Wednesday, 7 October 2015

एक गुजराती (गांधी) कहता था अंग्रेजो भारत छोडो, दूसरा गुजराती (मोदी) उनको वापिस बुला रहा है!

एक डेड स्याणे आप ही हुए हो कि वो यहां आएंगे आपको सब कुछ बना के देंगे और उससे बिना मनचाहा अथवा निर्धारित मुनाफा कमाए भारत छोड़ जायेंगे?

मेरे ख्याल से यूरोपियन और अमेरिकन अभी इतने भी बावळीतरेड़ नहीं हुए हैं कि तुम उनसे यह कह के प्रोजेक्ट उठवाओ कि बस आओ, बनाओ और जाओ और तुम्हें मुफ्त में अपनी टेक्नोलॉजी भी दे जाओ|

यार दिमाग की दही कर देते हैं ऐसे लोग, ढींग हांकने को तो यह गाय के मूत से भी बिजली बना देवें; परन्तु जब व्यवहारिक तकनीक की बात आवे तो फिरें उड़ते देश-देश वास्कोडिगामा बने|

यह इतने सारे शंकराचार्य से ले, महामंडलेश्वर, वेदांती, शास्त्री, साध्वी-साधु क्या यहां सिर्फ जीभ चलाने को छोड़े हुए हैं और हम भैंस की पूंछ बनके इनके हुंगारे भरने को? इनको लगाते क्यों नहीं शुद्ध भारतीय तकनीक विकसित करने में? ताकि इनके टैलेंट का देश में सिर्फ दंगे और जातिवाद बढ़ाने और भड़काने के अलावा भी कोई ढंग का इस्तेमाल हो सके|

और हमें भी पता चले कि यह चाँद-तारों की ऊंचाई तक के ज्ञानी-भंडार के दावे करने वाले वास्तव में कितने ब्रह्मज्ञानी हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

सुप्रीम कोर्ट में पंचायती राज कानून में "शैक्षणिक योग्यता" मुद्दे पर जनता के पक्ष हेतु कुछ वाजिब बिंदु!


1) 100-100 खेत कीटों का ज्ञान रखने वाले किसान कैसे निरक्षर हो सकते हैं?: यहां संदर्भ में सन 2008 में स्वर्गीय डॉक्टर सुरेन्द्र दलाल द्वारा हरयाणा के जिला जींद के निडाना गाँव में "खेत-कीट साक्षरता अभियान" के तहत शुरू की गई खेत-कीट पाठशाला में आज एक-एक किसान ऐसा है जो किताबी अक्षरी ज्ञान में अनपढ़ होते हुए भी बायोलॉजिकल खेत-कीट ज्ञान इतना माहिर है कि 100-100 खेत-कीटों का ज्ञान रखता है| जहां देश के 70% से अधिक कृषि वैज्ञानिक तक मुश्किल से 10 कीटों के जीवनचक्र, फसलों में उनके फायदे-नुकसान पर नहीं बता सकते, वहीँ यह किसान इस मामले में इन सबको मात देता है तो वह सिर्फ एक अक्षरी ज्ञान ना होने की वजह से अनपढ़ कैसे हो सकता है? आज यह एक अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अभियान है, जिसकी मीडिया व् कृषि वैज्ञानिकों से ले सरकारी मशीनरी ने खूब कवरेज भी की है और इसकी ऑथेन्टिसिटी को खूब जांचा, परखा और स्वीकारा है| डॉक्टर दलाल के गुजर जाने के बाद स्थानीय खापों ने इस अभियान को बड़ी तल्लीनता से आगे बढ़ाया है, जिनमें माननीय दादा कुलदीप सिंह ढांडा जी का नाम उल्लेखनीय है|

2) किसानी ज्ञान को ज्ञान अथवा शिक्षा क्यों नहीं माना जाता?: एक ऐसी कला, एक ऐसी विधा जो धरती का सीना चीर देश के पेट के लिए अन्न-धान उगा दे वो एक महज अक्षरी ज्ञान ना होने की वजह से अनपढ़ कैसे ठहराई जा सकती है? किसान की इस विधा को तो वेद-शास्त्रों तक में "अन्नदाता" व् "अन्नदेवता" का दर्जा प्राप्त है| तो फिर जो "देवता" हो गया वो अनपढ़ कैसे हुआ? क्या सारी उम्र देश के लिए अन्न पैदा करने वाले किसान से अपने सदाचार यानी विजडम से देश को चलाने हेतु अपनी पारी खेलने का अधिकार सिर्फ इस बात पर छीन लिया जायेगा कि उसको अक्षरी ज्ञान नहीं?

3) विश्वविधालयों को कहा जाए कि तमाम ऐसे बुद्धिजीवी परन्तु अनपढ़ किसानों को मास्टर्स, ग्रेजुवेट व् डॉक्टरेट की मानद (आनरेरी) डिग्रीयां देवें: हमारे देश में एक राजनेता, अभिनेता, कलाकार और सामाजिक कार्यों के क्षेत्र में अद्वितीय कार्य करने वालों को, जैसे विभिन्न विश्वविधालय डॉक्टरेट की आनरेरी डिग्रियां देते हैं ऐसे ही कृषि विश्वविधालयों को आदेश हो कि बिंदु एक में बताये गए तमाम तरह के किसानों को भी डॉक्टरेट से ले मास्टर्स और ग्रेजुवेट की आनरेरी डिग्रियां देवें| क्योंकि ऐसी डिग्रियां लेने वाले लोग ना कभी किसी पीएचडी की क्लास में गए होते हैं, ना किसी रिसर्च गाइड के तहत रह कर कोई थीसिस लिखे होते हैं परन्तु फिर भी सिर्फ उनके कार्यक्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए उनको आनरेरी डिग्रियां दी जाती हैं तो इसलिए यह कृषि क्षेत्र में भी दी जानी चाहियें| इससे कम से कम जिन्होनें तमाम उम्र इतनी मेहनत से देश का ना सिर्फ पेट भरा हो वरन इतना गहन कीट-ज्ञान अर्जित किया हो कि एक चलती-फिरती पाठशाला बन गए हों, वो भी डॉक्टरेट या पढ़े-लिखे कहलावें|

4) रोड़ा इस बात पर अड़ाया जा रहा है कि डिजिटल इंडिया मुहीम के तहत अनपढ़ों को सहजता से नहीं सिखाया जा सकता, यानी उनकी लर्निंग कैपेबिलिटी पर संदेहास्पद स्थिति कही जा रही है। जबकि खेत-कीट कमांडोज़ का उदाहरण साबित करता है कि किसानों में लर्निंग कैपसिटी किसी भी पढ़े-लिखे इंसान से कम नहीं, क्योंक जब वह 100-100 कीटों का ज्ञान और अन्न पैदा करने के ज्ञान की लर्निंग कैपेसिटी रखते हैं तो क्या जब वो औसतन 5000 लोगों के चुने हुए नुमाइंदे बनेंगे तो उनको ट्रेनिंग के जरिये वह चीजें नहीं सिखाई जा सकेंगी? आखिर एक पढ़े-लिखों के ऑफिस में भी तो कोई नई चीज वहाँ के स्टाफ को ट्रेंड करके ही शुरू की जाती है?

तो क्या सरकार सिर्फ इस ट्रेनिंग से अपना पल्ला झाड़ रही है? अधिकतर मामलों में पंच-सरपंच ने तो वैसे भी दिशा-निर्देश देने हैं कार्य तो उनके तहत जनता अथवा कर्मचारी करेंगे या ट्रेनिंग देने वाले उनको सीखा के जायेंगे। वहीँ बात कि जब वो इतने बड़े कीट-विज्ञानी बन सकते हैं तो वो पंच-सरपंची क्यों नहीं चला पाएंगे?

बशर्ते कि सरकार डॉकटर सुरेन्द्र दलाल जैसी जनसेवा की भावना हर कर्मचारी में पैदा करने पे जोर दिलावे।

अगर यह फैसला लागू हो गया तो इससे सरकारी कर्मचारी में डिक्टेटर बन जाने की संभावना बलवती रहेगी और उसके अंदर से जनसेवा की भावना कुंध होती चली जाएगी।

Jai Yoddhey‬ - Phool Malik

This is literally against the democratic spirit of a nation!

It is further arguable as it violates the fundamental right of expressing ones opinion of governing the society on the basis of his/her humanitary wisdom. Does it mean that a person illitrate just on the basis of official education can't have a wisdom of running the society?

And how can a farmer with whose knowledge he nurture the nation's stomach, isn't that an education? A farmer sitting in countryside even has the bilogical knowledge more than any government gazzetted officer. Example is my own village itself, where there are farmers in dozens who can beat any officially proclaimed agri scientist sitting in universities when it comes to knowledge on insecticides and agri insects.

If so is the case then various universities should stop conferring various doctorate degrees on people who have not attended even a single academic class requisite for that degree and are designated doctorates just on the basis of their life experience. Either it should be stopped or else unverisities and governments should bring up same policy of conferring such degrees on those farmers too who excel in their feild and possess much more and better way knowledge of agri bio, insects, techniques and facts than any designate scientist or officer.

This government has again proved its clone dipped into philosophy of "Manuwad" for whom only their styled knowledged persons are literate and rest world is illitrate. This backdoor imposing of "Manuwad" won't go unnoticed and it would be repelled with proper dues in times to come.

Source: http://indianexpress.com/article/india/india-news-india/educational-qualification-for-contesting-panchayat-polls-in-sc-haryana-cites-two-child-norm/

Phool Malik

Tuesday, 6 October 2015

शायद मोदी जी जब सफाई अभियान की बात कहते हैं तो भगत उसको ऐसे लेते हैं!

कि जनता के पैसे से आप वास्कोडिगामा बनो, देश की इंटरनेशनल रेपुटेशन बनाने हेतु इंटरनेशनल स्टेज शो करो और फिर पीछे-पीछे उसपे हम झाड़ू मारते चलेंगे|

मोदी जी या तो यह विदेशी दौरों पे व्यर्थ पैसा बहाना बंद कर दो, या भगतों को ठीक से ज्ञान दो कि देश की गलियों की सफाई करनी है, इंटरनेशनल रेपुटेशन की नहीं!

आ ली फॉरेन इन्वेस्टमेंट ऐसे तो! धेल्ला ना मिलना देश को, जो है उसको और लुटवाओगे|

Jai Yoddhey‬ - Phool Malik

 
 

हरयाणा में जिन्होनें अपने ही हाथों पंजाबी भाषा का गला घोंटा वही खुद को पंजाबी भी कहलाते हैं? आखिर यह कैसे पंजाबी हुए?

सार: 1957 में पंजाब के हिंदी भाषी क्षेत्र यानि आज के हरयाणा-हिमाचल के स्कूलों में "पंजाबी भाषा" लागु करने के खिलाफ ऐतिहासिक "हिंदी सत्याग्रह" खड़ा करने वाला स्वघोषित पंजाबी समुदाय आखिर किस मुंह से अपने आपको पंजाबी कहता है?

सनद रहे यह आंदोलन मुख्यमंत्री श्रीमान भीमसेन सच्चर द्वारा कभी "सच्चर फार्मूला" के तहत तब के पंजाबी भाषी क्षेत्रों यानी आज के पंजाब में आठवीं तक हिंदी और हिंदी भाषी क्षेत्रों यानि आज के हरयाणा-हिमाचल में आठवीं तक "पंजाबी" भाषा विषय लागू करने के खिलाफ सिर्फ इसलिए खड़ा किया गया था क्योंकि इनको एक सिख जाट मुख्यमंत्री सरदार प्रताप सिंह कैरों (छोटे छोटूराम) का मुख्यमंत्री बनना रास नहीं आया था|
वरना भीमसेन सच्चर से ले गोपीचंद भार्गव तक ने 1947-56 तक पंजाब में मुख्यमंत्री की, तब इनमें से किसी को इस फार्मूला के खिलाफ आंदोलन खड़ा करने की नहीं सूझी| और यह पंजाब में ऐसे-ऐसे षड्यंत्र रचते थे इसीलिए 1984-86 में पंजाब के असली पंजाबियों ने इनको वहाँ से खदेड़ के हरयाणा की ओर धकेल इनकी असामाजिक करतूतों से पिंड छुड़वा लिया था|

भूमिका: बड़ा दुःख होता है जब मेरे जैसे सिर्फ धार्मिक ही नहीं अपितु जातीय सेक्युलर इंसान को यह गड़े-मुर्दे उखाड़ने पड़ रहे हैं| परन्तु जब हरयाणा के सीएम खटटर साहब हरयाणवियों को कंधे से ऊपर कमजोर कहते फिर रहे हैं तो उखाडूं भी नहीं तो और क्या करूँ? अपनी और आगे की जनरेशन को इन चीजों बारे बताना भूला हुआ था या कहो इसकी जरूरत महसूस नहीं की थी शायद इसीलिए यह सुनना पड़ा, परन्तु अब यह भूल नहीं करूँगा|

क्या है ना कि एक तो हरयाणवी, ऊपर से जाट वो भी लोकतान्त्रिक परम्परा की सबसे ऐतिहासिक धुर्री खाप गणतंत्र की धर्म-जाति से रहित थ्योरी को मानने वाला| इसलिए हम साम्प्रदायिक कचरे को दिमाग में जगह नहीं दिया करते, दिल में घुसते ही उसका ताबड़तोड़ हिसाब करके, मामले को कन्नी करके आगे बढ़ने वाले लोग हैं, परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि हमें कुछ पता नहीं होता| आखिर विश्व की सबसे प्राचीन सोशल इंजीनियरिंग थ्योरी खाप के ध्वज-वाहक हैं हम, कुछ पता ना होता या कंधे से ऊपर कमजोर होते तो इस थ्योरी को देश की गुलामी, गैरों और अपनों के जुल्मों के तमाम दौरों से सुरक्षित खिवा के यहां तक ना ला पाते|

"अगला शर्मांदा भीतर बड़ गया, बेशर्म जाने मेरे से डर गया!" कहावत की तर्ज पर समाज की समरसता को बनाये रखने के लालच में अगर हम समाज को तोड़ने की अधिकतर बातों पर शर्माते हुए धूल उड़ाते चलने की प्रवृति के हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि कोई हमें बेशर्म बनते हुए कंधे से ऊपर कमजोर कहेगा| अपितु हम देश में सबसे ज्यादा मात्रा में सच्चे धर्म-जाति-सम्प्रदाय से रहित मानवता आधारित समाज के प्रहरी हैं, इसलिए वो ऐसा कह गया|

जब सीएम की पोस्ट पे बैठे इंसान की तरफ से उसी प्रदेश की एथनिक आइडेंटिटी पे हमला होवे तो निसंदेह यह ऐसा कार्य करता है जैसे नींद से सोते हुए आदमी पे पानी का छब्का या बारिश में भीगे पंछी द्वारा शरीर में स्फूर्ति और गर्माइस लाने हेतु पंखों से बूंदों को झाड़ना| और धन्यवाद श्रीमान खट्टर साहेब और किसी हरयाणवी को आपके इस बयान ने झकझोरा हो या नहीं परन्तु मुझे तो निसंदेह भीतर तक थपेड़ा है|

अब मुद्दे की बात: 15 अगस्त 1947 से ले के 23 जनवरी 1956 तक गोपीचंद भार्गव और भीमसेन सच्चर उस वक्त के संयुक्त पंजाब (पंजाब, हरयाणा और हिमाचल) के 2-2 बार मुख्यमंत्री रहे| सच्चर साहब ने मुख्यमंत्री रहते हुए सयुंक्त पंजाब के सरकारी विभागों में भाषा की वजह से कर्मचारियों को आये दिन आने वाली समस्याओं के निदान हेतु "सच्चर फार्मूला" निकाला और संयुक्त पंजाब के हिंदी भाषी क्षेत्रों में आठवीं तक "पंजाबी" और पंजाबी भाषी क्षेत्रों में "हिंदी" विषय पढ़ाने शुरू करवाये| जब तक वह और भार्गव साहब मुख्यमंत्री रहे, हिन्दू अरोड़ा/खत्रियों के अख़बार उनकी भूरि-भूरि स्तुति करते रहे| परन्तु फिर आया छोटे छोटूराम के नाम से प्रख्यात हुए सरदार प्रताप सिंह कैरों एक जाट सिख का मुख्यमंत्री काल|

गए दिनों तक सच्चर फार्मूला की प्रशंसा में कसीदे घड़ने वाले अख़बारों और इनके अधिकतर हिन्दू खत्री/अरोड़ा मालिकों ने अब हिंदी भाषी पंजाब यानि हरयाणा में "आर्य प्रतिनिधि" सभा की शहरी इकाई को साथ ले के यह प्रचार करवाना शुरू करवा दिया कि कैरों तो हरयाणा में जबरदस्ती पंजाबी भाषा थोंप रहे हैं| जरा इनकी स्याणपत और पंजाबियत देखिये कि खुद को आज भी पंजाबी कहने वाला यह समुदाय ही हरयाणा में पंजाबी भाषा के पढ़ाये जाने के विरुद्ध काम कर रहा था| पंजाबी तो पंजाबी यह तो हिंदी के भी नहीं रहे थे क्योंकि ठीक इसी तरह पंजाब में यह प्रचार कर रहे थे कि कैरों साहब तो पंजाब में हिंदी लागु करके पंजाबी को खत्म करना चाहते हैं|

उस जमाने में इस समुदाय के श्री के. नरेंद्र दिल्ली से और श्री वीरेंद्र जालंधर से दैनिक उर्दू प्रताप और हिंदी वीर अर्जुन का सम्पादन करते थे| इसी प्रकार उर्दू मिलाप के जालंधर संस्करण का सम्पादन करते थे श्री यश और इसके दिल्ली संस्करण का सम्पादन करते थे श्री रणबीर| महाशय कृष्ण प्रताप समूह के मालिक और वीरेंदर और नरेंद्र के पिता थे| इसी प्रकार मिलाप समूह के मालिक श्री खुशहाल चंद ख़ुरशन्द (महात्मा आनंद स्वामी) थे और श्री रणबीर और यश (इनको कैरों साहब ने अपने मंत्रिमंडल में उपमंत्री भी बना रखा था) उनके पुत्र थे| दैनिक उर्दू हिन्द समाचार के मालिक थे लाला जगत नारायण, जो भीमसेन सच्चर के मंत्रिमंडल में शिक्षामंत्री रह खुद "सच्चर फार्मूला" को लागू करवाने वाले विभाग के कर्ताधर्ता रह चुके थे, वर्तमान करनाल सांसद अश्वनी चोपड़ा के पिता व् इन लोगों की कारिस्तानियों की वजह से जब पंजाब में आतंकवाद बढ़ा तो यह जनाब सिख आतंकियों के मुख्य शिकार भी बने थे| यह लोग शहरी आर्य प्रतिनिधि सभाओं के भी विभिन्न पदों पर आसीन थे|

तो कुल मिला के एक ज़माने में "सच्चर फार्मूला" को अपने हाथों लागु करने वाले, इस पर अपने अखबारों में बड़े-बड़े कसीदे घड़ने वाले अब "हिंदी सत्याग्रह" चला के इसी के विरुद्ध सिर्फ इसलिए कार्य कर रहे थे ताकि जनता को भड़का के सरदार प्रताप सिंह कैरों एक जाट को मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाया जा सके|

जनवरी 1956 में कैरों साहब के मुख्यमंत्री बनने से ले के अगस्त 1957 तक इन्होनें "हिंदी सत्याग्रह" को इतना बड़ा बना दिया कि जब सरदार प्रताप सिंह कैरों सोनीपत के सर छोटूराम आर्य कॉलेज पधारे तो "हिंदी सत्याग्रह" के नारों के साथ उपस्थित विधार्थी सैलाब ने उनका जबरदस्त विरोध किया, कैरों मुर्दाबाद के नारे लगे| परन्तु सर छोटूराम के सच्चे धोतक कैरों इससे घबराये नहीं और बोलने के लिए खड़े हुए और छात्रों से विनती कि उनको दो मिनट बोल लेने दिया जाए|

उन्होंने स्टेज के पीछे मुड़कर दैनिक उर्दू प्रताप, हिंदी दैनिक वीर अर्जुन और दैनिक उर्दू हिन्द समाचार की प्रतियां मंगवाई| और फिर इन प्रतियों को हाथ में लहराते हुए हिन्दू अरोड़ा/खत्री समाज के नुमाइंदों द्वारा चलाये गए इस पूरे षड्यंत्र की ऐसी बख्खियां उधेड़ते गए कि दो मिनट की जगह पूरा सवा घंटा बोले और साम्प्रदायिक जहर पर खड़े किये पूरे "हिंदी सत्याग्रह" की हवा निकाल के रख दी| शुरू में जो भीड़ उनको सुनने तक को तैयार नहीं थी उस भीड़ ने पिन-ड्राप साइलेंस करके उनको एकटक सुना| और इस तरह 31 दिसंबर 1957 आते-आते "हिंदी सत्याग्रह" आंदोलन अपनी मौत स्वत: ही मर गया और इन लोगों को मुंह की खा के इस आंदोलन को वापिस लेना पड़ा|

और इसके बाद शुरू हुआ एक जाट का रौद्र रूप, प्रताप सिंह कैरों अब इन स्वघोषित कंधों से ऊपर मजबूतों को ऐसे बख्सने वाले नहीं थे| उन्होंने संयुक्त पंजाब की तमाम आर्य प्रतिनिधि सभाओं और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटियों के कर्ताधर्ताओं की सूची मांगी| और पाया कि जबकि ग्रामीण समुदाय का वोट प्रतिशत ज्यादा आता है फिर भी इन दोनों संस्थाओं पर शहरी जातियों के लोग कब्ज़ा किये बैठे हैं| उन्होंने फिर ऐसी कंधे से ऊपर की राजनीति खेली कि अब तक जो ग्रामीण नेता बावजूद चुने हुए होने के परन्तु भोलेपन में इन शहरियों को नेतृत्व सौंप दिया करते थे, अब सीधा उनको नेतृत्व दिया और ऐसा दिया कि आजतक इन दोनों संस्थाओं में पंजाब हो या हरयाणा, मूल और असली पंजाबी व् हरयाणवियों की तूती बोलती है|

परन्तु यह कब बाज आने वाले थे, सरदार प्रताप सिंह कैरों को दबाने के लिए ऐसे षड्यंत्र रचे की पूरा पंजाब आतंकवाद की आग में धू-धू करके जल उठा और जब सिखों और मूल पंजाबियों को पता लगा कि सारे पंजाब में आतंकवाद की मूल जड़ यह हिन्दू अरोड़ा/खत्री समाज है तो 1984-86 में जब सिख दंगे भड़के तो यही सबसे पहले निशाने पर आये और पंजाब से मार-मार के खदेड़े गए| और हम हरयाणवियों ने फिर भी जिंदादिली दिखाते हुए 1947 के बाद एक बार फिर इनको हमारे हरयाणा के अम्बाला-दिल्ली जीटी रोड पर बसने में मदद की| और अब यहां इनको थोड़ा सुख-चैन क्या मिला, सीएम की कुर्सी तक पर सहर्ष क्या स्वीकार कर लिए कि लगे हरयाणवियों को ही कंधे से ऊपर कमजोर बताने|

निष्कर्ष: मतलब "वही ढाक के तीन पात, चौथा होने को ना जाने को|" अपने इसी असामाजिक प्रवृति और व्यवहार के कारण पाकिस्तान में हिन्दुओं में सबसे पहले मुस्लिमों के निशाने पे यही आये और वहाँ से खदेड़े गए| वह तो दो देशों की सीमाओं का बंटवारा था तो लगा कि नहीं यह तो वक्त और राजनीति का तकाजा था इसलिए और धर्म की खातिर वहाँ से विस्थापित हो के इधर आना पड़ा, इसलिए लोगों ने दिलों में भी जगह दी और अपने घर-जमीनों में भी| परन्तु 1984-86 में पंजाब में जब तमाम हिन्दू समाज में से पंजाब आतंकवाद के चलते सिर्फ इनको ही वहाँ से खदेड़ने का यह एपिसोड दोबारा हुआ तो कुछ-कुछ बात समझ में आने लगी| और अब जब हरयाणा में हरयाणवियों द्वारा दिए गए किसी भी प्रकार की साम्प्रदायिक दुर्भावना से रहित माहौल में बिना किसी हरयाणवी के विरोध के हमने इनके समाज के व्यक्ति को मुख्यमंत्री तक स्वीकार कर लिया तो लगे वही रंग दिखाने और हरयाणवियों को कंधे से ऊपर कमजोर बताने|

मेरे इस समाज से कुछ सवाल और अनुरोध:

सवाल 1) जैसा कि ऊपर पढ़ा हरयाणा में आपने अपने ही हाथों "हिंदी सत्याग्रह" चला के पंजाबी भाषा का गला घोंटा तो फिर भी आप अपने आपको पंजाबी किस मुंह से कहते हैं?
सवाल 2) आपने तो डेड स्याना बनते हुए पंजाब में "हिंदी भाषा" का गला घोंटा तो आप अपने आपको हिन्दू भी किस मुंह से कहते हैं?

मेरा आपसे अनुरोध: हम हरयाणवियों का शरणार्थी और विस्थापितों को ना सिर्फ अपनी जमीन अपितु अपने दिल-विचार में भी स्थान दे के आगे बढ़ने का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि सिकंदर का भारत पे हमला| पूरे भारत में मानवता को हम हरयाणवियों से अच्छा कोई नहीं पाल सकता| दादा-दादी और माँ-बाप ने बचपन से जो बातें सिखाई उनमें उनकी सबसे बड़ी शिक्षा रहती थी कि कभी किसी शरणार्थी-रिफूजी-विस्थापित भाई या समुदाय से कोई द्वेष पाल के मत चलना, उनको कोई तंज मत कसना अपितु जो ऐसा करता हुआ मिले उसको भी ऐसा ना करने की शिक्षा देना और तमाम विद्यार्थी जीवन में उतनी ही तन्मयता से यह किया भी|
और ऐसी ही शिक्षाओं का असर है कि हमने कभी सिकंदर के वक्त से ले के 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में हारने के बाद महाराष्ट्र के जो मराठा भाई (हरयाणा का आज का रोड समुदाय) यहाँ रह गए थे ना ही कभी उनके साथ (क्योंकि वो हरयाणवी संस्कृति का इतना अभिन्न अंग बन गए हैं कि खुद हरयाणवियों से ज्यादा वो हरयाणवी लगते हैं), इनके बाद 1947 में पाकिस्तान से विस्थापित होकर और 1984-86 में आपके असामाजिक व्यवहार के कारण पंजाब से असली पंजाबियों द्वारा जूते खाकर, दो बार हरयाणा में आन बसने वाले आज के आप स्वघोषित पंजाबी यानी हिन्दू अरोड़ा/खत्री हों या 1990 के दशक से और अब तक आ रहे बिहार-बंगाल-असम के विस्थापित भाई हों; हमने किसी के भी साथ हरयाणा में कभी कोई ऐसा वाकया नहीं बनाया जैसा कि बाल ठाकरे से ले राज ठाकरे कभी दक्षिण भारतीय तो कभी उत्तर-पूर्वी भारतीय के नाम पर इन क्षेत्रों के भाईयों को वहाँ मुंबई की सड़कों पे दौड़ा-दौड़ा कर पीट के पेश करते रहे हैं|

और जहां तक मैंने पाया है आजतक हम हरयाणवियों से इन भाइयों को भी कोई शिकायत नहीं आई है सिवाय आपके समाज को छोड़ के| तो महानुभाव क्या बताओगे कि जब बाकी किसी भी शरणार्थी भाई को स्थानीय हरयाणवियों से कोई शिकायत नहीं तो एक अकेले आप लोगों को क्यों हैं? क्यों सीएम साहेब को हरयाणवियों के ऊपर "कंधे से ऊपर कमजोर" होने का तंज मारना पड़ा और वो भी बावजूद सारे हरयाणवी समाज द्वारा बिना किसी विरोध के उनको अपना मुख्यमंत्री स्वीकार कर लेने के?

देखो! अब जिस खाप थ्योरी की विचारधारा और शिक्षा के प्रभाव से हम हरयाणवी ऐसे हैं उसको तो हम त्यागेंगे नहीं, फिर चाहें आप जितना मीडिया, फिल्मों और अपनी तथाकथित पंजाबी सभाओं के जरिये खाप और हरयाणवी को क्रॉस-रोड्स पर उतार लो| यह खाप सोशल थ्योरी और हरयाणत अगर ऐसे ही झोंकों से खत्म हो जाती तो आज विश्व की प्राचीनतम व् जिन्दा सोशल इंजीनियरिंग थ्योरी ना कहलाती| भान रहे यह जिन्दा थी, जिन्दा है और जिन्दा रहेगी| हम हरयाणवियों को अपना अस्तित्व खत्म करने की हद या उसमें आपकी संस्कृति और चाल-चलन को समाहित करने तक के लाड़ लड़ाने आते हैं तो हमें इसको कैसे बनाये रखना है यह भी बहुत अच्छे से आता है|

इसलिए हरयाणवियों ने इतिहास में आप लोगों के लिए जो किया है उसको ध्यान में रखते हुए आपकी बिरादरी के सीएम श्री मनोहर लाल खट्टर को "हरयाणवियों को कंधे से ऊपर कमजोर कहने के बयान पर अपने शब्द वापिस लेने का उनसे आग्रह करें|" हमने आपको हरयाणा में एक होम-स्टेट वाली फील दी है, जो आप पंजाब में भी नहीं ले पाये, जिसके टैग को प्रयोग करके आप खुद को "पंजाबी" कहते हो, जबकि हकीकत में आप ना कभी पंजाब के हो सके और ना ही पंजाबी के| और वो कैसे उसका चिठ्ठा-पठ्ठा ऊपर खोल के रख दिया है, पढ़ते रहिये और अंतर्मन में झांक के पूछते रहिये कि क्या आप वाकई में पंजाबी हो?

धन्यवाद सहित!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 5 October 2015

इसे कहते हैं, "ठाली न्याण, काट्ड़े मुन्दै!"

धर्म हो या समाज हर किसी की एक परिधि होती है, जिस तरीके से आज धर्म अपनी हर उल-जुलूल बकवास मनवाने पे आमादा है वो ऐसा करते वक़्त बड़ा गैर-जिम्मेदाराना दीखता है| क्योंकि अगर इनके बताये धर्म के अनुसार चला जाए तो एक किसान की तो किसानी ही ठप्प हो जाए| इसलिए धर्म अपनी मर्यादा में रहे, और कहीं का किसान उठे ना उठे परन्तु हरयाणा का किसान एक हद से आगे तुम्हारी हर बकवास को सुनने वाला नहीं और किसी दिन लठ उठा लिया तो सारे बगमे बाणे वाले मोड्डे-बाब्बे भाज्जे नहीं ठ्यहोगे|

तुम्हारा क्या है पड़े-पड़े सुल्फा-गांजा-भांग-धतूरा के सुट्टे चढाने और काल्पनिकता की दुनिया से जो दिमाग में उतरा, वह समाज में फिट है या नहीं इसपे विचारे बिना छोंक दिया समाज में|

यह ठाली न्याण, काट्ड़े मुन्दै, वाली हरकतें बंद कर दो, तुम्हें कोई काम नहीं है और जिम्मेदारी नहीं है तो हम किसानों को तो है| हमें इस देश के लिए अन्न भी पैदा करना है और इसकी सुरक्षा की भी सोचनी है|

इतना सुनने पे भी तुम्हें यानी भगमा मण्डली को बाज नहीं आना तो अभी गेहूं-बुवाई और गन्ना छुलवाई का सीजन शुरू होने वाला है खेतों में, सारे बाब्बे आओ और एक-एक महीने का जोटा मरवा दो| फिर इसके बाद भी तुममें यह उल-जुलूल हाँकनेँ का होश और जज्बा बचे तो फिर सुन लेंगे तुम्हारी भी, फसल के खलिहान पे बैशाखी मनाने के वक्त पे|

विशेष: इस सम्बोधन से वो साधु-संत बाहर हैं जो धर्म के नाम पे पाखंड-हिंसा-दंगे पालने की बजाये वाकई में मानवता को पालते हैं। परन्तु बदकिस्मती ऐसे मुश्किल से 1-2 प्रतिशत ही हैं, जो ढूंढें से भी नहीं मिलते। 

#‎JaiYoddhey‬ - Phool Malik

Sunday, 4 October 2015

सोने की चिड़िया!


दो-चार मंदिरों में लाख-दो लाख करोड़ की अकूत सम्पत्ति इकठ्ठी कर देने से कोई देश "सोने की चिड़िया" नहीं बन जाया करता|

दलित-शूद्र-किसान उस जमाने में अति-पीड़ित थे इसलिए देश गुलाम हुआ था ना कि किसी और वजह से|

हमने किसी के बिटोड़े (उपलों का संग्रह) से किते ना सोने के गोस्से (उपले) निकलते सुने उस जमाने में, वो तब भी गोबर के ही होते थे और आज भी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

मोज़रेला चीज पिज़्ज़ा (mozzarella cheese pizza)!

किसी जमाने में इटली वाले भारतीय मुर्राह भैंस को इटली ले गए थे, और इटली के मौसम के अनुसार यह मुर्राह भैंस इटली में 'मोज़रेला' नश्ल कहलाने लगी|

और इसी भैंस का चीज होता है 'मोज़रेल्ला चीज' जो मोज़रेल्ला पिज़्ज़ा पे लगता है|

यानी मैं बचपन में दादी के हाथ के बने बड़े रोट पे मलाई डाल के, नमक-मिर्च और प्याज की चटनी साथ में डाल के जो खाता था यह मोज़रेला पिज़्ज़ा वही बला है|

क्या यार इटली-फ़्रांस वालो हरयाणा की मुर्राह भैंस से कांसेप्ट चोरी करके अपना बनाते हो, यह तो गलत बात है|
हरयाणवियो कर दो आज से 'मुर्राह चीज पिज़्ज़ा' बेचना कसम से बहुत कमाई है|

क्या यार इंडियन शहरियों, तुम इसपे 200-250 फूंकते हो, आओ मेरे हरयाणा में ऐसे-ऐसे पिज़्ज़े तो तुम्हें फ्री में खिलाता हूँ|

बाकी जिस हरयाणवी भाई को आईडिया पसंद आया हो वो कैश कर लो!

बोलो मुर्राह भैंस माता की जय!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

राजपूतो अब आप भी सम्भल के सचेत हो जाओ!

बिसाहड़ा, दादरी में एक मुस्लिम की मात्र शक की बिनाह पे हत्या बारे!

आज तुम मुसलमानों को मार रहे हो, कल को जब तुम्हारे अपने माता-पिताओं को बूढ़े गाय-बैल को कसाइयों को बेचते या आवारा छोड़ते देखोगे तो क्या उनको भी काट डालोगे?

आरएसएस और बीजेपी ने हरयाणा में बड़ी कोशिश करी खट्टर साहब के हाथों उल्टे-सीधे बयान दिलवा के जाटों को दबाव में ले के उनका इस्तेमाल करने की, परन्तु हरयाणा के जाट इनकी चालों को भांप गए और इनके चक्कर में नहीं फंसे|

खट्टर साहब से बयान दिलवाया गया कि "जाट लठ के जोर पे हक़ लेने वाले हैं", फिर भी जाट नहीं उकसे तो फिर बयान दिलवाया कि "हरयाणवी कंधे से नीचे मजबूत और ऊपर कमजोर होते हैं!"

इनका हरयाणवी वाला बयान आना था और खट्टर साहब ऐसे घिरे कि खुद इनकी एथनिक आइडेंटिटी घेरे में डाल दी जाटों ने|

अब जब हरयाणा में दाल नहीं गली तो बिहार के इलेक्शन के लिए कहीं तो तुष्टिकरण करना था| फिर देखा कि इधर तो पश्चिमी यूपी का जाट भी इनकी चालों को भांप चुका है तो अब किसका इस्तेमाल करें| और वो जा करवाया बिसाहड़ा, दादरी में आप राजपूतों का इस्तेमाल|

आप लोगों को समझना चाहिए कि जाट-राजपूतों में राजे-रजवाड़े परिवार की तो जनसंख्या 1-2% भी नहीं है| 98-99% जाट-राजपूत किसान हैं और हमारी इकॉनमी खेती से चलती है, जुबान के ब्यान और काल्पनिक सगूफों की बनिस्पद नहीं| इसलिए मुस्लिमों से मिलके रहो और सर छोटूराम से ले के बाबा टिकैत तक का किसानी एकता का "मजगर" जमाना याद रखो|

आपके खेतों में आपको सहयोग देने, काम में हाथ बंटाने या करवाने कोई मंदिर का पुजारी, दुकान पे बैठा व्यापारी या तथाकथित राष्ट्रभगत नहीं आने वाला, यही मुस्लिम-दलित भाइयों के साथ इकनोमिक एक्सचेंज में मिलके काम करके ही हम हरयाणा और पश्चिमी यूपी की बेल्ट को देश का अनाज का कटोरा बना पाये हैं| आखिर सर छोटूराम से ले के बाबा टिकैत के जमाने तक भी तो सब शांतिपूर्ण रहे तो अब ऐसी क्या बिजली टूट पड़ी है जो हम शांति से नहीं रह सकते|

जब एक किसान का गाय-बैल-भैंस या भैंसा बूढ़ा हो जाता है तो उसको कसाईयों को ही खुद किसान (जाट और राजपूत या किसी भी जाति के) ही बेचते रहे हैं और आज भी बेचते हैं| अब या तो इन पुजारियों-महंतों-संतों से पूछो कि क्या उन बूढ़े हुए गाय-बैल-भैंस को अब से कसाइयों की जगह यह लोग हमसे खरीद के मंदिरों में बांधा करेंगे अन्यथा क्यों किसान के इकनोमिक साइकिल के ही विरुद्ध चल रहे हो? अपने ही इकनोमिक साइकिल को तोड़ के किसानी अर्थव्यवस्था को लात मार रहे| पहले से ही मंडी की मार में मरे जा रहे अपने ही किसान माता-पिता की और कमर क्यों तोडना चाहते हो अपने ही हाथों?

ठीक है धर्म वालों से जिम्मेदारी तय करवा दो कि बूढ़े हुए गाय-बैल को आज से मंदिर खरीदा करेंगे तो हम सुनिश्चित करते हैं कि कहीं किसी भी गाय-बैल की कसाइयों के हाथों हत्या नहीं होने देंगे अन्यथा धर्म बंद करे यह पशुप्रेम की कोप-कल्पित लीला| जब किसान एक बूढी, पुरानी या जर्जर हो चुकी मशीन तक को बेच देता है, एक कार वाला कार को पुरानी होने पे बेच देता है जो कि उनको जब तक चलती है तब तक जीवन का हर सुख और कमाई देती है तो किसान का भी ऐसा ही मामला है वो एक पशु को आजीवन अपने यहां बाँध के नहीं रख सकता|

वही बात एक किसान इतना तो कर सकता है कि अगर इन धर्म वालों को गाय-बैल इतने ही प्यारे लगते हैं तो बूढ़े होने पे इनके द्वारों पे बाँध दिया करेंगे| अगर यह धर्म वाले इसकी जिम्मेदारी लेते हैं तो ठीक है अन्यथा अपने किसानी पेशे की तरफ भी देख लो| इनको भिक्षा में देने के लिए अन्न किसान को पैदा करना, फिर जब किसान अन्न बेच के पैसा लावे तो यह लोग उसमें भी दान के नाम का हिस्सा अपेक्षित करते हैं| आखिर यह लोग खुद से बनाते क्या हैं अन्न और दान रूपी इन संसाधनों के नाम पे? एक तो अन्न के पहले से ही दाम नहीं मिल रहे और अब बूढ़े पशु भी नहीं बेचेंगे तो इनके पेट के लिए अन्न और दान के लिए धन कहाँ से देंगे किसान, वैसे ही मंडी और सरकार ने आपके किसान माता-पिता की पहले से ही कमर तोड़ रखी है|

इतना बड़ा इतिहास साक्षी पड़ा इन द्वारा आपका इस्तेमाल किये जाने का, उससे ही कुछ सीख ले लो और अपनी जाति के किसान वर्ग पे कुछ रहम करो, वरना यह लोग आपकी जमीनों तक की कुर्की करवा के छोड़ेंगे, कहाँ यह धार्मिक पौरुषता की पीपनी बजाते घूम रहे| अति हर चीज की सिर्फ बुरी ही नहीं अपितु आत्मघाती होती है और किसान की औलाद होते हुए किसानी इकनोमिक चक्कर को तोड़ के आप उसको खुद ही साबित किये जा रहे हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 1 October 2015

हरयाणा के सीएम साहब हरयाणवियों की दरियादिली और हरयाणा की परम्परा को समझें!

हरयाणा के सीएम साहब और आरएसएस के शिष्य जी अगर आप हरयाणवी एथनिक आइडेंटिटी के लोगों को कंधे से ऊपर कमजोर बोलेंगे तो आरएसएस नहीं लगती म्हारी छोटी साली भी (हरयाणवी में इसका मतलब है हमें आरएसएस से कोई मतलब नहीं)|

सीएम साहब, हरयाणवियों ने तो अपने हरयाणा रुपी उपवन को सदा इतना शांतिप्रिय बना के रखा कि नागपुरी पेशवा विचारधारा के तहत मुंबई में मराठी बनाम गैर-मराठी के नाम पे पीट के भगाए गए बिहारी-बंगाली-असामी भाइयों को भी हमारा राज्य भाषावाद-क्षेत्रवाद-नश्लवाद से रहित लगा और इस खापलैंड पे आन बसे| तो फिर "हरयाणवी कंधे से ऊपर कमजोर होते हैं का बयान दे के" आप क्या तस्वीर पेश करना चाहते हैं उनके आगे हरयाणा की?

आज के दिन जितने सौहार्द से हर हरयाणवी अपने पूर्वोत्तरी भाईयों के साथ अपना रोजगार और संसाधन बँटवाता है ऐसे ही हमने आप के समाज के लोगों के लिए इतिहास में कई बार किया है|

याद कीजिये इतिहास में हरयाणवियों ने जो आपका साथ दिया था| 1947 में जो हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए थे वो हमने सीमा के इस पार हमारी ख़ुशी के लिए नहीं किये थे अपितु जब उन्होंने आप द्वारा उनके लिए जमाने से रखे जाते आ रहे द्वेष वाले व्यवहार (शायद उसी लाइन पे आप अब इधर भी चल रहे हो) की भड़ास निकालने हेतु आप लोगों को जलाना-फूंकना शुरू किया तो उसके जवाब में हमें यह मार-काट सीमा के इस पार मचानी पड़ी थी और तभी आप लोग पाकिस्तान से जिन्दा बचकर भारत आ पाये थे|

फिर जब 1984-86 में पंजाब (वैसे आप खुद को पंजाबी कहते हुए नहीं थकते, जबकि आप वास्तविक पंजाबी होते तो पंजाब वाले भाई आपको वहाँ से भगाते नहीं| और वैसे भी बाई डिफ़ॉल्ट आधा पंजाबी तो मैं भी हूँ, क्योंकि 1966 से पहले हरयाणा-पंजाब एक ही थे) में असली और वास्तविक पंजाबियों ने आपके इसी द्वेषपूर्ण रवैये से तंग आ के आपको हरयाणा की तरफ खदेड़ दिया और हमने दूसरी बार फिर से बड़ा जिगर दिखाते हुए आपको हमारे यहां के अम्बाला-दिल्ली जीटी रोड पे बसासत में मदद की|

तो भाई, अब भाषावाद-क्षेत्रवाद-नश्लवाद के नाम पर हरयाणवियों का तो इतिहास रहा नहीं कि हमने किसी को मारा हो, परन्तु फिर भी नागपुरी पेशवा विचारधारा से आपका चरित्र और गुण हूबहू मेल खाते हैं| तो आप ऐसा क्यों नहीं करते कि वहीँ उनके पास ही शिफ्ट हो जाओ महाराष्ट्र में? ताकि हम हरयाणवियों को तो चैन की सांस मिले कम-से-कम|

