आज हरयाणा के मुख्यमंत्री उनकी सरकार की एक साल की उपलब्धियां गिनाते हुए
ऐसे लग रहे थे जैसे हरयाणा व्यापार मंडल के अध्यक्ष बोल रहे हों। जनता का
नुमाइंदा यानि मुख्यमंत्री वाली तो कोई फील ही नहीं आ रही थी, पूरी
कांफ्रेंस के दौरान|
ना किसान का जिक्र, ना जमीन पे आ चुके फसलों के भावों का जिक्र, ना आसमान तक जा चुके दालों-सब्जियों के भावों का जिक्र, ना दलित उत्पीड़न का जिक्र, ना मुस्लिम उत्पीड़न का जिक्र। ना नौकरियों की नियुक्ति में देरी का जिक्र, ना कच्चे अध्यापकों को पक्के करने का जिक्र, ना बढ़ती रिश्वतखोरी और भाईभतीजावाद का जिक्र, ना समाज में पसर रही अशांति और असहनशीलता का जिक्र, ना सरकार के नेताओं के गैर-जिम्मेदाराना ब्यानों और रवैयों का जिक्र; खैर ब्यान तो खुद जनाब कौनसे सम्भल के देते हैं। एक ही झटके में ऐसा मुंह खोलते हैं कि हरयाणा तो हरयाणा बिहार तक में बीजेपी की चुनावी हालत खस्ता कर देते हैं।
कमाल की बात तो यह है कि किसान को तो लागत के पूरी होने तक के भी फसल-भाव नहीं मिल रहे और उसके बावजूद भी दाल-सब्जियों के भाव आसमान छू रहे हैं| और सरकार भोंपू बजाये जा रही है कि हमने भ्रष्टाचार मिटा दिया? तो आखिर यह भ्रष्टाचार कौन देखेगा सरकार जी कि किसान से उसकी लागत भी पूरी ना हो उस भाव पे खरीदी जाने वाली दाल कंस्यूमर तक पहुंचते-पहुंचते इतनी महंगी कैसे हुए जा रही है?
किसान के खेत से दाल खरीद है 25-35 रूपये प्रति किलो के बीच,परन्तु शहर-गाँव के ग्राहक को मिल रही है 200 रूपये प्रति किलो। अच्छे दिन तो सिर्फ बिचौलियों, सटोरियों और व्यापारियों के आये हैं। और इसमें सरकार को कोई भ्रष्टाचार, जमाखोरी वगैरह भी नहीं दिखती।
भगत भी बेचारे सुन्न हैं, ना फड़फड़ाहट ना फड़फड़ाहट की गुंजाइस। मुझे तो अचरज इस बात का है कि 200 रूपये किलो की दाल खा के भी भगतों को सरकार के खिलाफ आवाज उठाने के बजाये दंगे कैसे सूझ जाते हैं। हाँ तभी तो अंधभगत कहलाते हैं, खुले दिमाग के भगत होते तो दंगे करने से पहले अपने घरों की बिगड़ रही इकोनॉमी पे आवाज ना सही कम से कम चिंता तो उठाते।
फूल मलिक
ना किसान का जिक्र, ना जमीन पे आ चुके फसलों के भावों का जिक्र, ना आसमान तक जा चुके दालों-सब्जियों के भावों का जिक्र, ना दलित उत्पीड़न का जिक्र, ना मुस्लिम उत्पीड़न का जिक्र। ना नौकरियों की नियुक्ति में देरी का जिक्र, ना कच्चे अध्यापकों को पक्के करने का जिक्र, ना बढ़ती रिश्वतखोरी और भाईभतीजावाद का जिक्र, ना समाज में पसर रही अशांति और असहनशीलता का जिक्र, ना सरकार के नेताओं के गैर-जिम्मेदाराना ब्यानों और रवैयों का जिक्र; खैर ब्यान तो खुद जनाब कौनसे सम्भल के देते हैं। एक ही झटके में ऐसा मुंह खोलते हैं कि हरयाणा तो हरयाणा बिहार तक में बीजेपी की चुनावी हालत खस्ता कर देते हैं।
कमाल की बात तो यह है कि किसान को तो लागत के पूरी होने तक के भी फसल-भाव नहीं मिल रहे और उसके बावजूद भी दाल-सब्जियों के भाव आसमान छू रहे हैं| और सरकार भोंपू बजाये जा रही है कि हमने भ्रष्टाचार मिटा दिया? तो आखिर यह भ्रष्टाचार कौन देखेगा सरकार जी कि किसान से उसकी लागत भी पूरी ना हो उस भाव पे खरीदी जाने वाली दाल कंस्यूमर तक पहुंचते-पहुंचते इतनी महंगी कैसे हुए जा रही है?
किसान के खेत से दाल खरीद है 25-35 रूपये प्रति किलो के बीच,परन्तु शहर-गाँव के ग्राहक को मिल रही है 200 रूपये प्रति किलो। अच्छे दिन तो सिर्फ बिचौलियों, सटोरियों और व्यापारियों के आये हैं। और इसमें सरकार को कोई भ्रष्टाचार, जमाखोरी वगैरह भी नहीं दिखती।
भगत भी बेचारे सुन्न हैं, ना फड़फड़ाहट ना फड़फड़ाहट की गुंजाइस। मुझे तो अचरज इस बात का है कि 200 रूपये किलो की दाल खा के भी भगतों को सरकार के खिलाफ आवाज उठाने के बजाये दंगे कैसे सूझ जाते हैं। हाँ तभी तो अंधभगत कहलाते हैं, खुले दिमाग के भगत होते तो दंगे करने से पहले अपने घरों की बिगड़ रही इकोनॉमी पे आवाज ना सही कम से कम चिंता तो उठाते।
फूल मलिक
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