, क्यों मजाक करते हो भाई। और ज्यादा तो छोडो इनसे सिर्फ एक इतना करवा दो कि यह अपनी विधवा औरतों को उनके पतियों की सम्पत्ति से बेदखल कर विधवा आश्रमों में भेजना बंद कर दें, फिर विचार करूँगा कि इनका यह बदला रूप वाकई में निश्छल है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 6 July 2015

इसे कहते हैं, "उत्तां के नाम बदनाम अर घुण्यां नैं खो दिए गाम!"



का हो ससुर का नाती, ई छड़ों (मलंग-रंडवे-कुवांरे-बिन ब्याहे) की संख्या में तो ई पंजाब-हरयाणा देश में क्रमश पच्चीसवें और छब्बीसवें नंबर पर है। ई कैसे हुई गवा ससुरा हम तो हरयाणा को सेक्स रैस्वा की सबसे ढुलमुल हालत में टॉप दिखाई रही, तो फिर सबसे ज्यादा कुंवारा-स्टाफ भी तो इधर ही होना चाहिए था ना?

ओ तेरी इह्मा तो साहेब का गुजरात भी हरयाणा से आगे है, का हो साहेब ई प्योर बिना बयाहे का संख्या है या अइसन का भी जो ब्याह के बीवी छोड़ दिए हूँ?

कोन्हों ठो तो है जुई हरयाणा का फिरकी लेवत रही!


हम ऊत तो अळबाद (शरारत) करने में ही रह लिए, असली बदनामी के खड्डे तो यें घुन्ने खोद्गे!


जय यौद्धेय! - फूल मलिक




Saturday, 4 July 2015

जब 330000 की पेशवा नेतृत्व की 7 सेनाओं को मात्र 20000 की जाट नेतृत्व की 2 सेनाओं ने हरा, जयपुर (आमेर) की गद्दी बचाई थी!


स्थान: बागरु (बागड़ू)
समय: 20 अगस्त 1748

मुद्दा: जयपुर की गद्दी के लिए राजा ईश्वरी सिंह और माधो सिंह, दो सगे भाईयों के बीच सत्ता विवाद!

21 सितम्बर 1743 को सवाई राजा जय सिंह की मौत के बाद जयपुर की गद्दी के लिये विवाद शुरू हुआ| राज-परम्परानुसार गद्दी बड़े भाई को मिलती है इसलिए ईश्वरी सिंह गद्दी पर बैठे| पर माधो सिंह ने उदयपुर के राजा जगत सिंह को साथ लेकर जयपुर पर हमला बोल दिया। 1743 में जहाजपुर में कुशवाह और जाट सैनिकों की फ़ौज का उदयपुर और जयपुर के बागी सैनिकों से सामना हुआ। जाट और कुशवाहा संख्या में बहुत कम होते हुए भी बहादुरी से लड़े और हमलावरों को कई हज़ार सैनिक मरवाकर लड़ाई के मैदान से भागना पड़ा। जयपुर और भरतपुर के क्रमश: कुशवाहा और जाट जश्न में डूब गए।

राजा ईश्वरी सिंह को गद्दी संभाले हुए अभी एक साल ही हुआ था कि माधो सिंह की गद्दी की लालसा फिर बढ़ने लगी और उसने पेशवाओं से मदद मांगी। पेशवा 80000 फ़ौज लेकर निवाई तक आ पहुँचे और ईश्वरी सिंह को मज़बूरी में बिना लड़े ही 4 परगने माधो सिंह को देने पड़े।

अब माधो सिंह अपने राज्य का विस्तार करने में लग गया और राजा ईश्वरी सिंह के लिए खतरा बनने लगा। ऐसे में राजा ईश्वरी सिंह को संसार की कितनी भी बड़ी सेना को अकेले हरा सकने वाली जाट जाति की याद आई और वर्तमान हरयाणा के रोहतक से ले सहारनपुर-अलीगढ़-आगरा-मथुरा तक पसरी भरतपुर जाट-रियासत की ओर आश भरी टकटकी से देखा। राजा ईश्वरी सिंह ने जाट नरेश ठाकुर बदन सिंह को पत्र लिखा (यह पत्र भरतपुर हिस्ट्री meuseum में रखा है), जो इस प्रकार था:

“करी काज जैसी करी गरुड ध्वज महाराज,
पत्र पुष्प के लेत ही थै आज्यो बृजराज|”


यानी, हे! बृज-भूमि महाराज, जैसे वो गरुड़ ध्वज-धारी अंतर्यामी सब भीड़-पड़ों को मदद को आते हैं ऐसे मदद को आवें! जिस तरह आपने पिछली कई बार मदद करी, उसी तरह हमारी मदद करें और पत्र मिलते ही तुरंत आ जावें, वरना जयपुर ख़त्म समझो|


महाराज बदन सिंह ने अबकी बार खुद आने की बजाय अपने बेटे ठाकुर सुजान सिंह (सूरज-मल्ल जाट) को 10000 जाट सैनिकों के साथ जयपुर रवाना किया। महाराज बदन सिंह ने अपनी फ़ौज का सबसे खतरनाक लाव-लश्कर ईश्वरी सिंह की सहायतार्थ भेजा था। इन जाटों में कोई भी 7 फुट और 150 किलो से कम ना था।

कुंवर सुजान सिंह पहलवानी करते थे और पूरे राजस्थान और बृजभूमि में एक भी दंगल नहीं हारे थे| इसलिए उनको मल्ल यानी पहलवान कहा जाता था| कुंवर सूरजमल सिनसिनवार 7 फुट ऊँचे और 200 किलो वजनी थे।
जैसे ही सूरजमल जयपुर पहुंचे, उन्होंने राजा ईश्वरी सिंह के साथ मिलकर पेशवा के साथ हुआ समझौता संधि-पत्र फाड़ कर फिंकवा दिया।

इस हिमाकत की सुन पेशवाओं का लहू खौल उठा और मल्हार राव होल्कर की अगुवाई में 80000 धुरंधर पेशवा सैनिकों को भेज दिया। ऐसे में अब माधो सिंह गद्दी के लिए और भी लालायित हो उठा। बागरु का रण सजने लगा और बढ़ते-बढ़ते माधो सिंह की सेना इतनी बड़ी हो गई कि पूरे उत्तर भारत को मिट्टी में मिला दे। उसकी तरफ से लड़ने को मराठों के नेतृत्व में अब

