Tuesday, 23 February 2016

रच दिया महाभारत बोलों ने, खून की नदियां ना बहती!

एक हरयाणवी रागनी है "जिनका नहीं कसूर उन्हें क्यों लोग बुराई देते हैं!" उसके एक मुखड़े की पंक्ति है यह "द्रोपदी जो दुर्योधन को अंधे का पुत्र अँधा ना कहती; रच दिया महाभारत बोलों ने, खून की नदियां ना बहती!"

खट्टर साहब क्या मिला बड़बोले बोल बोल के? यह मत सोचिये कि यह बड़बोले बोल सिर्फ राजकुमार सैनी ने बोले तो हरयाणा में यह महाभारत हुआ| कहीं न कहीं आपकी भी उस पंक्ति का इसमें योगदान था जो अपने गोहाना में कही थी कि "हरयाणवी कंधे से नीचे मजबूत और ऊपर कमजोर होते हैं!"

जिससे जनमानस में यह बात घर करी हुई थी कि जिनको अपने भाईयों समान सीने से लगाया, 1984 के बाद जिस पंजाब ने आपको वहाँ से मार-मार के खदेड़ा (ध्यान दीजिये इसके बाद भी आप खुद को पंजाबी कहते नहीं थकते), इन हरयाणा वालों ने अपनी सर-आँखों पे बिठाया तो कहीं ना कहीं तो ऐसे नकारात्मक बोले गए बोल घाव करेंगे ही ना, जनाब?

जाट तो इसके बावजूद भी आपके उस उपहास को भूल के शांति से धरना दे रहे थे, परन्तु रोहतक के स्थानीय एम.एल.ए. के इशारे पर रोहतक कोर्ट में धरने पर बैठे जाट वकीलों पर गुंडे भेज के हमला करवाया गया और ले ली आफत मोल|

लगता है आप अपनी कंधे से ऊपर की मजबूती कुछ ज्यादा ही दिखा गए| पता है ऐसे लोगों बारे क्या कहावत कही जाती है हरयाणा में कि "घणी स्याणी दो बार पोया करै|" है तो यह लाइन घणी स्याणी कुत्तिया को ले के भी है, परन्तु मैं इसको पूरी बोल के अपनी भाषा को अमर्यादित नहीं करूँगा|

बताओ जनाब क्या मिला आपको, जरा बैठ के सोचना कि इससे सबसे ज्यादा नुकसान किसका हुआ? सोचेंगे ना तो दावे से कहता हूँ खुद आपकी बिरादरी के भाई भी आपकी इस कहावत से इत्तेफाक नहीं रखेंगे और आपको मूर्ख ही कहेंगे|

बाकी राजकुमार सैनी, उनकी तथाकथित ब्रिगेड और आरएसएस ने तो जाट आरक्षण की आड़ में और जाटों को बदनाम करने हेतु जो खेल रचाया है वो तो अब परत-दर-परत सबके सामने खुल के आ ही रहा है|

बोलों के कारण औरतें घरों में महाभारत करवा देती है, यह कहावत अभी तक सिर्फ औरतों पर थी; अब यह आप जैसे आरएसएस वालों पर भी लागू होगी| यानी अल्टीमेटली आपने आरएसएस वालों को औरतों के समान कलिहारी श्रेणी में ला खड़ा कर दिया है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक - यूनियनिस्ट मिशन

Saturday, 20 February 2016

क्या खूब अक्ल दिखाई है कंधे से ऊपर मजबूत अक्ल वाले खट्टर बाबू ने!

खट्टर बाबू, खामखा जिद्द पे अड़ के कौनसी कंधे से ऊपर की अक्ल दिखा ली आपने? अपनी ही बिरादरी के लोगों के ग्राहक छिनवा दिए, या यूँ कहूँ कि कम/ज्यादा % में तुड़वा दिए| सनद रहे जनाब आपने जिस कम्युनिटी के साथ अपनी कम्युनिटी का मनमुटाव बढ़वाया है वो हरयाणा की कंस्यूमर पावर (उपभोक्ता शक्ति) यानी बाजार से सामान खरीदने की भागीदारी का 60% के करीब बाजार देती है| मैं यह भी नहीं कहता कि जाट आपके समाज वालों की दुकानों पर नहीं लौटेंगे, परन्तु जो भाईचारा और समरसता थी उसको लौटने में ना जाने कितने महीने-साल लग जाएँ या शायद बहुत से लौटें ही ना| सनद रहे यहां दोनों समुदायों के व्यापारी की बात नहीं कर रहा हूँ, अपितु जाट समुदाय के ग्राहक की बात कर रहा हूँ। इसमें भी उन युवा ग्राहकों की जो रेस्टोरेंट्स में खाते हैं और शोरूम्स में शॉपिंग करते हैं।

और मैं यह बात खाली हवाओं में नहीं कह रहा हूँ| जिधर भी हरयाणा में बात कर रहा हूँ, हर तरफ का जाट यही कह रहा है कि हम सीएम की कम्युनिटी वालों की दुकानों-शोरूमों-रेस्टोरेंटों से जितना हो सकेगा उतना सामान खरीदने का बायकाट करेंगे| हो सकता है यह उनका वक्त के तकाजे के चलते वाला गुस्सा हो या गुस्सा उतरने के बाद भी यह तकाजा रहे; परन्तु जब तक भी यह रहेगा तब तक ग्राहक किसके घटे रहेंगे? अब मैं इस बात में तो क्यों पडूँ कि आपकी कम्युनिटी वाले भी इस पोस्ट को पढ़ते ही यह बोल देंगे कि जाट ग्राहक की जरूरत किसको है| ऐसा या तो वो बोलेंगे नहीं और बोलेंगे तो फिर कंधे से ऊपर मजबूत अक्ल के तो नहीं कहलायेंगे|

दूसरा संशय आपने अपने संघ की फैलती जड़ों का भी नुकसान करवा दिया है| मेरे ख्याल से जाट अगर संघ से ज्यादा जुड़ भी नहीं रहे थे तो फिर भी संघ से किसी जाट को झिझक भी नहीं थी, परन्तु आपके इस महान कार्य से उसमें भी फर्क पड़ने के असर बन गए हैं और संघ अब हरयाणा में शायद ना के बराबर ही जाट जोड़ पाये| क्योंकि सोशल मीडिया में ऐसे स्टेटस तक ट्रोल हो रहे हैं कि "आज तक हिंदुत्व की अफीम में बहके हुए थे, धन्यवाद आपका जो आपने हमें बता दिया कि हम जाट हैं|"

परन्तु हाँ बनिया भाईयों की दुकानों-शोरूमों-रेस्टोरेंटों पर चढ़ने से जाट कोई परहेज नहीं बता रहे| चलो हमें क्या है, हमें तो सामान चाहिए, आपकी कम्युनिटी वालों की दुकानों से ना सही अपने बनिया भाईयों की दुकानों से खरीद लेंगे या फिर बिलकुल ऐसा थोड़े ही है कि बाकी और ३३ बिरादरियों की दुकाने ही नहीं रहेंगी आज के बाद|
ना खट्टर बाबू बात जमी नहीं, कुछ ज्यादा ही अक्ल लगा गए आप| कोई नी ऐसा ना हो तो फिर 'घणी स्याणी दो बै पोया करै" जैसी कहावतें किधर जाएँगी| राजनैतिक तौर पर इस दंगे का आप 3.5 साल बाद कितना फायदा ले पाओगे यह तो तब ही पता चलेगा, परन्तु इतना जरूर दिख रहा है कि तब तक आपकी कंधे से ऊपर की मजबूत अक्ल ने आपकी कम्युनिटी से हरयाणा का सबसे बड़ा उपभोक्ता जो अलग छिंटकवा दिया है उससे आपके समाज को अच्छा-खासा नुकसान होने की सम्भावना बन चली है|

वैसे जाट कह रहे थे कि लेख के अंत में आपका धन्यवाद भी कर दूँ| धन्यवाद कर दूँ कि आपने हमें अपने-आपको उत्तरी भारत और हरयाणा में खासकर पुनर्जीवित व् एक कर दिया| आप जैसे और सैनी जैसे दो-चार, दो-चार होते समय-समय पर होते रहें तो जाट एकता स्वत: ही बनी रहे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक - यूनियनिस्ट मिशन

Thursday, 18 February 2016

35 बिरादरी का नारा उठाने वाले आखिर कौन हैं?

निचोड़: जाट इनके उल्टे नारे लगाओ और कहो कि वो स्टाम्प पेपर तो दिखाओ, जिसपे तुम्हें 35 बिरादरी का एकमुश्त समर्थन हासिल है।

व्याख्या: तो कौन हैं यह 35 बिरादरी का नारा लगाने वाले; सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा/खत्री (यानी 3B) व् इन 3B द्वारा मनुवाद के चलते अकेले ना पड़ जाने के डर से इनके ही द्वारा बहकाये गए कुछ एक ओबीसी जातियों के कुछ धड़े|

अन्यथा ना ही तो दलितों का समर्थन है इन धक्के से 35 बिरादरी का नारा लगाने वाले मनुवादी विचारधारा वालों के साथ और ना ही रोड, बिश्नोई, त्यागी, जट्ट सिख, मुस्लिम जाट व् अन्य मुस्लिम, कुम्हार जैसी ओबीसी जातियों का|

हाँ 100% तो कोई भी जाति किसी एक खेमे में ना कभी रही और शायद ही कभी कोई ऐसी हो (सिवाए जब के कि जब कोई सर छोटूराम जैसा मसीहा अवतारे)| मैंने यह बात मेजोरिटी के आधार पर रखी है।

और जाट बिरादरी, इन 35 कौम का नारा लगाने वालों से विचलित ना होवे, जाटों ने इनको सदियों से टटोला और तोला है।

ना ही तो इनके साथ कोई ओबीसी, एससी/एसटी तब था जब ग़ज़नी ने सोमनाथ लूटा था, ना तब था जब गौरी आया था, ना ही तब जब मुग़ल आये और ना ही तब जब अंग्रेज आये (बल्कि उल्टा जाटों ने ही इनकी इन मौकों पे बार-बार लाज बचाई थी)। ना ही तब जब बाबा साहेब आंबेडकर थे, ना ही तब जब महात्मा ज्योतिबा फुले थे, ना ही तब जब सर छोटूराम थे। इनके साथ 35 बिरादरी थी ही कब, जरा मुझे एक तो ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा/खत्री बता दे। ओबीसी, एससी/एसटी तो क्या, यह खुद भी ओबीसी, एससी/एसटी के साथ नहीं थे। यानि जितनी यह बात सुल्टे पल्ले सच है, उतनी ही उल्टे पल्ले सच।

मैं यह नहीं कहता कि ओबीसी और एससी/एसटी का जाटों से कभी मनमुटाव ना रहा हो परन्तु जाट, ओबीसी और एससी/एसटी तब भी एक थे जब गौतम बुद्ध का जमाना था, तब भी एक थे जब-जब खापों ने मुगलों और अंग्रेजों से मोर्चे लिए, तब भी एक थे जब महाराजा सूरजमल का खजांची एक दलित था, तब भी एक थे जब सर छोटूराम ने किसान के साथ-साथ ओबीसी और एससी/एसटी के लिए भी कानून पे कानून बनाये थे, तब भी साथ थे जब चौधरी चरण सिंह जी ने किसान-कमेरे के लिए कानून बनाये थे और तब भी एक थे जब ताऊ देवीलाल ने भारत के इतिहास में सर्वप्रथम एससी/एसटी के लिए चौपालें बनवाई थी।

इसलिए किसी भी ओबीसी, एससी/एसटी एवं खासकर जाट को इन 35 बिरादरी के नारे लगाने वालों से घबराने की जरूरत नहीं। बल्कि आप उल्टे नारे लगाओ कि वो स्टाम्प पेपर तो दिखाओ, जिसपे तुम्हें 35 बिरादरी का एकमुश्त समर्थन हासिल है।

हम जाट अच्छे से जानते हैं कि यह कितने किसके हुए हैं। हाँ कुछ भटके हुए ओबीसी अपने राजनैतिक एवं निजी स्वार्थों के कारण इनसे मिलके आपको कुछ समय-वर्ष के लिए गुमराह बेशक कर लेवें, परन्तु इन 35 बिरादरी एक साथ चिल्लाने वालों की हकीकत 'नदी आवे तो पुल के ही नीचे से गी!' की भांति एक दिन उघड़ेगी ही; जैसे भारत के दूसरे राज्यों में रोहित वेमुला मामले में तार-तार हुई फिर रही; यानी इनके मनुवाद से ओबीसी कितने दिन बच सकेगा।

और उस मनुवाद से आज तक कोई बिरादरी इनसे बेकाबू रही तो वो है जाट और जब-जब आपको (ओबीसी, एससी/एसटी) मनुवाद से छुटकारा चाहिए होगा, आपको जाट जरूर चाहिए होगा। तब तक टूल लें जिसको जिसके साथ टूलना है।

जाट भाईयों से इतनी ही अपील करूँगा कि इन 35 बिरादरी के नारों से और इन नारे वालों से डरें नहीं, बल्कि ओबीसी, एससी/एसटी भाईयों के बीच जावें, संवाद स्थापित करें, यह ऊपर लिखित हकीकत भी बतावें और किसी भी ओबीसी, एससी/एसटी से कोई मनमुटाव हो तो उसको भी सुलझा लेवें। मेरा यकीन करें आपके मतभेद इतने भी गहरे नहीं हैं ओबीसी, एससी/एसटी के साथ, जितने इन मंदिर में दलितों को ना चढ़ने देने वालों के या मंदिरों में दलितों-पिछड़ों की बेटियों को देवदासी बना के बैठाने वालों के या सूदखोरों के। बस आप इस ह्ववे में ना आवें कि आप तो अकेले रह गए या अकेले छोड़ दिए गए। आपको अकेला सिर्फ एक सूरत डाल सकती है और वो है ओबीसी, एससी/एसटी भाईयों से संवाद की कमी। बस किसी भी सूरत में इनसे अपने संवाद में कमी मत आने दो।

जाट जब-जब अपने रंग में आ शुद्ध जाटू दिमाग से चला, तब-तब चली कौनसे ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा/खत्री की है जाट के आगे? महाराजा सूरजमल से ले के राजा महेंद्र प्रताप, सर छोटूराम, सर सिकंदर हयात खान तिवाना और सरदार भगत सिंह जैसे उदाहरण आपके सामने हैं। इन लोगों ने इन जाटों को झुकाने, तोड़ने और बिखेरने की जी तोड़ कोशिशें करी परन्तु सिवाय खड़ा हो के देखने के एक अंश मात्र तक कुछ ना कर सके।

हाँ आज दौर मुश्किल का गुजर रहा है जाटों पर इसमें कोई दो राय नहीं, परन्तु इस भीड़ पड़ी से आपको कोई निकाल पायेगा तो वो है आपके पुरखों का जज्बा, उनकी नीतियां और उनका दृढ़विश्वास। इसलिए महाराजा सूरजमल, राजा महेंद्र प्रताप, सर छोटूराम, सरदार भगत सिंह को पढ़ते जाइए, और हर ओबीसी, एससी/एसटी से अपने मन-मुटाव मिटा के जुड़ते जाईये।

विशेष: अमूमन मुझे जब भी इस तरह की बात करनी होती है तो मैं मंडी-फंडी शब्द प्रयोग किया करता हूँ, परन्तु जब बात जाट समाज को अलग-थलग करने की आ जाए तो मुझे सीधा हो के बोलना ही पड़ेगा कि यह 35 बिरादरी एक साथ होने का नारा कौन देता है और किस डर से देता है। इसलिए इस लेख में जिक्र की गई तमाम जातियों के नाम सिर्फ और सिर्फ हमारी सामाजिक सरंचना को आज और इतिहास के आईने से समझने हेतु किये गए हैं। क्योंकि मैं वो जाट नहीं कि मेरी सबसे लोकतान्त्रिक जाति को यह सामंतवादी जातियां यूँ समाज से छिटकने को उतारू हुई फिरें और मैं "के बिगड़ै सै देखी जागी" की टरड़ में आँख मूंदें बैठा रहूँ।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक - यूनियनिस्ट मिशन

 

Tuesday, 16 February 2016

अमेरिका-कनाडा-इंग्लैंड में यह है आरक्षण का स्वरूप!

आजकल RSS और आरक्षण विरोधी ताकतों द्वारा एक और प्रचार किया जा रहा है कि America में आरक्षण नहीं है इसलिए सुन्दर पिचाई जैसे लोग वहाँ तरक्की कर रहे है। ये बात उतनी ही झूठी है जितने NDA सरकार के अच्छे दिन। आइये जानिए कैसे:

1) अमेरिका: आरक्षण, या जिसे यहाँ Affirmative Action कहा जाता है- की शुरुआत जॉन ऍफ़ कैनेडी के दौर में हुई। उद्देश्य वही जो भारत के आरक्षण का- समान प्रतिनिधित्व का अधिकार। यहाँ आरक्षण नस्ल के आधार पर दिया जाता है।

2) Canada: यहाँ आरक्षण को कहते हैं Employment Equity और इसमें आरक्षण दिया जाता है लिंग या अपंगता के आधार पर। गौर करने वाली बात ये है कि चूँकि कनाडा में ज्यादा नसल नहीं है इसीलिए यहाँ नस्ली आरक्षण नहीं है।

3) UK : यहाँ भी आरक्षण है और उसका नाम है Positive Discrimination । उत्तरी Ireland मैं 50% कैथोलिक और 50% protestant भर्ती करना अनिवार्य है।

तो मित्रों ऐसे बहकावो वाली बाते शेयर करने से पहले एक बार सोच ले, पढ़ ले और फिर औरो को बांटे।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 15 February 2016

जाटों द्वारा सैनी को प्रतिउत्तर देने के बाद अब मंडी-फंडी दलित-पिछड़ों को और कैसे जाटों के खिलाफ खड़ा करने के षड्यंत्र रचेगा!

निसंदेह पिछले 2-3 दिन से चल रहा जाट आंदोलन अकेले आरक्षण के लिए नहीं है, क्योंकि ऐसा होता तो जाट युवा आंदोलन को अपने हाथों में ना लेता; पहले की भांति अपने बुजुर्गों के साथ अपने घरों को लौट जाता| इतना शैलाब मात्र आरक्षण का मामला होता तो बिलकुल नहीं आता|

इसको शैलाब का रूप दिया है मंडी-फंडी की सरकार द्वारा पिछले डेड साल से जाटों को मानसिक रूप से तोड़ने, उनके नैतिक सम्मान को गिराने के लिए उन पर छोड़े गए राजकुमार सैनी, मनोहरलाल खट्टर और रोशनलाल आर्य जैसे लोगों के भैड़े और भद्दे जुबानी तीरों ने| कभी खट्टर बोला कि हरयाणवी कंधे से ऊपर कमजोर होते हैं तो कभी सैनी और आर्य गाली भरी जुबानों में बोले कि हमने जाटों को जवाब देने हेतु फलानि-धकड़ी ब्रिगेडें खड़ी कर ली हैं|

हरयाणा में जाट सीएम आया या नॉन-जाट; जाटों ने इसको कभी सीरियसली नहीं लिया| परन्तु इस बार गैर-जाट सीएम आने में 18 साल क्या लग गए कि आते ही जाटों के खिलाफ सारा माहौल ऐसा बना दिया जैसे जाट कोई किसान-जमींदार ना हो के किसी ऐसे मंदिर के पुजारी हों जो दलित को मंदिर में चढ़ने नहीं देता, बंगाल-बिहार के ठाकुरों-ब्राह्मणों की भांति दलित-पिछड़े से बेगारी करवाता रहा हो| डेड साल से जाट चुपचाप सब सुन रहा था क्योंकि जाट अपने और अपने पुरखों के खून-पसीने से सींची हुई इस हरयाणा की मिटटी के शांति और शौहार्द का प्रहरी रहा है| परन्तु जब प्रहरी पर ही वारों की इंतहा होने लगे तो प्रहरी कहीं तो जा के फूटेगा|

खैर, अब जो शैलाब आया है इससे सैनी तो शायद चुप हो जाए, परन्तु जाटों को ध्यान रखना होगा कि मंडी-फंडी चुप नहीं होगा| वो फिर से किसी नए राजकुमार सैनी को किसी नए पैंतरे के तहत जाटों पे तानेगा| मुझे इसके संशय आज विभिन्न पोस्टों पर कमेंटों से पढ़ने में मिले| जिनमें कुछ दलित-पिछड़ों के यह कमेंट आ रहे थे कि भाई जाटो तुम तो मालिक हो हरयाणा के, हमें भी कुछ जमीनें दे दो| हमारे पास कुछ भी नहीं| और इसी तरह के और भी बहुत से सवाल आएंगे, जिनके जवाब अब जाटों को तैयार रखने होंगे|

ऐसे सवाल करने वाले भाईयों को कहा जाए कि भाई जाट एक बार आपको बिना किसी विरोध के जमीनें लेने देने में सहयोगी रहे हैं; अब एक बार जमीनों की तरफ मुंह करना छोड़ के मंदिरों और फैक्टरियों वालों की तरफ भी मुंह कर लो| और वो क्यों कर लो, वो इसलिए कर लो|

1980-1990 के दशकों में एक बहुत ही मसहूर दलित कल्याण योजना आई थी जिसके तहत हरयाणा के हर गाँव में खाली पड़ी जमीनें दलितों को खेती-किसानी करने हेतु बांटी गई थी और इसके लाभार्थी दलितों को 1.5 से 1.75 एकड़ जमीन प्रति परिवार मिली थी| हाँ वो बात अलग है कि आपके लोग आज उन जमीनों में से 80% से अधिक जमीनें बेच चुके हैं| इसलिए जाटों का आपको जमीनों के मालिक बनने से विरोध होता तो जाट इस योजना का विरोध जरूर करते, परन्तु किसी भी जाट ने कभी इसके विरोध आवाज उठाई हो, इस योजना के सम्पूर्ण जीवनकाल में आज तक ऐसा कोई वाकया नहीं|

दूसरी बात दलित-पिछड़े भाई अपने बुजुर्गों से पूछें कि क्या जाट ने जमीनें ऐसे तरीकों से हथियाई हैं जैसे साहूकार-सूदखोर किसानों-मजदूरों से ब्याज कमाते थे, उनकी सम्पत्तियों की कुर्की करते थे; या फिर ऐसे तरीकों से जैसे मंदिर वालों ने समाज का उल्लू बना-बना धन और धार्मिक संस्थानों के नाम पर लाखों-लाख एकड़ जमीने ढकारे बैठे हैं, अकूत सम्पत्ति पर कुंडली मारे बैठे हैं? आपकी जानकारी के लिए बता दूँ भारत के मंदिरों में दान के नाम पे आने वाला सालाना पैसा भारत के सालाना बजट (2012 में 13 लाख करोड़ रूपये) से भी ज्यादा होता है|

मुझे पूरा विश्वास है आपके बुजुर्ग आपको उनके और उनके पुरखों के जमाने याद करके बताएँगे कि नहीं जाटों ने तो अपनी मेहनत से खाली पड़ी बंजर जमीनों को अपनी पीढ़ियां गला-गला के, हाड-तोड़ मेहनत से, खुद को हलों में जोत-जोत के, पत्थर-जंगल काट-काट के हरयाणे की जमीनों को समतल करके अपना बनाया है| वो आपको बताएँगे कि आज जितना सुन्दर और स्पाट हरयाणा दीखता है यह यूँ ही नहीं कोई जाटों को आ के दान कर गया था| वो आपको बताएँगे कि हाँ बेशक हमने उनके यहां मजदूरी करी, हमारे जाटों से कारोबारी झगड़े रहे, परन्तु जाटों ने हमें धर्म-पाखंड-छूत-अछूत के नाम पे कभी ऐसे एकमुश्त जलील नहीं किया, जैसे मंडी-फंडी करते हैं|

तो दलित-पिछड़े भाईयों के ऐसे सवालों पे जाट विनम्रता से जवाब देवें कि भाई किसान बनने का एक मौका आप के बुजुर्ग ले चुके, हम तो आपको फिर से इसमें सहयोग कर देंगे| परन्तु फ़िलहाल आप लोग इन मंदिरों की सम्पत्ति और दान में हिस्सा मांगों, जिसका पुजारी लोग किसी को हिसाब तक देना गंवारा नहीं समझते| इन फैक्टरियों वालों से हिसाब मांगों जिनके यह मंडी-फंडी की सरकारें एक कलम में लाखों-करोड़ के कर्जे माफ़ कर दे रही है| किसान तो उल्टे आपकी ही तरह इनकी मार झेल रहे हैं| किसानों के चंद सौ करोड़ के कर्जे माफ़ करना तो मुहाल, सब्सिडियाँ तक खत्म करके दोहरी मार मारी जा रही है|

पिछड़े ज्यादा विरोध करें तो उनको हर जाट समझाये कि पिछड़े को अगर 27% से 60% आरक्षण मिल सकता है तो वो तभी मुमकिन है जब जाट पिछड़ा श्रेणी में आ जाए| खुद पिछड़ों से अग्रणी नेता शरद यादव तक यह बात कहते हैं कि अगर जाट पिछड़ा वर्ग में आ जाए तो अपनी संख्या के अनुपात में आरक्षण लेना बहुत आसान हो जायेगा| और सच मानो मंडी-फंडी इसी बात से डरा बैठा है कि अगर जाट ओबीसी में आ गया तो समझो आज आपका आधा आरक्षण जो यह बैकलॉग के बहाने अपने खाते चढ़ाये जा रहे हैं, वो इनसे छिन जायेगा| बस यही सबसे बड़ी वजह है कि क्यों हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े सजा रखे हैं|

आप जाटों को ओबीसी में आ जाने दो, फिर चाहो तो ओबीसी में भी जातिगत लाइन खिंचवा लेना| परन्तु ऐसे जाटों से बिछड़े रहे तो समझ लेना आपको पिछड़ा रखने के मंडी-फंडी के मंसूबों को ही पूरा करने के अलावा कुछ हासिल नहीं होगा| आप जो अपनी संख्या के अनुपात में आरक्षण का ध्येय रखते हो वो कभी सिरे नहीं चढ़ेगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

सूर्यकवि दादा फौजी जाट मेहर सिंह के जन्मदिवस 15 फ़रवरी की हार्दिक शुभकामनाएं!

बताते हैं कि दादा फौजी मेहर सिंह की लोकप्रियता उनके समकालीन कवि पंडित लख्मीचंद को रास नहीं आती थी और वो उनसे जल-भुन उठते थे| ऐसे ही एक दिन आवेश में आकर एक सांग में फौजी मेहर सिंह की उनसे अधिक लोकप्रियता देख, कवि लख्मीचंद ने फौजी मेहर सिंह को स्टेज से बेइज्जत करके उतार दिया|

तो फौजी मेहर सिंह भी ठहरे धुन के पक्के और लख्मीचंद के स्टेज के सामने ही अपना स्टेज लगा दिया| दोनों में मुकाबला हुआ और देखते-ही-देखते सारी भीड़ दादा फौजी जाट मेहर सिंह के पंडाल में चली गई और पंडित लख्मीचंद का पंडाल खाली हो गया|

उसी वाकये का जिक्र करते हुए उस महान पुण्यात्मा की याद में माननीय डॉक्टर रणबीर सिंह जी की यह रचना पढ़िए:

आह्मी-सयाह्मी:

मेहर सिंह लखमी दादा एक बै सांपले म्ह भिड़े बताये|
लखमी दादा नैं मेहरू धमकाया घणे कड़े शब्द सुणाए||
सुण दिल होग्या बेचैन गात म रही समाई कोन्या रै,
बोल का दर्द सह्या ना जावै या लगै दवाई कोन्या रै|
सबकी साहमी डाट मारदी गलती लग बताई कोन्या रै,
दादा की बात कड़वी उस दिन मेहरू नैं भाई कोन्या रै||
सुणकें दादा की आच्छी-भुंडी उठ्कैं दूर-सी खरड़ बिछाये||
इस ढाळ का माहौल देख लोग एक-बै दंग होगे थे,
सोच-समझ लोग उठ लिए, दादा के माड़े ढंग होगे थे|
लख्मी दादा के उस दिन के सारे प्लान भंग होगे थे,
लोगां नें सुन्या मेहर सिंह सारे उसके संग होगे थे||
दादा लख्मी अपणी बात पै भोत घणा फेर पछताए||
उभरते मेहर सिंह कै एक न्यारा सा अहसास हुया,
दुखी करकें दादा नैं उसका दिल भी था उदास हुया|
दोनूं जणयां नैं उस दिन न्यारे ढाळ का आभास हुया,
आह्मा-सयाह्मी की टक्कर तैं पैदा नया इतिहास हुया||
उस दिन पाछै एक स्टेज पै वें कदे नजर नहीं आये||
गाया मेहर सिंह नैं दूर के ढोल सुहान्ने हुया करैं सें,
बिना विचार काम करें तैं, घणे दुःख ठाणे हुया करैं सें|
सारा जगत हथेळी पिटे यें लाख उल्हाणे हुया करैं सें,
तुकबन्दी लय-सुर चाहवै लोग रिझाणे हुया करैं सें||
रणबीर सिंह बरोणे आळए नैं सूझ-बूझ कें छंद बणाए||

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

एक भोज अथवा ब्याह में दो पंडाल लगाने वालों का मैंने और मेरे पिता जी ने बांधा था इलाज!

आज एक खबर पढ़ी कि जिला फतेहाबाद हरयाणा के भूना में गोरखपुर गाँव की सरपंच श्रीमती सोनिया शर्मा ने सरपंच चुने जाने के उपलक्ष्य में सार्वजनिक भोज आयोजित किया परन्तु दलितों का अलग पंडाल और सवर्णों का अलग पंडाल लगाया| सुनके बड़ा दुःख और अचरज दोनों हुए| इस खबर को पढ़ के मुझे मेरे घर का एक ऐसा ही वाकया याद आया तो सोचा इसको शब्दों में उकेरा जाए|

हुआ यूँ कि मेरी दोनों बहनों की शादी (22/11/2011) में मेरे नगरी (हिंदी में गाँव) निडाना और ललित खेड़ा के 36 बिरादरी और गाँव में रहने वाली तीनों मुस्लिम जातियों के हर घर से एक आदमी के जीमने न्यौता था| दलित-स्वर्ण-मुस्लिम-मर्द-औरत सबके जीमने के लिए एक ही बड़ा पंडाल लगवाया गया था|

इसके विरोध में पहली चिंगारी फूटी शादी के एक दिन पहले, जब किसी जातिवादी महानुभाव ने मेरे पिता जी या हम भाईयों को कहने की बजाये, ब्याह में आये मेरी बुआ की लड़की के पति यानी जीजा जी को यह शिकायत की, कि तुम्हारा मोळसरा (ममेरा ससुर) यह क्या बेखळखाना (ऐसा अनुचित करना जिसका सर-पैर कुछ नहीं होता) मचाने वाला है कल; दलित-स्वर्ण सब एक पंडाल में खाएंगे? उसी वक्त बाई-चांस मैं उधर से गुजर रहा था तो जीजा जी ने बुलाया कि फूल इनकी सुन ये क्या कह रहे हैं? तो उन्होंने मुझसे कहा देख छोरे 'राजनीति खात्तर जातपात से रहित बात करना चलता है, पर इब तू हमनें इन 'ढेढयां' गेल बिठा कैं जिमावैगा, या बात चलन नहीं दयांगे|

मैं उनकी यह बात सुनके खूब हंसा और फिर आत्मीयता से यही जवाब दिया कि ताऊ कोई बात नहीं, आपकी पत्तल आपके घर पहुंचा देवेंगे| इतने में दो और बोल पड़े कि भाई कितनों की भिजवाएगा? मखा जितने कहोगे उतनों की| तो बोले कि फेर तो आधे से ज्यादा गाम की घर-घर जा के दे के आनी पड़ेंगी| मखा कोई बात नहीं, जिसको घर पत्तल चाहिए आप लोग उनकी लिस्ट बनवाओ, उनकी पैक करवा के घर भिजवा देंगे| हमारा तो काम ही घटेगा इससे, बस यह है कि पांच-दस लड़के और दो-चार बाइक्स लगानी पड़ेंगी, उनको दे-दे के आपकी पत्तलों के पैकेट, डिलीवरी करवा देंगे आपके घर|

बोले कि मतलब थम बाबू-बेटा म्हारी राखो कोनी? अब इतना सुन के मेरे से रहा नहीं गया और फिर मुझे चढ़ा तांव और लिया आगे धर के| मखा कौनसी राखन की बात कर रहे हो, तुम? क्या वो रखते हैं तुम्हारी, जिनकी मान के तुम यह जातिवाद बरतते हो? मखा मीडिया में इन्हीं जातिवाद-वर्णवाद लिखने-रचने वालों के जो 90% लाल बैठे दिन-रात तुम्हारी जो खाल उतारते हैं इन बातों पे, उनके रचे जातिवाद के इस जहर का ठीकरा जो तुमपे फोड़ते हैं, वो देख के भी मन ना करता तुम्हारा इस जातिवाद और वर्णवाद से दूर हटने का?

एक तांव में आ के बोला कि विदेश जाने के बाद से "यू छोरा आपणा ना रहा"| यू आपणा फूल ना सै, इब यू फूल तैं फ्लावर हो रह्या सै, इसकै कोनी समझ आवै, इसके बाबू धोरै फोन मिलाओ| मैंने कहा कि क्यों जब आपके पास रहता था तब कौनसा जातिवाद बरतता था मैं? मैंने कहा खैर कोई नहीं मिलाओ पिता जी को फोन और फोन को स्पीकर पे रख के मिलाओ|

फोन मिलाया गया और मेरे पिता जी को समस्या बताई गई, तो पिता जी का उत्तर सुन के सारे अवाक रह गए| पिता जी ने एक ही बात कही कि जब थाहमें खेतों में बैठ के दलित सीरी-साझियों के साथ खाना खा सकते हो तो पंडाल में बैठ के खाने से क्या बिजली टूट पड़ैगी आप पे? फेर भी जुणसे नैं ऐतराज हो नाम बता दियो, उसके घरां उसकी पत्तल पहुंचा दयांगे, पर पंडाल एक ही लगेगा, दो नहीं होंगे|

पिता जी के उत्तर के बाद सब निरुत्तर|

परन्तु बैरी होते जिद्द के पक्के हैं, कहीं ना कहीं से कुछ ना कुछ अपने मन की करके ही मानते हैं| अगले दिन मैं जींद गया हुआ था कई काम निबटाने और कुछ सामान लेने| आते-आते दोपहर हो गई, तब तक पंडाल में खाना चालू हो चुका था| आया तो पता लगा कि औरतों के खाने के लिए पंडाल के एक हिस्से में पर्दा खिंचा के उसके दो हिस्से कर रखे हैं| पूछा तो पाया कि वही बुड्ढे दादा-ताऊओं की मंडली ने टेंट वालों को धमका के यह काम करवा दिया| मैंने गुस्से में उनकी तरफ देखा तो मंद-मंद मुस्कराते हुए बोले कि भाई वो तेरी फलानी दादी और ताई आई थी जीमने, आते ही बोली कि हमनें गाम के बड्डे-बडेरों के बीच खड़ा हो के खाने में शर्म आवेगी, और इसलिए पर्दा लगवा दिया| मैंने पिता और भाईयों से पूछा तो बोले कि जब यह हुआ हम नहीं थे उस वक्त यहां, और अब चलते प्रोग्राम में यह सब होता रहता है, ज्यादा टोकाटाकी भी अच्छी नहीं, चलने दो जीमणवार को ऐसे ही|

परन्तु फिर मैं गया वापिस उस डिफाल्टर बुड्ढा मण्डली के पास, और पूछा कि मखा थाहमें तो घर पत्तल मंगवाने वाले थे ना? यहां कैसे? तो बोले कि पोता हम तो तैने परख रहे थे, वर्ना दलितों के साथ रोज ही ना खेत में बैठ के साथ खाते हैं| मैं हंस के रह गया और मन में तसल्ली सी ले के बारात के स्वागत और फेरों के कार्यों में जुट गया, कि चलो लगता है इन पर पिता जी की डांट ने सही असर दिखाया है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 14 February 2016

जयचंद को अक्ल नहीं थी या स्वयंवर में चाचा-ताऊ को माला पहनाई जा सकती है?

पृथ्वीराज चौहान और जयचंद राठौड़ सगी बहनों के लड़के थे यानी कजिन ब्रदर यानी सगी मौसियों के लड़के, पहली बात|

संयोगिता, जयचंद की बेटी थी और इस नाते पृथ्वीराज चौहान संयोगिता का चाचा हुआ, दूसरी बात|

जब संयोगिता का स्वयंवर रचा गया और जयचंद को पता था कि उसकी बेटी पथ भटक चुकी है तो उसने स्वयंवर में लड़की के चाचा का पुतला यानी मूर्ती क्यों खड़ी करवाई, तीसरी बात|

जयचंद की नैतिकता क्या भैंस चरने गई हुई थी या वहाँ बैठे ब्राह्मणों-पुरोहितों में से किसी ने उसको सलाह नहीं दी कि लड़की का चाचा स्वयंवर में कैसे भाग ले सकता है जो उसकी मूर्ती खड़ी की जा रही है; या फिर इन्होनें स्वयंवर के नियम ही ऐसे बनाये हुए थे कि चाचा-ताऊ भी स्वयंवर में भाग ले सकते थे; या फिर ब्राह्मण-पुरोहित पृथ्वीराज और जयचंद के मजे लेने के मूड में थे?

पृथ्वीराज तो एक राजा होते हुए अच्छे-बुरे, ऊँच-नीच की अक्ल होते हुए भी भतीजी पे जो डूबा सो डूबा, पर यह जयचंद को भी कहाँ अक्ल थी, जो उसका पुतला ही खड़ा करवा दिया स्वयंवर में?
सच्ची कहूँ, मुझे तो यह किस्सा भी रामायण और महाभारत की तरह कोरी कल्पना लगता है| या पृथ्वीराज चौहान के चरित्र को दागदार करने की कथाकारों की एक साजिश, भला इतना समझदार और उंच-नीच का अंतर समझने वाला राजा, अपनी भतीजी पे डूबेगा? एक पल को कोई राह चलता सरफिरा ऐसी डुबाढाणी कर जावे तो मान भी लूँ, परन्तु एक राजा होते हुए पृथ्वीराज को इतनी अक्ल नहीं रही होगी, मुझे यकीन नहीं होता|

और अगर पृथ्वीराज ने फिर भी ऐसा किया तो भला हो पृथ्वीराज के शिक्षकों का जिन्होनें जब हिन्दू समाज के विवाह के रीति-रिवाज पृथ्वीराज को पढ़ाएं होंगे तो क्या आँख मूँद के सो गए थे, कि जो इतना भी नहीं बता पाये कि पिता और माता के वंश, परिवार की लड़की हमारे यहां बहन-भतीजी-बेटी मानी जाती है? उनसे इश्क नहीं फरमाये जाया करते, या तो राखियां बंधवाई जाती हैं या सर पर हाथ रख के आशीर्वाद दिए जाते हैं|

क्या बेखलखाना है ये, जब भी इस किस्से के बारे सोचता हूँ दिमाग घूम जाता है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

हिमाचल के गवर्नर आचार्य देवव्रत जी 'आर्य-समाज में एक हांडी में दो पेट' क्यों?


आर्य-समाज की उपलब्धियों, आकाँक्षाओं व् प्रतिबद्धताओं को दोहराने हेतु "DAV संस्थाओं" (आर्य-समाज का शहरी वर्जन) द्वारा दिल्ली में एक विशाल कार्यक्रम आयोजित किया गया| इसमें आचार्य देवव्रत जिन्होनें ताउम्र आर्य-समाज के ग्रामीण वर्जन के गुरुकुलों में काम किया, वो जब प्रधानमंत्री के बराबर वाली कुर्सी पर इस DAV के कार्यक्रम में बैठे दिखे तो सवाल उठा और मन किया कि इनसे पूछूं:

1) आपने कभी भी आर्य-समाज के गुरुकुलों में DAV की तर्ज पर शिक्षा पद्द्ति क्यों नहीं लागू की? यह एक हांडी में दो पेट क्यों रहने दिए, इसको बदलने हेतु काम क्यों नहीं किया?

2) DAV में संस्कृत पढ़ना प्राथमिकता नहीं, अपितु अंग्रेजी-हिंदी पढ़ना प्राथमिकता है| यह प्राथमिकता गुरुकुलों में क्यों नहीं लागू करवाई आपने कभी? और यह उन वजहों में से एक बहुत बड़ी वजह है कि इन गुरुकुलों से निकलने वाले बच्चे अधिकतर शास्त्री बनने तक सिमित रह जाते हैं, जबकि DAV वालों की तरह बड़े-बड़े अधिकारी, अफसर या प्रोफेसर बनते बहुत कम देखे हैं| आखिर यह एक हांडी में दो पेट क्यों?

3) आर्यसमाज की गीता यानी 'सत्यार्थ प्रकाश' लड़की के सानिध्य को लड़के के लिए 'आग में घी' के समान बताती है, इसलिए वकालत करती है कि दोनों को अलग-अलग शिक्षा दी जावे, सहशिक्षा ना दी जावे? तो सवाल उठता है कि यह नियम गुरुकुलों पर ही क्यों लगाया गया, इन DAV स्कूलों और संस्थाओं में तो हर जगह सहशिक्षा यानी co-education है? आखिर यह एक ही विचारधारा रुपी हांडी में दो पेट कैसे?

हालाँकि आप यह मत समझियेगा कि मैं कोई जन्मजात आर्य-समाज का आलोचक हूँ, नहीं जी मैंने तो बहुत आर्य-समाजी मेलों में बढ़-चढ़ के भाग लिया है| बचपन में आर्य-समाज के प्रचारकों को खुद बुला के लाया करते थे, हमारे गली-मोहल्ले में प्रचार करने हेतु|

ऐसा भी नहीं है कि मैं गाँव में पढ़ा और फिर बाद में अक्ल आई, पहली से ले दसवीं तक आरएसएस के स्कूल में ही पढ़ा हूँ; और तभी से यह फर्क समझने लग गया था| कि जब आर्य समाज एक तो इसकी शिक्षण पद्द्तियां दो क्यों? गाँवों के बच्चों को गंवार रखने के लिए गुरुकुल और शहरों वालों को एडवांस बनाने के लिए DAV?

इन सवालों को उठाते हुए यह भी मत समझियेगा कि आज मेरी आस्था नहीं आर्यसमाज में; वो आज भी है| परन्तु इन सवालों का तो अब हल चाहिए ही चाहिए| आखिर यह एक हांडी में दो पेट क्यों?

मेरे साथी या आलोचक भी इन बातों पर गौर फरमावें कि एक जमाने में जो संस्कृत मनुवादी विचारधारा के लोग पिछड़े-शूद्र के लिए पढ़ना भी पाप समझते थे, संस्कृत के श्लोक बोलने पे उनकी जिह्वा कटवा दिया करते थे, सुनने पर उनके कानों में तेल डलवा दिया करते थे, तो अचानक इतनी मेहरबानी कैसे हुई कि यह संस्कृत सबके लिए खोल दी गई?

कहीं यह इसलिए तो नहीं किया गया कि इन गंवारों ने अगर अंग्रेजी पढ़ ली और उससे प्रेम हो गया तो तुम इनके दिमागों को संकुचित और सिमित कैसे रख पाओगे? अंग्रेजों को इनका दुश्मन कैसे दिखा पाओगे? इसलिए इन हर इस उस वक्त हिन्दू धर्म की बुराई करने वालों को तो गुरुकुलों के जरिये इन संस्कृत के श्लोकों को समझने में उलझा दो और खुद DAV के जरिये अंग्रेजी पढ़ के इनसे आगे रहो, इनको मुठ्ठी में रखो? मुझे तो आर्य-समाज के यह 'एक हांडी में दो पेट' गुरुकुल वालों के लिए किसी सजा से कम नहीं लगते|

अत: आपसे मेरी प्रार्थना है और क्योंकि आर्य समाज के संस्थापक दयानंद जी का भी यही मानना था कि मेरे स्थापित सिद्धांतों में समय के अनुसार परिवर्तन करते रहना होगा| चलो संस्थापक महोदय से जो गलती हुई सो हुई, परन्तु अब आपसे अनुरोध है कि इसको सुधरवाने हेतु कदम उठवाए जावें और DAV हो या गुरुकुल दोनों जगह सामान शिक्षा प्रणाली लागू करवाई जावे|

गुरुकुलों में पढ़ने वाले विद्यार्थी व् शिक्षक कृपया इसके ऊपर विचारना अवश्य प्रारम्भ करें| क्योंकि आज का ग्रामीण युवा और सोच अब इन चीजों को पकड़ने लगी है और आने वाले वक्त में आर्य-समाज में यह समानता लाने हेतु एक बड़ी आवाज उठेगी|

विशेष: मेरी कोशिश है कि मैं इन सवालों को इन जनाब तक पहुँचाऊँ| इनको देवव्रत जी तक पहुंचाने वाले का धन्यवाद| अरे हाँ देवव्रत ही क्यों बाबा रामदेव तक भी पहुँचाया जाए इन सवालों को|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 12 February 2016

इंसान को अछूत और गुलाम किया है, कैसा ये कर्म है, कैसा ये धर्म है!

मैं इस वीडियो को इसलिए साझा कर रहा हूँ ताकि जैसे दलित आज भी बाबा आंबेडकर और महात्मा फुले को अपना प्रेरणा स्त्रोत, दलित उत्थान और प्रगति की मंजिल ले के चल रहे हैं; वैसे ही किसान-जमींदार वर्ग भी सर छोटूराम और चौधरी चरण सिंह को ना भूलें|

हालाँकि मैं अब अपेक्षा करने लगा हूँ कि दलित संगठनों को सर छोटूराम को भी बाबा आंबेडकर और महात्मा फुले के साथ रखना बनता है क्योंकि उन्होंने जितने कार्य और कानून किसानों के लिए बनवाए, उतने ही दलितों के लिए भी बनवाए| यहां तक कि सर छोटूराम जी के नाम के साथ जो "दीनबंधु" सम्मान लगा हुआ है वह दलितों ने ही उनको उनके हितों के कार्य करने के सम्मान स्वरूप दिया था|

यूनियनिस्ट मिशन इस बात पर कार्य कर रहा है और काफी दलित संगठनों में अब सर छोटूराम जी का नाम भी बाबा आंबेडकर और महात्मा फुले के साथ लिया जाने लगा है, परन्तु अभी इस वीडियो जैसे कार्यक्रमों और गानों में इनका नाम आना बाकी रहता है|

मेरे लिए यह होना इसलिए अत्यंत आवश्यक है ताकि जब मंडी-फंडी जाटों को दलितों का दुश्मन बतावे तो दलित भाई याद रखें कि सर छोटूराम और चौधरी चरण सिंह जैसे ऐसे जाट देवता भी हुए हैं जिन्होनें जितने किसानों के कार्य किये, उतने ही दलितों के भी किये| इसलिए जाट उनके दुश्मन कैसे हो सकते हैं| अपितु उनके असली दुश्मन तो यह मंडी-फंडी ही हैं जो जाट को ढाल की भांति इस्तेमाल करके दलितों के आगे अड़ा देते हैं और खुद असली दुश्मन होते हुए साफ़-सुथरे बन जाते हैं|

सुनिए बहन शीतल साठे के इन धरातलीय सच्चाई को उधेड़ते स्वरों को - https://www.youtube.com/watch?v=CgDC2tFr3oM

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

वामपंथ हरयाणा में ज्यादा कामयाब क्यों नहीं हुआ?

क्योंकि इनके बंगाली आइडॉलॉजिकल गुरुज ने इनको हरयाणा में भी उसी प्रकार का सामंतवाद दिखाना चाहा जैसा बंगाल में था या अभी भी है| जब यह बंगाली वामपंथी नए-नए हरयाणा-पंजाब की धरती पर आये तो यहां के लगभग हर दूसरे किसान-जमींदार की बढ़िया-बढ़िया हवेलियां देखी जो कि बंगाल के गाँवों में इक्कादुक्का होती थी| तो इन्होनें सोचा कि हो ना हो यहां भी यह हवेलियां उसी तरह दलित-मजदूरों पर जुल्म करके बनाई गई होंगी, जैसे कि बंगाल के जमींदार करते हैं|

र खुद हरयाणवी वामपंथी, इनको गॉड्लाइक मानने के प्रभाव में यह ही नहीं समझा पाये कि यह सर छोटूराम की धरती है, यहां बंगाल की तरह जमींदार खेत के किनारे खड़ा हो के बंधुआ मजदूरी नहीं करवाता, अपितु बाकायदा मजदूर के साथ खुद भी खेत में कस्सी-क्सोला ले के खटता है और सीरी-साझी को बंधुआ नहीं अपितु बाकायदा एक साल के लिखित बही-खातों वाले कॉन्ट्रैक्ट पे रखता है|

यह बताने में फ़ैल रहे कि हरयाणा के मजदूर-दलित की वो समस्याएं नहीं है जो कि बंगाल वालों की हैं| वामपंथी विचारधारा तो ली, परन्तु बंगालियों की| सर छोटूराम वाली ले के चलते तो बहुत आगे पहुंच जाते| पर सर छोटूराम ठहरे जाट, उनको बंगाली स्वर्ण हरयाणवी वामपंथियों को कहाँ आइडियल मानने देते|

उल्टे, हरयाणा में जमने के चक्कर में यहां कि सभ्यता-संस्कृति-खाप सबकी छवि का मलियामेट करने में कोई कोर-कस्र नहीं छोड़ी| और इसीलिए यह लोग कभी भी हरयाणा में पैर नहीं जमा पाये|

आज जेएनयू के बहाने जब देखता हूँ कि अब यह लोग इनके एक्सट्रीम अपोजिट राइट वालों यानी आरएसएस-बीजेपी के सीधे निशाने पर आ गए हैं तो फीलिंग आ रही है कि "अब आया ऊँट, पहाड़ तले|"

इन्होनें अब तक सेंट्रल-लिबरल थ्योरी पे चलने वाले जाट-खाप के लत्ते उतारे थे, पता तो अब लगेगा इनको जब सुरड़ाई हुई सूरी की भांति सब कुछ नाक पे धर के चलने वाले एक्सट्रीम राइट्स से मोर्चा लेंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 11 February 2016

ये घटनाएँ मात्र संयोगवश नहीं हुई थी, ये बहुत कुछ कहती हैं!

1) ज्योतिबा फुले ने जब 1873 में सत्य का शोधन करने निकले तो विवेकानन्द ने 1875 में गाड़ी वेदों की ओर क्यों मोड़ी? राजकुमार सैनी से कोई पूछे इसपे, क्योंकि वो आजकल इन्हीं की पीपनी बनके जो बज रहे हैं!

2) बाबा साहब आंबेडकर ने 09 मार्च 1924 को बहिष्कृत हितकारिणी सभा बनाई तो सावरकर ने 1925 में अखिल भारतीय हिन्दू महासभा का गठन क्यों हुआ?

3) जब 1860-70 के दशकों में जाट एकमुश्त होकर सिख धर्म में जा रहे थे तो दयानंद सरस्वती ने 1875 में आर्य-समाज की स्थापना कर जाटों को 'सत्यार्थ प्रकाश' में 'जाट जी' क्यों लिखना पड़ा? क्या इससे पहले जाटों को नहीं पता था कि वो आर्य हैं? उनको पता था, फिर क्यों किया गया यह ड्रामा?
 

4) 1920 में चलाया गया असहयोग आंदोलन सर छोटूराम द्वारा सवाल उठाने पर क्यों 'चोरा-चोरी' का बहाना करके गांधी ने बंद किया? क्योंकि इनके आंदोलन की पोल-पट्टी खोल के रख दी थी सर छोटूराम ने| उन्होंने गांधी से आह्वान करवाया था कि असहयोग सिर्फ किसान-दलित-पिछड़ा ही क्यों करे, व्यापारी-पुजारी भी करे|
 

5) जिस साइमन कमीशन का महाराष्ट्र से बाबा साहेब आंबेडकर और पंजाब से सर छोटूराम ने स्वागत किया, उसका लाला लाजपत राय द्वारा विरोध करना संयोगमात्र नहीं था, इनको खतरा था कि सायमन कमीशन दलित-किसान-पिछड़े को जो हक देने आ रहा है, इससे इनकी जमानों से चली आ रही खुली लूटों और मनमानियों पर लगाम लगेगी।

क्या आपको अब भी समझ नहीं आ रहा है कि जो ड्रामे रच के यह तथाकथित राष्ट्रवादी आपका ध्यान भटकाना चाहते हैं वो कितने औचित्यहीन हैं एक किसान-दलित-पिछड़े के लिए? उस दौर के लोगों ने भी समझा, आप भी समझिये| जब जब आप रोहित -वेमुला जैसे मुद्दों पर पोलिटिकली और सोशली एक होंगे तब तब वैसे वैसे काउंटर अटैक होगा, पढ़ते रहिये उनको जो आपको समझाने, आपकी आँखे खोलने के लिए फेसबुक में दिन-रात एक किये हुए है और इन ऊपर बताये तर्कों पर तोलते रहिये|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

हरयाणा के वीरों ने दिल्ली की सीम बचाई थी!

1857 की क्रांति के अमरप्रतापी सर्वखाप यौद्धेय दादावीर बाबा शाहमल तोमर जी महाराज की जन्म-जयंती 11 फरवरी 1797 पर विशेष!

1857 की क्रांति का जब-जब जिक्र होता है तो हरयाणा (उस वक्त वर्तमान हरयाणा, दिल्ली, उत्तराखंड और वेस्ट यूपी एक ही भूभाग होता था और हरयाणा कहलाता था) से दो यौद्धेयों का खास जिक्र आता है एक बल्लबगढ़ नरेश राजा नाहर सिंह और दूसरे दादावीर बाबा शाहमल तोमर जी महाराज| जहां दक्षिण-पश्चिमी छोर से बल्लबगढ़ नरेश ने अंग्रेजों को संधि हेतु सफेद झंडे उठवाए थे, वहीँ उत्तरी-पूर्वी छोर पर बाबा शाहमल जी ने अंग्रेजों को नाकों चने चबवाए थे और इस प्रकार हरयाणे के वीरों ने दिल्ली की सीम बचाई थी| वो तो पंडित नेहरू के दादा गंगाधर कौल जैसे अंग्रेजों के मुखबिर ना होते तो अंग्रेज कभी दिल्ली ना ले पाते|

आज बाबा जी की जन्म-जयंती है| उनकी शौर्यता के चर्चे दुश्मनों की जुबान से कुछ यूँ निकले थे:

डनलप जो कि अंग्रेजी फौज का नेतृत्व कर रहा था, को बाबा शाहमल की फौजों के सामने से भागना पड़ा| इसने अपनी डायरी में लिखा है, "चारों तरफ से उभरते हुये जाट नगाड़े बजाते हुये चले जा रहे थे और उस आंधी के सामने अंग्रेजी फौजों जिसे 'खाकी रिसाला' कहा जाता था, का टिकना नामुमकिन था|"

एक और अंग्रेजी सैन्य अधिकारी ने उनके बारे में लिखा है कि, "एक जाट (बाबा शाहमल तोमर जी) ने जो बड़ौत परगने का गवर्नर हो गया था और जिसने राजा की पदवी धारण कर ली थी, उसने तीन-चार अन्य परगनों पर नियंत्रण कर लिया था। दिल्ली के घेरे के समय जनता और दिल्ली इसी व्यक्ति के कारण जीवित रह सकी।

प्रचार-प्रसार और अपनों को याद ना करने की बुरी आदत का नतीजा यह होता है कि फिर हमें कागजी वीरों और शहीदों को गाने वालों की ही सच माननी पड़ती है| इससे बचने के लिए जरूरी है कि हम ना सिर्फ असली शहीदों और वीरों का प्रचार-प्रसार और उनको याद करें, वरन नवयुवा पीढ़ी तक यह बातें ज्यों-की-त्यों एक विरासत की भांति स्थांतरित हुई कि नहीं यह उनके बचपन से ही सुनिश्चित करें|

इसलिए इस भ्रमजाल से बाहर आईये कि 'जाट तो इतिहास बनाते हैं, लिखते नहीं' क्योंकि इतिहास बनाने के बराबर ही उसको लिखने और गाने की भी जरूरत होती है| वर्ना तो वही बात फिर कागजी वीर घड़ने वाले, असली वीरों को उनकी लेखनी से ढांप देते हैं|

1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के अमरप्रतापी सर्वखाप यौद्धेय दादावीर बाबा शाहमल तोमर जी महाराज की जन्म-जयंती पर दादावीर को कोटि-कोटि नमन!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

स्वतन्त्रता संग्राम के जाट वीर यौद्धा बाबा शाहमल सिंह तोमर की जयंती पर विशेष ।। शहीद बाबा शाहमल सिंह तोमर
बिजरौल गांव में 11 फरवरी 1797 को जन्मे बाब
शाहमल के पिता चौधरी अमीचंद तोमर किसान थे।
उनकी माता हेवा निवासी धनवंति कुशल गृहणी थीं।
बाबा शाहमल ने दो शादियां की थी। फिलहाल
बिजरौल गांव में उनकी छठी पीढ़ी को थांबा
चौधरी यशपाल सिंह, सुखबीर सिंह, मांगेराम,
बलजोर, बलवान सिंह, करताराम आगे बढ़ा रहे हैं।
मेरठ जिलेके समस्त पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी भाग में अंग्रेजों के लिए भारी खतरा उत्पन्न करने वाले बाबा शाहमल ऐसे ही क्रांतिदूत थे। गुलामी की जंजीरों को तोड़ने
के लिए इस महान व्यक्ति ने लम्बे अरसे तक अंग्रेजों को
चैन से नहीं सोने दिया था।
बाबा शाहमल 18 जुलाई 1857 को बड़का के जंगलों में
अंग्रेजों से लोहा लेते हुए शहीद हो गए थे।1857 की
क्रांति में अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिलाने वाले शहीद
बाबा शाहमल इतने बहादुर थे कि उनके शव से भी फिरंगी कांप उठे थे। बाबा को उठाने की हिम्मत न जुटा पाने वाले कई गोरों को उनकी ही सरकार ने मौत के घाट उतार दिया था।
अंग्रेज हकुमत से पहले यहाँ बेगम समरू राज्य करती थी.
बेगम के राजस्व मंत्री ने यहाँ के किसानों के साथ बड़ा
अन्याय किया. यह क्षेत्र १८३६ में अंग्रेजों के अधीन आ
गया. अंग्रेज अधिकारी प्लाउड ने जमीन का बंदोबस्त
करते समय किसानों के साथ हुए अत्याचार को कुछ
सुधारा परन्तु मालगुजारी देना बढा दिया. पैदावार अच्छी थी. जाट किसान मेहनती थे सो बढ़ी हुई मालगुजारी भी देकर खेती करते रहे. खेती के बंदोबस्त और बढ़ी मालगुजारी से किसानों में भारी असंतोष था जिसने 1857 की क्रांति के समय आग में घी का काम किया.इतिहासविदों के मुताबिक, 10 मई 1857
को प्रथम जंग-ए-आजादी का बिगुल बजने के बाद
बाबा शाहमल सिंह ने बड़ौत तहसील पर कब्जा
करते हुए उस समय के आजादी के प्रतीक ध्वज को
फहराया।
शाहमल का गाँव बिजरौल काफी बड़ा गाँव था .
1857 की क्रान्ति के समय इस गाँव में दो पट्टियाँ
थी. उस समय शाहमल एक पट्टी का नेतृत्व करते थे.
बिजरौल में उसके भागीदार थे चौधरी शीश राम और
अन्य जिन्होंने शाहमल की क्रान्तिकारी कार्रवाइयों का साथ नहीं दिया. दूसरी पट्टी में 4
थोक थी. इन्होने भी साथ नहीं दिया था इसलिए
उनकी जमीन जब्त होने से बच गई थी बडौत के लम्बरदार
शौन सिंह और बुध सिंह और जौहरी, जफर्वाद और जोट
के लम्बरदार बदन और गुलाम भी विद्रोही सेना में
अपनी-अपनी जगह पर आ जमे. शाहमल के मुख्य
सिपहसलार बगुता और सज्जा थे और जाटों के दो बड़े गाँव बाबली और बडौत अपनी जनसँख्या और रसद की तादाद के सहारे शाहमल के केंद्र बन गए.
१० मई को मेरठ से शुरू विद्रोह की लपटें इलाके में फ़ैल गई.शाहमल ने जहानपुर के गूजरों को साथ लेकर बडौत तहसील पर चढाई करदी. उन्होंने तहसील के खजाने को लूट कर उसकी अमानत को बरबाद कर दिया. बंजारा सौदागरों की लूट से खेती की उपज की कमी को पूरा कर लिया. मई और जून में आस पास के गांवों में उनकी
धाक जम गई. फिर मेरठ से छूटे हुये कैदियों ने उनकी की
फौज को और बढा दिया. उनके प्रभुत्व और नेतृत्व को
देख कर दिल्ली दरबार में उसे सूबेदारी दी.
12 व 13 मई 1857 को बाबा शाहमल ने सर्वप्रथम
साथियों समेत बंजारा व्यापारियों पर आक्रमण कर
काफी संपत्ति कब्जे में ले ली और बड़ौत तहसील और
पुलिस चौकी पर हमला बोल की तोड़फोड़ व लूटपाट
की। दिल्ली के क्रांतिकारियों को उन्होंने बड़ी
मदद की। क्रांति के प्रति अगाध प्रेम और समर्पण की
भावना ने जल्दी ही उनको क्रांतिवीरों का सूबेदार
बना दिया। शाहमल ने न केवल अंग्रेजों के संचार
साधनों को ठप किया बल्कि अपने इलाके को
दिल्ली के क्रांतिवीरों के लिए आपूर्ति क्षेत्र में बदल
दिया।
अपनी बढ़ती फौज की ताकत से उन्होंने बागपत के
नजदीक जमुना पर बने पुल को नष्ट कर दिया. उनकी इन
सफलताओं से उन्हें तोमर जाटों के 84 गांवों का
आधिपत्य मिल गया. उसे आज तक देश खाप की
चौरासी कह कर पुकारा जाता है. वह एक स्वतंत्र क्षेत्र
के रूप में संगठित कर लिया गया और इस प्रकार वह
जमुना के बाएं किनारे का राजा बन बैठा, जिससे कि
दिल्ली की उभरती फौजों को रसद जाना कतई बंद
हो गया और मेरठ के क्रांतिकारियों को मदद पहुंचती
रही. कुछ अंग्रेजों जिनमें हैवेट, फारेस्ट ग्राम्हीर,
वॉटसन कोर्रेट, गफ और थॉमस प्रमुख थे को यूरोपियन
फ्रासू जो बेगम समरू का दरबारी कवि भी था, ने अपने
गांव हरचंदपुर में शरण दे दी। इसका पता चलते ही शाहमल
ने निरपत सिंह व लाजराम जाट के साथ फ्रासू के हाथ
पैर बांधकर काफी पिटाई की और बतौर सजा उसके घर
को लूट लिया। बनाली के महाजन ने काफी रुपया
देकर उसकी जान बचायी। मेरठ से दिल्ली जाते हुए
डनलप, विलियम्स और ट्रम्बल ने भी फ्रासू की रक्षा
की। फ्रासू को उसके पड़ौस के गांव सुन्हैड़ा के लोगों ने
बताया कि इस्माइल, रामभाई और जासूदी के नेतृत्व
में अनेक गांव अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े हो गए है। शाहमल के
प्रयत्नों से सभी जाट एक साथ मिलकर लड़े और हरचंदपुर,
ननवा काजिम, नानूहन, सरखलान, बिजरौल, जौहड़ी,
बिजवाड़ा, पूठ, धनौरा, बुढ़ैरा, पोईस, गुराना,
नंगला, गुलाब बड़ौली, बलि बनाली (निम्बाली),
बागू, सन्तोखपुर, हिलवाड़ी, बड़ौत, औसख, नादिर
असलत और असलत खर्मास गांव के लोगों ने उनके नेतृत्व में
संगठित होकर क्रांति का बिगुल बजाया।
कुछ बेदखल हुये जाट जमींदारों ने जब शाहमल का साथ
छोड़कर अंग्रेज अफसर डनलप की फौज का साथ दिया
तो शाहमल ने ३०० सिपाही लेकर बसौड़ गाँव पर
कब्जा कर लिया. जब अंग्रेजी फौज ने गाँव का घेरा
डाला तो शाहमल उससे पहले गाँव छोड़ चुका था.
अंग्रेज फौज ने बचे सिपाहियों को मौत के घाट उतार
दिया और ८००० मन गेहूं जब्त कर लिया. इलाके में
शाहमल के दबदबे का इस बात से पता लगता है कि
अंग्रेजों को इस अनाज को मोल लेने के लिए किसान
नहीं मिले और न ही किसी व्यापारी ने बोली
बोली. गांव वालों को सेना ने बाहर निकाल दिया
शाहमल ने यमुना नहर पर सिंचाई विभाग के बंगले को
मुख्यालय बना लिया था और अपनी गुप्तचर सेना
कायम कर ली थी। हमले की पूर्व सूचना मिलने पर एक
बार उन्होंने 129 अंग्रेजी सैनिकों की हालत खराब कर
दी थी।
इलियट ने १८३० में लिखा है कि पगड़ी बांधने की प्रथा
व्यक्तिको आदर देने की प्रथा ही नहीं थी, बल्कि
उन्हें नेतृत्व प्रदान करने की संज्ञा भी थी. शाहमल ने
इस प्रथा का पूरा उपयोग किया. शाहमल बसौड़
गाँव से भाग कर निकलने के बाद वह गांवों में गया और
करीब ५० गावों की नई फौज बनाकर मैदान में उतर
पड़ा.
दिल्ली दरबार और शाहमल की आपस में उल्लेखित
संधि थी. अंग्रेजों ने समझ लिया कि दिल्ली की
मुग़ल सता को बर्बाद करना है तो शाहमल की शक्ति
को दुरुस्त करना आवश्यक है. उन्होंने शाहमल को
जिन्दा या मुर्दा उसका सर काटकर लाने वाले के
लिए १०००० रुपये इनाम घोषित किया.
डनलप जो कि अंग्रेजी फौज का नेतृत्व कर रहा था,
को शाहमल की फौजों के सामने से भागना पड़ा. इसने
अपनी डायरी में लिखा है -
"चारों तरफ से उभरते हुये जाट नगाड़े बजाते हुये चले जा
रहे थे और उस आंधी के सामने अंग्रेजी फौजों का जिसे
'खाकी रिसाला' कहा जाता था, का टिकना
नामुमकिन था."
एक सैन्य अधिकारी ने उनके बारे में लिखा है कि
एक जाट (शाहमल) ने जो बड़ौत परगने का गवर्नर हो
गया था और जिसने राजा की पदवी धारण कर ली
थी, उसने तीन-चार अन्य परगनों पर नियंत्रण कर
लिया था। दिल्ली के घेरे के समय जनता और दिल्ली
इसी व्यक्ति के कारण जीवित रह सकी।
जुलाई 1857 में क्रांतिकारी नेता शाहमल को पकड़ने के
लिए अंग्रेजी सेना संकल्पबद्ध हुई पर लगभग 7 हजार
सैनिकों सशस्त्र किसानों व जमींदारों ने डटकर
मुकाबला किया। शाहमल के भतीजे भगत के हमले से
बाल-बाल बचकर सेना का नेतृत्व कर रहा डनलप भाग
खड़ा हुआ और भगत ने उसे बड़ौत तक खदेड़ा। इस समय
शाहमल के साथ 2000 शक्तिशाली किसान मौजूद थे।
गुरिल्ला युद्ध प्रणाली में विशेष महारत हासिल करने
वाले शाहमल और उनके अनुयायियों का बड़ौत के
दक्षिण के एक बाग में खाकी रिसाला से आमने सामने
घमासान युद्ध हुआ.
डनलप शाहमल के भतीजे भगता के हाथों से बाल-बाल
बचकर भागा. परन्तु शाहमल जो अपने घोडे पर एक अंग
रक्षक के साथ लड़ रहा था, फिरंगियों के बीच घिर
गया. उसने अपनी तलवार के वो करतब दिखाए कि
फिरंगी दंग रह गए. तलवार के गिर जाने पर शाहमल अपने
भाले से दुश्मनों पर वार करता रहा. इस दौर में उसकी
पगड़ी खुल गई और घोडे के पैरों में फंस गई. जिसका
फायदा उठाकर एक धोखेबाज़ मुस्लिम सवार ने उसे
घोड़े से गिरा दिया. अंग्रेज अफसर पारकर, जो
शाहमल को पहचानता था, ने शाहमल के शरीर के टुकडे-
टुकडे करवा दिए और उसका सर काट कर एक भाले के ऊपर
टंगवा दिया.बाबा कि जासूसी करने वाला दलाल
बाद बाघपत नवाब बनाया और बाबा के पोते उस
धोखेबाज को नरक का रास्ता दिखा दिया।
डनलप ने अपने कागजात पर लिखा है कि अंग्रेजों के
खाखी रिशाले के एक भाले पर अंग्रेजी झंडा था और
दूसरे भाले पर शाहमल का सर टांगकर पूरे इलाके में परेड
करवाई गई. तोमर जाटों के चौरासी गांवों के 'देश'
की किसान सेना ने फिर भी हार नहीं मानी. और
शाहमल के सर को वापिस लेने के लिए सूरज मल और
भगता स्थान-स्थान पर फिरंगियों पर हमला करते
रहे.शाहमल के गाँव सालों तक युद्ध चलाते रहे.
21 जुलाई 1857 को तार द्वारा अंग्रेज
उच्चाधिकारियों को सूचना दी गई कि मेरठ से आयी
फौजों के विरुद्ध लड़ते हुए शाहमल अपने 6000 साथियों
सहित मारा गया। शाहमल का सिर काट लिया
गया और सार्वजनिक रूप से इसकी प्रदर्शनी लगाई गई।
पर इस शहादत ने क्रांति को और मजबूत किया तथा 23
अगस्त 1857 को शाहमल के पौत्र लिज्जामल जाट ने
बड़ौत क्षेत्र में पुन: जंग की शुरुआत कर दी। अंग्रेजों ने इसे
कुचलने के लिए खाकी रिसाला भेजा जिसने पांचली
बुजुर्ग, नंगला और फुपरा में कार्रवाई कर
क्रांतिकारियों का दमन कर दिया। लिज्जामल
को बंदी बना कर साथियों जिनकी संख्या 32
बताई जाती है, को फांसी दे दी गई।
शाहमल मैदान में काम आया, परन्तु उसकी जगाई
क्रांति के बीज बडौत के आस पास प्रस्फुटित होते रहे.
बिजरौल गाँव में शाहमल का एक छोटा सा स्मारक
बना है जो गाँव को उसकी याद दिलाता रहता है.