हरयाणवी मनमर्जी से तो दे दे भेलि भी परन्तु आई पे देवें ना गन्ना भी| अत:आरएसएस कोई हमारी छोटी साली (हरयाणवी में इसका मतलब है हमें आरएसएस से कोई मतलब नहीं) ना लगती जो अगर आप उसके बहम और शिक्षा के चलते यहां यह द्वेष फैलाने के एजेंट बने हुए हों तो| हरयाणवियों की दरियादिली और हरयाणा की परम्परा को समझो और आरएसएस की शिक्षा छोड़ के अपने हरयाणवी उपवन को हरयाणवी परम्परा के तहत और खुशहाल बनाओ|

आपको समझना चाहिए कि जब आरएसएस इनकी हेडक्वार्टर स्टेट यानी महाराष्ट्र में ही इनके फेवरेट नारे "हिन्दू एकता और बराबरी" को लागू नहीं करवाती या करवा सकती तो हमें क्या खा एकता और बराबरी सिखाएगी| और क्योंकि यह सामाजिक एकता और बराबरी का गुण हर हरयाणवी में बाई-डिफ़ॉल्ट होता है इसलिए हम आरएसएस की विचारधारा से इतने ज्यादा प्रभावित भी नहीं हैं| वही बात आरएसएस की शिक्षा अगर आपको यह भी तमीज नहीं सिखाती कि एक स्टेट की एथनिक आइडेंटिटी का आदर-मान कैसे संजों के रखा जाता है तो आरएसएस नहीं लगती म्हारी छोटी साली भी|

विशेष: हालाँकि मैं खुद भी इस लेख को सीएम साहब तक पहुँचाने की कोशिश में हूँ, फिर भी इसको सीएम साहब तक फॉरवर्ड करने या पहुँचाने वाले का धन्यवाद!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

एक धर्म विश्व पे कितना और कहाँ तक राज करेगा यह इसपे निर्भर करता है कि अपने धर्म के सबसे नीचे पायदान पे बैठे इंसान के लिए वह कितना करता है!


मुझे क्रिश्चियन्स की यह बात बहुत पसंद है कि वो किसी से डरा-धमका, जादू-टोना या चमत्कार के नाम पर दान-दक्षिणा नहीं लेते या कहो पैसे नहीं हड़पते| अपितु साफ स्पष्ट बता के लेते हैं कि इसको कम्युनिटी के कार्यों में प्रयोग किया जायेगा| और यह लोग वास्तव में करते हैं भी हैं, दान आये हुए पैसे से गरीब तक के लिए सुविधाएँ खड़ी करते हैं| और यही कारण है कि इस धर्म में सबसे कम भिखारी होते हैं, सबसे कम गुरबत और भुखमरी होती है| क्रिश्चियन में जितने भी थोड़े-बहुत भिखारी होते हैं इनकी एक और खासियत होती है वो चर्च के आगे कभी भीख नहीं मांगेंगे, अपितु मार्किट में जा के मांगेंगे|

जबकि हमारे हिन्दू धर्म में सबसे निचले तबके को तो अछूत दलित-शूद्र बना के ऐसे रख छोड़ा जाता है कि उसको इन सुविधाओं के लायक तक नहीं समझा जाता, दरअसल इंसान भी नहीं समझा जाता|

कम से कम मैंने तो आज तक यूरोप में यह चीज कहीं नहीं देखी| असल में चर्च से बाहर और ज्यादा इनका दूसरा धार्मिक स्थान कहो या अड्डा कहो, होता ही नहीं| जबकि हमारे यहां मंदिर के अंदर से काम ना चले तो सतसंग के पंडाल लगा लो, डेरे खोल लो, माता की चौकियां सजा लो| मतलब हिन्दू धर्म इस धक्काशाही वाली तर्ज पर काम करता है कि अगर आप चल के मंदिर नहीं आये तो हम भगवान को ही आपकी गली-मोहल्ले तक ले आएंगे, और कभी जगराते तो कभी आरती कर-कर के आपके कान भी फोड़ेंगे और आपकी जेबें भी लूटेंगे|

यहां तक कि इंसान की हैसियत देख के दान-दक्षिणा जो कि कायदे से एक आदमी की अपनी मर्जी से देने की चीज होती है, वो भी फिक्स होती है| जो जितना बड़ा हैसियत वाला उससे उतनी ज्यादा वसूली|

"मेक इन इंडिया" वालों की सरकार है, जब हर चीज को बनाने के लिए विदेशियों को बुला रहे हो तो अपने धर्म के लोगों के प्रति धर्म का कर्तव्य सिर्फ लेना ही नहीं अपितु उस लिए हुए से धर्म के जरूरतमंद और गरीब तबके के लिए कुछ करना भी होता है इसकी ट्रेनिंग भी दिलवा लो|

कसम से समाज में गरीबी-गुरबत और भिखारी मिटाने का ठेका सिर्फ सरकार-समाज का नहीं होता है अपितु धर्म का भी होता है|

विशेष: यह पोस्ट एक धर्म अपने धर्म के अंदर क्या करता है उस पर है, इस पर नहीं कि एक धर्म दूसरे धर्म के बारे क्या सोचता है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

गाय और भैंस के दूध के गुणों और स्वभाव को लेकर हरयाणवी समाज में परख आधारित प्रचलित लोकोक्तियाँ व् विचार!

1) "गोरखनाथ का पिछोका, गौका देखे ना मसोहका!" - यानी सांड की वासना कामान्धता के स्तर की होती है, जब चढ़ती है तो वह ना तो गाय देखता है और ना ही भैंस! जो सामने हो उसी पे चढ़ जाता है| जबकि भैंसा किसी भी सूरत में गाय पे नहीं चढ़ेगा यानी वह वासना के वक्त भी अपने होश नहीं खोता और वह उसको सहन कर जाता है| कहने की जरूरत नहीं कि हर दूसरा साधु-मोड्डा-बाबा अवैध संबंधों में लिप्त क्यों पाया जाता है या चेलियों को क्यों पालता या इर्द-गिर्द रखता है|

2) "लोभ लाग्या बणिया, चूंदे लाग्या गौका, रुकें-तो रुकें ना तो चाले-ए-जां!" - चूंदे यानी आपकी खेती खाने की आदत पड़ा हुआ सांड, खेत से सिर्फ पेट भर के बाहर निकल जाए ऐसा नहीं है अपितु वो पेट भरने के बाद उसको उजाड़नी शुरू कर देता है| जबकि भैंसा यानि सरकारी झोटा पेटभर चर के खेत से बाहर निकल जाता है या पानी के जोहड़-तालाब में लेटने चला जाता है या किसी पेड़ के नीचे बैठ के सुस्ताने लगता है|

3) "घामड़ गाय का बाछ्डू, कलिहारी का पूत, तीनूं चीज रलै नहीं, जुणसा लोगड़ का सूत|" - यानि धूप में आवारा घूमने वाली गाय का बछड़ा कभी सामान्य नहीं होता, वो माँ की ही लाइन पे चलता है, सामान्य जानवरों से अलग व्यवहार करता है|

4) "दो लड़ते हुए झोटों (भैंसों) को छुड़वाना आसान परन्तु दो लड़ते हुए सांडों को छुड़वाना मुहाल!" - दो लड़ते हुए झोटों को आसानी से अलग करवाया जा सकता है| जबकि सांड लड़ेंगे तो इस स्तर तक कि उनको छुड़वाना ऊँट को रेल में चढाने जितना कठिन होता है, छुड़वा भी दिया तो फिर बार-बार आ के भिड़ते रहेंगे|

5) भैंसों के झुण्ड पे कोई अटैक करे तो सारी एकजुट हो जाती हैं, जबकि गाय के झुण्ड पे अटैक हुआ तो वो तितर-बितर हो जाता है| गौका ग्रुप में रहना नहीं जानता जबकि मसोहका शांति और मुसीबत दोनों वक्त एक साथ रहता है|

6) "शेर का मनपसंद भोजन गाय है भैंस नहीं!": क्योंकि अटैक के वक्त तितर-बितर हो जाने से शेर के लिए एक गाय को मारना आसान रहता है जबकि भैंसों के झुण्ड तो क्या एक अकेली भैंस पे भी अटैक करने से शेर डरता है|

7) "ऊँटनी के दूध पे आठ मलाई, भैंस के दूध पे चार मलाई और गाय के दूध पे एक मलाई आती है": इसलिए छोटे बच्चे को पिलाने के लिए जहां गाय के दूध में सिर्फ आधा हिस्से का ही पानी डालने से काम चल जाता है, वहीँ भैंस का पिलाने के लिए तीन-चौथाई तक पानी डालना पड़ता है| छ महीने से एक साल तक के बच्चे की पाचनशक्ति भी इतनी ताकतवर नहीं होती है इसलिए उसे इस उम्र में भैंस का दूध हजम नहीं हो पाता, दस्त लग जाते हैं| और क्योंकि गाय का दूध पतला होता है इसलिए यह बच्चों को जल्दी पच जाता है|

8) "जिसके घर काली, उसके घर दिवाली!": यानि इकोनोमिक लिहाज से एक भैंस ज्यादा फायदा पहुँचाती है|

9) "अड़ी और फंसी हुई जगहों पर झोटा ज्यादा कारगर होता है": उदाहरण के तौर पर पश्चिमी यूपी में गन्ने के ट्राले कीचड़ भरे खेतों से निकालने हेतु झोटे प्रयोग किये जाते हैं बैल नहीं|

10) "बैल को हल व् गाड़ी में जोड़ने के लिए उसको ऊना करना पड़ता है जबकि झोटे के मामले में इसकी जरूरत नहीं पड़ती!" - गौके की कामान्धता की वजह से उससे काम लेने हेतु उसको सेक्स से दूर रखने हेतु उसकी वीर्य नली कुंद करनी पड़ती है| यानी बैल एक वक्त में एक ही काम कर सकता है या तो सांड बना के बच्चे पैदा करवा लो या फिर ऊना बना के हल-गाड़ी में जोड़ लो| जबकि झोटा दोनों काम एक साथ बिना किसी अवरोध के मैनेज कर लेता है| वैसे तो गाय यानि बैल भिन्न-भिन्न रंगों के होते हैं जैसे कि काले-सफ़ेद-नीले-पीले परन्तु हल में जोड़ने हेतु सिर्फ और सिर्फ सफ़ेद रंग के बछड़े को ही बैल बनाया जाता है क्योंकि सफ़ेद रंग सूर्य की किरणों को परिवर्तित करता रहता है जिससे बैल का शरीर गर्म नहीं हो पाता और वो धूप में भी हल में चलता रहता है| और यही वजह है कि झोटों को हल में नहीं जोड़ा जाता, बैल को जोड़ा जाता है।

विशेष: मुझे पता है इस लेख को पढ़ के भक्तों को चुरणे लड़ेंगे परन्तु मैंने न्यूट्रल हो के यह बातें लिखी हैं| इसके एक भी तथ्य में कोई त्रुटि मिलती है तो ना सिर्फ उसके लिए क्षमा प्रार्थी होऊंगा अपितु तुरंत प्रभाव से उसको ठीक भी करूँगा| मैं सिर्फ उन खाली गाय की रक्षा करने और उसको पालने की वकालत करने वाले परन्तु खुद कभी गाय ना पालने वाले घुन्नों से कहीं ज्यादा गौ-भक्त हूँ| मेरे परिवार और गाँव दोनों का आर्य-समाजी विचारधारा का होने की वजह से जब से होश संभाला है तब से मेरे घर से नियमित गौशालाओं में अनाज और तूड़े की भरी ट्रॉलियां जाती रही हैं| खुद मैं जब भी घर आता हूँ तो गायों को गौशाला में गुड़ खिला के आता हूँ| लेकिन साथ ही आवारा व् खेतों को उजाड़ने वाली गायों को गाँव-गली-खेत से बाहर भी छोड़ के आता रहा हूँ| और मुझे यह सब करने की प्रेरणा हेतु किसी घुन्ने, भगत या अंधभक्त के प्रवचन की जरूरत नहीं है| इसलिए इस पोस्ट पे अपनी अक्ल की पिटारी खोलते वक्त और कमेंट करते वक्त सेंसिबल कमेंट करें, ज्यादा कणछें (झिंगा-ला-ला हूँ-हूँ ना करें) नहीं क्योंकि अपनी सेहत पे इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला| परन्तु हाँ जिनको ज्ञान लेना है, और गाय और भैंस की अनलॉजिकल (analogical) नॉलेज लेनी हो उनके लिए इस पोस्ट में सब कुछ है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

गाय को लेकर अभी हमारे देश को दो कानूनों की सख्त जरूरत है!

1) सरकार गाय पे लेक्चर देने वालों के जूतों-कपड़ों में लैदर जांचने हेतु जिलास्तर पर ऑफिस खोले: सर्दियां आ रही हैं तो सबकी लैदर जैकेट, स्कार्फ़, टोपी, जूते (हालाँकि जूते तो गर्मियों में भी चलते हैं) संदूकों, अलमारियों से बाहर निकलेंगे और गाय पे लेक्चर देने वाले उर्फ़ भक्त भी निकालेंगे। तो क्या है कि हर भक्त के ऊपर बताये हर कपड़े की जाँच शुरू करवाई जाए कि कहीं उसके जैकेट-जूते वैगेरह में गाय का चमड़ा तो प्रयोग नहीं हो रखा? और जिसके में हो रखा हो उसको सबसे पहले और नैतिक जिम्मेदारी के तहत नैतिकता के आधार पर खुद आरएसएस (और इस तरह के तमाम संगठन) उस बन्दे या बंदी को बीच-बाजार चौराहें पे फाँसी तोड़े। 

2) देश में कानून बने कि अगर आपके खुद के घर में गाय नहीं बंधी है तो आप दूसरों को गाय पे किसी भी प्रकार के लेक्चर नहीं झाड़ोगे: और इस कानून के तहत ना सिर्फ व्यक्तिगत अपितु आरएसएस जैसे संगठन भी खुद को शामिल करवावें और वक्तव्य जारी करें कि जब तक आरएसएस के एक भी कार्यकर्त्ता के घर गाय नहीं बंधी है तब तक आरएसएस ना ही तो अपने मंचों से और ना ही अपने कार्यकर्ताओं से गाय संबंधित लेक्चर या प्रचार करवाएगी। पहले खुद बांधों और फिर भारतीय कानून के तहत किसी की निजता और आस्था को प्रभावित किये बिना जो प्रचार करना चाहो, करो।

और मुझे सिर्फ उम्मीद ही नहीं अपितु पूरी आशा है कि आरएसएस जैसे संगठन मेरी इस बात का सहर्ष समर्थन करेंगे।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक