Monday, 17 February 2020

इतिहास के झरोखे से: सन 1849 से पहले अधिकतर पंजाब का नाम "डेरा जाट" रहा है!

Imperial Gazetteer of India, v. 11, p. 270. के अनुसार आधे से ज्यादा आधुनिक पंजाब का लाहौर-अमृतसर से ले मुल्तान-सिरसा तक 525 गुणा 80 स्क्वायर-किलोमीटर का एरिया "डेरा-जाट" सल्तनत यानि स्टेट कहलाता आया है| 1849 में जब महाराजा रणजीत सिंह जी के मरणोपरांत उनके राज को ब्रिटिश राज में मिलाया गया तो तब इस भूभाग का नाम ऑफिसियल रिकार्ड्स में "डेरा जाट" दर्ज हुआ है|

इसको बसाने वाले थे मलिक शोहराब दोदाई जी जाट| Imperial Gazetteer of India, v. 11, p. 270. के अनुसार यह बात इतिहास में अमर-तौर पर दर्ज है, इस पन्ने की कॉपी पोस्ट में बतौरे-सबूत-पेशे-खिदमत है| यह सत्यापित करता है कि "डेरा जाट" असल इतिहास है, गंगा से ले जमना-राखीगढ़ी-सतलुज-झेलम-चिनाब-रावी से होता हुआ सुलेमान पर्वत तक बिखरा पड़ा है|

पगड़ी संभाल जट्टा, इतिहासां नूं खंगाल जट्टा,
किवें रुल्या जांदा ए, ओ कित्थे टूरया जांदा ए!
इतिहासां दे वेहड़े बोलदे, तेरे ही खेड़े बोलदे,
आजा संग मेली, झाँके इतिहासां दी राक्खां ते| 

विशेष: "कुत्ते को मार गई बिजली और मिराड़ को देखे और कुकावे-ही-कुकावे" की तर्ज पर "जातिवाद मत फैलाओ" की रट्ट लगाने वालो, यह बताओ मेरे पुरखों का यह स्वर्णिम इतिहास कहाँ छुपाऊं? और क्यों-किसलिए ना इसको आज की पीढ़ी को बताऊँ? क्या यह बताने भर से तुम मुझे जातिवादी कहोगे? यह इतिहास साबित करता है कि जाति के नाम से जब पूरी-की-पूरी स्टेट तक के नाम रहे हैं तो जाति तो कभी कोई मसला रही ही नहीं इतिहास में| यह तो अब जानबूझकर बनाई जा रही है ताकि ऐसे इतिहासों को छुपाकर, बदनीयती साधी जा सकें|

Source: https://dsal.uchicago.edu/reference/gazetteer/pager.html?objectid=DS405.1.I34_V11_276.gif

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Tuesday, 11 February 2020

आज मेरी एक फेसबुक फ्रेंडलिस्ट में 4402 फ्रेंड्स शो हो रहे हैं!

आज मेरी एक फेसबुक फ्रेंडलिस्ट में 4402 फ्रेंड्स शो हो रहे हैं (दूसरी प्रोफाइल पहले से ही 5000 की लिमिट पार कर 2900 फोल्लोवेर्स पर चल रही है):

4402 को देख, इस 4400 सीरीज से बचपन का कनेक्शन कुछ यूँ याद आया कि जिंद-गोहाना-सोनीपत, जिंद-ढिगाणा वाया निडाणा रुट पर हमारी स्टूडेंट लाइफ के वक्त चलने वाली लगभग तमाम बसों की नंबर सीरीज दिमाग में घूम गई|

जिंद-ढिगाणा वाया निडाणा रूट पर चलने वाली रोडवेज नंबर HR16 - 4408 याद हो आई| इसके ड्राइवर नेग से दादा लगते थे परन्तु भंडर उपनाम से फेमस थे, असली नाम महा सिंह था| इस बस की नाईट-ड्यूटी खुंगा-कोठी होती थी जबकि ढिगाणा में नाईट का बसेरा HR 16 - 4400 का होता था, ड्राइवर आते थे दादा भल्ले सिंह| इनकी ख़ास बात जो मुझे बहुत प्रभावित करती थी वह यह कि यह रोज सुबह बस के शीशे ऐसे धोते थे कि उनमें चमक ऐसे पलके मारती आती जितनी तो आप अपने वार्डरोब या बाथरूम के शीशों में ही ला सकते हो|

जिंद-गोहाना-सोनीपत रुट पर उन दिनों 4401, 4402, 4403, 4404 से ले 4410 व् 3881 से 3889 सीरीज की जिंद डिपो की बसें ख़ास चलती थी|

मुझे जिंद-ढिगाणा रुट का सबसे शरीफ व् नेक बालक होने का ख़िताब हासिल रहा रोडवेज व् जब प्राइवेट बस आई तो प्राइवेट ड्राइवर-कंडक्टरों से| मुंह पर नहीं कहते थे परन्तु एक बार छोटा भाई बसपास लेने गया तो कंडक्टर के पास उसको मेरा बसपास बना भी दिख गया (फोटो व् नाम देख के); तो बोला कि यह भी दे दो यह मेरे बड़े भाई का है| छोटा भाई स्टूडेंट लाइफ में थोड़ा नटखट रहा है, जिसके चलते कंडक्टर ने अचरज करते हुए कहा कि, "यह और तेरा भाई; कहाँ यह बस में सबसे शाँत व् सीधा रहने वाला और कहाँ तू बस की छत पर चढ़े बिना तेरा सफर पूरा नहीं होता और जब देखो तेरे हाथों में बिंडे-डंडे मिलते हैं'| यह किस्सा छोटे भाई ने खुद सुनाया था मुझे|

जब भी यह किस्सा याद आता है तो हँसी बन आती है चेहरे पर|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

केजरीवाल की तीसरी जीत का राज व् रवीश कुमार द्वारा स्थानीय हरयाणवियों की उदारता की तारीफ़!

स्थानीय हरयाणवी यानि दिल्ली-हरयाणा-वेस्ट-यूपी खासतौर से|

केजरीवाल दिल्ली में आये पूर्वोत्तर के दलित-महादलित-ओबीसी को यह बात समझाये रखने में कामयाब होते हैं कि बीजेपी-आरएसएस उन्हीं लोगों का समूह है, जिनके वर्णीय व् जातीय व्यवस्था के नश्लभेदी उत्पीड़न के चलते आप लोग मात्र बेसिक दिहाड़ी हेतु भी हरयाणा-पंजाब-दिल्ली-वेस्ट यूपी चले आते हो| इनको वोट देना मतलब उस व्यवस्था को यहाँ भी ले आना| मैंने अक्सर बहुत से हरयाणवी लीडर्स को भी यह बात कही है कि आप हरयाणा के पूर्वोत्तर के माईग्रेंट्स को यह बात समझाने में जिस दिन कामयाब हो गए, उस दिन बीजेपी-आरएसएस यहाँ एक सीट लेने तक को तो क्या किसी पोलिंग स्टेशन के आगे अपना बूथ लगाने तक को तरसेगी|

नोट कीजिये कि हरयाणा-पंजाब का कोई भी दलित-स्वर्ण मात्र बेसिक दिहाड़ी हेतु कभी इस क्षेत्र से बाहर गया हो, ढूंढें से भी ना मिले शायद| यहाँ पूर्वोत्तर के स्तर की वर्णीय व् जातीय ज्यादतियाँ कभी नहीं रही| यहाँ दलित हैं परन्तु महादलित नहीं| और यह सिर्फ इसलिए है क्योंकि पूर्वोत्तर में जमींदारी "सामंती यानि वर्ण-जाति भेद वाली चलती है" जबकि हमारे यहाँ खापों की खापोलॉजी के चलते जमींदारी उदारवाद वाली चलती आई, जिसमें "नौकर, नौकर नहीं बल्कि सीरी-साझी यानि काम का ही नहीं अपितु सुख-दुःख का भी पार्टनर माना जाता है, उसको नौकर नहीं अपितु नेग से बोला जाता है"| हाँ कुछ-एक प्रतिशत को यहाँ भी वर्णीय दम्भ का कीड़ा वक्त-बेवक्त डसता रहता है परन्तु ऐसे लोगों की संख्या कम है|

अब बात कल शाम रवीश कुमार, NDTV वाला की| वाले की जगह वाला इसलिए क्योंकि ज्यादा आदर इस इंसान को मैं दो वजहों से नहीं देता, एक तो खापों के बेवजह व् गैरजरूरी मीडिया ट्रायल्स की जब-जब बात आएगी, इस आदमी के प्रोग्राम्स ही सबसे ज्यादा मिलेंगे व् दूसरा इसलिए क्योंकि एक 1875 में आया था "जाट जी" व् "जाट देवता" कहता-लिखता गुजरात से; उसके इस सराहे का असर यह हुआ कि उसके पीछे-पीछे आज हर आर्य-समाजी गुरुकुल में कच्छाधारी गुर्गे घुस आये हैं| हो सके तो अपने पुरखों की दान की जमीनों पर उनके ही पैसों से बने गुरुकुलों से इनकी सेंधमारी रोकिये व् इनको आधुनिक स्कूल-कालेजों में तब्दील करवाने की मुहीम चलवाई जाए, ताकि यह अंधभक्ति-कटटरता-नफरत के अड्डे बनने से बचाये जा सकें|

खैर, रवीश कुमार यहाँ के स्थानीय लोगों (उसने सिर्फ जाट-गुज्जर का नाम लिया, जबकि यह उदारता यहाँ की सभी बिरादरियों में है) की जिस उदारता की बात कर रहा था वह इसी खापोलॉजी से आती है| अत: स्थानीय लोग प्रमोट करें अपनी इस उदारता को| मेरे जैसे कुछ-एक को तो दशक से ज्यादा हुआ इसको प्रमोट करते हुए; आप भी कीजिये|

और दूसरी उदारता जिसके चलते स्थानीय हरयाणवियों के यहाँ रवीश कुमार की बनिस्पद यहाँ के गामों तक में माईग्रेंट्स बेख़ौफ़ रहते-बसते हैं उसका मूल जिधर से आता है वह है खापों के पुरखों द्वारा, "धर्म-धोक-ज्योत" में पुरुष का प्रतिनिधित्व नहीं रखने से| हमारे पुरखों के बनाये "दादा नगर खेड़े" धाम देख लीजिये| वह पुरखे मानवता व् जेंडर सेंसिटिविटी के प्रति इतने उदार व् समझदार थे कि इन खेड़ों में मर्द-पुजारी का सिस्टम ही नहीं रखा और ना ही कोई मूर्ती रखी| धोक-ज्योत का 100% प्रतिनिधत्व औरतों को दिया जो कि आजतलक भी कायम है|

कई जगह प्रयास हो रहे हैं इन खेड़ों को मर्दवादी मर्द-पुजारी सिस्टम में ढालने के, कृपया इससे भी सावधान रहिये| औरत को जो 100% प्रतिनिधित्व दे धोक-ज्योत में ऐसी धार्मिक फिलोसोफी पूरे विश्व में सिर्फ और सिर्फ खापोलॉजी की उदारवादी व्यवस्था में ही देखने को मिली है मुझे आज तक| इसको बड़े ही अभिमान-स्वाभिमान व् आदर-मान के साथ सहेजे रखिये|

इसलिए इन दोनों उदारताओं यानि "उदारवादी जमींदारी के सीरी-साझी कल्चर" व् "दादा नगर खेड़ों की मर्द-पुजारी व् मूर्ती से रहित व्यवस्था" को जारी रखिये एक किनशिप की भाँति व् अग्रिम पीढ़ियों को इसको ज्यों-का-त्यों पास कीजिये| बल्कि अब इन दोनों कॉन्सेप्ट्स के चर्चे इतने व्यापक होने चाहियें कि कोई मस्ताया हुआ तो बेशक फंडियों के बकहावे में आवे परन्तु जानते-बूझते या नादानी में इनके फंडों में ना फंसे|

क्योंकि इस उदारता के साइड-इफेक्ट्स कभी ना भूलें:

साइड इफ़ेक्ट नंबर एक - पंजाब में हुआ जून 1984
साइड इफ़ेक्ट नंबर दो - हरयाणा में हुआ फरवरी 2016
साइड इफ़ेक्ट नंबर तीन - पुरखों की जमीनों पर बने गुरुकुलों में कच्छधारियों की घुसपैठ

इसलिए अपनी प्रसंशा सुनते रहिये परन्तु फिर सतर्क भी डबल रहिये|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Delhi Assembly Polls Result 11/02/2020

यह दूसरों द्वारा बनाई गई नाम और ब्रांड की टैगिंग व् क्रेडिट चोरी करके खाने वाले लोग हैं, इसीलिए हमेशा मंजिल की आखिरी सीढ़ी (हरयाणवी में ऊपरला पैड़ा) तक पहुँचते ही लुढ़कते हुए धड़ाम तरले पैड़े पर आ पड़ते हैं| यह किसी और चीज का नहीं अपितु उसी नियत का इनको छलावा रहता है जिसके चलते यह लोगों को छल-छल कर सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ते जाते हैं परन्तु ऊपरले पैड़े पर चढ़ते ही वही ढाक के तीन पात| ना इनके पुरखे सुधरे ना इन्होनें सुधारना खुद को|

चोखा रांद कटी, नहीं तो इनकी जीत का जश्न 'जून 1984' व् 'फरवरी 2016' से भी क्रूर होना था| बदले की मानसिकता वाले लोग हैं यह, माफ़ करना नहीं जानते इसीलिए साफ़ हो जाते हैं खुद ही| बस इनको शिखर तक चढ़ने का मौका देना चाहिए| यह चढ़ना जानते हैं परन्तु ठहरना-जमना नहीं| शाहीन बाग़ इन्होनें इतना उछाला कि ज्यों महलों को छोड़ खुद ही चला हो "शाह-इन-बाग़" (जंगल) में बसने| अब इसके बाद इनकी ढलान ही ढलान चलेगी| मोहर हरयाणा-महाराष्ट्र ने लगा दी थी, उसपे सील आज दिल्ली ने लगा दी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 7 February 2020

लोकलस के ऊपर बाहरी ऑफिसर्स लगाना, गुलामों का कल्चर होता है!


आईएसएस व् आईपीएस सर्विस अंग्रेजों ने इसलिए शुरू की थी ताकि उनके बंदे ही इन पोस्टों पर बैठें व् हर जिले-नगर की कार्यवाही पर नजर रखते हुए, उनको रिपोर्ट करें| और यही मॉडल आज चल रहा है, जिला होगा पंजाब का और वहां अफसर लगा हुआ है गुजरात का; जिसको ना वहां के कल्चर की समझ ना लोगो के मिजाज की|

यहाँ, फ्रांस में रीजन, डिपार्टमेंट, अरोडिस्मों व् केंटन होती हैं; इंडियन सिस्टम से तुलना करो तो क्षेत्र-स्टेट-जिला-तहसील/थाना| यहाँ स्टेट लेवल ऑफिस में वह भी कल्चरल-एक्सचेंज के तहत 5% स्टाफ ही दूसरे राज्य या क्षेत्र का लाया जा सकता है और वह भी क्षेत्र व् स्टेट लेवल ऑफिस तक| अरोडिस्मों व् केंटन लेवल पर अगर उत्तर फ्रांस में साउथ फ्रांस का कोई बंदा लगा दिया जाता है तो विरोध कर देता लोकल एडमिनिस्ट्रेशन ही सबसे पहले| डिस्ट्रिक्ट-तहसील-थाना स्तर पर 100% स्टाफ लोकल यानि उसी जिले-तहसील का पैदा हुआ बंदा/बंदी होगा| यही मॉडल USA-Canada-UK आदि में है|

ना ही यहाँ सीधा आईएसएस व् आईपीएस का कोई एग्जाम होता| जो भी डीसी-एसपी बनेगा, वह विभाग के निचले पदों से प्रमोट होकर आएगा| यानि शुरुवात सबको कांस्टेबल लेवल से करनी होती है, उसके बाद क्रमवार स्क्रीनिंग्स से गुजरते हुए डीसी-एसपी की पोस्ट तक पहुंचा जाता है| और हमारे यहाँ आज भी आईएसएस व् आईपीएस का गुलामों वाला सिस्टम लागू है|

यह दोनों ही चीजें बंद होनी बहुत जरूरी हैं| जिस दिन यह होगा उसी दिन देश वाकई में USA, Canada, UK, France आदि वालों की तरह डेवलप्ड होगा|

अब देखना इस पोस्ट पर एकाध तो इन्हीं देशों में बसा हुआ एनआरआई ही इस पोस्ट को देशद्रोही पोस्ट बताने को दौड़ा चला आएगा, इस हद तक ब्रैनवॉश है बहुत से एनआरआईयों तक का| सुख-सुविधा इन देशों की भोग रहे हैं और इंडिया में इनको गुलामों वाला एडमिनिस्ट्रेशन ही भाता है|

दुआ है कि यह चीजें या तो स्वत:खत्म हो जाएँ अन्यथा आंदोलन करने होंगे ऐसी चीजों के खिलाफ|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

शाहीन-बाग़ धरने को पूर्णरूपेण समर्थन!

फंडियों के बाप की जागीर नहीं है हिंदुस्तान|

और यह खासकर जो 35 बनाम 1 के दंगों के भुगतभोगी हैं यह अपने कन्फूजन दूर कर लें| हरयाणा में हुआ फरवरी 2016 काण्ड इतनी जल्दी भूल गए क्या कि कैसे पुलिस-फ़ौज ला अड़ाई थी 10 दिन से शांतिपूर्ण सड़कों पर बैठों पे? क्या मांग रहे थे तुम; अलग देश, अलग सविंधान, अलग धर्म या मात्र आरक्षण? और सितम्बर 2013 में कुर्बान हो कर भी देख लिया वेस्ट यूपी वालो; क्या मिला? खेतों के मजदूर छिन गए, कारीगर महँगे हो गए और बच्चे आजतक जेलों में सड़ रहे हैं वह अलग| तुम्हारी इकॉनमी की कीमत पर अपनी राजनीति से ले जंगले-बंगले चमकाने वाले लोग हैं यह| 

शाहीन-बाग़ धरने को समर्थन देने पंजाब से आये सिखों को साधुवाद| खापें भी झांकें अपने इतिहास में और हो सके तो समर्थन देवें शाहीन-बाग़ जाकर| याद कीजिये 1947 के वह दंगे जब वेस्ट यूपी के खाप चौधरियों ने दो टूक खबरदार कर दिया था कि यहाँ के मुस्लिम को किसी ने छेड़ा तो हमसे बुरा कोई ना होगा| याद कीजिये किसान-राजनीति की रीढ़ है मुस्लिम समाज| सर छोटूराम से ले सरदार प्रताप सिंह कैरों, चौधरी चरण सिंह व् ताऊ देवीलाल तक की किसान-राजनीति की एक धुर्री मुस्लिम ना होते तो कभी यह किसान-हस्तियां कोई प्रधानमंत्री, कोई उप-प्रधानमंत्री नहीं बनते|

मुस्लिमों के बिना दोबारा किसान राजनीति को उसी बुलंदी तक कोई खड़ा ही करके दिखा दे, इंडिया में जिस बुंदली तक यह ऊपर गिनवाए नाम खड़े कर गए| प्रवेश वर्मा दिखा दे, अनुराग ठाकुर दिखा दे, रमेश बिधूड़ी दिखा दे, जयंत चौधरी, दीपेंदर हुड्डा, दुष्यंत चौटाला, अखिलेश यादव, मायावती जी कोई भी दिखा दे|

अपनी आँखें खोलो, को सत्ता को तोलो| सर छोटूराम कह कर गए हैं, "धर्म से खून बड़ा होता है, धर्म तो इंसान दिन में चाहे तीन बदल ले; परन्तु जो नहीं बदलता वह है कौमी खून"| धर्म-कायदे-कानून आनी-जानी चीज हैं, खून सदियों-जमानों तक वही रहता है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जब अलायन्स करके ही राजनीति करनी है तो सीधा लंदन वालों से करो!

आज़ादी से पहले इंडिया में लंदन के जरिये तीन चैनलों से राजनीति चलती थी| अगर तब के यूनाइटेड पंजाब व् उत्तरी भारत की खासतौर से बात करूँ तो यह थे:

नंबर एक - जैनी
नंबर दो - सनातनी (कांग्रेस-आरएसएस आदि)
नंबर तीन - उदारवादी जमींदार यानि सर छोटूराम व् यूनियनिस्ट पार्टी


इन तीनों में सबसे ज्यादा फायदा सर छोटूराम ने किया, अपने लंदन से सेट किये अलाइंस चैनल के माध्यम से हर वर्ग के इकनोमिक व् सिविल राइट्स मामलों में|

पहले दो चैनल आज भी खुले हैं, यूँ के यूँ चल रहे हैं परन्तु तीसरा चैनल जारी रखने की सर छोटूराम के बाद किसी ने ख़ास जेहमत नहीं उठाई| जबकि उन द्वारा किसान राजनीति की तैयार की गई बिसात पर स्टेट से ले नेशनल लेवल के बड़े-बड़े किसान-राजनीति के पुरोधा सब खेल गए|

आज के दिन इस चैनल को फिर से शुरू करने की सर छोटूराम के जमानों से भी ज्यादा जरूरत आन पड़ी है| क्योंकि आज़ादी के 70 सालों में किसान राजनीति व् इनकी सामाजिक संस्थाओं (जैसे कि खाप) की जो दुर्गति की गई है या हुई है इतनी तो 200 साल के राज में ना कभी अंग्रेजों ने करी और ना उनसे पहले 700 साल के राज में मुस्लिमों ने करी| उन्होंने यातनाएं दी जरूर परन्तु खापों जैसी संस्थाओं को इतना जलील कभी नहीं किया कि कोई खुद को खाप-परिवेश का बताने से ही कतराने लगे|

जब भी गहनता से सोचता हूँ कि क्या-कैसे सम्भव होगा दोबारा किसान राजनीति के दिन वापिस लाना? तो सबसे मजबूत चैनल सर छोटूराम वाला ही नजर आता है| सर छोटूराम की समझ को दाद देता हूँ कि जिसकी जिद्द सी थी कि, "अगर अलायन्स करके ही राजनीति करनी है तो, फंडियों की बजाये सीधा उनसे यानि अंग्रेजों से करूँ; जिनसे खुद फंडी भी अलायन्स में चलता है"| अंग्रेज, जो कम-से-कम तेरे कल्चर-कस्टम में दखल-अंदाजी नहीं करते, फंडी तो दुश्मन ही सबसे बड़ा कल्चर- कस्टम का होता है| फंडी आपकी इकॉनमी से पहले आपके कल्चर-कस्टम को नेस्तोनाबूत करने के माहौल बनाता है; आपको उससे नफरत करनी सिखाता है, उसको हेय दृष्टि से देखना सिखाता है| जबकि एक ख़ास बात और कि फंडी व् अंग्रेज आपस में नीचे-नीचे नफरत भी करते थे जबकि सर छोटूराम को अपनी कोई भी बात अंग्रेजों से मनवानी होती थी तो डंके की चोट पर मनवा लेते थे| याद कीजिये अंग्रेजों से गेहूं के भाव 6 रूपये मन की बजाये 11 रूपये मन करवा लेने का किस्सा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 31 January 2020

जड़ों से कटे ओ जट्टा, सुण वेल्ही वे!

मुझे लाग नहीं तेरे धन-धरती-डेरे-मंडेरे दी,
मैनूं बस इत्ता दस्स के दुनियाँ तैनूं तेरे पुर्ख्यां वांगु अज वी "जाट-देवता" दसदी ए?
भले जल्दी-बल्दी मजबूरी-मतलब च ही बिगोंदी हो, के दुनियाँ तैनूं अज व् "जाट जी" लिखदी ए?

जे नहीं ते, बह्मां च ना जी;
तेरे पुर्ख्यां दे वेडे उजड़े समझ,
जे चाहिदी परसां वांगु कठ्ठी खाट,
ते उन्हां खेड़यां दी मिट्टी च झाँक!

समझ कि ओह अनख तू पीछे छड्ड आई
जेडी तेरे शहरां वाले कोठी-चौक-चुबारयां संग ना आई
ओ अनख जेहड़ी तेरे पेक्क्यां दी हवेलियाँ च चढ़ी मोरनियाँ वांगु लहरां मारदी सी
जा मुड़ उन नगर खेड़यां दी गोहरें और ला उस अनख नूं संग|

नहीं ता जट्टा, बैरी तेरी वट्ट लग वढ़ लेउँ;
कल्चर दे कलरां उधारे नहीं ओ फब्दे जांदी दुनियाँ लग,
एह तो जनमां दी विरासत होंदी ए, जड़-जोड़ ते जुड़े ही मिले,
फुल्ले भगत वांगु ना रुळ, तेरी वखरी अनख वे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 24 January 2020

सौदा-ए-कुछ नी!

आखिर यह बात बार-बार क्यों कहलवाई जा रही है नारनौंद विधायक गौतम जी से? वैसे तो यह बात हर हरयाणवी उसमें भी हरयाणवी बाह्मण व् जाट को तो खासतौर से पकड़ने की जरूरत है|

गौतम जी का शुरू में एक प्रेस-कांफ्रेंस में दर्द झलका, चलो अच्छी बात थी झलका के हुए निफराम| परन्तु बार-बार यह सिलसिला सा ही क्यों बनता जा रहा है? और अबकी बार तो उस पार्टी के विधायकों के बीच बैठकर यह बात कही गई जिन्होनें गौतम जी को टिकट ही नहीं दी और शायद वह पार्टी काफी वक्त से छोड़ी हुई है उन द्वारा? एक तरफ आप शिकायत करते हो कि, "खोपर, और उसका बाबू, इलेक्शन रिजल्ट आते ही गुड़गाम्मा अम्बिएंस मॉल में बीजेपी से जा मिले"? और आप क्या कर रहे हो, उसी बीजेपी के विधायकों के बीच बैठ कर "सौदा-ए-कुछ नी" टाइप की बयानबाजी आगे-से-आगे बढ़ाये जा रहे हैं?

मुश्किल से तो जाट-बाह्मण-दलित-मुस्लिम-सिख व् बहुत से अन्य समुदायों ने एक हो के वोट किये थे अबकी बार की विधानसभा चुनावों में| उसमें भी आम जाट व् बाह्मण का स्पेशल जिक्र इसलिए क्योंकि भड़कने वाला बाह्मण है और जिसपे भड़का हुआ है वह जाट है| आम हरयाणवी जाट व् हरयाणवी बाह्मण के विचारने की बात है कि तुम्हारी यह एकता किसको सबसे ज्यादा अखरी होगी? निःसंदेह गौतम जी जिनके साथ बैठ के इन बयानबाजियों को दोहरा रहे हैं उनको तो कन्फर्म रड़की होगी?

मसा सी बिल्ली के भागों खटटर जैसों की फरसा काण्ड वाली "तेरा गला काट दूंगा" जैसी बदबुद्धि टाइप बदजुबानी के चलते जाट-बाह्मण एक हो के वोट किये थे अन्यथा तो इनको एक ही कौन कर ले और अब इस एकता की जरूरत हेतु पैदा हुई संवेदनशीलता पर क्या यह रोज-रोज के ऐसे बयान पानी नहीं फेर रहे? हो ली जा ली, दुष्यंत के इतना काबू की बात होती तो उसने खुद के गेल ही शपथ दिलवा देनी थी गौतम जी को मंत्री की| परन्तु ऐसा हो जाता तो जाट-बाह्मण एकता और मजबूत होती जो कि बीजेपी-आरएसएस कभी नहीं चाहेंगे| कोई बेशक अभिमन्यु का नाम आगे अड़ाए कि वह नहीं बनने दे रहा| ऐसे नाम तो कवच की भाँति होते हैं आगे अड़ाने को असली वजह बीजेपी-आरएसएस नहीं चाहती थी कि गौतम जी के मंत्री बनने से हरयाणवी जाट-बाह्मणों में मधुरता और बढ़े व् यह और एक होते चले जाएँ|

और ऐसा नहीं होने देने वाले माइंडस किसके और कितके? कुछ गुजराती और बाकी उन्हीं महाराष्ट्री पेशवा चितपावनियों के जो कुछ मेरे हरयाणवी बाह्मण मित्रों की बनिस्पद हरयाणवी बाह्मण को तो बाह्मणों शामिल भी नहीं मानते| बल्कि हरयाणवी मंदरों तक में हरयाणवी बाह्मण को नहीं बैठने दे रहे पुजारियों की पोस्टों पर|
चलो खैर पुजारी पोस्ट इतना बड़ा मसला ना भी हो, क्योंकि पुजारी तो मुश्किल से 10% बाह्मण बेशक बनता हो अन्यथा तो 90% हरयाणवी बाह्मण तो आज भी किसान है, हाळी-पाळी है| और इस 90% का फायदा तभी हो सके है जब किसान हित की योजनाएं बनें| अन्यथा तो देख लो गामों में जा के जितना भी बाह्मण किसान है उसके घरों की हालत किसी जाट-यादव-राजपूत-गुज्जर-सैनी आदि किसान से कोई ज्यादा अच्छी ना मिलनी| दर्द इन 90% को भी है क्योंकि जब से यह सरकार आई है सिर्फ नॉन-बाह्मण किसानों के ही ब्योंत नहीं घटे अपितु इन 90% बाह्मण किसानों के भी घटे हैं|

इसलिए आशा की जाए कि अब यह व्यर्थ का खुद के सुवाद लेने-देने टाइप सिलसिला बंद होवे| वरना खट्टर जैसे फिर सुवाद लेंगे थारे वह "हरयाणवी कंधे से ऊपर-नीचे वाला" ब्यान बोल-बिगो के| समझिये कि कहीं आपको कोई खिलहा तो नहीं रहा? मानता हूँ हरयाणवी जीन्स में अपने सुवाद खुद लेने टाइप की घाव खुद कुरेदने की नकारात्मकता होती है परन्तु हद इतनी भी नहीं हो जानी चाहिए कि "सूत-ना-पूणी और जुलाहे गेल लठ्ठमलठ्ठा" वाली लगने लगे|

विशेष: मुझे देखने को मिलता है कि फंडी-पाखंडियों के भन्डेफोड करने वाली मेरी पोस्टों के चलते लोग यह परसेप्शन बना लेते हैं कि यह तो एक खास समुदाय के खिलाफ है| हाँ, मैं हूँ उस ख़ास समुदाय के खिलाफ जो धर्म के नाम पर समाज में समाज को तोड़ने - बिखेरने - दिमागों में भय भरने - भाई-भाई में घर की घर में हेय-घृणा भरने के फंड-पाखंड-प्रपंच रचते हैं परन्तु किसी जाति के नहीं| और फंडी की कोई जाति नहीं होती वह कहीं भी मिल सकता है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 23 January 2020

समुदाय विशेषों में जमीनों बारे गलत धारणा भरने-भरवाने वाले फंडियों के लिए!

गलत धारणा क्या?: 'तुम, तुम्हारे पुरखे पीढ़ी-दर-पीढ़ी इनकी जमीनों पर मजदूरी करते आये हो तो इसलिए तुमको भी जमीनों में हक मिलने चाहियें|'

अगर हम इन्हीं कारिस्तानियों पर आ गए और तुम्हारे जैसे यह जहरबुझी जुबानों वाले जहर फ़ैलाने लगे तो ना कोई फैक्ट्रियों-दुकानों का मालिक बचेगा और ना कोई मंदिर-डेरों का| क्योंकि फैक्टरियों में हिस्से बारे हर मजदूर को हम तुम्हारा ही लॉजिक पकड़ाएंगे कि 'तुम, तुम्हारे पुरखे पीढ़ी-दर-पीढ़ी फैक्ट्रियों-दुकानों में मजदूरी करते आये हो तो इसलिए तुमको भी फैक्टरियों-कंपनियों-दुकानों में हक मिलने चाहियें|' और मंदिर-डेरे तो हैं ही 100% दानकर्ताओं की प्रॉपर्टी तो उनमें से तो आंदोलन चला के कभी भी हिस्सेदारी क्लेम कर लो|

इसलिए हे फंडियों, इतने भी स्याणे नहीं हो जितने समझते हो| तुम्हारी स्यानपत तभी तक चलती है जब तक जमीनों वाले खामोश हैं| जिस दिन धुन में उत्तर आये लोगों के दर-दरवाजों पर भीख मांगने को भी तरसोगे तुम| टिक के खा लो राजी-रजा से जो भी समाज खिला रहा है| जमीनों वाले किसान हैं, वह फसल उगाना जानते हैं तो उससे बेहतर उसको काटना जानते हैं और तुम्हारे जैसे खरपतवार को तो हा-के काटते हैं|

और जिनको जमीन वालों के खिलाफ भड़का रहे हो उनको तो जमीन वाले व् जमीन वालों के पुरखे काम के बदले पैसा-अनाज-तूड़ा आदि रुपी दिहाड़ी भी देते आये हैं, अकबर तक के जमानों से जमीनों के टैक्स भरने के रिकार्ड्स इंडिया से ले लन्दन तक की ब्रिटिश लाइब्रेरीज के आर्काइज में पड़े हैं| तुम अपनी सोचो कि तुम कैसे मलकियतें साबित करोगे, उन ठिकानों की जहाँ बैठ तुम्हें ऐसी वाहियातें सूझती हैं?

"खुद की जीरो इन्वेस्टमेंट, लोगों से 100% दान-रुपी इन्वेस्टमेंट के मॉडल चला के गुजारे करने वालो; "जिनके घर शीशों के होते हैं, वह दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंका करते"| याद रखना, तुम अगर जमीनों के अन्यायकारी बंटवारों की बात उठाओगे तो फैक्ट्रियों व् मंदिर-डेरों की प्रॉपर्टी-आमदनी के बंटवारे भी हो सकते हैं| और जैसा कि ऊपर बताया, जमीनों से पहले फैक्ट्री-मंदरों-दुकानों के बंटवारे बाँटने बनेंगे तुम्हारे ही लॉजिक पर चले तो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

आज़ाद हिन्द फ़ौज के तीसरे कमांडर (फाउंडर नहीं) रहे नेताजी सुभाषचंद्र बोस जी को उनकी जन्मजयंती (23-01-1897) पर शत-शत नमन!

जिस "आज़ाद हिन्द सरकार" की यह फ़ौज थी, उसकी स्थापना स्थापना 1 दिसंबर 1915 को नोबेल पुरस्कार नॉमिनी मुरसन नरेश राजा महेंद्र प्रताप ठेनुवा जी ने काबुल में की थी| राजा जी इसके प्रथम राष्ट्रपति थे, बरकतुल्ला खान प्रधानमंत्री व् सरदार मोहन सिंह इस सरकार की आर्मी यानि "आज़ाद हिन्द फ़ौज" के प्रथम कमांडर थे| दूसरे कमांडर रास बिहारी बोस बने व् उनके बाद तीसरे कमांडर बने नेता जी सुभाषचंद्र बोस| इस सरकार को 31 देशों का समर्थन प्राप्त था|

जब फरवरी 2016 में 35 बनाम 1 वालों द्वारा जाट बनाम नॉन-जाट छिड़वाया गया, वह भी स्वधर्म वालों की स्टेट-सेण्टर दोनों जगह सरकार होते हुए तो कुलमुलाहट हुई जानने की कि यह जाट ऐसी क्या बड़ी तौब हैं या रहे हैं जो 35 बनाम 1 में इनका ही नाम आया, बाकी 35 को छोड़कर| तो तथ्यों को सही से खोजना शुरू किया| तब जाकर बहुत से तथ्यों में से एक ऐतिहासिक तथ्य जो करेक्ट किया गया वह यह कि नेता जी प्रथम नहीं अपितु तीसरे कमांडर थे आज़ाद हिन्द फ़ौज के जो आज़ाद हिन्द सरकार की डिफेंस विंग थी, जिस सरकार के जिसके संस्थापक व्  राष्ट्रपति जाट राजा महेंद्र प्रताप जी हुए| किसी ने सही कहा है कि "जाट जितना दबया जायेगा वह उतना ही बढ़ेगा"| भला हो इस 35 बनाम 1 वालों का वरना हम तो यही पढ़ते आये थे कि "आज़ाद हिन्द फ़ौज की स्थापना किसने करी" और जवाब बताया जाता रहा नेता जी ने| इसीलिए जाट भोला है उसको नार्मल परिस्तिथियों में फर्क ही नहीं पड़ता कि उसके किये का क्रेडिट किसको दिया जा रहा है या कौन आपस में बाँट रहे हैं|

हाँ, मगर इससे नेता जी का बलिदान किसी भी तरीके से अंश मात्र भी कम नहीं हो जाता| उन जैसा देशभक्त सदियों में एक होता है| नेता जी को उनके जन्मदिवस पर पुन: शत-शत नमन|

और यह इस बंगाली बाबू का जलवा व् इनको हरयाणवियों द्वारा (विशाल हरयाणा) निश्छल गले से लगाने की तासीर थी जिसकी वजह से हरयाणवी लोग अपने अच्छे-खासे हरयाणवी पहनावे को "बंगाली कुरता-पजामा" कहने लगे| वरना बंगाली कुरता कटे गले का होता है व् हरयाणवी कुरता कॉलर वाला, बंगाल में कुर्ते के नीचे धोती पहनते हैं जबकि हरयाणवी में पजामा| करेक्ट कर लीजिये इस फैक्ट को भी कि बंगाली में कुरता-पायजामा नाम की कोई ड्रेस नहीं होती| हम हरयाणवी इसको बंगाली कुरता-पायजामा बोलते हैं तो सिर्फ इस बंगाली बाबू को अपना सम्मान दिखाने को|

लेकिन यह प्यार यह निश्छलता उन बेशर्मों को इतनी सहजता से समझ नहीं आती जो रोजी-रोटी से ले छत तक के आसरे को आ जमते हैं विशाल हरयाणा में परन्तु बोलने के नाम पर इनके मुंह से हरयाणवियों की बुराइयाँ ही मिलती हैं| 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

Sunday, 19 January 2020

जिंद की सर्वजाट सर्वखाप महापंचायत में सबकुछ नकली भी नहीं था!


जो पंचायती व खाप वाले वहाँ थे उनमें से खासकर खाप वाले, पिछले 4 साल लगातार केसवार युवाओं के साथ खड़े थे| हर 10-15 दिन बाद पंचकूला CBI कोर्ट में जो तारीख लगती थी उनके आने जाने के लिए भाड़ा किराया, बस की व्यवस्था तक इन खाप वालों ने ही कर रखी थी| तारीख भुगतने जाने पर खाने की व्यवस्था भी खाप वाले ही करते थे| एक-एक पीड़ित युवक घर को 30 लाख से ले 60 लाख रूपये तक की आर्थिक मदद जुटवाने वाले खाप चौधरी ही रहे हैं| इस कलेक्शन का ऑडिट करवा कर, इंटरनेट पर पब्लिक में डालने वाला मैं खुद हूँ| मई 2017 तक लगभग 12 करोड़ 90 लाख की मदद का पूरा ब्यौरा खापलैंड की वेबसाइट के इस लिंक से देखें - http://www.khapland.in/khaplogy/jsrkt-donation-report/ |

और यह कदम मैंने, सुरेश देशवाल जी व् कई अन्यों ने तब उठाया था जब ठगपाल हर दूसरे-तीसरे दिन खुद समाज से उगाहे चंदे का हिसाब देने की बजाये लेता और तब-जब खापों के चंदे के हिसाब पर ऊँगली उठा देता या अपनी गैंग से उठवाता था| मखा, सब कुछ ऊट जागी पर दीखते-दिखाते ईमानदार व् समाज को निश्छलता से समर्पित चौधरियों पर ऊँगली नहीं उटेगी| आजतक ठगपाल के हिसाब की ऐसी रिपोर्ट आनी बाकी है जैसे खापों ने दी पाई-पाई की|

सरकार ने तो धेला तक नहीं दिया या दिया तो "ऊँट के मुंह में जीरे समान" उधर, ठगपाल कालिख इन बच्चों के नाम पर समाज से मिला सारा पैसा हड़प संस्थान बना गया| ऐसा संस्थान जिसमें बलिदान हुए बच्चों के परिवारों के नाम 1% भी शेयर नहीं शायद| सबसे पहला निशाना तो इसको बनाओ| यह वही ठगपाल है जिससे एक जना बिना अपनों से विचार-विमर्श के दिशा-निर्देश लेता हुआ पाया गया था प्रकाश कमेटी की ऑडियो रिपोर्ट्स में| दो बंदों से भी बात करके काम करता तो सुझाव यही आता कि यही तो तुम्हारे संगठन को मिटाने के लिए उतारा गया है और तुम इसी से दिशा-निर्देश लेने चले हो? बाद में हुआ ना साबित, फंसा के उस भाई को खुद हुआ फरार, झाड़ गया पल्ला|

हाँ, दूसरा निशाना जिंद वाली महापंचायत के सिर्फ वह पंचायती हो सकते हैं जो पूरे समाज को दोषी घोषित कर जुरमाना लगाने चले थे| शुक्र है कि बाद में यह प्रस्ताव रद्द कर दिया गया, अन्यथा सारे मीडिया ने जाट समाज की ऐसी भद्द पीट देनी थी कि संगवानी भारी हो जाती| पता लगा किसी को कि कौन महारथी था जिसने ऐसा विचार दिया था पंचायत में और किसके दिमाग से दिया था?

इसके अलावा एक नंबर का काम हुआ है जिंद महापंचायत में| 72 परिवारों को राहत मिली, कैप्टेन साहब की आगे की राजनीति का स्कोप|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 16 January 2020

राजनीति व् धर्मनीति वालों का नहीं अपितु शुद्ध समाजनीति बनाने वालों का मंच रही हैं खापें और इसको यही रखा जाना चाहिए!

जब तक खाप पंचायतों में भागीदारी व् फैसलों से राजनीति व् राजनैतिक लोग साइड नहीं रखे जायेंगे, इनके फैसलों पर ऐसे ही मिलीजुली प्रतिक्रियाएं आती रहेंगी जैसे जिंद (जींद) वाली सर्वजाट सर्वखाप महापंचायत के फैसले बारे आई हैं| फैसला सुखद था, 72 परिवारों को रिलैक्स दे गया व् कप्तान साहब की राजनीति के जिन्दा रहने का स्कोप दे गया; तो उस हिसाब से तो पंचायत का फैसला सरमाथे| बाकी नारनौंद की जनता बेहतर न्याय करेगी, इस फैसले को देरी से आया, लठ आई में यानि इलेक्शन की हार से पोलिटिकल करियर खत्म होने की नौबत से बचने के चलते करवाया मानेगी या कैसे| क्योंकि वक्त पर आया व् अपने विवेक से आया फैसला ही सही फैसला होता है, देरी से आये व् कई इलेक्शन की हार जैसी कई वजहें डेवेलोप होने के बाद आये फैसले पर लोग सवाल करेंगे ही, आप-हम उनके मुंह बंद नहीं कर सकते|

और ऐसा होना भी नहीं चाहिए| क्योंकि खाप कोई अधिनायकवाद की थ्योरी पर चलने वाली संस्था नहीं है कि आका ने जो बोल दिया उसके बाद उस पर विचारों के आदान-प्रदान होने की गुंजाईस ही ना हो| ठेठ गणतांत्रिक डेमोक्रेटिक प्रणाली की संस्था हैं खाप तो इन पर ओपिनियन एक्सचेंज चलने आम है| व्यक्तिगत तौर पर बाकी सब बातों का स्वागत योग्य पंचायत थी कल की सिर्फ एक पूरे समाज को दोषी मानने व् दंड लगाने वाले पॉइंट को छोड़कर| यह पॉइंट जानकर ऐसा लगा कि जैसे खाप की नहीं अपितु राजकुमार सैनी - अश्वनी चोपड़ा - रोशलाल आर्य - मनोहरलाल खट्टर - मनीष ग्रोवर जैसों की पंचायत थी जो शुरू से ही पूरे जाट समाज को दोषी मानते आये हैं| इसीलिए यह कहकर बात शुरू की कि एमएलए-विभिन्न पोलिटिकल पार्टी बियरर्स का 21 सदस्यों की फैसला लेने वाली कमेटी में या उनके अड़गड़े क्या काम?

और काम था तो फिर कम-से-कम सभी पोलिटिकल पार्टीज वालों को ही लेते; असल तो खाप के मूल स्वरूप के अनुसार पोलिटिकल व् धार्मिक प्रतिनिधियों का खाप से कोई लेना देना ही नहीं होता आया| पॉलिटिक्स व् धर्म को खापों की बीमारी ताऊ देवीलाल के ज़माने में शुरू हुई थी, इसका अंत होना चाहिए व् खाप के फैसले शुद्ध रूप से सामाजिक लोगों की कमेटियों द्वारा ही होनी चाहियें; ऐसे लोग जो ना राजनीति में हों और ना धर्मनीति में; वह सिर्फ समाजनीति में हों|

क्या आरएसएस दखल देने देती है उसकी ही पोलिटिकल विंग बीजेपी को उसके फैसलों में, खापों से यह कांसेप्ट आरएसएस सीख गई परन्तु खुद खाप वाले पता नहीं कब वापिस आएंगे अपने पुरखों के इस नियम पर| इस पर बहस कीजिये जितनी हो सके अन्यथा यूँ तो खाप का मूल रूप ही बिगाड़ कर रख देंगे पोलिटिकल व् धर्मनीति वाले लोग; शुद्ध सामाजिक लोग फिर कहाँ अपनी सामाजिक समता व् न्यायप्रियता का मान धरवाएँगे? कहाँ उनकी चौधर बचेगी जो अगर असेंबली-पार्लियामेंट में बैठने वाले राजनेता व् मंदिर-मठ-डेरों में बैठने वाले बाबे "खाप-पंचायत" रूप सामाजिक मंचों पर भी कब्जा कर लेंगे तो आन जमेंगे तो? तीनों को अपनी-अपनी मर्यादा में रहकर चलना चाहिए|

और बहस करते वक्त "ये यौद्धेय", "वो यौद्धेय", "गंदे यौद्धेय", "बतड़ंगे यौद्धेय", "फद्दू यौद्धेय" आदि-आदि लिखने वालों की तरफ ध्यान ना देवें| यह शब्दों व् हावभावों के खेल से लोगों की "अटेंशन सीकर" लोग होते हैं| इनकी परवाह नहीं करनी है| इनको क्या पता कि कल जो पंचायत हुई इसकी नींव कहाँ-कितनी गहरी व् किस प्रेरणा से निकली हैं; किसकी फैलाई जागरूकता से निकली हैं| यौद्धेय वह मशाल हैं जो जिसको स्पष्ट दिख जाएँ फिर उनके साथ ही होता चला जाए| हमें अपना लोहा पता है और बहुत ही अच्छे से पता है| इनको भी पता है तभी इनकी जुबानों पर "यौद्धेय" ही रहते हैं|

ऐसे लोगों से राय नहीं चाहिए जो सामाजिक फंक्शन्स में चेहरा चमकाने को ये बड़ी-बड़ी अमाउंटस के चंदे बोल के आते हैं और बाद में देने के नाम पर टाँय-टाँय फुस्स| गाम वाले जब कहते हैं कि बोला हुआ चंदा इनसे आप लेते हो या हम भंडा फोड़ें ऐसों का सोशल मीडिया पर तो मेरे जैसे ही आगे अड़ के इनकी इज्जत बचाते हैं, वह हैं यौद्धेय| और ज्यादा कहूँगा तो खामखा रुसवाई हो जाएगी, बस इतना समझ ले ऐ नादाँ हम तो दूर रहकर भी तेरी इज्जत दबाये-बचाये चले जाते हैं और तुम हमारे ही कैडर को जब देखो ऑडियो-वीडियो में निशाना बनाये जाते हो? कुछ तो अपनी एथिक्स को भी जगा लो? इतने भी अनएथिकल ना लगे थे तुम जितने दिखाने को आमादा हुए रहते हो?

और हाँ, क्योंकि यौद्धेय अधिनायकवाद नहीं है कि यहाँ एक ने जो कह दिया वही फाइनल है| यौद्धेय दुनियाँ के सबसे पुराने डेमोक्रेट्स हैं यहाँ छोटे से छोटा वर्कर, बड़े से बड़े कार्यकर्त्ता को उसकी गलती बताने का माद्दा व् अधिकार दोनों रखता है| इसलिए हमारी बहसें भी ओपन सोशल मीडिया पर होती हैं| इन बहसों को देखकर ऐसे लोग यह ना समझें कि यौद्धेय तो फुस्स हुए| वहाँ से तो यौद्धेयों की सोच शुरू होती है जहाँ इन जैसों की इन व् इनके आकाओं के निर्देश समेत वाली सोच खत्म होती है| अरे किसी व्यक्तिविशेष से समस्या है तो व्यक्तिविशेष से मुखातिब होवें, पूरे यौद्धेय-गण को बदनाम मत करें|

इनको तो इतना भी भान नहीं रहता अपनी "अटेंशन सीकिंग" की आदत के चलते कि कल जिस खाप की पंचायत में बैठने में इतना गर्व महसूस करके बातें लिखी-बोली-बताई जा रही थी उन खापों का मूल हैं यौद्धेय| रै रलदू, उनको आर्यसमाजी स्वामी भगवान देव आर्य की "हरयाणे के वीर यौद्धेय" नामक पुस्तक पकड़ा दे, थोड़ा ज्ञान ले लेंगे यौद्धेय पर बोलने से पहले| वरना "अर्धज्ञान कचरे की पेटी" की भाँति यूँ ही फद्दू यौद्धेय, झगड़ालू यौद्धेय, बद्तमीज यौद्धेय बड़बड़ाते रहेंगे| इनको बोलो कि पढ़ो इस किताब को जो अगर इसमें सिवाए "खापों के यौद्धेयों" के दूसरा कोई विषय भी मिल जाए तो|

यौद्धेय वो हस्ती हैं जो कभी मरते नहीं, मारने के बाद भी नहीं मरते| वह तब भी खड़े होते हैं जब सर्वब्रह्मज्ञानियों के ज्ञान व् अस्त्र-शस्त्र तक भी खत्म हो जाते हैं| खेलनी-मेलणी माता नहीं हैं, हाड़फोड़ खसरा सैं यौद्धेय|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक