1) अमेरिका में कोई भी अपराध होता है तो उसके लिए अमेरिकी अदालतों द्वारा
'हरयाणवी खाप पंचायतों' की तर्ज पर 'सोशल ज्यूरी' बुलाई जाती है, जिसमें
मामले से संबंधित स्थानीय क्षेत्र के समाज व् संस्कृतिविद पक्षपात-द्वेष से
रहित ग्यारह सदस्य बुलाये होते हैं। पीड़ित और अपराधी दोनों पक्षों के वकील
व् उन पर बैठा जज इस ग्यारह सदस्यीय 'सोशल ज्यूरी' से अमेरिकी न्याय व्
दंड सहिंता के मद्देनजर न्याय करवाता है और अंत में 'सोशल ज्यूरी' जो फैसला
सुनाती है उसको दोनों पक्षों को पढ़कर सुनाता है, और उस फैसले की अनुपालना
सुनिश्चित करता है। जी हाँ, बस इतना ही रोल होता है अमेरिका में जज और
अदालतों का, यानी 'सोशल ज्यूरी' का फैसला सुनाना ना कि भारत की तरह फैसला
करना भी और सुनाना भी।
2) कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, इंग्लैंड हर जगह इसी 'सोशल ज्यूरी' सिस्टम के तहत न्याय होता है, कानून की पालना होती है।
तो भारत और इन विकसित देशों (जिनकी कि व्यापार-शिक्षा-कंस्यूमर प्रोडक्ट्स-कम्युनिकेशन आदि-आदि को हर भारतीय धारण करके चलना आधुनिकता और विकास का मापदंड मान ना सिर्फ उसपे चलता है बल्कि उसका आजीवन गुणगान भी करता है) की न्याय व्यवस्था में 'सोशल ज्यूरी' कहाँ तक है? बाकी भारत में तो कहीं भी नहीं, परन्तु खापलैंड पर खापों (चिठ्ठी फाड़ परम्परा के तहत जो खाप-पंचायतें बुलाई जाती हैं सिर्फ वो अपनी मन-मर्जी या निजी निहित मकसदों के लिए इकठ्ठा हुई भीड़ नहीं) के रूप में खापलैंड के लगभग हर गाँव-गली में मौजूद हैं, परन्तु सवैंधानिक तौर पर उस तरह मान्यता प्राप्त नहीं जैसे ऊपर गिनाये एक-से-एक उच्च कोटि के विकसित देशों में हैं।
तो खापलैंड को न्याय और अपराध-निर्धारण व् निवारण के मामले में तो बस इतना भर पीछे है कि इनको कानून से जोड़ा जावे और विकसित देशों वाले तरीके से इनसे न्याय करवाया जावे। हर निष्पक्ष व् बेदाग पंचायती को "सोशल जज" व् इनकी बॉडी को "सोशल ज्यूरी" का दर्जा मिले।
मुझे अहसास है कि मेरी यह बात सुनकर ना सिर्फ एंटी-खाप मीडिया, अपितु एंटी-खाप विचारधारा के साथ-साथ इनके बारे ग़लतफ़हमी रखने वाले लोगों के हलक सूख जाने हैं। परन्तु यही सत्य है और यही वास्तविक सोशल ज्यूरी है। अब वक्त आ गया है कि खाप-पंचायतें इन विकसित देशों की तर्ज पर अपने लिए 'सोशल ज्यूरी' के स्टेटस की मांग को जोरदार तरीके से उठायें|
और जो खाप-पंचायतों वाले यह पठा दिए गए हैं अथवा मान बैठे हैं कि खापें कभी भी किसी भी वैधानिक तंत्र का अंग ना रह कर सम्पूर्णतया सामाजिक रही हैं तो वो महानुभाव या तो बड़े गर्व से खापों को वैधानिक दर्जा दिए जाने बारे महाराजा हर्षवर्धन बैंस जी को बारम्बार धन्यवादी लहजे से गर्वान्वित होना छोड़ दें अन्यथा इस तथ्य को समझें कि आप वैधानिक व् सामाजिक दोनों होते आये हैं। ध्यान रखें कि जिन विकसित देशों में कहीं उन्नीसवीं तो कहीं बीसवीं सदी में 'सोशल ज्यूरी' कांसेप्ट आया वो आप लोग 643 ईस्वी में महाराजा हर्षवर्धन के दौर में देख भी चुके हो और उससे आगे भी ग़जनी-गौरी-तैमूर-बाबर-रजिया-लोधी-अकबर-औरंगजेब-बहादुरशाह-अंग्रेजों के जमानों में इसका लोहा मनवा चुके हो। आपको स्मृत रहना चाहिए कि महाराजा हर्षवधन के राजवंश ने राजा दाहिर जैसों के हाथों जिस प्रताड़ना की कीमत चुकाई थी, उसमें उन द्वारा खापों को वैधानिक दर्जा देना भी एक वजह थी। परन्तु आगे चलकर राजा दाहिर की मति वालों की वजह से देश ने सदियों की गुलामी की भी सजा भुगती थी। और अब अगर वह फिर से नहीं भुगतवानी तो वक्त आ गया है कि इस ग्लोबलाइजेशन के जमनानी में भारतीय 'सोशल ज्यूरी' का भी ग्लोबलाइजेशन हो।
और इसमें मीडिया में बैठे उन लक्क्ड़भग्गों के कान भी खींचने होंगे जो उनके ही देश में "सोशल ज्यूरी" के प्राचीनतम रूप व् स्वरूप को ग्लोबल पहचान दिलवाने की बजाये, उसमें आवश्यक सुधार करवा उसको लागू करवाने की बजाये, उसका गला घोंटने हेतु जब देखो सर्वत्र कर्णभेदी क्रन्दनों से अपने गलों की बैंड बजाते पाये जाते हैं।
इसलिए अब उन लोगों को यह समझाने का अभियान शुरू किया जाना चाहिए कि बेशक प्रारूप जो हो, परन्तु अब विश्व की इस प्राचीनतम सोशल ज्यूरी व्यवस्था को उन्हीं देशों की तर्ज पर ग्लोबल करना होगा, जिनकी तर्ज पर व्यापार-शिक्षा-कंस्यूमर प्रोडक्ट्स-कम्युनिकेशन तक के ग्लोबलाइजेशन का इसको भारत में उतारने वाले भारतीय ही दम भरते नहीं थकते।
जय योद्धेय! - फूल मलिक
2) कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, इंग्लैंड हर जगह इसी 'सोशल ज्यूरी' सिस्टम के तहत न्याय होता है, कानून की पालना होती है।
तो भारत और इन विकसित देशों (जिनकी कि व्यापार-शिक्षा-कंस्यूमर प्रोडक्ट्स-कम्युनिकेशन आदि-आदि को हर भारतीय धारण करके चलना आधुनिकता और विकास का मापदंड मान ना सिर्फ उसपे चलता है बल्कि उसका आजीवन गुणगान भी करता है) की न्याय व्यवस्था में 'सोशल ज्यूरी' कहाँ तक है? बाकी भारत में तो कहीं भी नहीं, परन्तु खापलैंड पर खापों (चिठ्ठी फाड़ परम्परा के तहत जो खाप-पंचायतें बुलाई जाती हैं सिर्फ वो अपनी मन-मर्जी या निजी निहित मकसदों के लिए इकठ्ठा हुई भीड़ नहीं) के रूप में खापलैंड के लगभग हर गाँव-गली में मौजूद हैं, परन्तु सवैंधानिक तौर पर उस तरह मान्यता प्राप्त नहीं जैसे ऊपर गिनाये एक-से-एक उच्च कोटि के विकसित देशों में हैं।
तो खापलैंड को न्याय और अपराध-निर्धारण व् निवारण के मामले में तो बस इतना भर पीछे है कि इनको कानून से जोड़ा जावे और विकसित देशों वाले तरीके से इनसे न्याय करवाया जावे। हर निष्पक्ष व् बेदाग पंचायती को "सोशल जज" व् इनकी बॉडी को "सोशल ज्यूरी" का दर्जा मिले।
मुझे अहसास है कि मेरी यह बात सुनकर ना सिर्फ एंटी-खाप मीडिया, अपितु एंटी-खाप विचारधारा के साथ-साथ इनके बारे ग़लतफ़हमी रखने वाले लोगों के हलक सूख जाने हैं। परन्तु यही सत्य है और यही वास्तविक सोशल ज्यूरी है। अब वक्त आ गया है कि खाप-पंचायतें इन विकसित देशों की तर्ज पर अपने लिए 'सोशल ज्यूरी' के स्टेटस की मांग को जोरदार तरीके से उठायें|
और जो खाप-पंचायतों वाले यह पठा दिए गए हैं अथवा मान बैठे हैं कि खापें कभी भी किसी भी वैधानिक तंत्र का अंग ना रह कर सम्पूर्णतया सामाजिक रही हैं तो वो महानुभाव या तो बड़े गर्व से खापों को वैधानिक दर्जा दिए जाने बारे महाराजा हर्षवर्धन बैंस जी को बारम्बार धन्यवादी लहजे से गर्वान्वित होना छोड़ दें अन्यथा इस तथ्य को समझें कि आप वैधानिक व् सामाजिक दोनों होते आये हैं। ध्यान रखें कि जिन विकसित देशों में कहीं उन्नीसवीं तो कहीं बीसवीं सदी में 'सोशल ज्यूरी' कांसेप्ट आया वो आप लोग 643 ईस्वी में महाराजा हर्षवर्धन के दौर में देख भी चुके हो और उससे आगे भी ग़जनी-गौरी-तैमूर-बाबर-रजिया-लोधी-अकबर-औरंगजेब-बहादुरशाह-अंग्रेजों के जमानों में इसका लोहा मनवा चुके हो। आपको स्मृत रहना चाहिए कि महाराजा हर्षवधन के राजवंश ने राजा दाहिर जैसों के हाथों जिस प्रताड़ना की कीमत चुकाई थी, उसमें उन द्वारा खापों को वैधानिक दर्जा देना भी एक वजह थी। परन्तु आगे चलकर राजा दाहिर की मति वालों की वजह से देश ने सदियों की गुलामी की भी सजा भुगती थी। और अब अगर वह फिर से नहीं भुगतवानी तो वक्त आ गया है कि इस ग्लोबलाइजेशन के जमनानी में भारतीय 'सोशल ज्यूरी' का भी ग्लोबलाइजेशन हो।
और इसमें मीडिया में बैठे उन लक्क्ड़भग्गों के कान भी खींचने होंगे जो उनके ही देश में "सोशल ज्यूरी" के प्राचीनतम रूप व् स्वरूप को ग्लोबल पहचान दिलवाने की बजाये, उसमें आवश्यक सुधार करवा उसको लागू करवाने की बजाये, उसका गला घोंटने हेतु जब देखो सर्वत्र कर्णभेदी क्रन्दनों से अपने गलों की बैंड बजाते पाये जाते हैं।
इसलिए अब उन लोगों को यह समझाने का अभियान शुरू किया जाना चाहिए कि बेशक प्रारूप जो हो, परन्तु अब विश्व की इस प्राचीनतम सोशल ज्यूरी व्यवस्था को उन्हीं देशों की तर्ज पर ग्लोबल करना होगा, जिनकी तर्ज पर व्यापार-शिक्षा-कंस्यूमर प्रोडक्ट्स-कम्युनिकेशन तक के ग्लोबलाइजेशन का इसको भारत में उतारने वाले भारतीय ही दम भरते नहीं थकते।
जय योद्धेय! - फूल मलिक
No comments:
Post a Comment