1) 80000 सेना पेशवा होल्कर की
2) 20000 सेना मुग़ल नवाब शाह की
3) 60,000 सेना लगभग सभी राठौर राजाओं की
4) 50,000 सेना सभी सिसोदिया राजाओं की
5) 60,000 सेना हाडा चौहान (कोटा, बूंदी व अन्य रियासतों की)
6) 30,000 सेना सभी खिची राजाओं की
7) 30,000 सेना सभी पंवार राजाओं की,

कुल मिलाकर 330000 की सेना हुंकार भर रही थी और दूसरी तरफ थे मात्र

20,000 जाट और कुशवाहा राजपूत, जिनकी कि सैन्य बल को देखते हुए हार निश्चित थी| पर क्षत्रिय कभी मैदान छोड़कर नहीं भागता, इसलिए जाट और कुशवाह शहीद होने की तैयारी कर रहे थे| कुशवाह राजपूत और हर जाट सैनिक को मारने के दिशा-निर्देश देकर मराठों के नेतृत्व में माधो सिंह की विशाल फ़ौज जयपुर पर टूट पड़ी|

20 अगस्त 1748 को बागरु में ये दोनों फ़ौज टकराई| भारी बारिश के बीच लड़ाई तीन दिन तक चली| क्योंकि जाट और कुशवाह तो सर पर कफ़न बाँध कर आये थे इसलिये मराठों के नेतृत्व की बड़ी फ़ौज को यकीन हो गया कि लड़ाई इतनी आसान ना होगी| शुरुवात में जयपुर की फ़ौज का संचालन सीकर के ठाकुर शिव सिंह शेखावत कर रहे थे जो दूसरे दिन बहादुरी से लड़ते हुए गंगाधर तांत्या के हाथो शहीद हो गए| इनकी शहादत के बाद अब ठाकुर सूरजमल जाट ने जयपुर की फ़ौज की कमान संभाली और जाट सैनिकों को साथ लेकर मराठों पर आत्मघाती हमला बोला। मराठों ने इतने लंबे तगड़े आदमी पहले कभी नहीं देखे थे। सूरजमल ने 50 घाव खाये और 160 मराठों को अकेले ही मार दिया। इस हमले ने मराठों की कमर तोड़ कर रख दी।

सूरजमल एक महान रणनीतिकार थे, उन्हें यकीन था कि अगर दुश्मन के सबसे बड़े जत्थे पेशवाओं को हरा दिया जाए तो दूसरे कमजोर जत्थों का मनोबल टूट जाएगा और वही हुआ। दूसरे मोर्चे पर 2 हज़ार जाट मुग़लों को मार रहे थे तो तीसरे मोर्चे पर 2 हज़ार जाट राठौर और चौहानों को संभाल रहे थे। बृजराज के जाटों को चौहानों का तोड़ पता था क्योंकि वो पिछले 100 साल से कोटा और बूंदी समेत हर चौहान रियासत को लूट पीट रहे थे। इस प्रकार जाटों ने ईश्वरी सिंह की निश्चित हार को जीत में बदल दिया। बचा हुआ काम कुशवाहों ने कर दिया। एक दिन पहले तक चिंता के भाव लिए लड़ रहे कुशवाह राजपूत अब इतने उग्र हो चुके थे कि हरेक ने सामने के कम से कम तीन-तीन दुश्मनों को मारा।

इस लड़ाई में हर बहुतेरे जाट सैनिकों ने तो 50-50 दुश्मनों को मारा और सूरजमल जाट इतने मशहूर हुए कि उनकी चर्चा पूरे संसार में होने लगी। इस लड़ाई के बाद देश-विदेशों से सुल्तानों-शासकों द्वारा जाटोँ से लड़ाई में मदद मांगने की अप्रत्याशित मांग बढ़ी।

बागरु युद्ध का वर्णन करने के लिए कोटा रियासत के राजकवि शूरामल्ल भी मौजूद थे जिन्होनें अपने दुश्मन की तारीफ़ इस तरह लिखी:

"सैहयो मलेही जट्टणी जाए अरिष्ट अरिष्ट,
जाठर तस्स रवि मल्ल हुव आमेरन को ईष्ट|
बहु जाट मल्हार सन लरन लाग्यो हर पल,
अंगद थो हुलकर ,जाट मिहिर मल्ल प्रतिमल्ल||"


हिंदी अनुवाद:
ना सही जाटणी ने व्यर्थ प्रसव की पीर,
गर्भ ते उसके जन्मा सूरजमल्ल सा वीर|
सूरजमल था सूर्य, होल्कर था छाहँ,
दोनों की जोड़ी फबी युद्ध भूमि के माह||


तीसरे दिन बारिश से ज्यादा खून बहा। जाटों और कुशवाहों से दुश्मनों की हमलावर फ़ौज अपने आधे से ज्यादा सैनिक मरवाकर भाग गयी और ऐसे सूरज-सुजान बृज रो बांकुरों री मदद से राजा ईश्वरी सिंह फिर से जयपुर की गद्दी पर बैठे।

यह मुख्यत: इसी लड़ाई की हार का दंश था कि पानीपत की तीसरी लड़ाई के वक्त पेशवाओं ने तब तक कुंवर से महाराज बन चुके महाराजा सूरजमल की एक सलाह ना सुनी और जाटों के प्लूटो और समस्त एशिया के ओडीसियस सूरज सुजान को संदेशे का इंतज़ार करते छोड़, घमंड और दम्भ में भरे पेशवा बिना जाटों के मैदान-ए-पानीपत जा चढ़े और अब्दाली के हाथों मुंह की खाई। और तब से हरयाणे में कहावत चली कि, 'बिन जाटां किसनें पानीपत जीते!' व् 'जाट को सताया तो ब्राह्मण भी पछताया'!

काश, पेशवाओं ने महाराजा सूरजमल की मान ली होती तो तीसरा मैदान-ए-पानीपत हिन्दुस्तानियों के नाम रहता।

ओ! टीवी सीरियल और फिल्मों वाले मेरे बीरो, कभी हिन्दू-मुस्लिम व् वर्णवाद से बाहर निकल के भी कुछ बना के देखो। देखो बना के कि जब जाट रण में निकलते हैं तो दुश्मन की खो-माट्टी से ले बिरान माट्टी और रे-रे माट्टी सब करके छोड़ते हैं।

जय यौद्धेय!
लेखक: फूल मलिक
सहयोग: अमन कुमार

Wednesday, 1 July 2015

विज जी, डॉक्टर-इंजीनियर-साइंटिस्ट्स को रोक लें तो हरयाणा का स्वास्थ्य और बेहतर हो जायेगा!


माननीय स्वास्थ्य मंत्री, हरयाणा सरकार अनिल विज जी ने स्टार बॉक्सर बिजेन्दर सिंह के वर्ल्ड ओपन बॉक्सिंग में चले जाने पर इसको राष्ट्रभक्ति से जोड़ दिया| कमाल है इतिहास में जब-जब असली राष्ट्रभक्ति दिखाने के सोमनाथ की लूट जैसे मौके आने पे मूक-दर्शक बने देखते रह जाने वाले अब देश के लिए राष्ट्रभक्ति की परिभाषा निर्धारित करने लगे हैं!

मंत्री जी आप क्या चाहते हैं कि बिजेन्दर सिंह बॉक्सर अंतराष्ट्रीय ओपन बॉक्सिंग में करियर ना बनाये, अथवा तीस-चालीस हजार रूपये की नौकरी करते हुए आपके आगे-पीछे सलूट ठोंकता हुआ रिटायर हो जाए?

और अगर अंतराष्ट्रीय स्तर पर किसी खिलाडी के निकल आने से वो देशद्रोही कहलाता है तो यह बड़े-बड़े भारतीय मूल के डॉक्टर-इंजीनियर-साइंटिस्ट्स ने तो फिर राष्ट्रभक्ति तोड़ने का ग्लोबल-रिकॉर्ड ही बना दिया होगा अब तक? क्या रोक सकते हैं उनकी भारी-भारी रकमों के साथ विदेशी कम्पनियों की विदेशो में नौकरी करने की रिक्रूटमेंट लेने को? उनके डॉक्टर-इंजीनियर-साइंटिस्ट्स बनने पे लाखों-लाख खर्च करे भारत और नाम कमाएं विदेशी?

और हाँ, क्या आपने मोदी जी से पूछ के यह बयान दिया है? क्योंकि मोदी जी तो भारत से बाहर विदेशी कंपनियों के लिए विदेशों में बैठ कार्य करने वालों को बड़ा देशभक्त ही नहीं कहा है अपितु जिस भी देश में जाते हैं वहाँ स्वदेशी कन्फेरेन्सेस भी करवाते हैं| अपने भारतीय मूल के भाईयों से मिल-बैठ के बातें करना बड़े गर्व की बात समझते हैं|

आपको बिजेन्दर के कदम पर कहना तो यह चाहिए था कि बड़ी अच्छी बात है हमारा लड़का वर्ल्ड ओपन बॉक्सिंग के गुर सीखेगा तो हरयाणा सरकार उसको स्पांसर करेगी ताकि कल को 'भारतीय बॉक्सिंग का मक्का' कहे जाने वाले हरयाणा का भी अपना वर्ल्ड ओपन बॉक्सिंग क्लब बनाया जाए; और कहाँ आपने इतना निरुत्साहित करने वाला ब्यान दिया? या तो आप गैर-जिम्मेदार हैं या आपकी बिजेन्दर से कोई व्यक्तिगत खुंदक है या फिर उसके पिछोके से चिड़ है, कुछ तो है जो आपने ऐसा बचकाना बयान दिया|

और फिर बिजेन्दर कोई चोरी-छुपे नहीं जा रहा; बाकायदा ऑफिशियली डिक्लेअर करके जा रहा है| अत: आप उसके कदम का स्वागत नहीं कर सकते तो कृपया अपने शब्दों पर तो नियंत्रण रख सकते हैं?

हालाँकि मैं खुद भी भेज रहा हूँ, फिर भी मेरी इस बात को (पोस्ट को) मंत्री साहब तक पहुँचाने वाले का शुक्रिया|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

राष्ट्रवादियों-धर्माधीसों-राजनीतिज्ञों व् नीतिनिर्धारकों को अगर वाकई में भारत डेवलप्ड बनाना है तो!


जब तक फ्रांस-यूरोप या किसी भी अन्य ऐसे ही डेवलप्ड कंट्री की भांति एक वीवीआईपी और गरीब भिखारी एक ही लैविश शॉपिंग मॉल में एक ही काउंटर पे खड़े हो के वो भी बिना कोई नाक-भों सिकोड़े शॉपिंग नहीं करते मिलते, उस दिन तक भारत डेवलप्ड राष्ट्र नहीं बन सकता।

डेवलप्ड कन्ट्रीज में महँगे से महँगे कपड़े-प्रसाधन वाला एक मैले-कुचैले कपड़ों वाले भिखारी के साथ एक ही दुकान/मॉल पे एक ही पंक्ति में लग सामान खरीदता है, क्योंकि वास्तविक एवं व्यवहारिक राष्ट्रवादिता क्या होती है यह लोग प्रैक्टिकल में जानते हैं।

मेरे ख्याल से फ़िलहाल तो भारत में एक भिखारी के लिए शॉपिंग मॉल की तरफ देखना भी एक स्वपन जैसा है; जबकि यूरोप जैसे देशों में भिखारी के पास पचास सेण्ट या एक यूरो तक भी भीख में इकठ्ठे हुए नहीं, सीधे शॉपिंग मॉल से जा के सामान खरीद के लाते हैं।

क्या हमारे योगियों-जोगियों-कर्मयोगियों के तप में इतना सामर्थ्य-धैर्य व् अपनापन भर पाया है कि वो लोग ऐसा कल्चर क्रिएट कर सकें? यदि नहीं तो हम अभी डेवलप्ड कहलाने की सोच से ऐसे ही दूर हैं जैसे संस्कृति से सभ्यता। ओबामा अपनी विगत भारत यात्रा के दौरान कोई व्यर्थ ही नहीं कह के गए थे कि डेवलप्ड बनना है तो पहले जाति-पाति, उंच-नीच की सोच के जहर से पार पाना होगा।

