Monday, 20 June 2016

वेश्या और मूल हरयाणवी समाज!

वेश्या को भी एक समाज जो सहजता से लेता हो, उसके लिए अलग बस्ती-सड़क या रोड़ जो ना बनाता हो, वेश्या दलित के घर की हो या स्वर्ण घर की, सब बनती भी अपनी मर्जी से हैं, वेश्या बनने के लिए किसी पे देवदासी बन मंदिरों में बैठने या विधवा हुई तो विधवा-आश्रम में बैठने जैसी कोई कंडीशन नहीं, वेश्या हुई तो उसको अछूत या गिरी हुई जो समाज ना दिखाता हो, वेश्या हुई तो उसको कोई समाज बिलकुल सहजता से लेता हो, वेश्या हुई तो कोई समाज उसको अपने में ही घुलामिला के रखता हो; हाँ, बस शरीफ परिवार उससे दूरी जरूर रखते हैं, अपने बच्चों-मर्दों को उससे दूर रखते हैं, पंरतु रहते एक ही गाँव-नगरी में हैं; ऐसी धरती है मेरे हरयाणा की| और यह मैं कोई एलियंस की भांति दूसरे गृह-राज्य-संस्कृति का प्राणी नहीं, अपितु उसी संस्कृति से जन्मा-पला-बढ़ा हुआ कहता हूँ|

और लोग बोलते हैं कि यहां सबसे मेल-डोमिनेंट सोसाइटीज रहती हैं, यहां औरत को सम्मान नहीं; स्थान नहीं| मैंने मेरे गाँव में दलित से ले के स्वर्ण महिला तक अपनी मर्जी से वेश्यावृति करती देखी हैं; परन्तु उनके प्रति कोई घृणित या मलिन मन नहीं रखता; उनको भी अन्य औरतों की भांति चाची-काकी-दादी कह के ही बोला जाता है| असल में हम हरयाणवी तो उनको सीधे-मुंह तो वेश्या कहने तक से कतराते हैं; क्योंकि हम उनके लिए सामान्य समाज में वापिस लौट आने का ऑप्शन खुला रखते हैं| यह है उस धरती की संस्कृति जिसको हरयाणा के साथ-साथ जाटलैंड और खापलैंड भी बोला जाता है|

इतनी बेबाकी से इस पहलु को रखने पर बेशक बहुत से लोग मुझसे खफा हों परन्तु मैं ऐसे जाहिल-गंवारों की संस्कृति से तो बेहतर संस्कृति रखता हूँ, जो औरत को अपने श्लोकों में "ढोल, गंवार, शुद्र, नारी, यह सब ताड़न के अधिकारी" लिखते हैं और समाज में दर्शनशास्त्र और समाजशास्त्र के स्वघोषित पुरोधा प्रचारित किये जाते हैं| और यह उन वजहों में से एक सबसे बड़ी वजह है कि क्यों हरयाणा की धरती को धर्मसंगत नहीं बोला जाता| यकीन नहीं हो तो कभी आजमा के देख लेना, किसी कितने ही खुद में स्वघोषित और स्वप्रमाणित धर्मधीस से बहस कर लेना, उसको गुस्सा दिलाना चुटकियों का खेल है|

और क्यों इस धरती पर आकर ही धर्म वालों के फैसले भी युद्ध के जरिए ही होते हैं| क्योंकि यहां आकर इनके उलजुलूल तर्क धरासायी होते रहे हैं और जब धर्म वाले के तर्क धरासायी हो जाते हैं तो उसको क्रोध उठता है और वो क्रोध में लड़ने लग जाता है| इसीलिए तो इनके सारे देवी-देवता भी अस्त्रों से लैश होते हैं; दूर से इशारा होता है कि या तो हमारी बात मान जाना वर्ना कलह-कलेश को तैयार रहना| सिर्फ बुद्ध, नानक और महावीर हुए हैं; जो अस्त्रों से और जानवर की सवारी से लैश नहीं थे| उनको भी इन्होनें तड़ीपार कर दिया| यही कड़वी सच्चाई है, आपको भगवान कहलाना है तो आपको अस्त्रों से लैश होना और किसी जानवर की पद्दी (पीठ) पे बैठना पहली शर्त है|

खैर, इससे पहले कि शीर्षक से भटक कर ज्यादा दूर निकल जाऊं; लेख को यहीं समेटता हूँ और इतना ही कहता हूँ कि हरयाणवियो अपनी संस्कृति के खुलेपन को पहचानो और इसको सामने रखना शुरू करो| वर्ना वो लोग तो आगे बढ़ते ही जा रहे हैं जो आपको हरयाणा की धरती पर हरयाणवी होने और कहलाने के भी चोर बना देंगे|

विशेष: हरयाणा-हरयाणवी यानि वर्तमान हरयाणा, दिल्ली, वेस्ट यूपी, उत्तराखंड, उत्तरी राजस्थान|

बहुत करी "विद्रोह-क्रांति", बहुत करी "हरित-क्रांति", बहुत करी "श्वेत-क्रांति", अब हो जाये एक "लेखन-क्रांति"!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 17 June 2016

पलायन, कौतूहल और हल!

आज के दिन मेरी जन्मनगरी निडाना (हिंदी में गाँव) में एक भी बनिया परिवार नहीं है, सब रोजगार की प्राथमिकताओं के चलते छत्तीसगढ़ से ले के जींद-दिल्ली तक पलायन कर चुके हैं| आज से करीब 20 साल पहले तक 10 के करीब बनिया परिवार रहते थे नगरी में| और लगभग यही कहानी हर हरयाणवी नगरी की है| बनिया तो बनिया, बनिए से ज्यादा तो हर नगरी से जाट, ओबीसी यहां तक कि नौकरी पेशा तो एससी-एसटी तक ने पैतृक नगरियां छोड़ के पास-पड़ोस शहरों में कोठियां बना के वहाँ पलायन कर लिया है|

अब जिस तरीके से यह गंवार *(नीचे नोट देखें) "कैराना" का मामला उठा रहे हैं; उसको देखते हुए तो लगता है कि यह हरयाणा में अगला झगड़े-फसाद का मुद्दा यही उठाने वाले हैं| और क्योंकि 70% हरयाणा की नगरियां (हिंदी में गाँव) जाट बाहुल्य हैं; तो जाट रहो तैयार एक और इल्जाम भुगतने को कि इनके आतंक के चलते यह सब पलायन हुए हैं| वाह बैठे-बिठाए क्या नायाब फार्मूला हाथ लगा है फुस्स हो चुके "जाट बनाम नॉन-जाट" यानि 35 बनाम 1 के फसाद को फिर से हवा देने का|

तोड़ की कह दूँ भाई, "यें लातों के भूत हैं, बातों से नहीं लठ खा के पैंडा छोड़ेंगे!"; तो जो अगर अबकी बार इन्होनें ऐसा कोई बेहूदा राग अलापा, इनके तसल्ली से टाकणे छांग दो|

और बिहार-बंगाल-आसाम के जितने भी लोग एनसीआर-हरयाणा-पंजाब-वेस्ट यूपी में नौकरी करते हैं, तैयार रहें; क्योंकि अब यह लोग आपके पलायन का भी हल करेंगे; आपको आपके गृह-राज्यों में ही रोजगार उपलब्ध करवा के, आपकी गृह-राज्य वापसी अभियान चलवा के|

*नोट = गंवार ही कहूंगा इनको क्योंकि यह जो अब मुद्दा उठाया है यह मेरे हरयाणा में "ठाली न्यान काटडे मूंदें" वाली तर्ज पर "चूचियों में हाड ढूँढ़ने वाले" निठ्ठले-नाकारा लोग उठाया करते हैं| इनके लच्छन देख के तो लगता ही नहीं कि जनता ने कोई सरकार चुनी है, ऐसा प्रतीत होता है कि गुंडे-लफंगों को देश की ऐसी-तैसी करने का लाइसेंस थमा बैठे हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"लेखन-क्रांति" ही 'आइडेंटिटी-क्राइसिस‘ से मुक्ति!

ज्यादा पीछे से नहीं उठाऊंगा,
गॉड-गोकुला के काल से आगे की बतलाऊँगा!
1669, 1748, 1764, 1805, 1837, 1857, 1914, 1939, 1944
यह वो कुछ तारीखें हैं जब तुमने शौर्य व् युद्ध-कौशल का डंका बजाया,
परन्तु इतिहास में यथोचित स्थान फिर भी ना पाया,
क्योंकि कलम का सरमाया किसी और को था हुआ बनाया!
आज़ादी के बाद अपनी हल की क्षमता से सबको जनवाया,
देश का हर गोदाम "हरित-क्रांति" के अनाजों से भर बतलाया!
फिर "श्वेत-क्रांति" से पूरे हरयाणा-पंजाब-वेस्ट यूपी को दूध-दही की धरती गुंजवाया।
परन्तु क्या सरकार-साहित्य-इतिहास-संस्कृति की लेखनी में अब भी उचित सम्मान पाया?
नहीं, क्योंकि कलम का सरमाया अभी भी किसी और को ही है हुआ बनाया।
"युद्ध-क्रांति", "हरित-क्रांति", "श्वेत-क्रांति" के बाद बारी है "लेखन-क्रांति" की,
ऐ दुर्दांत! कलम उठा ले, अपनी "आइडेंटिटी" का सरमाया खुद को बना ले।
यह ऐसा हथियार है जो हथिया लिया तो सूदखोर-पाखंडियों का मिट जायेगा अपवाद!
सब स्वत: मर जायेंगे, जब सामने होगा तेरी अपनी लेखनी का वाद!
इतना समझ लो यह इंग्लैण्ड नहीं, जहां अलिखित सविंधान-संस्कृति से ही खुद को जनवा लोगे,
कदम-कदम पर कलम के सौदागर हैं, इनकी सौदागरी सूखा दो; स्वत: ही स्व को विश्व में गवा लोगे।
इतना जान लो, इतना समझ लो, जब तक नहीं घुसोगे सवैंधानिक तंत्र में राष्ट्रवादियों की तरह,
रहोगे इनके मुंह ताकते, और खुद ही खुद को काटते बेबस आदिवासियों की तरह।
हर गाम-खेड़ा तुम्हारा तुम्हारी संस्कृति-सभ्यता-इतिहास का अनूठा और नायाब गणतांत्रिक ठिकाना है,
बस ठान लो इतना कि अब हर बार छुट्टियों में कहीं और नहीं, अपने गाम का लेखा-जोखा लिखने जाना है।
लिख डालनी है अपने खेड़े की हर आध्यात्मिक-सांस्कृतिक-ऐतिहासिक झाँकी,
और फिर परखी जाए "analogy" पर विश्व की इसकी सर्वश्रेष्ठता की फाकी।
कुछ लगेगा ना तुम्हारा जेब से, क्योंकि इंटरनेट-स्मार्टफोन-लैपटॉप-कलम के खाली-समय प्रयोग की दिशा भर मोड़नी है।
डाल लो आदत में इसको अगर अनुचित लेखन के बरगद की जड़ चुपचाप कुरेद के एक झटके बिना फटके उखाड़नी है।


जय यौद्धेय! - फूल मलिक

विशेष: 1669 (God Gokula Revolt), 1748 {One sided win of Suraj Sujan (Badan Singh & Ishwari Singh alliance) over Rajputs, Maratha, Holkars & Mughals all on opposite front}, 1764 (Delhi win of Bhartendu Jawahar Singh), 1805 (Bharatpur win over British), 1837 (Maharaja Ranjit Singh win over Afghans), 1857 (Raja Nahar Singh win over Britishers and Sarvkhap Haryana revolt), 1914 (WW1), 1939 (WW2), 1944 (Azad Hind Fauj)

 

Thursday, 16 June 2016

धर्म के नाम पर हमें नहीं जरूरत ऐसे डरपोकों और कामचोरों की!

क्या जब एक सैनिक बॉर्डर पर देश की रक्षा करता है तो वो सिविलियन्स को सहायता के लिए पुकारता है? - नहीं बिलकुल नहीं|

क्या जब एक किसान खेतों में कड़ी सर्दी-गर्मी-लू-तूफान-ठंड-रात-दिन में खट के देश के लिए अनाज पैदा करता है तो वो किसी सिविलियन को पुकारता है? - नहीं बिलकुल नहीं|

तो फिर इन धर्म वालों को जब-जब यह लगता है या समाज को यह लगवाना होता है कि धर्म संकट में है तो यह क्यों हर बार सिविलयंश को पुकारते हैं?

और वो भी बावजूद धर्म-रक्षा के नाम पर दुनिया जहान की फलानि सेना, धकडी सेना साथ रखने के? वो भी बावजूद सिविलयंस से फुल्ल दान-चढ़ावा-चंदा के रूप में फाइनेंस तक पाने के?

क्या धर्म के नाम पर सिविलियन इनको दान-चंदा-चढ़ावा देकर अपना फर्ज पूरा नहीं कर देता, ठीक वैसे ही जैसे सिविलयन के टैक्स से फ़ौज के लिए पैसा देने से उसका देश की रक्षा का फर्ज पूरा हो जाता है?

किसान और जवान तो बिना किसी दान-चढ़ावा-चंदा के भी अपने दम पर देश-धर्म-समाज के लिए अपना फर्क पूरा करते हैं| तो फिर यह धर्म के ठेकेदार चुपचाप अपना काम करने की बजाये क्यों समाज को हर दूसरे दिन डंडा किये रहते हैं?

और अगर अपना काम ढंग से नहीं कर सकते तो छोड़ें हर धर्मकेंद्र व् धर्मस्थल को, करें सिविलियन के हवाले| हमें नहीं जरूरत ऐसे डरपोकों और कामचोरों की जिनको जब दान-चढ़ावा-चंदा ढकारना हो तो खुद, और जब धर्म की रक्षा का सवाल उठे तो व्यर्थ का हाहाकार और सविलियंश को डंडा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 15 June 2016

लेखन-जगत में परम्परागत ताकतों को पीछे धकेलना है तो करनी होगी, इस प्रकार की "लेखन-क्रांति"!


छटा बिंदु खासतौर पर पढ़ें!

1) कोई भी पोलिटिकल पार्टी या आरएसएस जैसा संगठन क्या कर रहा है, इनकी आलोचना मात्र से ध्यान हटाया जाए, और उस अकाट्य राह पर मंथन किया जाए जो हमें इनसे पार पा के सर छोटूराम की हकीकत वाली राजनीति और उस राजनीति स्वरूप उनके बनाये समाज को फिर से बनाने की और अग्रसर करे|
2) हमें कुछ उदासीनताएं तोड़नी होंगी, कुछ छोड़नी होंगी; और लेलिन, कार्ल मार्क्स, से गुएरा का इंडियन वर्जन सर छोटूराम को इनके बराबर रख के पढ़ना होगा| मानता हूँ यह सारे लेफ्टिस्ट थे परन्तु लेफ्ट के भारतीय स्वरूप को मनुवाद ने हाईजैक कर रखा है| और इसीलिए भारतीय लेफ्ट ने आज-तलक भी हरयाणा-पंजाब में सर छोटूराम को नहीं उठाया| वर्ना जो समाजवाद का प्रैक्टिकल सर छोटूराम भारत के यूनाइटेड-पंजाब में करके चले गए वो तो यह अंतर्राष्ट्रीय हस्तियां ही कर पाई थी |
3) हमें हर हालत-हालात में सर छोटूराम के हर पहलु को पढ़ना होगा, खोजना होगा और उनकी सोच और विधा पर यूनियनिस्ट शोध प्रयोगशाला बनानी होगी|
4) इसके साथ ही बाबा साहेब आंबेडकर, सरदार प्रताप सिंह कैरों, सरदार भगत सिंह, महाराजा सूरजमल, महाराजा रणजीत सिंह आदि-आदि के राजनीतिशास्त्र व् दर्शनशास्त्र भी इस प्रयोगशाला में शामिल करने होंगे|
5) हमें यह बात उठानी होगी कि सिर्फ अक्षरी ज्ञान ना होने की वजह से किसान अनपढ़ नहीं होता| जो इंसान धरती का सीना चीर, समाज का पेट भरने का दैवीय ज्ञान रखता हो; वह अक्षरी तौर पर अनपढ़ होते हुए भी अनपढ़ नहीं होता| अनपढ़ तो बाबे-मोडडे-अफसर-मैनेजर होते हैं जो हर प्रकार के पोथे-ग्रन्थ-मैनेजमेंट सिलेबस आदि पढ़ के भी अपने लिए दो दाने अनाज के पैदा नहीं कर सकते| और यही वो इनकी अनपढ़ता कहो या असमर्थता, इसको छुपाते हैं इन बातों के पीछे, जब यह किसान को जाहिल-गंवार-अनपढ़ कहते हैं| यानि कृतज्ञ होने की तमीज की बजाये कृतघ्नता दिखाते हैं यह किसान को| अत: आज की किसान की औलादों को अपने स्वाभिमान को ऊँचा बनाये रखने हेतु और इन परजीवी क्लासों को बेवजह किसान के सर पे बैठें देने से रोकने हेतु, इनको यह बातें याद दिलाये रखनी होंगी|
6) अपने-अपने गाम-खेड़े का पूरा इतिहास अपने-अपने गाँव के बुजुर्गों (मर्द-महिला दोनों) के पास बैठ के उनकी क्वोटेसन समेत लिखना होगा| हर यूनियनिस्ट इसको अपनी छुट्टियों की जॉब बना ले| विद्यार्थी हो, नौकरीपेशा हो; छुट्टियों में लैपटॉप-नोटबुक या कॉपी-पेन के साथ अपने-अपने गाम-खेड़ों में जाओ और बुजुर्गों के साथ बैठो और लिखो अपने-अपने गाँव का हर पहलु| किसान-दलित-पिछड़ा समाज को आज के दिन इस "लेखन-क्रांति" की जरूरत है; यह खड़ी कर ली; समझो लेखन जगत से परम्परागत ताकतों को पीछे धकेल दिया| और इस समूचे काम को एक जगह ऑनलाइन लाने के लिए मैं एक वेबसाइट पर काम कर रहा हूँ जो उत्तरी-भारत का अनाज का कटोरा कहे जाने वाले क्षेत्र को तो कम-से-कम कवर करेगी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 13 June 2016

A marvellous iconic temple built by Jatt Raja Raghubir Singh Sandhu!

A marvellous iconic temple built by Jatt Raja Raghubir Singh Sandhu of Jind riyasat, located at prime-natal of the then capital of this riyasat i.e. Jind Country itself. But no name plate to bestow gratitude to him in or around by premises of same temple, highly ridiculous; whose ignorance is this? This temple is dedicated to German Jat King "Odin the Wanderer" locally named and manuplated as Lord Shiva.

A song from 1970's movie "Pavitra Papi" was shooted on its peripherals. At that time there was no S.D. School Building on western bank of this talab. But what on its south-west part was the historical Jind Fort cum Court, which was laid down by government in last decade of 20th century. Flash-back Images of that fort and nostalgic beauty always leave me emotional and haphazard.

 
Jai Yauddhey! - Phool Kumar

Wednesday, 8 June 2016

जाटों से वसूला जाएगा फ़ौज का खर्चा, इसके लिए उनकी जमीनें नीलाम करीं जाएंगी! - आईजी हिसार

देखो आईजी साहब, इस भभकी से यह सोचते हो कि कानूनी अधिकार के तहत शांतिपूर्ण धरना भी ना करें तो वो हरयाणवी में कहते हैं ना "जा के बालक खिलाओ"।

बहुत खूब हरयाणा सरकार के साथ-साथ यह अफसर भी सठिया गए हैं। ना और ले लो जाटों से पंगा। कुत्ते की हड्डी गिटक ली डेड स्याणों ने, ना उगले बन रही ना निगले। क्या जाटों ने कहा था क्या कि फ़ौज-फ़ोर्स बुलवाओ?

अब कानून की बात सुन लो आईजी महोदय, सिक्यूरिटी एजेंसीज का खर्चा वो उठाते है जो उन्हें बुलाते हैं जो सिक्यूरिटी लेते हैं, ना कि वो जिनकी वजह से सिक्यूरिटी लेनी पड़ती है| खट्टर ने फ़ौज बुलाई ब्रिगेड और आरएसएस के ट्रेंड-कबूतरों की जाटों से सुरक्षा के लिए और खर्चा भरेंगे जाट, आईजी आपको बावळी गादडी तो नी पाड़ गी (काट खाया)?

फिर भी अगर हरयाणा में पड़ी फ़ौज का खर्चा जाटो से लेना चाहते हो तो सरहद पर पड़ी फ़ौज का खर्चा पाकिस्तान, चीन, नेपाल और बांग्लादेश से क्यों नहीं लेते? कश्मीर में पड़ी फ़ौज का खर्चा कश्मीरियों से क्यों नहीं लेते? क्यों भारत की गरीब जनता से टैक्स में लिए रूपए में से रोज 150 करोड़ क्यों खर्चा जाता है फ़ौज पर?

आपने, खट्टर ने और मोदी ने खेलनी-मेलनी माता देखी होंगी, जाट की कूटनीति ना देखी थी। तब तो चौड़े हुए फिरे रहे कंधे से ऊपर की मजबूती के दावे ठोंकते। और जाट ने अपनी कंधे के ऊपर की मजबूती दिखाई तो ब्या लिए इतनी देर में। जब जाटों ने अबकी बार शांतिपूर्ण धरने की कही थी और शांतिपूर्ण ही कर रहे हैं तो बाबा जी ने कही की फ़ौज-फ़ोर्स बुलवाने की? और अब बुलवाई है तो उठाओ खर्चा।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

ओबीसी वालो और चढ़ लो राष्ट्रवादी विचारधारा की पद्दी (पीठ की सवारी)!

मुझे पूर्वाभाष तो उसी दिन से था जिस दिन करीब दो साल पहले सर्वप्रथम राजकुमार सैनी (इसके बाद तो और भी कई सिंगर के आ लिए) जाटों के खिलाफ अपनी जुबान से अनर्गल बकना शुरू किया था। लेकिन लिख आज रहा हूँ, क्योंकि आज मौका भी है और दस्तूर भी। इसके साथ ही यह भी स्पष्ट कर दूँ कि यह लेख ओबीसी के सिर्फ उस धड़े के लिए है जो राजकुमार सैनी जैसों के बहकावों में चढ़े हुए हैं, वर्ना ओबीसी में ऐसे भाई भी बहुत हैं जो सैनी जैसों को गालियाँ भी दे रहे हैं; और ऐसे भाईयों का समाज को जोड़े और समाज से जुड़े रहने के लिए प्रथमया धन्यवाद। अब आगे बढ़ता हूँ।

पूर्वाभाष यह था कि यू नादाँ राजकुमार सैनी राष्ट्रवादियों की पद्दी चढ़ के जाटों के खिलाफ बोलने तो लग गया पर देखना जल्द ही यह राष्ट्रवादी ही इसको ऐसे चौड़े-चिक्कड़ में पटकेंगे कि इस-इस को नहीं बल्कि पूरी ओबीसी को साँस नहीं आनी। और देख लो जो सिर्फ सैनी ही नहीं, रोशनलाल आर्य, कैप्टन अजय यादव, राव इंद्रजीत यादव, रणबीर कापड़ीवास आदि-आदि को लेशमात्र भी साँस फूटी हो तो "स्मृति ईरानी द्वारा ओबीसी में असोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर की पोस्टों पर ओबीसी का आरक्षण रद्द करने पर"?

कोई पिछड़ा एकता मंच बनाए टूल रहा था, कोई पैंतीस बिरादरी की किलकी मारे था; वो शुद्ध हरयाणवी में कहते हैं ना "इब ले लो धार!" हुआ है राष्ट्रवादी किसी का जो तुम्हारा होगा?

यह तो थी ओबीसी भाईयों को चेताने और जिनकी पद्दी वो चढ़े हुए हैं, उनकी हकीकत दिखाने की बात। अब आता हूँ कि किस साइकोलॉजी के चलते ओबीसी राष्ट्रवादियों की पद्दी चढ़े होंगे, इस बिंदु पर।

हर इंसान-समुदाय को एक ललक जरूर रहती है कि मेरे समुदाय का बस नाम हो जाए, फिर चाहे जैसे भी हो। इनके इस लालच को राष्ट्रवादी जानते ही थे। और राष्ट्रवाद की थ्योरी का सबसे पहला और आखिरी हथियार है कि "नफरत फैलाओ, रोजी-रोटी सुनिश्चित पाओ!" बस पकड़ लिए सैनी जैसे, और करवा दिया हो-हल्ला शुरू और इनके हाथों चढ़ लिया ओबीसी का एक बहुत बड़ा धड़ा भी। और इसी धड़े को ले के यह लेख लिख रहा हूँ।

कि जिस उद्देश्य के लिए आप इनकी पद्दी चढ़े थे, वो तो पूरा हुआ नहीं; बल्कि आपकी ही नाक के नीचे से आपका प्रोफेसरी वाला आरक्षण और लपेट गए यह लोग| तो बताओ जरा क्या मिला एक ऐसे वर्ग के बहकावे में फंस के जो सिर्फ लेना जानता है देना नहीं? जाट तो फिर भी आपसे एक हाथ लेता रहा है तो दूसरे हाथ देता भी रहा है। जैसे बढई-खाती से लकड़ी या मकान का काम, तो बदले में अनाज या पैसा; कुम्हार से मटकों का काम, तो बदले में अनाज या पैसा; नाई से बाल कटवाने का काम, तो बदले में अनाज या पैसा; लुहार से कृषि औजार बनवाने का काम, तो बदले में अनाज या पैसा; छिम्बी-दर्जी से कपड़े सिलवाने का काम, तो बदले में अनाज या पैसा आदि-आदि।

परन्तु यह राष्ट्रवादी क्या देते हैं आपको बदले में? इनको घर की सुख-शांति के लिए भी पैसे दो तो यह घर में यह कह के फूट और डलवा देते हैं कि तेरे भाई-चाचा आदि ने तेरे घर में टूने-टोटके करवा रखे हैं। और जो घर का कलेश मिटवाने गए, ले आते हैं घर में इन राष्ट्रवादियों की दोगुनी बोई कलह और।

और जिन जाटों से आप इनकी पद्दी चढ़ के ऐंठे वो तो इनको सदा से आगे धर के लेते आये। हाँ वो अलग बात है कि इनको ले के आज बहुत से जाटों के यहां भी दोहरे स्टैण्डर्ड हो रखे, कि मर्द तो इनका विरोध करेंगे परन्तु औरतें इनको घर की बैक एंट्री से भर-भर थाल अपना घर-कमाई इनको धकाएंगी। इसीलिए तो यह बिरान-माटी हो रखी जाट की। खैर, जाट का यह पहलु फिर कभी।

अब प्रोफेसरी का आरक्षण रद्द होने के बाद आपको जरूर ऐसा महसूस हो रहा होगा कि "गंगा गए गंगाराम, जमना गए जमनादास, ना गंगा मिली ना जमना यानि राष्ट्रवादी तो कभी आपका था ही नहीं, इनकी पद्दी चढ़ के खुद को जाट से ऊपर साबित करने के चककर में जाट से भी संबंध खट्टे कर लिए। गौर फरमाने की बात है कि जाट ने तो आपको पहले से ही बराबर का भाई माना हुआ था, और जिनकी पद्दी आप लोग चढ़ते हो, उनको जाट ने कभी मुंह ना लगाया। जाट के लिए तो सब बराबर रहे हैं; एक हाथ लिया है तो दूजे हाथ दिया है।

खैर कोई नहीं, जाट का तो सिम्पल सा "एक हाथ ले, दूजे हाथ दे" का फंडा रहा है, जल्दी ही भूल जायेगा; बशर्ते कि अब आप लोग आपके समाजों के इन राष्ट्रवादियों की पद्दी चढ़े लीडरों को छोड़ दें। और इनको चेतावनी दे-दें कि अगली बार बोलें तो जुबान संभाल के बोलें। और अब तो वैसे भी ऐसे नेताओं को परखने का एक उद्देश्य भी आपके हाथ आ गया है। जो भी सैनी-आर्य-यादव जैसे बोलता दिखे साफ़ बोलो कि जाओ पहले आपकी ही सरकार द्वारा छीना गया ओबीसी का प्रोफेसरी आरक्षण बहाल कराओ, फिर आगे सुनेंगे आपकी।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 5 June 2016

बेचारे फेंकू जी, कहाँ से चले थे और कहाँ पहुँच गए!

कहते थे नेशनल हाइवेज के दोनों ओर 1-1 किलोमीटर के दायरे में इंडस्ट्रियल जोन (Industrial Zone) बनाएंगे परन्तु यह क्या इंडस्ट्रियल ज़ोन बनाते-बनाते हरयाणा में तो कम-से-कम "धारा 144 जोन" बना दिए|

समझ में आता है कि क्यों वर्ल्डबैंक (Worldbank) ने भारत से विकासशील देश का तमगा भी छीन लिया और लोअर मिडिल इकॉनमी (Lower Middle Economy) में आने वाले पाकिस्तान और घाना जैसे देशों की सूची में डाल दिया| महाशय, जबसे पीएम बने वास्कोडिगामा बने घूम रहे, जरा इतनी सी भी तो अक्ल इस्तेमाल कर लो कि विदेशी निवेश और व्यापारियों को बुलाने से पहले, उनको पॉलिटिकली और सोशली स्टेबल समाज का एनवायरनमेंट भी देना होता है|

या तो खुद को डेड स्याणे समझते हैं या फिर विदेशियों को फद्दु समझते हैं कि वो बाकी कुछ नहीं देखेंगे और इनकी वाक्पटुता मात्र से ही मोहित होकर खींचे चले आएंगे, इन्वेस्ट करने| अंधभक्तों को इतना भी अतिआत्मविश्वास नहीं भरना चाहिए था फेंकू में कि वो पूरी दुनिया को ही अपना अंधभक्त समझने लग गए|
अभी टीवी पर देख रहा था, हरयाणा में नेशनल हाइवेज के दोनों और धारा 144 लागू होने से ढाबों-रेस्तरां सबका कारोबार ठप्प पड़ा है और अगले 15 दिन तो कम-से-कम ठप्प ही रहेगा क्योंकि जाट 15 दिन तक सरकार का इंतज़ार करेंगे और फिर रूख देखकर अगली कार्यवाही करेंगे| अब इस दौरान होने वाले व्यापारियों के नुकसान का दोषी किसको ठहराऊं, मोदी-खट्टर की सरकार को, आरएसएस के रवैये को या भिवानी वाले उन मुरारी लाल गुप्ता को जिनकी PIL के चलते जाट आरक्षण पर स्टे लगा?

इसको हरयाणा में कहते हैं कि "घणी स्याणी दो बार पोया करै!"

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 1 June 2016

जाट को नाराज करके बीजेपी को कहीं पछताना ना पड़ जाए!

आंकड़ों के आधारित बात करूँगा| हिंदुत्व के एजेंडा पे सवार बीजेपी को आजतक सबसे ज्यादा सफलता उन्हीं राज्यों में मिली है जहां जाट बाहुलता में है, जैसे कि राजस्थान-मध्यप्रदेश-वेस्ट यूपी-दिल्ली-पंजाब| यहां तक कि गुजरात में भी जाट समुदाय अच्छी-खासी तादात में है और वहाँ के पटेलों में भी बहुत बड़ा हिस्सा खुद को जाटों से जोड़ता है|

इसके विपरीत बिहार-बंगाल-तमिलनाडु-केरल-महाराष्ट्र आदि राज्यों में जहां हिन्दू बहुलता तो है परन्तु जाट बहुलता नहीं वहाँ बीजेपी को कोई मुंह नहीं लगा रहा| महाराष्ट्र में तो संघ का मुख्यालय होना भी आजतक बीजेपी को वहाँ पूर्ण-बहुमत नहीं दिलवा सका| उत्तर प्रदेश में विगत लोकसभा चुनाव में जहां बाकी हिन्दुओं का सिर्फ 30-31% वोट मिला तो जाट का 77% और यही वजह रही कि अकेले यूपी से बीजेपी को 80 में 72 सीटें मिली| यह वही बीजेपी है जो कभी चौधरी चरण सिंह के जमाने में वेस्ट यूपी में एक लोकसभा सीट के लिए भी तरस जाया करती थी, जिसके अटल बिहारी वाजपेयी की राजा महेंद्रप्रताप मथुरा से जमानत जप्त करवा दिया करते थे|

हरयाणा में भी जाटों ने कभी बीजेपी को निशाने पर ले के वोट नहीं किया, कि हम ऐसे को वोट करें, जिससे बीजेपी वाला कैंडिडेट हारे| हरयाणा विधानसभा चुनाव में बावजूद पीएम मोदी द्वारा परोक्ष रूप से नॉन-जाट सीएम की बात कहे जाने को भी जाटों ने इसको इतना सीरियसली नहीं लिया था, जितना इन्होनें आज के दिन बना दिया| वर्ना जो जाट को सीधे निशाने पे धरता है उसका हश्र हिसार लोकसभा सीट पे कुलदीप बिश्नोई भुगत चुके हैं| हिसार की भांति ही सिरसा-भिवानी-रोहतक-फरीदाबाद-सोनीपत-कुरुक्षेत्र-करनाल ऐसी लोकसभा सीटें हैं कि जाटों ने जिद्द पे रख के वोटिंग करी तो इन सीटों पे जिसको चाहें उसको जितवा दें|

सच कहूं तो व्यक्तिगत तौर पर मैंने यह बात कभी नोट ही नहीं करी कि नॉन-जाट हरयाणवियों के लिए नॉन-जाट सीएम इतना बड़ा मसला था कि वो ऐसे बावले हुए जा रहे हैं जैसे कोई अमृतकलश मिल गया हो| जबकि मैंने बनारसीदास गुप्ता, भजनलाल तक को सीएम देखा है हरयाणा में| भगवत दयाल शर्मा और राव बीरेंदर सिंह मेरे जन्म से पहले ऐसे सीएम हो के जा चुके जो नॉन-जाट थे| और मेरी वही सामान्य प्रतिक्रिया अब है जब खट्टर सीएम है| तो फिर ऐसे में इनका यह जाट बनाम नॉन-जाट का ड्रामा समझ से परे की बात है|

और ऐसा भी नहीं है कि जो ऊपर आंकड़े गिनवाए और बीजेपी को उसकी ताकत किधर-किधर है दिखाई, इसके बारे बीजेपी वाले खुद नहीं जानते होंगे| परन्तु फिर भी यह जाट के पीछे हाथ धो के पड़े हैं तो इनके द्वारा इतना बड़ा रिस्क लेने की कोई तो वजह जरूर है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 31 May 2016

जाट आरक्षण के मुद्दे पर फेसबुक पर एक मनुवादी से कुछ इस तरह हुई बहस!

मैंने नौकरियों के साथ मंदिर की कमाई में भी आरक्षण की बात कही, तो वो कैसे धरती भी बंटवाने की बात करने लगा और फिर कैसे मैंने उसको निरुत्तर किया, पढ़ें नीचे की चैट|

मनुवादी: न्यूं बता किस चीज की कमी है थारे धोरै? हरयाणा की या-ता करके धर दी थमनैं| थारे गेल न्यूं हो रह्या है अपनी लासी ने कोई खाटी नहीं बताया करदा| तो थम अपनी गलती तो मानो कोनी| हरयाणा का बेडा गर्क करके धर दिया तुमने| इब जदे किमें करते दिखो, थारे तो जूत मारे सरकार, जद बेरा लागे थामने| और रही दान-चंदे की बात इब हमें वो कोन्या रह रहे, हमनें भीख मांगन की आदत कोन्या, जदे हम इसके खिलाफ सां| ना तो आरक्षण माँगा हमने, अपने दम पर भरोसा है सरकारी ना सही, प्राइवेट सही|

मैं: तेरे दर्द से सहानुभूति है मुझे, परन्तु आरक्षण तो अब खत्म होवे कोनी| बल्कि अब तो मंदिरों की कमाई और नौकरियों में भी आरक्षण लेंगे; क्योंकि वो कोई तुम मामा के यहां से ना लाये, यह सारी पब्लिक की साझी प्रॉपर्टी हैं, सबके पैसे से बनी हुई| अत: इनकी कमाई भी सबकी होनी चाहिए|

मनुवादी: ठीक बात है, धरती भी बराबर बॉटनी चाहिए, के मामा के तें लयाए थे| बराबर के हक का हम भी स्वागत करेंगे, हिम्मत है तो बात कर|

मैं: ना मामा के तें तो नहीं ल्याए थे, हाड-तोड़ खून-पसीना बहा के हमारे बुजुर्गों ने जंगल-पत्थर तोड़ के समतल बनाई थी और उस जमाने में भी धरती के टैक्स (माल-दरखास) भरे थे जब लोग टैक्स से डर के धरती लेते भी नहीं थे| तो धरती में तुम किस मुंह से हिस्सा मांगोंगे? जाट ने सबसे ज्यादा और सबसे कटिबद्धता से मुग़ल-अंग्रेज और अब सबके जमानों में माल-दरखास भरी, तभी तो कहावत चली कि, "जमीन जट्ट दी माँ, हुंदी ए!" जाट भूखे सो जाया करते, पर माल-दरखास पुगाया करते|
और मंदिर में तो सब दान करते हैं, इसलिए मंदिर और इनकी कमाई बाई-डिफ़ॉल्ट पब्लिक की है|
और धरती भी तो जनसंख्या की डबल से भी ज्यादा है तुम्हारी बिरादरी के पास? तुम हरयाणा में जनसंख्या में तो सिर्फ 6-7% और जमीन तुम्हारे पास 18-20%, पहले यह तो सोच लिया है ना कि मंदिर की कमाई के साथ-साथ यह जनसंख्या से तीन-गुना ज्यादा जो जमीन लिए बैठे हो इसको भी बंटवाने को खुद तो तैयार हो ना?

मनुवादी: बात बराबरी की कर, हर जवाब बराबर का मिलेगा|

मैं: हाँ, बराबरी की मेहनत के हिसाब से और टैक्स किसने भरे उसके हिसाब से ही तो होगी? तुमने कौनसे मंदिर के टैक्स घर से भरे हैं, चंदे से भरे होते हैं वो? और कौनसे मंदिर सिर्फ तुम्हारी कमाई से बनाए तुमने, जनता के पैसे के बने हैं सारे|
जबकि जाटों ने धरती अपनी मेहनत अपने पैसे से बनाई या खरीदी है, जाट ने अकेले ने अपनी कमाई से टैक्स भरे हैं धरती के; मंदिरों की तरह कोई पब्लिक ने दान ना दिया धरती खरीदने के लिए| तो फिर किस हक़ से धरती लेगा या बंटवाएगा?

मनुवादी: तेरे जैसों को समाज तोड़ने के अलावा आता ही क्या है? घुमा फिरा के बात ना कर|

मैं: मैंने तो टू दी पॉइंट बात करी है, सुनके तुम घूम गए हो तो मैं क्या करूँ?

मनुवादी: इनबॉक्स में बात कर|

मैं: पब्लिक डिबेट है, पब्लिक में बोलो जो बोलना है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 30 May 2016

मेरे सेक्युलरिज्म में और अंधभक्तों के सेक्युलरिज्म में अंतर है!

1) मैं सर छोटूराम, चौधरी चरण सिंह, चौधरी देवीलाल, बाबा महेंद्र सिंह टिकैत वाले सेक्युलरिज्म का अनुयायी हूँ, जबकि अंधभक्त लाल कृष्ण अडवाणी, सुबर्मण्यम स्वामी, मुरलीमनोहर जोशी, बाल ठाकरे आदि वाले सेक्युलरिज्म के अनुयायी हैं|
2) मेरे सेक्युलरिज्म में आम से ले ख़ास आदमी तक हर कोई सेक्युलर हो सकता है, परन्तु अन्धभक्तमण्डली में सिर्फ इनके नेता सेक्युलर हो सकते हैं, यह खुद नहीं| उदाहरण के तौर पर लाल कृष्ण आडवाणी अपनी भती...जी मुस्लिम को ब्याह सकता है, सुबर्मण्यम स्वामी अपनी बेटी मुस्लिम को ब्याह सकता है; और इसके बावजूद भी यह इनके निर्विरोध नेता बने रह सकते हैं परन्तु इनके चेले-चपाटे नहीं|
3) मेरे सेक्युलरिज्म में सर छोटूराम मुस्लिम-सिख-हिन्दू के साथ मिलके ख़ुशी से सरकार बनाते हैं जबकि अंधभक्तों वाले सेक्युलरिज्म में यह मुस्लिमों संग सरकार बनाएंगे जरूर परन्तु मजबूरी का ढोंग जता के| जैसे श्यामाप्रसाद मुखर्जी बंगाल प्रान्त में मुस्लिम लीग के सहयोग से वहाँ के उप-मुख्यमंत्री रहे| अंग्रेजों को छह-छह माफीनामे लिख के देने वाले इनके तथाकथित वीर सावरकर की हिन्दू महासभा ने जब सिंध में मुस्लिम लीग के साथ मिलके सरकार बनाई तो राजनैतिक मजबूरी बताया| और अब महबूबा मुफ़्ती से जो इनकी मोहब्ब्त है वो तो जग जाहिर है ही|
4) मेरे जैसे सेक्युलर सबके ब्याह-शादी के रिवाजों को सही बताएँगे; परन्तु अंधभक्त दक्षिण भारत में हिन्दुओं के यहां ही बहन-बुआ की बेटी से ब्याह का रिवाज होने के बावजूद भी मुस्लिमों के यहां ऐसे रिवाज होने पर विरोध जताएंगे|
5) सर छोटूराम जैसे सेक्युलर, किसी दूसरे की राजनैतिक-सामाजिक स्वैच्छा पर कभी भी ऊँगली नहीं उठाएंगे, जबकि अंधभक्त खुद मुस्लिम लीग से मिलके सरकारें बनाने पर भी सर छोटूराम को "छोटुखां" कहने से बाज नहीं आएंगे|
6) मेरे जैसे सेक्युलर बाबा महेंद्र सिंह टिकैत की भांति एक ही स्टेज से "अल्लाह-हु-अकबर" और "हर-हर महादेव" के नारे लगवाएंगे और अंधभक्त पढ़े-लिखे हिन्दुओं को भी मुस्लिमों का डर दिखा के साम्प्रदायिकता बढ़ाएंगे|
7) मेरे जैसे सेक्युलर चौधरी चरण सिंह की भांति हिन्दू-मुस्लिम एकता की राजनीति चलाएंगे, अंधभक्त फिर भी खीज में उनको सिर्फ किसानों का या छोटी जाति का नेता बताएँगे|

बस और कितना गुणगान करूँ अंधभक्तों की माया का, इनको तो बस एक थ्योरी आती है कि जो कोई इनसे आगे बढ़ने लगे या इनसे ज्यादा पब्लिक फिगर बने, तो उल्टे-सीधे इल्जाम लगा के, उल्टे-सीधे बोल बोल के उसकी इमेज को धरासाई करने करने लग जाओ| कॉर्पोरेट और व्यापार जगत में एक वर्ड होता है "हेल्थी कम्पटीशन" यानि बिना दूसरे की इमेज को, ब्रांड को नुकसान किये, उसपे बिना कोई ऊँगली उठाये, अपना सामान बेचो; आपके प्रोडक्ट में क्वालिटी होगी तो मार्किट अपने आप पा लेगा| परन्तु राजनीति के क्षेत्र में अंधभक्तों का "हेल्थी कम्पटीशन" से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 29 May 2016

एक चुप सौ को हरावे; जाट अपने खौफ के इफ़ेक्ट और इम्पैक्ट को समझें और चुप रहें व् सरकार को अपना काम करने दें!

सरकार क्रॉस-रोड पर है| जाट आरक्षण पर हाईकोर्ट में स्टे अपेक्षित था, इसमें कुछ भी अप्रत्याशित नहीं आया है| सरकार ने कानून बना के दिया है, सरकार ही डिफेंड करेगी| इसलिए इस वक्त जाट समाज को चुप रह कर, कानूनी प्रक्रिया के पूरा होने तक का इंतज़ार करना चाहिए|

वैसे भी जिस प्रकार से जाटों द्वारा दोबारा से आंदोलन की घोषणा कर देने मात्र से ही सरकार के हाथ-पांव फूल गए हैं, यह साबित करता है कि सरकार खुद जल्दी से इस स्टे का निबटारा करवाना चाहेगी| हरयाणा के आधे के लगभग जिलों में रातों-रात आनन-फानन में RAF, CRPF, आर्मी की टुकड़ियां बुलवा लेना, यहां तक कि मूनक नहर पर भी RAF तैनात कर देना, सरकार के भीतर जाटों का खौफ दिखाता है|

इसका तीसरा पहलु भी गौर फरमाएं कि आखिर क्यों राजकुमार सैनी वाले कारतूस के फुस्स होने के बाद अब बब्बूगोस्से की शक्ल और हांडे से पेट वाले गुलगुले-पिलपिले से सूअर की तरह उठी ठोडी वाले करनाल के एम.पी. अश्वनी चोपड़ा से बार-बार उकसाऊ ब्यान दिलवाए जा रहे हैं? इशारा साफ़ है संघ और भाजपा हरयाणा में फिर से दंगे चाहते हैं, हमारे प्रदेश की शांति को खा जाना चाहते हैं| और इस बार इनकी योजना को बिना कोई रिएक्शन दिए फेल किया जाए तो इनका मनोबल, आत्मविश्वास तो टूटेगा ही साथ ही यह हीन-भावना और साइकोलॉजिकल प्रेशर में भी आ जायेंगे| और हर प्रकार की मार से यह मार कहीं ज्यादा बड़ी होती है|

चौथा पहलु यह भी समझें कि सरकार और हरयाणा पुलिस के डी.जी.पी. जाटों द्वारा दोबारा से आंदोलन की घोषणा मात्र से कितने असहाय दिख रहे हैं जो बयान दे रहे हैं कि उपद्रव-आगजनी और लूटपाट करने वाले को गोली मारने का जनता को कानून अधिकार देता है| मतलब साफ़ है यह लोग पहले ही हाथ खड़े कर गए हैं कि जाट दोबारा से चढ़ आये तो हमारी तरफ से सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं, अपनी रक्षा खुद कर लेना|

हरयाणा के डीजीपी साहब, आप यह कह के कि "उपद्रवी-दंगाई-आगजनी-लूटपाट करने वालों को जनता को गोली मारने का कानून हक देता है!" की बात कह कर ट्रेंड-कबूतर मंडली और राजकुमार सैनी की ब्रिगेड की हौंसला अफजाई कर रहे थे या जाटों को दंगाइयों (क्योंकि फरवरी में मुख्यत: दंगाई ट्रेंड-कबूतर और ब्रिगेड वाले ही थे) को गोली से उड़ाने की खुली छूट दे रहे थे? काश, डीजीपी साहब अपनी बात का इतना पक्ष भी स्पष्ट कर जाते तो मुझे समझने में और आसानी रहती|

खैर, मूल बात यही है कि जाट अगर इस खौफ से आगे खौफ दिखाएंगे तो डर में सरकार पागल भी हो सकती है और पागल हुआ इंसान हो, जानवर हो या सरकार वो पलटवार एक ही उद्देश्य मात्र से करते हैं और वह है स्व-अस्तित्व और इज्जत की रक्षा| इसलिए जाट पहले से इन्सटाल्ड अपने खौफ के इफ़ेक्ट और इम्पैक्ट को समझें और धैर्य धारें|

आपका इतना मात्र बोल देना कि फिर से आंदोलन करेंगे, सरकार पर वैसा ही असर कर रहा है जैसे आपके पुरखे "दादा ओडिन" उर्फ़ "शिवजी भगवान" जब तीसरी आँख खोल देते थे तो तब होता था| तो जब भृकुटि तानने मात्र से जहां काम बनता हो, वहाँ जेठ की लू-धूल में क्यों शरीर जलाओ, सड़कों पे जूती-चप्पल घिसाओ| बैठकों-चौपालों में शांति से टी.वी. लगा के आपके पक्ष के लिए कोर्टों में लड़ रही सरकार और वकीलों की कार्यवाही देखो और हुक्के की गुड़गुड़ाहट लेते रहो|

सरकार-पुलिस हाथ खड़े करें, या चौपड़ा जैसे चिकने बब्बूगोस्से अपने मुंह से गोस्से से फेंकें, इनको दरकिनार करते हुए जाट को समझदारी और सूझबूझ का परिचय देना होगा| और अपने पुरखों द्वारा जंगल-पत्थर-रेई-झाड़ साफ़ करके समतल बना, उपजाऊ बना इतनी हरी-भरी बनाई धरती कि जिससे इसका नाम ही हरयाणा पड़ा, को संजों के रखने की सबसे पहली जिम्मेदारी बड़ी संजीदगी से निभानी होगी|

वैसे भी और जैसे ऊपर कहा इस वक्त सरकार क्रॉस-रॉड पर खड़ी है, अपनी ऊर्जा, जनता का पैसा बेकार की उन चीजों पर खर्च कर रही है, जिसकी जनता इनसे उम्मीद भी नहीं करती| पठानकोठ में मात्र 2-3 दिन के ऑपरेशन का खर्च 400 करोड़ रूपये आया था तो सोचो 5 जून को आंदोलन होगा भी कि नहीं, फिर भी घोषणा मात्र से ही सरकार ने हर जिले में 4-4 फ़ोर्स की टुकड़ियों के हिसाब से 30-35 टुकड़ियां यानि करीब 3500 से ले 4000 सैनिक हरयाणा में बुला डाले हैं| तो ऐसे में सरकार खुद भी नहीं चाहेगी कि जनता के टैक्स का पैसा फ़ौज-फ़ोर्स को यहां डाले रखने में ज्याया करती रहे| अत: इस बार कोर्ट में जवाब देने की जल्दी जाट से ज्यादा सरकार को रहेगी|

बोलो "दादा ओडिन जी महाराज" उर्फ़ "भोले शंकर" की जय!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक