Thursday, 17 September 2015

हरयाणवियों को जरूरत है तथाकथित राष्ट्रवादियों व् प्रवासियों की गतिविधियों को सतर्कता व् गौर से देखते और समझते रहने मात्र की!

समय था 1761 में पानीपत के जंगे-मैदान में अहमदशाह अब्दाली से मादरे-वतन को बचाने हेतु युद्ध करने का| ग्वालियर में नागपुरी विचारधारी ब्राह्मण पेशवा सदाशिवराव भाऊ, सहयोगियों व् लोहागढ़ी जाट महाराजा सूरजमल के बीच गहन मंत्रणा चल रही थी| महाराजा सूरजमल अपनी राय रखते हुए कहते हैं कि अगर अहमदशाह अब्दाली को हराना है तो हम सबको एक साथ मिलके एक सेना के रूप में चलना होगा| इस गहन गंभीर घड़ी में भी महाराजा सूरजमल की दूरदर्शिता व् दार्शनिकता को गंभीरता से लेने की बजाय लोहागढ़ी को अक्षम होने का खोल चढ़ाते हुए दम्भ और अतिविश्वास में रमित ब्राह्मण पेशवा ने ताना मारा कि, "दोशालों पाट्यो भलो, साबुत भलो ना टाट, राजा भयो तो का भयो, रह्यो जाट गो जाट!"। और उस पारखी सोच जिसके दम पर कि महाराजा सूरजमल ने दुश्मन की ताकत को जानते और परखते हुए यह सलाह दी थी, उसको व् "जाट-ताकत" के महत्व को दरकिनार कर हेकड़ी में चूर ब्राह्मण पेशवा पानीपत जा चढ़े और साथ ही सारा क्षत्रिय मराठा समाज अब्दाली के आगे जा खड़ा किया|

पानीपत में इनकी ना सिर्फ हार हुई अपितु महाराजा सूरजमल ने इनकी "फर्स्ट-ऐड" करके वापिस नागपुर और उसके मराठवाड़ा में धुर घर तक पहुँचाने हेतु, बाकायदा जाट-सेना साथ भेजी|

आज फिर उसी नागपुरी विचारधारा के थोथे घमंड और मद में चूर कुछ ब्राह्मण पेशवा तथाकथित राष्ट्रवादिता का चोला ओढ़ हरयाणा कहो या खापलैंड कहो, में पैर पसारने को आतुर हैं| पता नहीं इनको अपनी प्रकाष्ठा व् दम्भ को मापने हेतु जाटलैंड ही क्यों दिखती है, शायद विश्व के सूरमाओं की धरती है ना, इसलिए जाटलैंड को जीतना ही इनके लिए स्वर्ग की अमरगति पाने बराबर होता होगा| और वो भी उसी रटी-रटाई लाइन पे चलते हुए ही जिसपे चलते हुए कि सदाशिवराव भाऊ ने "जाट-ताकत" को नकारा था| यह लोग भूल गए हैं कि एक बार नागपुर के यही लोग 1761 में भी चढ़ आये थे और मुंह की खा के गए थे| उस वक्त तो इन्होनें सीधे-सीधे ही जाटों का साथ नहीं लिया था अब थोड़े संशय में हैं| इसलिए जो जाट आसानी से अंधभक्त बन जाते हैं उनको साथ जोड़े जा रहे हैं| परन्तु मुज़फ्फरनगर दंगे के बाद से उनमें से भी 80% जाट इनसे छिटंक के वापिस अपनी जाटधारा के साथ जुड़ चुके हैं, जिसकी वजह से इनके लिए बड़ी उहापोह की स्थिति बनी हुई है|

अत: हरयाणवियों और जाटों से बस इतना ही अनुरोध है कि इन भांप छोड़ने वाले बारिश के बुलबुलों को इनका ठिकाना पकड़ने दो| जब इनका लबो-लवाब ठंडा हो जायेगा तो उस वक्त के लिए महाराजा सूरजमल की भांति इनकी 'फर्स्ट-ऐड' कर वापिस नागपुर छोड़ने हेतु तैयारी करते रहो| और इनके साथ ही कुछ पूर्वोत्तर और 47 की सीमा पार से आये हुए भी विदा करने होंगे, इसलिए साथ ही उसकी भी तैयारी करते रहना होगा|

क्योंकि छोटे से बच्चे को जब कोई चीज न मिलने पर जैसे वो "चुत्तड़ पटक-पटक रोने लगता है", वैसे ही यह चाहे जितने चुत्तड़ पटक लेवें, हरयाणा और खापलैंड पे चाहें जितने जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े सजा लेवें, एक दिन जावेंगे वैसे ही जैसे 1761 वाले गए थे| ना हमें हथियार उठाने की जरूरत और ना ही इनको मुंबई वाले मुम्बईकरों की तरह बिहारी-बंगालियों के स्टाइल में पीटने की जरूरत|

बस जब यह लोग हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े बनाने से थक जावें और जिनको यह लोग नॉन-जाट के नाम पर जाट के खिलाफ भिड़ा रहे हैं वो इनकी इन चालों को ना समझ जावें, तब तक एक स्टेज पर किसी नचनियां की भाँती स्वांग दिखाने वाली की तरह इनके स्वांग देखते रहें| और जब नॉन-जाट इनके पैंतरे भांप जावें तो समझ लेना कि अब इनकी विदाई का समय हो गया| वही महाराजा सूरजमल वाली 'फर्स्ट-ऐड' विदाई!

जय योद्धेय! - फूल मलिक

व्यापार-शिक्षा-कंस्यूमर प्रोडक्ट्स-कम्युनिकेशन सब ग्लोबल चाहिए, तो फिर सोशल ज्यूरी ग्लोबल क्यों नहीं हो?

1) अमेरिका में कोई भी अपराध होता है तो उसके लिए अमेरिकी अदालतों द्वारा 'हरयाणवी खाप पंचायतों' की तर्ज पर 'सोशल ज्यूरी' बुलाई जाती है, जिसमें मामले से संबंधित स्थानीय क्षेत्र के समाज व् संस्कृतिविद पक्षपात-द्वेष से रहित ग्यारह सदस्य बुलाये होते हैं। पीड़ित और अपराधी दोनों पक्षों के वकील व् उन पर बैठा जज इस ग्यारह सदस्यीय 'सोशल ज्यूरी' से अमेरिकी न्याय व् दंड सहिंता के मद्देनजर न्याय करवाता है और अंत में 'सोशल ज्यूरी' जो फैसला सुनाती है उसको दोनों पक्षों को पढ़कर सुनाता है, और उस फैसले की अनुपालना सुनिश्चित करता है। जी हाँ, बस इतना ही रोल होता है अमेरिका में जज और अदालतों का, यानी 'सोशल ज्यूरी' का फैसला सुनाना ना कि भारत की तरह फैसला करना भी और सुनाना भी।

2) कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, इंग्लैंड हर जगह इसी 'सोशल ज्यूरी' सिस्टम के तहत न्याय होता है, कानून की पालना होती है।

तो भारत और इन विकसित देशों (जिनकी कि व्यापार-शिक्षा-कंस्यूमर प्रोडक्ट्स-कम्युनिकेशन आदि-आदि को हर भारतीय धारण करके चलना आधुनिकता और विकास का मापदंड मान ना सिर्फ उसपे चलता है बल्कि उसका आजीवन गुणगान भी करता है) की न्याय व्यवस्था में 'सोशल ज्यूरी' कहाँ तक है? बाकी भारत में तो कहीं भी नहीं, परन्तु खापलैंड पर खापों (चिठ्ठी फाड़ परम्परा के तहत जो खाप-पंचायतें बुलाई जाती हैं सिर्फ वो अपनी मन-मर्जी या निजी निहित मकसदों के लिए इकठ्ठा हुई भीड़ नहीं) के रूप में खापलैंड के लगभग हर गाँव-गली में मौजूद हैं, परन्तु सवैंधानिक तौर पर उस तरह मान्यता प्राप्त नहीं जैसे ऊपर गिनाये एक-से-एक उच्च कोटि के विकसित देशों में हैं।

तो खापलैंड को न्याय और अपराध-निर्धारण व् निवारण के मामले में तो बस इतना भर पीछे है कि इनको कानून से जोड़ा जावे और विकसित देशों वाले तरीके से इनसे न्याय करवाया जावे। हर निष्पक्ष व् बेदाग पंचायती को "सोशल जज" व् इनकी बॉडी को "सोशल ज्यूरी" का दर्जा मिले।

मुझे अहसास है कि मेरी यह बात सुनकर ना सिर्फ एंटी-खाप मीडिया, अपितु एंटी-खाप विचारधारा के साथ-साथ इनके बारे ग़लतफ़हमी रखने वाले लोगों के हलक सूख जाने हैं। परन्तु यही सत्य है और यही वास्तविक सोशल ज्यूरी है। अब वक्त आ गया है कि खाप-पंचायतें इन विकसित देशों की तर्ज पर अपने लिए 'सोशल ज्यूरी' के स्टेटस की मांग को जोरदार तरीके से उठायें|

और जो खाप-पंचायतों वाले यह पठा दिए गए हैं अथवा मान बैठे हैं कि खापें कभी भी किसी भी वैधानिक तंत्र का अंग ना रह कर सम्पूर्णतया सामाजिक रही हैं तो वो महानुभाव या तो बड़े गर्व से खापों को वैधानिक दर्जा दिए जाने बारे महाराजा हर्षवर्धन बैंस जी को बारम्बार धन्यवादी लहजे से गर्वान्वित होना छोड़ दें अन्यथा इस तथ्य को समझें कि आप वैधानिक व् सामाजिक दोनों होते आये हैं। ध्यान रखें कि जिन विकसित देशों में कहीं उन्नीसवीं तो कहीं बीसवीं सदी में 'सोशल ज्यूरी' कांसेप्ट आया वो आप लोग 643 ईस्वी में महाराजा हर्षवर्धन के दौर में देख भी चुके हो और उससे आगे भी ग़जनी-गौरी-तैमूर-बाबर-रजिया-लोधी-अकबर-औरंगजेब-बहादुरशाह-अंग्रेजों के जमानों में इसका लोहा मनवा चुके हो। आपको स्मृत रहना चाहिए कि महाराजा हर्षवधन के राजवंश ने राजा दाहिर जैसों के हाथों जिस प्रताड़ना की कीमत चुकाई थी, उसमें उन द्वारा खापों को वैधानिक दर्जा देना भी एक वजह थी। परन्तु आगे चलकर राजा दाहिर की मति वालों की वजह से देश ने सदियों की गुलामी की भी सजा भुगती थी। और अब अगर वह फिर से नहीं भुगतवानी तो वक्त आ गया है कि इस ग्लोबलाइजेशन के जमनानी में भारतीय 'सोशल ज्यूरी' का भी ग्लोबलाइजेशन हो।

और इसमें मीडिया में बैठे उन लक्क्ड़भग्गों के कान भी खींचने होंगे जो उनके ही देश में "सोशल ज्यूरी" के प्राचीनतम रूप व् स्वरूप को ग्लोबल पहचान दिलवाने की बजाये, उसमें आवश्यक सुधार करवा उसको लागू करवाने की बजाये, उसका गला घोंटने हेतु जब देखो सर्वत्र कर्णभेदी क्रन्दनों से अपने गलों की बैंड बजाते पाये जाते हैं।

इसलिए अब उन लोगों को यह समझाने का अभियान शुरू किया जाना चाहिए कि बेशक प्रारूप जो हो, परन्तु अब विश्व की इस प्राचीनतम सोशल ज्यूरी व्यवस्था को उन्हीं देशों की तर्ज पर ग्लोबल करना होगा, जिनकी तर्ज पर व्यापार-शिक्षा-कंस्यूमर प्रोडक्ट्स-कम्युनिकेशन तक के ग्लोबलाइजेशन का इसको भारत में उतारने वाले भारतीय ही दम भरते नहीं थकते।

जय योद्धेय! - फूल मलिक

ठेठ हरयाणत और बेबाकपने का गला घोंटने की साजिश थी हरयाणा पंचायत चुनाव में न्यूनमत शिक्षा की शर्त लगाना!

हरयाणा के पंचायती राज चुनावों में विभिन्न वर्गों के उम्मीदवारों के लिए दसवीं व् आठवीं पास होने की शर्त ना सिर्फ पूर्णत: गैर-सवैंधानिक थी (आज सुप्रीम कोर्ट ने इस पर स्टे लगा दिया है) वरन यह जिस हरयाणवी गट यानी ठेठ हरयाणत और बेबाकपने के लिए हरयाणा जाना जाता है उसको तोड़ने और कमजोर करने हेतु बीजेपी और आरएसएस की सोची-समझी कुटिल षड्यंत्री साजिश का भाग थी|

मैं पहले भी इस विषय पर एक आर्टिकल में यह इंगित कर चुका हूँ कि जो सरकारी व्यवस्था जब तक उसके नागरिकों की शिक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकती वो किसी को शैक्षणिक योग्यता के आधार पर चुनाव लड़ने से ख़ारिज कैसे कर सकती है? आम जनता से वोटिंग के जरिये राय ले के निर्णय लेने जैसे मुद्दे पर सरकार अकेले निर्णय कैसे ले सकती है?

परन्तु अब इससे भी बड़े जो पत्ते इसके खुल के सामने आ रहे हैं वो बता रहे हैं कि यह सिर्फ इतना मात्र नहीं था अपितु आरएसएस और बीजेपी की सोची-समझी घिनौनी चाल के तहत ठेठ हरयाणत (जिसको कि बचाने और कायम रखने हेतु सरकार चुनी गई है) का गला घोंटने का कुचक्र था, था क्या अभी भी कुचक्र मंडरा रहा है, सिर्फ कोर्ट का स्टे लगा है| कुचक्र कैसे, वो ऐसे....

सन 2002 में मेरे गाँव में मेरे सगे चचेरे दादा मेरी नगरी (हिंदी में गाँव) के सरपंच थे| कभी गुजरे जमानों में हमारे ही गाँव का एक डिफाल्टर करीब डेड दशक बाद भगमा बाणा धारे, हाथ में कमंडल और चिमटा लिए मेरे गाँव में मंदिर खोलने की मंशा से आया| और सरपंच दादा के आगे गाँव में इस कार्य हेतु मदद का आह्वान किया| तो दादा ने उसको धमकाते हुए कहा कि अपनी खैर चाहते हो तो उल्टे पाँव लौट जाओ| इसी गाँव की पैदाइश होकर अपने गाँव का इतिहास नहीं जानते, परम्परा नहीं जानते? यहां तो अस्थल बोहर के मठाधीश को तीन दिन तक एक पैर पे खड़ा रहने के बाद भी बिना भिक्षा के नगरी को 'छूटा हुआ सांड' कहके लौटना पड़ा था और तुम यहां इनके प्रदूषण को फैलाने आये हो? क्या यह भी भूल गए कि यह आर्य-समाजियों का धाम है और यहां फंड-पाखंड की सार्वजनिक स्वीकार्यता अस्वीकार्य है? यहां किसी मोड्डे-बाबे को रोटी-पानी तो मिल सकता है परन्तु उसकी अय्याशियों का अड्डा नहीं खुल सकता, कोई और ठोर-ठिकाना ढूंढों और सुबह होने से पहले गाँव छोड़ दो, वरना इस गाँव की रीत तुम जानते ही हो| और वो रीत थी कि नगरी में जो लंग्वाड़ा मोड्डा-बाबा-साधु रातभर रुका तो वो सुबह होते-होते अच्छी तस्सली से अपनी चमड़ी उधड़वा के गया|

और यही या इसी तरह की कहानियां और भी बहुतेरे हरयाणवी गाँवों-नगरियों की है|

और क्योंकि बीजेपी और आरएसएस का मिशन ही यही है कि अब उसको हरयाणा के हर ठोर-ठिकाने पे यह ढोंग-पाखंड-आडंबर के अड्डे खड़े करने हैं और इनके इस मिशन में सबसे बड़ा रोड़ा है हरयाणा के उन्मुक्त व् लोकतान्त्रिक सोच के बुजुर्ग, जिनमें कि काले अक्षरी ज्ञान में अधिकतर या तो अनपढ़ हैं या फिर मुश्किल से मिडल पास, लेकिन मंडी-फंडी की चालों को समझने और उनकी काट रखने के सारे के सारे माहिर| और ऐसे में अगर यह लोग गाँवों-नगरियों के पंच-सरपंच रहेंगे तो मोड्डे अपनी मनमानी नहीं कर सकेंगे| इसलिए इनको एक मुश्त बिना शोर-गुल रास्ते से हटाने का शस्त्र था (या कहो कि अभी बना हुआ है) यह शैक्षणिक योग्यता का क्लॉज़|

इससे दूसरा फायदा यह होता कि हरयाणवी बुजुर्ग व् मैच्योर पीढ़ी की बजाये नवजवान पीढ़ी को इनके लिए बरगलाना काफी आसान रहता है और अपनी मंशाएं पूरी करने में सहूलियत होती| देख लो हरयाणा के युवाओ आपके जरिये कैसे-कैसे षड्यंत्र यह षड्यंत्री लोग साधे बैठे हैं| मतलब आपको पता भी नहीं चलने देते और हरयाणवी-हरयाणा-हरयाणत का मलियामेट करने का घिनौना खेल आपके ही जरिये होता|

और बात सिर्फ पाखंडों को फ़ैलाने के मंसूबों तक नहीं है अपितु मंडी यानी व्यापार के लिए भी अपनी मनमानी चालों को अमली-जामा देने में सर छोटूरामी विचारधारा को खत्म करने के इनके कयासों को आस बंधवाना भी इस क्लॉस का मकसद था| क्योंकि अनपढ़ वो नहीं जो काले अक्षर नहीं जानता अपितु वो है जो इनके मंसूबों को नहीं जानता, इनके समाज पे नकारात्मक प्रभावों को नहीं जानता|

शुक्र है कि इस पर रोक लगी|

कहीं पर जाट बनाम नॉन-जाट तो कहीं फन्डियों द्वारा फैलाई जा रही धार्मिक कटटरता और अंधता में फंसे हरयाणवियों को जरा दो पल के लिए इन चीजों से बाहर निकल कर अपनी उस पहचान के लिए सोचना चाहिए, जिसको हम हरयाणवी कहते हैं| आखिर क्यों इनके कुचक्र में फंस हर हरयाणवी इस तथ्य से भटका हुआ सा नजर आता है और यह लोग अपनी चाल चलते ही जा रहे हैं| ध्यान रहे यह शिक्षा का पैमाना खड़ा करने वाले उसी लाला जगत नारायण के वंशज हैं जिन्होनें कभी 1981 की जनगणना में पंजाब में अपनी माँ-बोली हिंदी लिखवाई थी तो हरयाणा में पंजाबी लिखवाई थी| दिखती सी बात है जिनके लिए माँ बोलियाँ और कल्चर पे पलटवार भी सरकारी योजनाओं से लाभ उठाने का एक हथियार मात्र हो, वो क्या तो हरयाणवी की सोचेंगे और क्या इसकी पहचान को कायम रखने की|

परन्तु हम नेटिव हरयाणवी तो सोच सकते हैं?

जय योद्धेय! - फूल मलिक ‪#‎JaiYoddhey‬

Source: पंचायत चुनाव के नए संशोधन पर सुप्रीम कोर्ट ने लगाई रोक, 4 हफ्ते में मांगा जवाब http://www.bhaskar.com/news/c-85-1126368-pa0345-NOR.html

Tuesday, 8 September 2015

मधुमक्खी बनाम घरेलु मक्खी!

(डंक मारने (परन्तु शहद देने वाले) वाले लोग बनाम घूं खाने वाले लोग)

सार: जाट आरक्षण व् अधिकारों मामले पे नीचे लिखे स्टाइल वाले एक घूं खाने वाले से तक्कलुस हो गई|

टाइटल से आप समझ ही गए होंगे, कि मधुमक्खी इंसान को साफ़ जगह पे काट के उसका खून ले जाती है जबकि घरेलू मक्खी या तो घाव पे बैठेगी या घूं यानी टट्टी पे| उड़ती आस्मां में दोनों हैं परन्तु एक डंक वाली है और दूसरी फंकी चरित्र है| एक समाज और प्रकृति की सुगंधित चीजों जैसे कि फूलों का रस बटोर शहद बना देती है तो दूसरी अच्छे से अच्छा यानी घी को भी छोड़ के घाव या घूं पे ही जा के बैठती है|

यही कहानी उन लोगों की होती है जो अपनी सभ्यता संस्कृति के खुद को जमाई समझते हैं खसम नहीं| यह लोग जिंदगी में कितने ही आगे पहुँच जावें परन्तु घरेलु मक्खी की तरह जा के बैठेंगे घर के कूड़े पे, घूं पे| इनको जिंदगी भर कभी अक्ल नहीं आती कि घूं पे बैठ के घूं ही उगलोगे जबकि अगर मधुमक्खी बनके घर बाहर अच्छी चीजों से योगदान ले के चलो तो समाज को शहद दे सकते हो| मेरी संस्कृति में यह कमी, वह कमी, इसमें कल्चर नहीं, सिर्फ वल्चर हैं, यह रद्दी की टोकरी में फेंकने लायक है, इसका कुछ नहीं किया जा सकता, ऐसे लोग होते हैं जो सिर्फ मक्खी की तरह घाव पे बैठ उसको कुरेदने, उसको ले के समाज में भय और चिंता भरने के अलावा कुछ करने के नहीं होते|

अब घरेलु मक्खी की यह भी समस्या होती है कि वो भले ही घर में घी खुला रखा हो परन्तु उसपे कभी नहीं जाएगी, लिसलिसा-चिपचिपा गुड, कूड़ा अथवा इंसान का घाव खुला हो तो पहले झटके जा बैठेगी| और ऐसी मक्खियों और इनकी केटेगरी वाले लोगों के विधवा आलापों या हरयाणवी में कहूँ तो रंडी-रोणों (महिलावादी लोग-लुगाई मुझे माफ़ करें, परन्तु सामाजिक कहावतें हैं तो प्रयोग करूँगा ही) के सिवाय कुछ हासिल भी नहीं होता| इसलिए ऐसे लोगों से डरने की जरूरत नहीं, क्योंकि यह लोग उस बौराये हुए जमाई की भांति होते हैं कि जिसको सालियां बासी-खुस्सी (घूं तो नहीं कहूँगा) या खीर-दही के भळोखे में रूई गिटका देवें तो उसमें भी अपनी स्यानपत समझेंगे| इस केटेगरी के लोगों को 'रोड़े अटकाने वाले', 'कढ़ी बिगाड़', 'रायता फैलाऊ' या म्हारे हरयाणवी में कह्या करें 'होक्के में डीकडे तोड़ने वाले' भी कह देते हैं|