हमारी संस्कृति में दो बहुत बड़े झूठ घुसे पड़े हैं। पहला अगर आप किसी के लाइफ-स्टाइल से सहमत नहीं हैं तो आप उससे या तो नफरत करते मिलेंगे या उससे भय खाते मिलेंगे। और दूसरा हमारे यहाँ किसी से प्यार करने का मतलब यह बताया जाता रहा है कि आप वह जो करता/मानता है या करती/मानती है उसको अंधश्रद्धा से स्वीकार करो या करते हैं, (just like emotional fools) इसको साइकोलॉजिकल टर्म्स में अति टोर्चरिंग अथवा सफ्फरिंग कल्चर (extreme torchering or suffering culture) भी कहते हैं। हमारे पास न्यूट्रल नाम का गियर ही नहीं है जो यह सीखा सके कि अरे क्या हुआ मेरे बगल में भिखारी खड़ा हो के शॉपिंग कर रहा है तो। यह सीधा-सीधा गुलामी का वो सिंड्रोम है जो किसी भी राष्ट्र को 1300 साल तक गुलाम बनाये रखने के लिए काफी होता है।

परन्तु हाँ कुछ-एक रेस हैं भारत में जो वाकई में न्यूट्रल होने का इतिहास व् स्वभाव रखती आई हैं, परन्तु उनके मुकाबले भारत नफरत-भय और अंधश्रद्धा का लोचा ज्यादा है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जाट एकता कर तो लें, परन्तु मुस्लिम और सिख जाट करें तब ना?


मैंने अक्सर यह जवाब उन तथाकथित हिन्दू जाटों के मुख से सुना है जो उदारवादी हैं और जाट की अंतर्धार्मिक एकता के पक्षधर हैं। वो इसके साथ यह भी शिकायत करते हैं कि एक हिन्दू जाट ही क्यों धार्मिक एकता की बात करे, मुस्लिम या सिख जाट क्यों नहीं करता?

वैसे तो यह बात सिख और मुस्लिम जाट के लिए भी ध्यान देने की है, वो आगे आएं और अपनी झिझक या संकोच के कारण समक्ष रखें। परन्तु इसके पीछे एक तथाकथित हिन्दू जाट होने के नाते जो कारण मैं देखता हूँ वो भी काबिले-गौर हो सकते हैं।

1) हमें आज भी हिन्दू धर्म में वो सम्मान और स्थान हासिल नहीं, जिसकी कमी की वजह से हमारे सिख और मुस्लिम भाइयों ने हिन्दू धर्म छोड़ा था। इससे यह दोनों क्या सोचते हों कि हम जाटिस्म के साथ तो एडजस्ट कर लेंगे परन्तु जिस हिन्दू टैग को हम छोड़ चुके, उसको जब हिन्दू जाट, जाटिस्म में साथ लाएंगे तो उसको कैसे एडजस्ट करेंगे? नंबर एक संभावित कारण।

2) सिख और मुस्लिम जाट यह सोचता होगा कि कहीं हिन्दू जाटों के जरिये भावनाओं में डाल हमें वापिस हिन्दू बनाने हेतु तो हिन्दू धर्म वालों द्वारा यह जाट-यूनिटी का नारा नहीं छुड़वाया जा रहा?

3) सिख और जाट एक ही हैं एक ही थे, परन्तु दयानन्द ने सिखों को बरगलाकर कि जाट हुक्का पीते हैं जबकि सिख धर्म में धूम्रपान निषेध है कहकर इनमें दरार डाल दी| हुक्का जाट संस्कृति का प्रमुख अंग रहा है| जाट के टाठ हुक्का और खाट| जाटों में हुक्का पानी समाप्त करना महान दंड माना जाता था|

हो ना हो मेरा सहजबोध तो यही कहता है। अब इस पर हिन्दू जाटों को जाट-एकता आगे बढ़ाने से पहले सिख और मुस्लिम जाट से इस बारे खुलासा करना होगा। क्योंकि जिस वजह से वो इस धर्म को छोड़ चुके हैं उससे उनकी झिझक स्वाभाविक है।

इसका हल यह हो सकता है कि जो हिन्दू धर्म का जाट है वो पहले अपना स्वछंद धर्म घोषित करे यानी शुद्ध जाट मान्यताओं को ही निर्वाहित करता रहे, अथवा हिन्दू धर्म में ही रहते हुए बिश्नोई पंथ की तरह शुद्ध जाट मान्यताओं के साथ अपना अलग पंथ बना ले, अथवा मुस्लिम और सिख जाट को इस बात का आश्वासन देवे कि हम उनकी और हमारी धार्मिक मान्यताओं को कभी भी जाटिस्म के आड़े नहीं आने देंगे।

अत: जाट यूनिटी चाहिए तो पहले यह कम्युनिकेशन गैप्स (communication gaps) खत्म करने होंगे, हर धर्म के जाट के विचार छान के उससे जाट-यूनिटी का एक मिनिमम कॉमन इंट्रेस्ट एजेंडा (minimum common interest agenda) बनाना होगा; तभी जा के धरातल पर अंतर्धार्मिक जाट यूनिटी उतर पायेगी।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 28 June 2015

मुझे हिन्दू शब्द का भविष्य बताओ, इसको शास्त्र-ग्रंथों में स्थान दिलवाओ!


हिन्दू शब्द का अस्तित्व तभी तक है जब तक इसको भुनाने वालों को एक प्रतिद्ंवदि धर्म विशेष से डर है; जिस दिन यह डर खत्म उस दिन हिन्दू शब्द को ऐसे उतार के त्याग दिया जायेगा, जैसे सांप अपनी केंचुली त्याग देता है|

क्योंकि हिन्दू शब्द का इतना ही धार्मिक औचित्य होता और इसको भविष्य में भी आगे बढ़ाने का प्लान होता तो अब तक इस शब्द को तमाम ग्रन्थ-शास्त्रों में जगह मिल चुकी होती|

समय भले ही दशक लगे, अर्धशताब्दी लगे, शताब्दी लगे या शताब्दियाँ लगे, परन्तु यह पूर्वनिर्धारित है और अवश्यम्भावी है|

जिसको मेरी बात अटपटी लगे, वो जा के इस शब्द को भुनाने वालों से पूछ लेवें| और मुझे कहने की आवश्यकता नहीं है कि जब इस शब्द को त्यागा जायेगा तो इसकी रिप्लेसमेंट में कौनसा शब्द तैयार करके रखा जा चुका है| और खुद हिन्दू शब्द भुनाने वालों ने इस शब्द को धर्म नहीं अपितु जीवनशैली की एक पद्द्ति कह के इसको रास्ते से हटाने की समानांतर तैयारी शुरू भी कर दी है|

इसपे भी जिसको जिसको यकीन ना हो वो मेरी इस पोस्ट के स्क्रीनशॉट ले लेवें, कहीं बहुत ही सुरक्षित जगह पे सेव कर जावें| आप अपने जीवन में ऐसा होते हुए नहीं देख पाएं, तो गाली देते हुए ही सही परन्तु अपने बच्चों को जरूर कहना कि इस फूल कमीने की बात जब सच होवे तो हमें स्वर्ग में खत डाल के अवगत करवा देवें| साथ ही उनको यह भी लिख जावें कि नए नाम के तहत हमें स्वर्ग में ही रहना है या हैवन (heaven) अथवा जन्नत या इसके ही जैसे नए शब्द के रूप में ईजाद की गई जगह पे शिफ्ट होना होगा| कोई डाकिया/ईमेल ना मिले तो हमारे श्राध वाले दिन कौव्वे को खीर खिलाने की जगह यह चिठ्ठी उसकी चोंच में बत्ती बना के उसको गिटका देवें, वो हम तक पहुंचा देगा; ठीक वैसे ही जैसे कव्वे की खाई खीर सीधी स्वर्ग में बैठे पुरखे खाते हैं|

वैसे मुझे अचंभा भी होता है कि जिस शब्द को अब आ के धर्म नहीं अपितु जीवन जीने की एक शैली बताया जाने लगा है, उसी शब्द के नाम से भारत में सिर्फ एक वर्ग विशेष ही कानूनी कागजों में इस शब्द को धर्म के नाम से क्यों दर्शाता है; उस वर्ग विशेष के इस शब्द से 'हिन्दू मैरिज अधिनियम 1955' बने हुए हैं और तमाम तरह की कानूनी और सरकारी योजनाये भी हैं, परन्तु दूसरी तरफ इस शब्द को शास्त्र-ग्रंथों में कोई जगह ही नहीं। यह भी एक दूसरी और ख़ास वजह है इस शब्द को ले के मेरे संशय की।

बात कड़वी है, बहुतों को चुभेगी, परन्तु सोलह आने डंके की चोट पे सच्ची है|

इसलिए इस शब्द से अपने आवेश और परिवेश को बांधने वाले जितना जल्दी हो सकें उतना जल्दी इसको शास्त्र-ग्रंथों में एंट्री दिलवाने बारे आंदोलन चलायें अथवा चलाने पे मंत्रणा करें|

वैसे एक पक्ष इसका यह भी है कि जो सांप की केंचुली की भांति बदल दिया जाए वो धर्म स्थाई या अपने वंश-कुल का खून स्थाई?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

एक वीर यौद्धा बाबा बंदा सिंह बहादुर जी!


चंडीगढ़ के पास बुड़ैल गाँव है, जो गुलामी के दौर में मुस्लिम रांघड़ के अधिपत्य में होता था| यहां का फौजदार हिन्दू धर्म की तमाम 36 बिरादरी की औरतों को शादी के तुरंत बाद कुछ दिन अपने पास रखता और फिर पति के घर जाने देता| बुड़ैल के स्थानीय ग्रामीण इस बाध्यता से तंग थे और इसपे सितम तो यह था कि यह इलाका मूलरूप से इस मुस्लिम रांघड़ की हिन्दू जाति बाहुल्य था|

जब इसकी शिकायत बाबा बंदा सिंह बहादुर जी को पहुंचाई गई तो उन्होंने 1712 में 80% जाट योद्धाओं से सुसज्जित टुकड़ी के साथ बुड़ैल के फौजदार को मार दिया और इस अमर्यादित कुकर्म का खात्मा किया| उसके बाद बुड़ैल में बाबा जी का गुरुद्वारा बनाया गया जो कि आज भी मौजूद है|

ऐसे ही किस्से जब हम कलानौर रियासत की तरफ आते हैं तो वहाँ के सुनने को मिलते हैं| यह भी मुस्लिम परमार रांघड़ द्वारा शाषित रियासत थी और इसके इर्द-गिर्द के 10-12 गाँव इसी रांघड़ की हिन्दू जाति बाहुल्य थे जो कि आज भी हैं| तब ऐसा ही अमर्यादित तंत्र एक रात हेतु इसने सिर्फ आसपास के ही नहीं अपितु दूर-दराज वालों के यहां से गुजरते डोलों पर भी चलाया था| तो ऐसे ही इनके यहां से जब एक जाट बारात गुजरी तो इन्होनें उस डोले को उतारना चाहा परन्तु उस डोले में बैठी दुल्हन गठवाला खाप की दादीरानी समाकौर गठवाला ने इसका विरोध किया और वहाँ से भाग निकली व् अपने मायके आ अपने पिता से पूछा कि, "मैं जाटों के ब्याही हूँ तो कालनौरिया मेरा डोला कैसे रोक सकता है?" इस पर उनके पिता ने गठवाला खाप हेडक्वार्टर आहुलाना गोहाना सन्देश भिजवाया| वहाँ से गठवाला खाप ने तमाम खापों को चिट्ठी फाड़ी (यानी ऑफिसियल लेटर भेज कर सर्वखाप महापंचायत बुलवाई, यहां मीडिया के वो भीरु ध्यान देवें कि कोई भी खाप पंचायत ऑर्गनाइज कैसे की जाती है) और फिर हुआ 1620 में गठवाला खाप की अगुवाई में कलानौर के पास गढ़ी-टेकना का रण तैयार| खाप की इस कार्यवाही के लिए लीडर दादावीर चौधरी ढिलैत जी की कमांड तले पूरी कलानौर रियासत को नेस्तो-नाबूत कर खापों ने इस जुल्म को खत्म किया|

ऐसे ही झज्जर के पास 17 गाँव राजपूत जाति बाहुल्य हैं, जहां की तमाम हिन्दू औरतों पर भी ऐसे ही जुल्म हुआ करते थे| तब यहां के स्थानीय खुडान गाँव के पूनिया गोती (गोत्री) जाटों ने इन गाँवों को रांघड़ों के जुल्मों से मुक्त करवाया था| आज भी यह 17 गाँव, खुडान गाँव के पूनिया जाटों के सर पगड़ी रखते हैं| बाकी सही-सही जानकारी की वर्तमान यथास्थिति इन गाँवों में जा के प्रत्यक्ष देखी जा सकती है|

खरखौदा, हसनगढ़ और भरोटा को भी इन्हीं वजह से तोड़ा गया था|

बड़ा गर्व महसूस होता है जब बहादुर जातियों के ऐसे आपसी सहयोग के किस्से सुनने और पढ़ने को मिलते हैं। काश! सोशल मीडिया पे आपस में भिड़ने से पहले इन जातियों के आज के नादान युवा इन ऐतिहासिक बारीकियों को समझें और ऐसे ही आपसी सहयोग और तालमेल से रहें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

 

एंटी जाट ताकतें वैसे ही नहीं जाटों के खिलाफ, एक तरफ़ा कार्यवाही का साहस जुटा गई!


यह सब कब से हुआ और कैसे हुआ उसको बड़े सलीके से अंजाम दिया गया है| और इसके परिणाम स्वरूप पहले जाट को चार धड़ों में अलग-थलग किया गया, एक शहरी जाट, दो खाप-परस्त जाट, तीन नेता व् पार्टी परस्त जाट और चार ग्रामीण जाट|

1) 3B ग्रुप ने शहरी जाट को अपने चश्मे में उतारा, उससे माताएं पुजवानी शुरू की, गैर-जाट ब्याह-शादी की चमकीली परन्तु बिना लॉजिक की परम्पराएँ प्रमोट करवाई| इससे शहरी जाट में इतना अरोगेंस भर गया कि रिटायर होने के बाद भी उसने अपने गांवों की तरफ मुड़ के नहीं देखा|

2) पूरा मीडिया और एंटी-जाट सभ्यता एनजीओ को जाट की खाप ब्रांड को धूमिल करने हेतु 2005 से उसके पीछे छोड़ा गया| इससे शहरी जाट को दूसरा कारण दिया गया गाँवों की तरफ मुड़ अपने ग्रामीण भाइयों को ना संभालने का|

3) पार्टी-परस्त जाट, इसका तो कहूँ ही क्या, इतनी तो देश में पार्टियां नहीं, जितनी जाट बहुल एक गाँव में मिल जाएँगी|

4) ग्रामीण जाट के संसाधनों व् संस्कृति को तितर-बितर करने हेतु तो सारा गेम खेला ही गया था|

और हमारे वाले अरोगेंस में बैठे रहे यह कहते हुए कि, "के बिगड़े सै, देखी जागी!"

इब तो एडी उचका-उचका देखण का ही काम रहवगा जब तक यह चार धड़ों में बंटा जाट एक हो के नहीं सोचता|
इसलिए सबसे पहले एक होवो, इनकी माता-मसानियों को अपने घरों से बाहर निकालो| खाप तंत्र को जो नहीं समझता उसको समझाओ| जो शहरी जाट है वो गाँव की तरफ मुङो| जिसको बोलना नहीं आता उसको बोलना सिखाओ| चाहे गाली खा के सिखाओ परन्तु सिखाओ|

क्योंकि एंटी-जाट 3B ताकतें जाट को दलित और पिछड़े से तोड़ रही हैं और जाट सिर्फ खड़े देख रहे हैं| जाटो जब तक आगे बढ़ के अपने आपको स्पष्ट नहीं करोगे, दलित-पिछड़ा आपके एंटी 3B की ही सुनेगा| अपने आपको प्रमोट करो, मार्किट करो और बोलना शुरू करो|

मैं यही नहीं कहता कि दलित-पिछड़े को ले के आपसे कोई गलती नहीं हुई होगी, परन्तु इतना भी जानता हूँ कि आप से कहीं कई गुना ज्यादा दलित-पिछड़े का नुक्सान इन्होनें किया है| और दलित-पिछड़े को इस बात का अच्छे से अहसास भी है, पंरतु अगर आप ऑप्शन ही खत्म कर दोगे तो वो आपके साथ कैसे जुड़ा रह पायेगा?

अत: जरूरत है तो वो उस नुकसान को आगे रखने की, दलित-पिछड़े का ऑप्शन बने रहने की| इसलिए सोशल मीडिया हो या जैसा भी प्लेटफार्म हो, चुप मत बैठो 'Tit for tat करो|' यह आपके अधिपत्य के किस्से दलित-पिछड़े के आगे रखते हैं तो आप इनके रखो| जैसे एमडीयू में जाट असफरों-प्रोफेसरों के साथ किया जा रहा है, ऐसे आप इन वालों के जिसको भी जहाँ जो भी भेदभाव और घपला दिखे उसको आगे लाओ| क्योंकि यह लोग दलित-पिछड़े को सिर्फ बहका के रखेंगे और रोजगार देंगे खुद के 3B ग्रुप को|

शर्म-शर्म में शर्मा के सामड जाओगे और दुश्मन सोचेगा कि यह तो मेरे से डर गया| इनकी नियत को बराबर उजागर करते रहोगे तो इस भीड़ पड़ी के वक्त में एक तो दलित-पिछड़े के दिल-दिमाग से दूर नहीं जाओगे, दूसरा दलित-पिछड़ा इनके इतना नजदीक नहीं जायेगा कि जिससे आपको जुड़े रहने में बाधा आये|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 27 June 2015

एक ही गोत (गोत्र) में ब्याह और यूरोप!


‘le mariage de même nom pas autorisé dans notre culture’ – as per my european friends

विगत सप्ताह एक फ्रेंच मित्र और उससे कुछ दिन पहले एक रोमानियाई मित्र से मुलाकात हेतु कंट्रीसाइड गया हुआ था| इन दोनों मुलाकातों में ही ऐसा संयोग बैठा कि संस्कृति और मान-मान्यताओं पर बातें चल निकली| उनसे हुई बातों के कुछ रोचक हिस्से हिंदी में रूपांतरित करके सुनाता हूँ|

गाड़ी में कंट्रीसाइड चल निकले तो बातें शुरू हुई| उन्होंने मुझसे कहा कि इंडिया में तो वर्ण व् जाति-व्यवस्था बहुत ऊँच-नीच फैलाती है| सुना है हिन्दू धर्म विश्व का इकलौता ऐसा धर्म है जिसमें धर्म के ही अंदर रंग-नश्ल के आधार पर भेदभाव होता है?

मैंने कहा कि रंग-नश्ल के आधार पर भेदभाव तो हर जगह है| तो वो बोले हाँ, पर खुद के ही धर्म वालों द्वारा खुद के ही धर्म वालों को रंग-नश्ल भेद का शिकार? तो मैंने कहा कि यह सब गन्दी राजनीति की वजह से होता है|
बोले कि फूल बनो मत हमारे आगे, हमें गूगल करना आता है| इस पर मैंने कहा कि अमेरिका में गोरे और काले की लड़ाइयां तो वर्ल्ड फेमस हैं, सुना है दोनों एक धर्म के होते हैं? इस पर झट से बचाव में जवाब आया कि काले पहले गौरों के गुलाम थे, उस वक्त उनका धर्म कुछ और था| तो यहाँ सवाल एथनिसिटी का भी बन जाता है, परन्तु तुम्हारी तो सबकी एथनिसिटी इंडियन ही है ना?

मैंने कहा जो भी हो परन्तु लड़ाईयां तो हैं? इस पर मैंने टॉपिक को घुमाते हुए कहा कि चलो इंडियन और यूरोपियन कल्चर में कुछ कॉमन ढूंढते हैं|

1) गॉड फिलोसोफी मिलाई तो वो नहीं मिली| वो बोले कि हमारे यहां तो जीसस ही को मानते हैं सब| मैंने कहा हमारे यहां ऐसी कोई बाध्यता नहीं, आप जिसको चाहे मानो| पर उन्होंने मुझे इसपे घेर लिया| बोले कि ऐसा है तो फिर दलितों को मंदिरों में चढ़ने से क्यों रोका जाता है? वो भी तो जिसको चाहें मान सकते हैं| मैं मन ही मन कुंधा कि पूरी रिसर्च करके बैठे हैं|

2) फिर बात आई साधु-संत परम्परा की| इसपे कॉमन बात मिली कि जैसे स्थानीय संत-महापुरुष हमारे यहां होते हैं ऐसे ही यूरोप-फ्रांस में क्षेत्र के हिसाब से अपने-अपने होते हैं|

3) शादी के रीति-रिवाजों की बात चली तो मुझे उत्सुकता हुई और उनसे पूछा कि तुम्हारे यहां शादी पे गोत-वोत (गोत्र) छोड़ने जैसा कोई सिस्टम है क्या? तो वो बोले कि हाँ है, आपको सेम-सरनेम में शादी का विधान नहीं है| तो वो बोले की इंडिया में कैसे होता है? तो मैंने कहा कि है तो हमारे यहां भी कुछ-कुछ ऐसा ही परन्तु सिर्फ जाट-बाहुल्य इलाकों में| बोले कि वही जाट जिनकी आर्मी की टुकड़ी की हिटलर ने भी डिमांड की थी कि मेरे पास जाट टुकड़ी होती तो युद्ध मेरे पाले होता? मैंने कहा हाँ वही जाट|

वो आगे बोले कि ऐसा क्यों कि धर्म एक परन्तु विवाह के नियम अलग? मैंने कहा वास्तव में जाट-सभ्यता के नियम अलग हैं| तो बोले कि शादी वाला तो हमारे जैसा हुआ? मैंने ख़ुशी से कहा कि हाँ, बिलकुल|

ऐसे बातें करते-करते हम अपनी मंजिल पर पहुँच गए| वहाँ रात को डिनर पे बैठे-बैठे हमारे होस्ट के आगे भी यही बातें चली तो उसने सेम-सरनेम मैरिज का एक इशू बताया| बोली कि le mariage de même nom pas autorisé dans notre culture.

ऐसे कुछ दिन पहले जिस रोमानियाई मित्र से मिला था उन्होंने तो सेम-सरनेम मैरिज इशू का एक एक्साम्पल भी बताया| वो पेरिस में रहती हैं, बेसिकली हैं रोमानिया की| बोली कि 2009-10 में मेरे पास जो लड़की रहती थी, उसका अफेयर उसके चचेरे भाई से चल निकला था तो उसके पेरेंट्स ने लड़की को घर से निकाल दिया था| और लड़की माइग्रेट हो के फ्रांस आई तो मैंने आया के तौर पर रख लिया| परन्तु फिर अगले ही साल जब वो वापिस रोमानिया गई तो वो अपने लवर से मिली, परन्तु तब दोनों की फैमिली ने फिर से पींघे बढ़ती दिखी तो लड़के-लड़की को बहुत मारा और लड़की फिर से वापिस फ्रांस आ गई|

हालाँकि मुझे वर्ड-टू-वर्ड याद नहीं परन्तु ऊपरी तौर पर दोस्त ने मुझे यही कहानी बताई| चर्चों से पता चला तो पाया कि जो लोग चर्च में कॉन्फेशन करने जाते हैं उनमें ऐसे केस भी होते हैं जो अपनी कजिन, रिलेटिव या सेम-सरनेम में कोई अफेयर हुआ तो उसका कॉन्फेशन भी करते होते हैं|

कुछ भी हो मुझे इस बात से संतुष्टि हुई कि मेरी सभ्यता से इनकी सभ्यता में इतनी बड़ी चीज मिलती है, कि उसको सोशल लाइफ का 'कोड ऑफ़ कंडक्ट' यह भी मानते हैं और हमारे वाले भी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 26 June 2015

लोकदिखावा, सोशल रेपुटेशन अथवा मनी पावर दिखाने और जताने के अपने पैमाने बदलो!


क्या आपको कावड़ लाने की सलाह देने वाला खुद कावड़ लाता है कभी?

क्या आपको मृत्युभोज/काज करने की प्रेरणा देने वाला, खुद के पुरखों का मृत्युभोज आयोजित करता है कभी?

क्या आपसे सवामनी लगवाने वाला या जगराते करवाने वाला खुद यह करता है कभी?

तो फिर क्यों बावले हुए टूल रहे? कारण साफ़ है उसके लिए यह सिर्फ पैसा कमाने का धंधा है|

दिखावे या समाज में इज्जत और रेपुटेशन या फिर मनी पावर दिखाने के लिए अगर आप ऐसा करते हैं तो वो तो मृत्युभोज के पैसे से किसी गरीब और साधनहीन होशियार बालक की शिक्षा में लगा के भी कर सकते हो?

अपने घर-रिश्तेदारी में होने वाले ऐसे आयोजनों पर उनको बोलें कि आप यही पैसा आसपास के किसी जरूरतमंद के शिक्षा खर्च हेतु बोल दीजिये| गाँव की चौपाल से बुलवा दीजिये, अखबारों में निकलवा दीजिये, कि फलां-फलां ने अपने अतिवृद्ध पिता अथवा दादा की मृत्यु पर एक-दो-चार या जितना भी सामर्थ्य हो उतने गरीब बच्चों की एक-दो-चार या जितने तक हों उतने साल की शिक्षा का खर्च वहन करने का बीड़ा उठाया|

मेरे ख्याल से इससे आपको ज्यादा यश, वैभव और प्रतिष्ठा के साथ-साथ आपके पुरखे की आत्मा को भी संतुष्टि मिलेगी| बात तो दिखावे की ही हैं ना, तो अखबारों में निकाल के आपका दिखावे का चाव भी पूरा और डायरेक्ट आपके हाथों से धर्म का धर्म|

कसम से अगर किसी जरूरतमंद की सहायता करने से भी आपको बहु या मनोकामना नहीं मिलती तो कावड़ लाने से मिलेगी ऐसा तो सपने में भी मत सोचना|

इसको पढ़ के आया एक भेद और समझ कि यह फंडी-पाखंडी लोग आपको गुप्तदान की क्यों बोलते हैं अथवा दान दे के भूल जाने की अथवा दान को गाने-बताने की चीज नहीं होती ऐसा क्यों बोलते हैं? ताकि कहीं आप खुद दान-पुन ना करने लग जावें और इनके धंधे चौपट हो जावें| अखबारों में अगर आप इनको निकलवाओगे तो आप खुद ही भगवान बन जाओगे, तो फिर इनके घड़े हुओं को कौन पूछेगा| बड़ा गहरा रहस्य बता दिया है, अपने भगवान खुद बनिए और खुद के दान को जी भर के लोकदिखावा करते हुए, गरीब बच्चों की मदद कीजिये|

फुलटूस बाकायदा होर्डिंग्स लगवाइये, बैनर लगवाइये परन्तु अपने हाथों से दान-पुन कीजिये| अपने पुरखे की मृत्यु पे बेशक स्पीकर लगा के, यहां तक कि चाहो तो टीवी पे लाइव दिखवा के गरीब और जरूरतमंत को अडॉप्ट कीजिये अथवा दान दीजिये, परन्तु खुद कीजिये| ऐसे लोगों की तोंदों पे वसा चढ़वाने वाले लोकदिखावों से सिवाय समाज में असामनता-अराजकता और हीन भावना फैलने के कुछ हासिल नहीं होगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 23 June 2015

औरत के अधिकार कुचले तो तालिबान और जो अन्य मानवताओं (मर्द-औरत दोनों) के भी अधिकार कुचले वो क्या?


बुद्ध-धर्म की थ्योरी खोज, स्वछँदता और आधुनिकता से परिपूर्ण दिमाग पैदा करती है, इसका जीता-जागता उदाहरण हैं जापान, सिंगापुर, कोरिया और चीन आदि| जो टेक्नोलॉजी वांछित और शांतिप्रिय दिमाग इनके पास है वो हमारे पास आने में दशकों लगेंगे और तब दशकों बाद वो दशकों आगे होंगे| क्योंकि हम आज भी जाति-रंगभेद-नश्लवाद-छूत-अछूत में उलझ के समाज के मानव-संसाधन का ना सिर्फ यथोचित प्रयोग नहीं कर पाते हैं अपितु उसको इससे वंचित भी रखने वाली सामाजिक व् धार्मिक व्यवस्था में जीते हैं| और दशकों बाद भी हमारी यही कहानी रहती नजर आती है; अगर हमने इस व्यवस्था को नहीं तोड़ा अथवा बदला तो| हाँ मैं शत-प्रतिशत गारंटी लेते हुए नहीं लिख रहा क्योंकि चमकते हुए चाँद में भी दाग बताते हैं परन्तु इतना जरूर कहूँगा कि बुद्ध धर्म सर्वोत्तम सोच के मानव पैदा करने वाला धर्म है|

वह धर्म हो ही नहीं सकता जो आज इक्सवीं सदी में आकर भी किसी को सिर्फ इस बात पे कलम ना उठाने की वकालत करता हो कि वो उनके अनुसार अछूत है, इसलिए उसको ऐसा अधिकार नहीं है| वह धर्म हो ही नहीं सकता जो आज इक्सवीं सदी में आकर भी ऐसी बातों से लिखी पुस्तकों-सोचों में सुधार नहीं करता हो और इनको अविरल बहने दिए जाने पे आमादा हो| ऐसी मानसिकता विश्व की सबसे घातक मानसिकता है| यह धर्म ना हो कर एक कबीलाई जाति की भांति सिर्फ अपनी पहचान ना खो जाए इस डर से खुद के लिए खड़ा किया हुआ सुरक्षा कवच है|

अथवा फिर इसको मानने वालों में दोष है, जो इसके प्रतिउत्तर में अपनी खुद की सोच नहीं खड़ी करते| इन्हीं की भांति अपनी सोच के इर्दगिर्द सुरक्षा-कवच नहीं बनाते|
ऐसी मानसिकता सिर्फ चोरी-चकारी-चाकरी-छीना-झपटी (आज की भाषा में कॉपी-कट-पेस्ट) की मानसिकता के दिमाग पैदा कर सकती है|

सोचो अगर सिर्फ औरत के हक पे लगाम लगने से कोई सोच तालिबानी कहलाती है तो वह सोच क्या कहलाएगी जो औरत के साथ-साथ रंग-नश्ल विशेष के मानव को भी उसके अधिकारों से वंचित रखती हो (जिसमें कि औरत के साथ-साथ मर्द भी आ जाता है)? या उसको अलगाव यानी आइसोलेशन में बाँध देने पर आमादा हो? दुर्भाग्य है परन्तु हम यही सोच, धर्म और आर्दश समाज के नाम पर ढो रहे हैं|

इसको समर्थन देकर उनके सुरक्षा कवच को मजबूत करने के सिवाय कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता| यह विश्व की मानव-गुलामी की थ्योरी की सबसे भयावह और न्यूनतम दर्जे की थ्योरी है| जो इसको बनाने वाले को जितना पोषित करती है, इसका अनुसरण करने वाले अथवा इसको शीश झुकाने वाले को उतना ही शोषित और दूषित|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक