1) 100-100 खेत कीटों का ज्ञान रखने वाले किसान कैसे निरक्षर हो सकते हैं?: यहां संदर्भ में सन 2008 में स्वर्गीय डॉक्टर सुरेन्द्र दलाल द्वारा हरयाणा के जिला जींद के निडाना गाँव में "खेत-कीट साक्षरता अभियान" के तहत शुरू की गई खेत-कीट पाठशाला में आज एक-एक किसान ऐसा है जो किताबी अक्षरी ज्ञान में अनपढ़ होते हुए भी बायोलॉजिकल खेत-कीट ज्ञान इतना माहिर है कि 100-100 खेत-कीटों का ज्ञान रखता है| जहां देश के 70% से अधिक कृषि वैज्ञानिक तक मुश्किल से 10 कीटों के जीवनचक्र, फसलों में उनके फायदे-नुकसान पर नहीं बता सकते, वहीँ यह किसान इस मामले में इन सबको मात देता है तो वह सिर्फ एक अक्षरी ज्ञान ना होने की वजह से अनपढ़ कैसे हो सकता है? आज यह एक अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अभियान है, जिसकी मीडिया व् कृषि वैज्ञानिकों से ले सरकारी मशीनरी ने खूब कवरेज भी की है और इसकी ऑथेन्टिसिटी को खूब जांचा, परखा और स्वीकारा है| डॉक्टर दलाल के गुजर जाने के बाद स्थानीय खापों ने इस अभियान को बड़ी तल्लीनता से आगे बढ़ाया है, जिनमें माननीय दादा कुलदीप सिंह ढांडा जी का नाम उल्लेखनीय है|
2) किसानी ज्ञान को ज्ञान अथवा शिक्षा क्यों नहीं माना जाता?: एक ऐसी कला, एक ऐसी विधा जो धरती का सीना चीर देश के पेट के लिए अन्न-धान उगा दे वो एक महज अक्षरी ज्ञान ना होने की वजह से अनपढ़ कैसे ठहराई जा सकती है? किसान की इस विधा को तो वेद-शास्त्रों तक में "अन्नदाता" व् "अन्नदेवता" का दर्जा प्राप्त है| तो फिर जो "देवता" हो गया वो अनपढ़ कैसे हुआ? क्या सारी उम्र देश के लिए अन्न पैदा करने वाले किसान से अपने सदाचार यानी विजडम से देश को चलाने हेतु अपनी पारी खेलने का अधिकार सिर्फ इस बात पर छीन लिया जायेगा कि उसको अक्षरी ज्ञान नहीं?
3) विश्वविधालयों को कहा जाए कि तमाम ऐसे बुद्धिजीवी परन्तु अनपढ़ किसानों को मास्टर्स, ग्रेजुवेट व् डॉक्टरेट की मानद (आनरेरी) डिग्रीयां देवें: हमारे देश में एक राजनेता, अभिनेता, कलाकार और सामाजिक कार्यों के क्षेत्र में अद्वितीय कार्य करने वालों को, जैसे विभिन्न विश्वविधालय डॉक्टरेट की आनरेरी डिग्रियां देते हैं ऐसे ही कृषि विश्वविधालयों को आदेश हो कि बिंदु एक में बताये गए तमाम तरह के किसानों को भी डॉक्टरेट से ले मास्टर्स और ग्रेजुवेट की आनरेरी डिग्रियां देवें| क्योंकि ऐसी डिग्रियां लेने वाले लोग ना कभी किसी पीएचडी की क्लास में गए होते हैं, ना किसी रिसर्च गाइड के तहत रह कर कोई थीसिस लिखे होते हैं परन्तु फिर भी सिर्फ उनके कार्यक्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए उनको आनरेरी डिग्रियां दी जाती हैं तो इसलिए यह कृषि क्षेत्र में भी दी जानी चाहियें| इससे कम से कम जिन्होनें तमाम उम्र इतनी मेहनत से देश का ना सिर्फ पेट भरा हो वरन इतना गहन कीट-ज्ञान अर्जित किया हो कि एक चलती-फिरती पाठशाला बन गए हों, वो भी डॉक्टरेट या पढ़े-लिखे कहलावें|
4) रोड़ा इस बात पर अड़ाया जा रहा है कि डिजिटल इंडिया मुहीम के तहत अनपढ़ों को सहजता से नहीं सिखाया जा सकता, यानी उनकी लर्निंग कैपेबिलिटी पर संदेहास्पद स्थिति कही जा रही है। जबकि खेत-कीट कमांडोज़ का उदाहरण साबित करता है कि किसानों में लर्निंग कैपसिटी किसी भी पढ़े-लिखे इंसान से कम नहीं, क्योंक जब वह 100-100 कीटों का ज्ञान और अन्न पैदा करने के ज्ञान की लर्निंग कैपेसिटी रखते हैं तो क्या जब वो औसतन 5000 लोगों के चुने हुए नुमाइंदे बनेंगे तो उनको ट्रेनिंग के जरिये वह चीजें नहीं सिखाई जा सकेंगी? आखिर एक पढ़े-लिखों के ऑफिस में भी तो कोई नई चीज वहाँ के स्टाफ को ट्रेंड करके ही शुरू की जाती है?
तो क्या सरकार सिर्फ इस ट्रेनिंग से अपना पल्ला झाड़ रही है? अधिकतर मामलों में पंच-सरपंच ने तो वैसे भी दिशा-निर्देश देने हैं कार्य तो उनके तहत जनता अथवा कर्मचारी करेंगे या ट्रेनिंग देने वाले उनको सीखा के जायेंगे। वहीँ बात कि जब वो इतने बड़े कीट-विज्ञानी बन सकते हैं तो वो पंच-सरपंची क्यों नहीं चला पाएंगे?
बशर्ते कि सरकार डॉकटर सुरेन्द्र दलाल जैसी जनसेवा की भावना हर कर्मचारी में पैदा करने पे जोर दिलावे।
अगर यह फैसला लागू हो गया तो इससे सरकारी कर्मचारी में डिक्टेटर बन जाने की संभावना बलवती रहेगी और उसके अंदर से जनसेवा की भावना कुंध होती चली जाएगी।
Jai Yoddhey - Phool Malik
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