समय था 1761 में पानीपत के जंगे-मैदान में अहमदशाह अब्दाली से मादरे-वतन
को बचाने हेतु युद्ध करने का| ग्वालियर में नागपुरी विचारधारी ब्राह्मण
पेशवा सदाशिवराव भाऊ, सहयोगियों व् लोहागढ़ी जाट महाराजा सूरजमल के बीच गहन
मंत्रणा चल रही थी| महाराजा सूरजमल अपनी राय रखते हुए कहते हैं कि अगर
अहमदशाह अब्दाली को हराना है तो हम सबको एक साथ मिलके एक सेना के रूप में
चलना होगा| इस गहन गंभीर घड़ी में भी महाराजा सूरजमल की दूरदर्शिता व्
दार्शनिकता को गंभीरता से लेने की बजाय लोहागढ़ी को अक्षम होने का खोल चढ़ाते
हुए दम्भ और अतिविश्वास में रमित ब्राह्मण पेशवा ने ताना मारा कि,
"दोशालों पाट्यो भलो, साबुत भलो ना टाट, राजा भयो तो का भयो, रह्यो जाट गो
जाट!"। और उस पारखी सोच जिसके दम पर कि महाराजा सूरजमल ने दुश्मन की ताकत
को जानते और परखते हुए यह सलाह दी थी, उसको व् "जाट-ताकत" के महत्व को
दरकिनार कर हेकड़ी में चूर ब्राह्मण पेशवा पानीपत जा चढ़े और साथ ही सारा
क्षत्रिय मराठा समाज अब्दाली के आगे जा खड़ा किया|
पानीपत में इनकी ना सिर्फ हार हुई अपितु महाराजा सूरजमल ने इनकी "फर्स्ट-ऐड" करके वापिस नागपुर और उसके मराठवाड़ा में धुर घर तक पहुँचाने हेतु, बाकायदा जाट-सेना साथ भेजी|
आज फिर उसी नागपुरी विचारधारा के थोथे घमंड और मद में चूर कुछ ब्राह्मण पेशवा तथाकथित राष्ट्रवादिता का चोला ओढ़ हरयाणा कहो या खापलैंड कहो, में पैर पसारने को आतुर हैं| पता नहीं इनको अपनी प्रकाष्ठा व् दम्भ को मापने हेतु जाटलैंड ही क्यों दिखती है, शायद विश्व के सूरमाओं की धरती है ना, इसलिए जाटलैंड को जीतना ही इनके लिए स्वर्ग की अमरगति पाने बराबर होता होगा| और वो भी उसी रटी-रटाई लाइन पे चलते हुए ही जिसपे चलते हुए कि सदाशिवराव भाऊ ने "जाट-ताकत" को नकारा था| यह लोग भूल गए हैं कि एक बार नागपुर के यही लोग 1761 में भी चढ़ आये थे और मुंह की खा के गए थे| उस वक्त तो इन्होनें सीधे-सीधे ही जाटों का साथ नहीं लिया था अब थोड़े संशय में हैं| इसलिए जो जाट आसानी से अंधभक्त बन जाते हैं उनको साथ जोड़े जा रहे हैं| परन्तु मुज़फ्फरनगर दंगे के बाद से उनमें से भी 80% जाट इनसे छिटंक के वापिस अपनी जाटधारा के साथ जुड़ चुके हैं, जिसकी वजह से इनके लिए बड़ी उहापोह की स्थिति बनी हुई है|
अत: हरयाणवियों और जाटों से बस इतना ही अनुरोध है कि इन भांप छोड़ने वाले बारिश के बुलबुलों को इनका ठिकाना पकड़ने दो| जब इनका लबो-लवाब ठंडा हो जायेगा तो उस वक्त के लिए महाराजा सूरजमल की भांति इनकी 'फर्स्ट-ऐड' कर वापिस नागपुर छोड़ने हेतु तैयारी करते रहो| और इनके साथ ही कुछ पूर्वोत्तर और 47 की सीमा पार से आये हुए भी विदा करने होंगे, इसलिए साथ ही उसकी भी तैयारी करते रहना होगा|
क्योंकि छोटे से बच्चे को जब कोई चीज न मिलने पर जैसे वो "चुत्तड़ पटक-पटक रोने लगता है", वैसे ही यह चाहे जितने चुत्तड़ पटक लेवें, हरयाणा और खापलैंड पे चाहें जितने जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े सजा लेवें, एक दिन जावेंगे वैसे ही जैसे 1761 वाले गए थे| ना हमें हथियार उठाने की जरूरत और ना ही इनको मुंबई वाले मुम्बईकरों की तरह बिहारी-बंगालियों के स्टाइल में पीटने की जरूरत|
बस जब यह लोग हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े बनाने से थक जावें और जिनको यह लोग नॉन-जाट के नाम पर जाट के खिलाफ भिड़ा रहे हैं वो इनकी इन चालों को ना समझ जावें, तब तक एक स्टेज पर किसी नचनियां की भाँती स्वांग दिखाने वाली की तरह इनके स्वांग देखते रहें| और जब नॉन-जाट इनके पैंतरे भांप जावें तो समझ लेना कि अब इनकी विदाई का समय हो गया| वही महाराजा सूरजमल वाली 'फर्स्ट-ऐड' विदाई!
जय योद्धेय! - फूल मलिक
पानीपत में इनकी ना सिर्फ हार हुई अपितु महाराजा सूरजमल ने इनकी "फर्स्ट-ऐड" करके वापिस नागपुर और उसके मराठवाड़ा में धुर घर तक पहुँचाने हेतु, बाकायदा जाट-सेना साथ भेजी|
आज फिर उसी नागपुरी विचारधारा के थोथे घमंड और मद में चूर कुछ ब्राह्मण पेशवा तथाकथित राष्ट्रवादिता का चोला ओढ़ हरयाणा कहो या खापलैंड कहो, में पैर पसारने को आतुर हैं| पता नहीं इनको अपनी प्रकाष्ठा व् दम्भ को मापने हेतु जाटलैंड ही क्यों दिखती है, शायद विश्व के सूरमाओं की धरती है ना, इसलिए जाटलैंड को जीतना ही इनके लिए स्वर्ग की अमरगति पाने बराबर होता होगा| और वो भी उसी रटी-रटाई लाइन पे चलते हुए ही जिसपे चलते हुए कि सदाशिवराव भाऊ ने "जाट-ताकत" को नकारा था| यह लोग भूल गए हैं कि एक बार नागपुर के यही लोग 1761 में भी चढ़ आये थे और मुंह की खा के गए थे| उस वक्त तो इन्होनें सीधे-सीधे ही जाटों का साथ नहीं लिया था अब थोड़े संशय में हैं| इसलिए जो जाट आसानी से अंधभक्त बन जाते हैं उनको साथ जोड़े जा रहे हैं| परन्तु मुज़फ्फरनगर दंगे के बाद से उनमें से भी 80% जाट इनसे छिटंक के वापिस अपनी जाटधारा के साथ जुड़ चुके हैं, जिसकी वजह से इनके लिए बड़ी उहापोह की स्थिति बनी हुई है|
अत: हरयाणवियों और जाटों से बस इतना ही अनुरोध है कि इन भांप छोड़ने वाले बारिश के बुलबुलों को इनका ठिकाना पकड़ने दो| जब इनका लबो-लवाब ठंडा हो जायेगा तो उस वक्त के लिए महाराजा सूरजमल की भांति इनकी 'फर्स्ट-ऐड' कर वापिस नागपुर छोड़ने हेतु तैयारी करते रहो| और इनके साथ ही कुछ पूर्वोत्तर और 47 की सीमा पार से आये हुए भी विदा करने होंगे, इसलिए साथ ही उसकी भी तैयारी करते रहना होगा|
क्योंकि छोटे से बच्चे को जब कोई चीज न मिलने पर जैसे वो "चुत्तड़ पटक-पटक रोने लगता है", वैसे ही यह चाहे जितने चुत्तड़ पटक लेवें, हरयाणा और खापलैंड पे चाहें जितने जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े सजा लेवें, एक दिन जावेंगे वैसे ही जैसे 1761 वाले गए थे| ना हमें हथियार उठाने की जरूरत और ना ही इनको मुंबई वाले मुम्बईकरों की तरह बिहारी-बंगालियों के स्टाइल में पीटने की जरूरत|
बस जब यह लोग हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े बनाने से थक जावें और जिनको यह लोग नॉन-जाट के नाम पर जाट के खिलाफ भिड़ा रहे हैं वो इनकी इन चालों को ना समझ जावें, तब तक एक स्टेज पर किसी नचनियां की भाँती स्वांग दिखाने वाली की तरह इनके स्वांग देखते रहें| और जब नॉन-जाट इनके पैंतरे भांप जावें तो समझ लेना कि अब इनकी विदाई का समय हो गया| वही महाराजा सूरजमल वाली 'फर्स्ट-ऐड' विदाई!
जय योद्धेय! - फूल मलिक
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