हुआ यूँ कि दो-तीन साल पहले एक मसहूर हरयाणवी टीवी चैनल के डायरेक्टर ने ताना मारा कि तुम हरयाणा और जाटों को ले के यह क्या उल-जुलूल भांडणे में लगे रहते हो, तुम्हारे लोग (खुद हरयाणवी होते हुए भी तुम्हारे बोल रहा है) तो इतने पिछड़े हुए हैं कि आज तक भी गाँव के कचरे से बाहर नहीं आये, मुंह से बोलने लग जावें तो जैसे पत्थर लगते हों| वही जनाब अभी पिछले ही महीने जाट आरक्षण पर मुझे एक जाटनी लड़की की पोस्ट दिखा के कहने लगे कि देखो तुमसे तो यह लड़की कितना अच्छा तर्क ले के आई है, "जाट में दलितों जैसे ना तो जातिसूचक सामाजिक सम्बोधन हैं और ना ही जाट गरीब-गंवार हैं, तो फिर जाट को आरक्षण किसलिए? तो मैंने कहा उस दिन जाटों को पिछड़ा और कचरे में धंसा हुआ बताने वाला, जाटों के पिछड़ेपन से इतनी अच्छी तरफ से वाकिफ इंसान भी उस लड़की को जवाब नहीं दे सका, ताज्जुब है| खैर कोई नहीं मुझसे सुनो और बताओ 'मोलड़' शब्द मुख्यत: किस जाति के लिए प्रयोग किये जाने वाला जातिसूचक शब्द है? थोड़ी देर को उसको सांस नहीं आया| मैंने कहा दो साले पहले तो बड़े कह रहे थे कि जाट गांव के कचरे में पड़े हैं, पिछड़े हुए हैं, क्यों नहीं दे दी थी यही दलीलें उस लड़की को समझाने और जाटों के साधनहीन, सुविधाहीन व् अवसरहीन वर्ग की परिस्थिति का सही आईना दिखाने हेतु?

अपनी बात को ऊपर रखने हेतु बोलता है कि जातिसूचक शब्द तो हर जाति में हैं जैसे बनियों के लिए 'किराड़', ब्राह्मणों के लिए 'ताता खाने वाले', 'लार टपकाने वाले', 'पोथी वाले' और हिन्दू अरोड़ा-खत्रियों के लिए 'रेफ़ुजी', 'झंगी' आदि| तो मैंने कहा तो जब सब जानते हो तो उसको जवाब क्यों नहीं दिया? अंत में यही कह के पीछा छुड़ा के भागा कि ठीक है आज के बाद मैं मेरे नाम में सरनेम की जगह 'मोलड़' शब्द प्रयोग करूँगा| वो दिन है और आज का दिन मुझे अभी तक इतंजार है कि वो कब इस शब्द को अपने नाम के साथ जोड़ेगा| खैर जाति और हरयाणवी भाई होने के साथ-साथ वो मेरा अच्छा शुभचिंतक, क्रिटिक और मित्र भी है इसलिए पब्लिक में नाम नहीं बताऊंगा|

एक बार अब्राहम लिंकन ने कहा था कि 'यह मत पूछो कि देश ने तुम्हारे लिए क्या किया, अपितु यह पूछो कि तुमने देश के लिए क्या किया?' यही बात मैं कौम के नाम पर कहता हूँ कि यह मत पूछो कि कौम ने तुम्हारे लिए क्या किया वरन यह पूछो कि तुमने कौम के लिए क्या किया?' इतना पक्का है कि तुम कौम के लिए कुछ करोगे तो देर-सवेर कौम तुमको जरूर पहचानेगी-जानेगी|

अत: घरेलू मक्खियों की तरह घूम फिर के, घर में रखे घी को भी छोड़ के, आस्मां में ऊँचे-से-ऊँचे उड़ने के बावजूद भी अंत में घूं (टट्टी) पे जा के बैठने वाले लोगों की फ़िक्र मत करो, फिक्र करो तो उन मधुमक्खियों की जो साफ़ जगह (वो भी भीं-भीं की वार्निंग दे के) पे काटती हैं परन्तु साथ ही समाज के अच्छे-अच्छे स्त्रोतों से रस जुटा के उसको शहद बना देती हैं| हालाँकि इस रास्ते में अणखद (कष्ट) बहुत हैं परन्तु मसला है कि आपको समाज में घी सामने होते हुए भी अपने लिए घूं खाने वाले की पहचान बनानी है या मधुमक्खी की तरह समाज-कौम की सकारात्मक चीजों को जोड़ उनसे शहद बना देने वाले की|

वैसे भी चिंता मत करना कि कितनी घरेलू मक्खियाँ घूं पे जा के बैठी हैं यानी समाज का शुभचिन्तक होने रुपी मुखौटा लिए कितने लोग आपको आपके समाज-संस्कृति का कचरा दिखा रहे हैं, भान रहे यह लीचड़ लोग सिर्फ उस कचरे को दिखाएंगे, उसी पे बैठ के अपना धंधा चलाएंगे परन्तु उसको खुद साफ़ कभी नहीं करेंगे; क्योंकि अटल सत्य है उन्होंने खुद ही उसको साफ़ कर दिया तो वो काहे पे बैठ के अपना रंडी-रोणा रोयेंगे? अपितु चिंता करना कि आपको शहद देने वाली मधुमक्खी काट ना ले, क्योंकि वो घरेलू मक्खी की तरह ना तो बार-बार अटैक करती है या बार-बार उड़ाने पर भी जिद्दी बालक की तरह वापिस आपके घाव पे आ के बैठने को आतुर रहती है, वह तो बस एक ही अटैक में अपना काम कर जाती है, थोबड़े पे काटे तो थोबड़ा सुजा जाती है| परन्तु समाज की अच्छे को जोड़ के शहद भी देती है| इसलिए किसी के साथ जुड़ने से पहले, उनके लोप-ललित निबंधों के प्रभाव में आने से पहले यह जानना और निर्धारित करना बहुत जरूरी हो जाता है कि वो घरेलु मक्खी है या मधुमक्खी|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 6 September 2015

दिल्ली के "अशोका रोड" का नाम और "सारनाथ से लिया राष्ट्रीय चिन्ह" आदि भी बदलने वाले हैं क्या?


हिन्दू धर्म की वाट लगाने की कहो या 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' मूवी वाले स्टाइल में 'कह के लूंगा' स्टाइल में सबसे ज्यादा किसी ने ली तो वो थे महात्मा बुद्ध और सम्राट अशोक।

औरंगजेब ने तो फिर भी सिर्फ वही मंदिर-मस्जिद तोड़े जहां धर्म-विरोधी कुकृत्य होते थे, परन्तु महात्मा बुद्ध के चलाये धर्म ने तो पूरा हिन्दू धर्म ही निगल लिया था और इस काम को प्रचार के माध्यम से अंजाम देने वाले थे सम्राट अशोक।

परन्तु जहां बुद्ध को हिन्दू धर्म का ना होते हुए भी, हिन्दू धर्म को छिन्नभिन्न-खण्डखण्ड करने वाला होने पर भी वही लोग जो औरंगजेब के नाम से रोड का नाम बदल रहे हैं, बुद्ध को हिन्दू धर्म का नौवाँ अवतार भी बोलते हैं और लिखते भी हैं। और सम्राट अशोक को तो भारत का सबसे महानतम सम्राट बताते आये ही हैं।

मैं अक्सर इसीलिए तो कहा करता हूँ कि या तो मुझे बुद्ध की उपासना करने दो या फिर बुद्ध को हिन्दू शास्त्रों में हिन्दू धर्म का नौवाँ अवतार लिखना-कहना छोड़ दो।

On one another current shock:

दिवंगत एम. एम. कलबुर्गी जैसे विचारक को अपने विचार व्यक्त करने की आज़ादी से ना सिर्फ रोकना अपितु उनकी हत्या कर देना, ठीक वैसे ही है जैसे मलाला यूसफज़ई को पढ़ने जाने से रोक के हेतु जान से मारने की कोशिश करना। भारत में जिस भी विचारधारा या लोगों ने यह किया है वो तालिबान और ISIS का भारतीय रूप हैं।

ऐसे पागल जानवरों की जगह या तो जेल है या फिर पागलखाना।

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 25 August 2015

जमीन उसी जाति/समुदाय की हो जिसने उसका सदुपयोग किया हो, देशहित के लिए अन्न-उत्पादन में अद्वितीय भूमिका निभाई हो!

अगर "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी" के फार्मूला से आरक्षण लागू करवाने का वक्त आ गया है तो इससे पहले यह अध्यन होना चाहिए कि 1934 में सर छोटूराम द्वारा लागू करवाये गए 'कर्जा मनसूखी' व् 'जमीनी मल्कियत' के तहत व् आज़ादी के बाद विभिन्न जन-कल्याण योजनाओं के तहत विभिन्न जातियों को दी गई जमीनों का किन-किन जातियों ने देश के कृषि उत्पादन हेतु उत्तम प्रयोग किया, किन-किन ने उसको बेच दिया (सरकारी व् पब्लिक प्रोजेक्टों के तहत भू-अधिग्रहण के अतिरिक्त)| 1934, 1947, 1980 और 2010 में किस जाति के पास कितने % जमीन की अदला-बदली हुई व् कितनी जमीन किसने किसको बेचीं व् किसने खरीदी| कब कितनी जमीनें किस-किस जाति को अलॉट हुई, उन्होंने उन जमीनों का क्या किया? आज किस जाति के पास कितनी जमीन है और क्या वह उसका देश के लिए अन्न-उत्पादन करने में अपेक्षित प्रयोग कर रही है कि नहीं|

ताकि इससे यह पता लगाया जा सके कि देश की सर्वोत्तम कृषक जाति कौनसी है? देश में जमीन को सबसे सजा-संवार के कौनसी जाति रखती है| और कौनसी ऐसी जातियां हैं जो इसको बेच के शहरों को पलायन कर चुकी हैं अथवा बेच के दूसरे कार्यों का रूख कर चुकी हैं|

क्योंकि मुझे पता है भारत में कुछ ऐसे हरामी जातियां और लोग बैठे हैं जो जब "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी" की बात आएगी तो परम्परागत कृषक जातियों को ऊँगली करने हेतु आवाज उठाएंगे कि फिर तो सबकी ऐसी ही हिस्सेदारी जमीन में भी होनी चाहिए (चाहे बाप-दादा ने हल चला के ना देखा हो कभी)| 75-80 साल पहले जब सर छोटूराम ने यह फार्मूला सुझाया था तब से ले के अब तक इसको किसी ने नहीं उठाया, परन्तु अब जो लोग राज कर रहे हैं लाजिमी है वो देश में बवाल खड़ा करने को और आरक्षण को एक कभी ना सुलझने वाली परिस्थिति बनाने हेतु इसको देर-सवेर जरूर उठावेंगे|

और ऐसी आवाज उठने की परिस्थिति में कृषक समाज को फिर मंदिर और फैक्टरियों की प्रॉपर्टी और खजाना भी जिसकी जितनी संख्या के हिसाब से बंटवाने की आवाज उठवाने को तैयार रहना होगा|

मतलब यह है कि दो-चार जो देश की खुराफाती जातियां हैं वो अब इस पूरे आरक्षण के गेम को "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी" के फार्मूला में उलझा के पूरा होच-पॉंच फैलाने वाली हैं|

विशेष: यह मेरी चेतना के अंदर की आवाज ने मुझे कहा है, यह सच होगा या नहीं होगा, कितना होगा और कितना नहीं होगा वो भविष्य के गर्भ में छिपा है| परन्तु इतना जरूर है कि अब अपनी योजनाएं इन हो सकने वाली परिस्थितियों को भी ध्यान में रख के बनावें| वैसे ऐसा हुआ तो परम्परागत कृषक जातियों का ही पलड़ा भारी रहने वाला है बशर्ते वो अपनी कूटनीति अच्छे से घड़ के चलें|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

कौन है पटेल आरक्षण आंदोलन का पर्दे के पीछे बैठा डायरेक्टर?

अरविन्द केजरीवाल जब गुजरात गए थे तो जो बंदा इनका ड्राइवर बन इनको गुजरात घुमाया था वो हार्दिक पटेल से हूबहू मेल खाता है| कहीं आम आदमी पार्टी की 2017 गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए तो भूमिका नहीं बंध रही, इस आंदोलन के जरिये?

हार्दिक पटेल, बीजेपी के नेता का बेटा है, पिता अच्छे-खासे बिजनेसमैन भी हैं| कहीं-कहीं से सुगभुगाहट आ रही है कि ब्राह्मण-बनिया की भी ओबीसी में आरक्षण हेतु लॉबिंग मजबूत करवाने को आरएसएस/बीजेपी का इस आंदोलन के पीछे हाथ है| क्योंकि रैली के दौरान कुछ ऐसे स्लोगन्स भी लहराते दिखे जो पटेल आंदोलन के खाके को बिलकुल सेट नहीं बैठते और ऐसे स्लोगन अक्सर आरएसएस वाले अथवा आरक्षण विरोधी तबका उठाये देखे जाते हैं|

समझ नहीं आ रहा केजरीवाल या बीजेपी, आखिर है कौन इस आंदोलन के पीछे| और कल को इससे वास्तविक हासिल किसको, क्या होना है| लोचा है, अभी कुछ ख़ास क्लियर नहीं, रुकते हैं थोड़े दिन और, परतें अपने-आप सामने आने लगेंगी|

क्योंकि मोदी की गृह-स्टेट में, स्टेट-सेंटर दोनों जगह उनकी अपनी सरकार होते हुए इतने कम समय में इतनी बड़ी जनसभा हो जाना, वो भी बिना इलेक्शन के वक्त, साफ़ संकेत देता है कि कठपुतली की बागडोर तो पर्दे के पीछे किसी और के ही हाथ में है|

देखें सलंगित फोटोज जिन्होनें मुझे यह नोट बनाने का कारण दिया|

फूल मलिक




 

जाट आरक्षण आंदोलन की राह के सात मुख्य रोड़े!

जाट और खाप विचारधारा को इन 'मैं' रुपी सात कारकों को दूर रख के चलना होगा:

1.पहला मैं है "क्षेत्रवाद": अर्थात मैं हरयाणवी जाट, मैं राजस्थानी जाट, मैं आर का जाट, मैं पार जाट का, मैं दिल्ली का जाट, मैं पंजाब का जाट, मैं बागड़ी जाट, मैं देशवाली जाट, मैं बाँगरू जाट या मैं खादर का जाट|

2.दूसरा मैं है "भाषवाद": मैं पंजाबी बोलने वाला जाट, मैं अंग्रेजी, हिंदी, हरयाणवी, राजस्थानी, ब्रज या खड़ी आदि बोली बोलने वाला जाट|

3.तीसरा मैं है "पार्टीवाद": मैं कांग्रेसी जाट, मैं भाजपाई जाट, मैं इनेलो का जाट, मैं रालोद का जाट, या मैं फलानि पार्टी का जाट| ध्यान रखना होगा कि हम किसी भी पार्टी से जुड़े हों, सबसे पहले और सर्वोपरि हमारे लिए जाट और खाप शब्द हो|

4.चौथा मैं है "स्टैंडर्डवाद": मैं अमीर जाट, मैं गरीब जाट, मैं अनपढ़ जाट, मैं पढ़ालिखा जाट, मैं रोजगार जाट, मैं बेरोजगार जाट, मैं शहरी जाट, मैं ग्रामीण जाट, मैं बिजनेसमैन जाट तू खेती करणीया जाट, या तू अनपढ़ जाट मैं पढ़ा लिखा जाट, तू गाम का जाट मैं शहरी जाट, तू बेरोजगार जाट मैं रोजगारी जाट आदि-आदि प्रकार के तमाम "स्टैंडर्डवादों" जाट और खाप शब्द के आगे भूलना होगा|

5.पांचवा मैं है "धर्मवाद": मैं हिन्दू जाट, मैं मुस्लिम जाट, मैं सिख जाट, मैं ईसाई जाट, मैं सच्चे-सौदे वाले का जाट, मैं आर्यसमाजी जाट आदि-आदि प्रकार के तमाम "धर्मवाद" के रोगों को काट, जाट और खाप पर जुड़ना होगा|

6.छटा कारक है "के बिगड़ै सै, देखी जागी": जाट समाज की सबसे बड़ी आत्मघाती परिकल्पना जो "जाटड़ा और काटड़ा अपने को ही मारे", और "जाट-जाट का दुश्मन और जाट की छत्तीस कौम दुश्मन" जैसी मानसिक प्रवृतियों का मूल है| जीवन में खुशियां कायम रखने के लिए जीवन के प्रति हल्का रवैय्या जरूरी होता है, परन्तु इतना भी हल्का नहीं होना चाहिए कि वो बेखबरी/अनभिज्ञता का सबब बन जाए| क्योंकि बेखबरी अनियमतताओं का ऐसा द्वार है जिसके हमें कमजोर कर देगा, तोड़ देगा|

7.जाट थोड़ी सी प्रसंसा पर ही पूरी भेलि लुटा देता है: कहा जाट जाता है कि जाट प्रसंसा का भूखा होता है| तो ऐसे में आंदोलन जब अपनी पीक यानी ऊंचाई पर होगा तो हमारी प्रशंसाओं के पल बांधे जायेंगे, हमारे साथ झूठी भीड़ जोड़ी जाएँगी और ऐसे ही तमाम तरह के हथकंडे| परन्तु हमें प्रतिबद्ध रहना होगा हमारे गोल पर, उससे कम हमें कुछ हासिल नहीं|

और आज के दिन कोई भी जाट आरक्षण नेता इन 7 कारकों को एड्रेस नहीं करता, यह है असली समस्या की रुट, अन्यथा जनता की दिशा नेता ही डिसाईड करता है, जनता नहीं!

जय योद्धेय! - फूल मलिक

जाटो 'मनुवाद' का वायरस निकाल बाहर करो, समाज में रिसीविंग एंड पे रहने से छुटकारा पाओ!

जाटों से एक निवेदन है कि मनुवादी विचारधारा को पालना छोड़ दो, वो क्या है कि जो इसको आपसे पलवाते हैं वो ना ही तो इससे निकलने का मार्ग बताते और ना ही इससे उत्तपन नकारात्मकता से पीछा छुड़वाने का तरीका बताते| जबकि वो यह मार्ग और तरीका दोनों जानते होते हैं इसलिए इस मनुवाद के जन्मदाता, पथपालक और प्रचारक होने के बावजूद भी वो कभी इसकी मार में नहीं आते|

जबकि 'मनुवाद' को मान आप लोगों के साथ "घणी स्याणी दो बै पोवै" वाली बन जाती है| क्योंकि जेनेटिकली और बायोलॉजिकली आप हो गणतांत्रिक व् लोकतान्त्रिक परम्परा को व्यवहारिक तौर पर मानने, जानने व् अपनाने वाले लोग| इसलिए आपको जेनेटिकली और बायोलॉजिकली जो आपके अंदर है उसी का प्रैक्टिकल करते रहना चाहिए, 'मनुवाद' का नहीं|

यह 'मनुवाद' पे चलने का ही परिणाम है कि जाट बनाम नॉन-जाट, दलित बनाम जाट और तमाम तरह का भारतीय तालिबान का ठीकरा आपके सर फूटता है यानी सबसे लोकतान्त्रिक होने पर भी इनका सॉफ्ट-टारगेट बने रहते हो| यह भी ताज्जुब की बात है कि जिनका बनाया मनुवाद आप चलाने की कोशिश करते हो (कोशिश इसलिए क्योंकि चलाना नहीं आता, आता तो मनुवादियों की तरह बच निकलते) वो ही आपको समाज के रिस्विंग एंड यानि सॉफ्ट टारगेट पे लेते हैं|

सॉफ्ट-टारगेट पे कैसे? इसके लिए समझें इस साइकोलॉजिकल थ्योरी को| क्योंकि आप जेनेटिकली लोकतान्त्रिक हैं और लोकतान्त्रिक जींस का स्वाभाव होता है कि जब वो किसी के साथ 'मनुवादी' तरीके का भेदभाव करता है तो फिर वो आत्मग्लानि से भर जाता है| जबकि जेनेटिकली जो 'मनुवादी' होता है वो इसको प्रैक्टिकली करते वक्त भी 'आत्मग्लानि' भाव से नहीं भरता| खैर, लॉजिक की बात यह है कि जो आत्मग्लानि से भर गया फिर वो उस बात को ले के अपना डिफेंस नहीं करता| और बस इसी आत्मग्लानि से पनपी साइकोलॉजी का मनुवादी फिर आपके ही ऊपर हमला करने के लिए प्रयोग करते हैं और आपको समाज के रिसीविंग एंड पे रख देते हैं क्योंकि उनको पता है आप आत्मग्लानि से भरे हो आपको या आपके विरुद्ध जितना बोलेंगे उसपे आप प्रतिक्रिया नहीं दोगे, चुपचाप सुनते जाओगे| बस यही रहस्य है कि क्यों जाट कौम सॉफ्ट-टारगेट बनती है| यानी ढेढ़ स्याणे बनके पहले तो 'मनुवाद' को ओढ़ लेते हो और फिर जब इससे निकलने, पीछा छुड़ाने या पल्ला झाड़ने की बारी आती है तो आत्मग्लानि में भर के घुटे बैठे रहते हो; और यही घुटे बैठे रहने के मौके का आपको सॉफ्ट टारगेट बनाने वाले लोग आपके विरुद्ध सिद्द्त से प्रयोग करते हैं|

इसलिए इससे छुटकारा पाने का एक ही तरीका है इनको छोडो और भगवान ने आपके अंदर जिस लोकतांत्रिकता व् गणतन्त्रिकता का सॉफ्टवेयर बाई-डिफ़ॉल्ट इनस्टॉल किया हुआ है उसी का प्रैक्टिकल करो| अब यार बाई-डिफ़ॉल्ट एंटीवायरस के ऊपर नकली एंटी-वायरस या अनजान एंटी-वायरस चढ़ाओगे तो सिस्टम का भट्ठा बैठेगा कि नहीं?

बस यही निचोड़ है, भारत में अपनी वंशानुगत व् बायोलॉजिकल एंटिटी कायम रखनी है तो इस 'मनुवाद' के वायरस को निकाल बाहर करो| मनुवाद में बहक दलितों से ऊँच-नीच, छूत-अछूत का व्यवहार छोड़ो|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 24 August 2015

राजनैतिक पार्टियां आरटीआई के तहत आएँगी या नहीं, यह जनमत संग्रह से तय होना चाहिए!


इसके ऊपर जनमत संग्रह होना चाहिए, पार्टियां नहीं अपितु जनता इस देश की बाप है| जनता को इस पर जनमत देने का अधिकार होना चाहिए कि राजनैतिक पार्टियां आरटीआई के दायरे में आएँगी अथवा नहीं| निसंदेह ऐसा मुद्दा आयरलैंड, ग्रीक, स्कॉटलैंड, अमेरिका, फ्रांस जैसे देशों में होता तो जनता इस पर निर्णय सुनाती|

देश के सुप्रीम कोर्ट से अपील है कि इस मुद्दे को जनता की कोर्ट में जनमत संग्रह के लिए भेज दिया जाना चाहिए|

Topic: Centre to SC: Parties can't be brought under RTI
Source: http://timesofindia.indiatimes.com/india/Centre-to-SC-Parties-cant-be-brought-under-RTI/articleshow/48653592.cms

फूल मलिक

नहीं जाट-नेता मात्र हस्ती थारी!

जो सर छोटूराम को कभी अंग्रेजों का पिठ्ठू तो कभी सिर्फ जाट नेता मात्र आंक के देखते हैं या जाट-नेता तक सीमित करने की कुचेष्टा रखते हैं और इस हेतु ऐसा प्रचार तक करते हैं, वो जरा इस कविता को पढ़ लेवें और पढ़ने पर बता भी देवें कि कौन गांधी, कौन नेहरू, कौन जिन्नाह और कौन आर.एस.एस. हुई जो आज़ादी से पहले खुद उनकी जातियों तक के लिए ऐसे कार्य कर गए जैसे मेरे रहबरे-आजम ने किये? आर.एस.एस. समर्थित तो आज सरकार भी है, जरा जो सर छोटूराम कर गए उसके छटाँक भी आम भारतीय के लिए करके दिखा देवें तो मैं आजीवन स्तुति करूँ:

सर चौधरी छोटूराम रहबरे-आज़म थे,
दो राष्ट्र सिद्धांत को जड़ से ही मिटाया था|
मुहम्मद अली-जिन्नाह का मुंह थोब उसको,
पंजाब से चलता कर बम्बई का रस्ता दिखाया था||

असहयोग आंदोलन पे गांधी को चेताया था,
किसान-मजदूर ही क्यों व्यापारी भी करे|
विदेशी व्यापार का बहिष्कार, यूँ फरमाये थे,
देख तेवर रहबर के गाँधी भी थर्राये थे||

किसानों को जमीन के मालिकाना हक मिले यूँ,
अंग्रेजों के आगे गोल - टेबल बढ़ाई थी|
अजगर को ही देवें किसानी स्टेटस परन्तु,
ब्राह्मण-सैनी-खाती-छिम्बी को भी मल्कियत दिलवाई थी||

हिन्दू औ मुसलमान मिलकर एक किये,
भाई-भाई का हृदय मिलन कराया था|
राष्ट्र का दुर्भाग्य रायबहादुर स्वर्ग गए,
मानवता शत्रुओं ने राष्ट्र बंटवाया था||

अनपढ़ जाट पढ़े जैसा, पढ़ा जाट खुदा जैसा,
यह कहावत वाकई में सिद्ध करके दिखाई थी|
पढ़ा ब्राह्मण समाज तोड़े, पढ़ा जाट समाज जोड़े,
जीती-जागती मिसाल इसकी बनाई थी||

'फुल्ले भगत' करे नमन मसीहा,
दलित-मजदूरों के हिमायतकारी,
करूँ सुनिश्चित आप कहलाएंगे रहबर सबके,
नहीं जाट-नेता मात्र हस्ती थारी!

लेखक: फूल मलिक

भारत में लठतंत्र के प्रकार!

1) स्वघोषित राष्ट्रवादी लठतंत्र: आरएसएस इसको देश में इसकी स्थापना के वक्त से चला रही है|

2) क्लब बाउंसर लठंतत्र: हर डांसिंग क्लब, बार क्लब, रेव पार्टी स्टेज पर बौन्सर्स होते हैं जिनको अति-विशिष्ट विषम परिस्थिति में लठ चलाने की भी इजाजत होती है|

3) लव-कपल बीटिंग लठतंत्र: राम सेना, शिव सेना, बजरंग दल, रणवीर सेना को अक्सर वैलंटाइन डे, चॉक्लेट डे, फ्रेंडशिप डे, रोज डे आदि-आदि डेज के वक्त लव-कपल्स को लात-मुक्के-लाठियों से भांजते हुए यह लोग इस तंत्र को बखूबी निभाते हुए देखे सुने जा सकते हैं|
 

4) बैंक ईएमआई उगाही लठतंत्र: इससे तो खैर बैंकों के लोन ना उतारने या किसी वजह से ना उतार पाने वाला हर सख़्श वाकिफ ही होगा|

5) मंदिर में दलित प्रवेश निषेध पालना लठतंत्र: उत्तरी भारत में शायद कम परन्तु पूर्वी-मध्य व् दक्षिण भारत में इसकी बड़ी सिद्दत से पालना होती है और जो दलित चेतावनी पर भी नहीं समझता तो उसको फिर लठ से समझाया जाता है|

लेकिन अगर कोई जाट अपने हक मांगने के लिए भी लठ उठा ले तो यह सारे के सारे चिल्लाने लगते हैं कि देखो 'जाट लठतंत्र चला रहे हैं| या तो यह लठतंत्र पे किसी और का कब्ज़ा ना हो जाए इसीलिए घबराने लग जाते हैं, या फिर जाट इनसे अच्छा लठबाज है यह इसलिए डरने लग जाते हैं पता नहीं क्या कारण है परन्तु जब जाट लठ उठता है तो फटती अच्छे-अच्छों की है| और ऐसे आजतक सिर्फ सुना था परन्तु जैसे ही हरयाणा के जाट ने पिछले हफ्ते ही लठ उठाने की कही तो (सिर्फ बात कही ही थी, उठाया नहीं था) यह पांचों केटेगरी वाले चिल्लाने लगे| क्या आरएसएस, क्या लव कपल को पीटने वाले, क्या क्लब-बार में बॉउन्सर्स रखने वाले, क्या बैंकों वाले और क्या मंदिरों वाले सब एकमुश्त त्राहि-माम् करते दिखे|

और कानतंत्र में रहद जमा देने वाला भांडतंत्र तो फिर इनके सुर-में-सुर मिलाने को हमेशा उकडू हुआ ही रहता है|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 22 August 2015

हरयाणा का दलित, उसकी जमींदारी और उस जमींदारी का अल्पकालिक चरमोतकर्ष!

1980 और 1990 के दशक की बात है, उस वक्त की सरकारी योजनाओं के तहत हरयाणा के गाँवों के दलितों के कई समुदायों को 1.75 एकड़ (हरयाणवी में किल्ले) के हिसाब से मालिकाना हक वाली जमीनें मिली थी| मेरी निडाना नगरी (हिंदी में गाँव) जिला जींद हरयाणा में भी इस योजना के तहत करीब 48 दलित परिवारों को 1.75 एकड़ प्रति परिवार मालिकाना हक के तहत 84 एकड़ जमीन मिली थी|

जिसमें से तीन दलित परिवारों की करीब 5 एकड़ जमीनें तो मेरे पिता जी जब खेती किया करते थे और हम बच्चे हुआ करते थे तब करीब 20 सालों तक ठेके और हिस्से पर बोते रहे थे| यानी दलित एक जमींदार की भांति एक जाट को उसकी जमीन पट्टे पे कहो, हिस्से पे कहो, बाधे पे कहो या ठेके पे कहो, इसके तहत दिया करते थे और जाट उसको एक खेतिहर की तरह बोया करते थे| और दलित, जमींदार होने का अनुभव और आनंद दोनों उठाया करते थे|

यह पांच एकड़ जमीन हमारे खेतों से लगती थी जो कि आज भी यथावत वहीँ है| मैं जब विद्यार्थी होता था तो इन जमीनों में पानी भी लगाता था और इन पर ट्रेक्टर से खेत भी जोतता था| और दलित फसल पकने के वक्त आते और अगर हिस्से का कॉन्ट्रैक्ट होता तो अपना हिस्सा तुलवा कर या तो फसल ले जाते या कॉन्ट्रैक्ट अगर बाधे का होता तो उसके पैसे कॉन्ट्रैक्ट की शर्तों के हिसाब से चुकाए जाते थे|

करीब 20 साल हमने यह जमीनें बोई, इसका जिक्र करना इसलिए जरूरी है क्योंकि कई दलित भाई कह देते हैं कि क्योंकि दलित जाटों-जमींदारों के कर्जदार होते थे इसलिए अपना कर्ज वसूलने को दलितों की जमीन हड़प ली या दलितों ने खुद ही जाटों को बेच दी| ऐसे भाइयों को कहना चाहूंगा कि 20 साल का वक्त कोई कम नहीं होता है 20 साल में आप 1.75 एकड़ जमीन की कमाई से अगर किसी का कर्जा था तो वो भी उतार सकते थे और नई कमाई से खेती करके 1.75 एकड़ को 4-5 या इससे भी ज्यादा बना सकते थे| परन्तु आप लोगों में से अधिकतर ने उस जमीन के ठेके का जो पैसा मिलता था उस पैसे से पहले अगर किसी का कर्ज था तो उसको चुकता करने की बजाय लैविश लाइफ का आनंद लेना बेहतर समझा, दारु-मीट-मांस में उड़ाना बेहतर समझा|

दो तीन दलित भाइयों को मैंने यह तर्क रखे तो आगे से उनके तर्क आये कि जाट-जमींदार के खेतों के बीच दलित के खेत पड़ें तो जाट उनको रास्ता ही ना देवें| उन भाइयों की जानकारी में रहना चाहिए कि अगर मेरे गाँव को औसत मान के चलूँ (मेरा गाँव 4500 की जनसंख्या का मध्यम आकार का गाँव है, जबकि हरयाणा में इससे छोटे और बड़े बहुत सारे गाँव हैं) जहां कि 84 एकड़ जमीन दलितों को मिली थी और जैसा कि पूरे हरयाणा में 6841 गाँव बताये जाते हैं तो ऐसे 574644 यानी पांच लाख च्वहतर हजार छ: सौ चवालीस एकड़ जमीन के तो दलित एक मुस्त मालिक बने थे| तो जरा आप लोग बताएँगे कि ऐसे कितने मामले हरयाणा में आये जहां जाट या अन्य जाति के जमींदारों दवारा अगर आपकी जमीन उनके खेतों के बीच पड़ी तो आपको रास्ता नहीं दिया गया? हालाँकि खुद जाट-जमींदारों के यहां दो भाइयों में आपस में सैंकड़ों मामले सुनने को मिलते हैं जब पता लगता है कि एक भाई ने दुसरे भाई को उसकी जमीन में से आने-जाने के लिए रास्ता नहीं दिया, बावजूद इसके आप जरा बताएं कि ऐसे कितने मामले हुए दलितों के केस में? और आपने क्या लगा लिया कि कोई जाट-जमींदार रास्ता ना देता और दलित चुप रहते?

खैर 1980-1990 के दशक में जो दलित जमींदार हो गए थे, (हाँ जमींदार ही कहूँगा क्योंकि जब 80% से ज्यादा का जाट 2 एकड़ या इससे भी कम का मालिक होते हुए भी जमींदार कहलाया जाता है तो इतने ही का मालिक दलित जमींदार क्यों नहीं कहा जायेगा?) तब से 2000-2010 आते-आते 75-80% के करीब ने अपनी जमीनें बेच दी (मेरे गाँव में तो 95% बेच चुके)| कारण ऊपर बताया कि बजाय अपनी किसानी दक्षता को सिद्ध करने का मौका हाथ में होते हुए, उन जमीनों को जाट-जमींदारों को हिस्से-बाधे पे दे दलित भाइयों ने उस हिस्से-बाधे की कमाई से लैविश लाइफ जीना ज्यादा पसंद किया| और ऐसे अपनी जमीनें बेचते गए|

और इस तरह दलितों की उस सुखदायी परन्तु अल्पकालिक जमींदारी का अंत हुआ जिसमें एक जाट-जमींदार उनकी जमीनों पे एक खेतिहर की तरह खेती करने लगे थे| इसलिए मेरा मानना है कि 1980-1990 से पहले के दलित तो यह कह सकते थे कि वो कभी जमीनों के मालिक नहीं रहे, परन्तु उसके बाद के दलित यह बात कैसे कह सकते हैं जबकि यह चीज भारतीय दस्तावेजों में कानूनी तौर से रिकार्डेड है और धरातलीय सच्चाई है?

यह एपिसोड ठीक 1926-34 वाले वक्त की तरह है| उस वक्त रहबरे-आजम-दीनबंधु सर छोटूराम जी के अटूट इरादों की वजह से उस वक्त के पंजाब प्रान्त के जाट-गुज्जर-अहीर-राजपूत किसानों समेत गौड़-ब्राह्मण, सैनी (माली), जांगड़ा (खाती) जातियों {इन तीनों जातियों को अंग्रेजों ने किसान मानने व् जमीनों के मालिकाना हक देने से मना कर दिया था, परन्तु सर छोटूराम ने उनकी सरकार के तमाम एम. एल. सी. (आज की भाषा में एम. एल. ए.) से हस्ताक्षर करवा इन जातियों को भी इस सूची में शामिल करवाया} को उन जमीनों के मालिकाना हक दिलवाये|

इन हस्ताक्षर करने वाली एम. एल. सी. में 34 जाट थे| वो भी आज के राजकुमार सैनी की भांति सोच लेते तो शायद आज सैनी समाज जाटों से मतभेद में ना उलझ उनकी जमीनों के मालिकाना हक के लिए ही लड़ रहा होता| कुछ नेता कितने स्वार्थी हो जाते हैं कि दो जातियों के आपसी प्रेम-प्यार और प्रतिबद्धता के इस अटूट लगाव भरे इतिहास को दांव पे रख, दोनों में जहर घोलने पे तुल जाते हैं, राजकुमार सैनी साहब इसी की जीती-जागती मिसाल हैं|

खैर, तो इन जातियों ने इन जमीनों की जोत को जोत-जोत के इनमें और जमीन जोड़ते गए और अब तक जमीनों को कायम रखा हुआ है| तब किसी जाट ने यह बहाना नहीं बनाया कि उसपे किसी साहूकार का कर्जदार था तो उसको कर्ज के ऐवज में मैंने जमीन दे दी या साहूकार ने छीन ली, जैसे कि मैंने दलित भाई जाटों पर यह इल्जाम लगाते सुने हैं|

दलित भाई भी चाहते तो ऐसे ही कर सकते थे| परन्तु आपने जो रास्ता चुना वो भी अपनी मर्जी से चुना|

जय योद्धेय! - फूल मलिक