सोचने की बात यह है कि आये दिन हिन्दू-मुस्लिम टकराव के नाम पर यह जाट-मुस्लिम टकराव ही क्यों हो रहे हैं? वो भी जाट-बहुल क्षेत्रों में ही? 1947 से ले के इस वर्तमान सरकार के आने से पहले तक जिस जाटलैंड पे जाटों और मुस्लिमों के बीच दंगों के नाम पर एक सुई भी नहीं खनकती थी आज उसी जाटलैंड पे कभी मुज़्ज़फ़्फ़रनगर-शामली, तो कभी मुरादाबाद? और अब तो पूर्वी हरयाणा से चल यह पश्चिमी हरयाणा में भी शुरू हो गए, केंद्र में यह सरकार आते ही तावडू हुआ, फिर बादली हुआ, अब अटाली फरीदाबाद, नागौर? इसके आलावा गंगवा-हिसार में एक चर्च पे भी हमला हुआ|
और सुनने में आ रहा है कि वो मंडी-फंडी जिनका पंचायतों में कभी भी सीधे मुंह फैसले करवाने का कोई रिकॉर्ड ही नहीं रहा, वो आज अटाली के जाटों को कह रहे हैं कि मुस्लिमों से समझौता मत करना| साफ़ है कि यह लोग किसी के फैसले करवा देवें आजतक इनमें ऐसा कोई विक्रमादित्य और हर्षवर्धन नहीं हुआ; हाँ फैसले की जगह फासले करवाने में नाम जरूर रहा है इनका| और अपने इसी चिरपरिचित मिशन पर यह निकले हुए भान होते हैं|
जाट युवा (खासकर ग्रामीण) के लिए सोचने की बात एक और भी है, क्या हुआ मुज़्ज़फरनगर में धर्म के नाम पे काम आने वाले जाट-युवाओं का? हजारों-हजार युवा पूर्वी हरयाणा की जेलों में सड़ रहे हैं, क्या गए यह लोग उनकी या उनके परिवारों की सुध लेने? विश्व का ऐसा कोई धर्म नहीं जो अगर अपने अनुयायिओं को धर्म के नाम पर आहुति देने को कहे या प्रेरित करे या उकसाए तो पीछे से उसका या उसके परिवार का ध्यान ना रखे| ईसाई हो या मुस्लिम, बुद्ध हो या सिख हर धर्म के गुरु उनके पीछे खड़े होते हैं| परन्तु यह एक हमारे वाले ही निराले हैं, जो धर्म के नाम पर सिर्फ लेना जानते हैं| देने के नाम पर सिवाय नफरत-दंगों की घुटन और भुगतन, समाज को कभी वर्ण तो कभी जातिव्यवस्था में बांटने के अलावा कुछ नहीं जानते| अभी मुज़्ज़फरनगर में क्या हुआ? एक तरफ मुस्लिम दंगा पीड़ितों को जहां मस्जिदें-मदरसे खाने-पीने से ले इलाज और सर पर छत तक का इंतज़ाम करते नजर आये, वहीँ आप वाले कहाँ नजर आये, इसकी दास्ताँ मुज़्ज़फरनगर की हर लाचार-असहाय गली-घर बयाँ कर रहा है|
इसलिए इन वजहों से कई बार तो मैं इसको धर्म मानता ही नहीं; भावनाओं के नाम पर खुला कॉर्पोरेट से भी बुरा धंधा करते हैं यह लोग| कॉर्पोरेट पैसे के बदले सर्विस या सर्विस के बदले पैसा तो देता है, यह लोग क्या देते हैं, उजाड़ घर, जेलों में सड़ते युवा, भुखमरी में मरते इनके अनुयायी?
इसलिए हमारे हरयाणा की छवि मत बिगड़ने दो| अरे धुर सिकंदर के काल से ले के आजतक इतने रेफ़ुजी, शरर्णाथी, देशी-विदेशियों ने हमारे हरयाणा में शरण ली; यहां तक कि हमने अपनी संस्कृति पे इनके गैर-वाजिब हमले झेले, कुछों ने तालिबानी तक बोला परन्तु हमने मानवता को पालने की अपनी शाही परम्परा कभी नहीं तोड़ी| मुंबई के मराठों तक की भी शहनशक्ति उत्तरी-दक्षिणी भारत के क्षेत्रवाद से ले भाषवाद के नाम पर बंटी और टूटी, परन्तु हमने अपनी शालीनता नहीं छोड़ी| तो आखिर अब क्यों बेकाबू होना?
और फिर होना ही है तो अपने क्रोध का ज्वालामुखी इन दंगा भड़काने और इनके प्लान बनाने वालों की तरफ मोड़ दो| ना रहेगा बांस और ना बजेगी बांसुरी| अगर ऐसे ही चलता रहा तो जरूर आने वाले समय में हरयाणा, जो कि धर्मवाद के नाम पे सुलगाया जा रहा है, वो क्षेत्रवाद-भाषावाद और नश्लवाद के नाम पर भी सुलग पड़े तो अतिश्योक्ति नहीं होगी| परन्तु फिर हरयाणा की धरती पर जो नहीं होगा वो होगा यह धर्मवाद के नाम पे दंगा फैलाने वालों का वायरस|
धर्म हर किसी का निजी विषय रहा है, इसको निजी ही रहने दो तो अच्छा होगा, वरना इतिहास गवाह है जाट लम्बे समय तक ना किसी धर्म की सुनता है और ना किसी राजसत्ता की| परन्तु अबकी बार वो वक्त आने तक पता नहीं जाट-समाज इनके बहकावों में चढ़ कितना और पथभ्रष्ट हो चुका होगा| और तब इस नुक्सान की भरपाई में कितने और दशक खपेंगे|
जाटों को यह बात समझनी चाहिए कि जो हारे हुए योद्धाओं की गाथाएं गाकर ही अपनी वीरता की दास्ताँ बघारने को स्वाभिमान और अभिमान समझते हों, ऐसे वीरों को तो जाट सिर्फ सहानुभूतिवश ही याद किया करता है| और अब इन दंगों को भड़काने में जो लोग शुमार हैं वो इसी मति के लोग हैं तो समझो कि वो क्या ख़ाक आपको धर्म और मानवता का मार्गदर्शन देंगे|
जय योद्धेय! - फूल मलिक
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