Thursday 19 November 2015

ट्रेडिशनल "नगरी इकनोमिक मॉडल" की फिर से जरूरत आन पड़ी है हरयाणे की धरती को!

बाकी के भारत के किसान की तो ज्यादा कह नहीं सकता परन्तु हरयाणे के किसान को अगर बढ़ती हुई मंडी-फंडी की मार से निबटना है तो अपने पुरखों के पुराने "नगरी इकनोमिक मॉडल" को मूलभूत सुधारों के साथ अपनाना होगा। क्योंकि मंडी-फंडी के साथ-2 शरणार्थियों के पहले के प्रेशर और आये दिन और ज्यादा बढ़ते जा रहे प्रेशर से विशाल हरयाणा (मोटे तौर पर वर्तमान हरयाणा + दिल्ली + पश्चिमी यूपी + दक्षिणी उत्तराखंड + उत्तरी राजस्थान) को अगर कोई बचा सकता है तो वह सिर्फ यही मॉडल है।

पूर्वोत्तर की तरफ से आ रहा बुद्धिजीवी वर्ग सामंतवादी सोच का है| पूर्वोत्तर और विशाल हरयाणा (खापलैंड) पर खेती के मॉडल में मूलभूत अंतर हैं, जो इस प्रकार हैं:

1) पूर्वोत्तर में जमींदार खेत में काम नहीं करता अपितु मजदूरों को आदेश देकर करवाता है। जबकि खापलैंड पे जमींदार मजदूर के साथ खुद भी खेत में खट के कमाता है। इसलिए खापलैंड की जमींदारी पद्द्ति सामंती नहीं अपितु आधुनिकतावादी है|

2) पूर्वोत्तर में जहां आज भी बेगार बहुतायत में पाई जाती है, वहीँ खापलैंड पर सदियों से सीरी-साझी के बीच बनियों-मुनिमों द्वारा सालाना ऑफिसियल कॉन्ट्रैक्ट बनते आये हैं। आजकल तो तहसीलदार के यहां कच्ची रिजस्ट्री भी होने लगी हैं।

3) पूर्वोत्तर में जमींदार और मजदूर का रिश्ता मालिक-नौकर का कहलाता है। जबकि खापलैंड पर यह रिश्ता सीरी-साझी यानी पार्टनर्स का होता है।

खापलैंड के किसान का हर वो बालक इस बात को नोट करे जो खेतों से निकल के कॉर्पोरेट में जॉब करने चढ़ता है कि सीरी-साझी वाला कल्चर ही गूगल (google) जैसी विश्व की लीडिंग कंपनी का है। गूगल में हर कोई पार्टनर होता है कोई नौकर-मालिक नहीं। सो यह वर्किंग कल्चर आप अपनी खापलैंड की विरासत से ले के वहाँ जा रहे हैं। अत: वहाँ जो नया सीखना है वो वर्किंग कल्चर नहीं अपितु टेक्नोलॉजी और ग्लोबल कम्युनिकेशन भर सीखना है।

4) पूर्वोत्तर का स्वर्ण ऊपर बताये बिंदु एक की वजह से बिहार में अपने खेतों में काम नहीं करेगा, बेशक उसको हरयाणा में आ के मजदूरों के साथ काम करना पड़ जाए।

इस पर एक निजी अनुभव बताता हुआ आगे बढूंगा। बारहवीं कक्षा के एग्जाम के बाद की छुट्टियों में मेरे पिता जी ने गेहूं कढ़ाई सीजन में हमारे यहां आई 20 बिहारी मजदूर भाईयों की टोली और मशीनों की निगरानी हेतु मेरी ड्यूटी लगा दी। हरयाणा में आने वाली ऐसी टोलियों का एक ठेकेदार यानी मैनेजर होता है जिसका काम पूरी टोली के खाने-पीने, रहन-सहन, दवा-दारू और टोली का फाइनेंस सम्भालना होता है। उसके अलावा बाकी हर कोई हाड-तोड़ काम करता है। हुआ यूँ कि उस साल हमारे यहां आई टोली में दो बन्दे ऐसे थे जो जब मर्जी आये काम करें और जब मर्जी आये बैठ जाएँ। उनके अलावा कोई बैठे तो ठेकेदार उसको हड़का के लेवे परन्तु उन दोनों को कुछ ना कहवे। मैंने यह देख ठेकेदार को कहा कि यह दो तुम्हारे रिश्तेदार हैं क्या जो इनको कुछ नहीं कहते? तो ठेकेदार बोला कि नहीं भैया जी असल में यह दोनों हमारे गाँव के ठाकुर और बाह्मन लोग हैं। अहम के कारण अपने खुद के खेतों में तो काम करते नहीं, इसलिए चोरी-छुपे यहां आ के मजदूरी कर रहे हैं। और हम ठहरे दलित और यह ठाकुर-बाह्मन, इनको अभी कुछ कहेंगे तो फिर वापिस गाँव में जाने पे हमारी खैर नहीं। मैंने विषयमित होते हुए पूछा चोरी-छुपे? वो बोला जी भैया जी, उन्हां बोल के आये हैं कि हम पिकनिक पे जा रहे हैं| मैंने ओहके टाइप फील करते हुए आगे पूछा कि क्या इनको पूरी दिहाड़ी दोगे? तो बोले नाहीं भैया जी, सबका घंटा नोट करत हूँ, जो दिन में जित्तो घंटा खटेगा उका उत्ता मजूरी; पर अगर बाकी को ना हड़काऊं तो काम कैसे पूरा होगा। मैंने कहा ओके ठीक है। उस दिन मुझे समझ आया कि उपजाऊ जमीन और नदियों की भरमार के बावजूद भी यह लोग यहाँ तक क्यों दौड़े आते हैं और शायद यही झूठे अहम के कारण बिहार आज भी पिछड़ा हुआ है।

अब इस मूलभूत फिलोसोफी के अंतर की वजह से समस्या यह आ रही है कि पूर्वोत्तर से खापलैंड पे आ के बसने वाला बुद्धिजीवी और लेखक वर्ग खापलैंड के कृषि मॉडल को भी उसी तरीके से सोचता है, उसी चश्मे से खापलैंड के किसान और मजदूर के रिश्ते को देखता है जैसा उसके वहाँ है| और बजाय खापलैंड की फिलॉसफी को समझे अपने वाली के चश्मे से लिखके किताबें और आर्टिकल पाथता है और मीडिया को उसी परिपाटी का मटेरियल सौंपता है, जिससे विशाल हरयाणा यानी तमाम खापलैंड की साख दिनों-दिन गिरते-गिरते इतनी गिर चुकी है कि इन लोगों की कही ही हरयाणा की तस्वीर मानी जाने लगी है ऐसा प्रतीत होने लगा है|

इसकी दूसरी वजह यह भी है कि पूर्वोत्तर से मध्यमवर्गीय इतना नहीं आ रहा जितना या तो बिलकुल मजदूर वर्ग का आ रहा है या गोलमेजों पर बुद्धिजीविता के बखान करने वाला कलम वाला आ रहा है। और इनमें से यह कलम वाला यहां क्या गुल खिला रहा है उसका नतीजा हरयाणा पर बनाये जा रहे आइडेंटिटी क्राइसिस के रूप में साफ़ महसूस किया जा सकता है। और यही आहट मेरी नींद उड़ाए हुए है।

वैसे सच कहूँ तो 1947 से ही हरयाणवियों ने ना ही तो अपनी शुद्ध संस्कृति जी के देखी है और ना ही इसकी डॉक्यूमेंटेशन पर इतना ध्यान दे पाये हैं। वजह साफ़ है कभी देश के बंटवारे के कारण से 1947 में आये शरणार्थी को अपने में समाहित करने में, तो कभी फिर पंजाब में आतंकवाद के चलते दूसरी बार फिर उसी शरणार्थी वर्ग के पंजाब वाले हिस्से को 1984-86 में अपने यहां समाहित करने में, तो अब पूर्वोत्तर से आ रहे को समाहित करते-करते हरयाणवी अपनी पहचान लुप्तराय सी बना बैठे हैं। शरणार्थियों को इसके सहयोग का आउटपुट भी हरयाणवी संस्कृति और मानुष की गिरती साख के रूप में नकारात्मक आया है| क्योंकि इन शरणार्थी समुदायों की सोच में शरणार्थी को अपने में समाहित करने की हरयाणवी की दरियादिली को उसकी कंधे से ऊपर की कमजोरी के रूप में लिया जा रहा है। जैसे ही यह लोग हरयाणवियों के बनाये इंफ्रा और समायोजन से समर्थ हो जाते हैं यह हरयाणवी संस्कृति को नकारात्मक तरीके से दूर हटाते जाते हैं। ऐसा लगता है कि जैसे हरयाणा के पुरखों ने इनका क्या सहयोग किया उसको याद ही नहीं रखना चाहते हों। शायद महाराष्ट्रीयों की भांति हरयाणवियों ने कभी क्षेत्रवाद-जातिवाद-भाषावाद को नहीं छुआ, इसलिए। ख़ुशी-ख़ुशी अपने रोजगार और संसाधन बंटवाए परन्तु हाथ लगता दिख रहा है तो सिर्फ इनका बेगैरतपना|

पूर्वोत्तर के शरणार्थियों के आने से पहले खापलैंड का हर गाँव, गाँव नहीं अपितु नगरी बोला जाता था क्योंकि हर गाँव अपनी जरूरतें पूरी करने में स्वसमर्थ था। गाँव का कांसेप्ट तो पूर्वोत्तर वालों के यहां आने के बाद इधर आया है, वरना हमारे यहां अधिकतर या तो नगर होते आये हैं या नगरी। और यह मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि वैसे तो आज भी, परन्तु एक दशक पहले तक तो पक्के से खापलैंड के हर गाँव में जब भी कोई बड़ा फंक्शन होता था तो उसमें सबसे बड़ा जयकारा उस नगरी और उस नगरी के खेड़े का लगता रहा है। जैसे मेरे गाँव का नाम निडाना है तो जयकारा लगता था "जय निडाना नगरी", "जय नगर/दादा खेड़ा या जय बड़ा बीर"। लेकिन हमने इसमें किसी की "जय माता दी" तो किसी की "काली कलकत्ते वाली” तक साफगोई से बेझिझक शामिल कर ली, परन्तु इसमें हमारी सहिषुणता और निष्पक्षता देखने की बजाये, यह लोग हमें ही कंधों से ऊपर कमजोर बताने लगे हैं वो भी बावजूद सीएम तक की कुर्सी पर इनको हंसी-हंसी स्वीकार करने के। यह इस अति भलाई का ही फल है कि हम नगरी से गिर के गाँव बन चुके हैं। अब इन पर ध्यान देने की बजाय खुद को सम्भालना होगा वरना वो दिन दूर नहीं जब हम गाँव से भी गिर के इनके यहां की "बस्ती" या "झुग्गी-झोंपड़ी" मॉडल में सिकुड़ जावेंगे।

सबसे पहले इन पर से अपना ध्यान हटावें और खापलैंड के ट्रेडिशनल इकनोमिक मॉडल को फिर से बहाल करने पे लगावें। इसके लिए सबसे जरूरी है कि:

1) हर हरयाणवी को यह बात अच्छे से पता हो कि पूर्वोत्तर में जिन बौद्धिक और आध्यात्मिक विचारों पर गोलमेज डिस्कशन भर होते हैं, उनपे हरयाणा और खापलैंड सदियों-सदियों से प्रैक्टिकल करता आया है। अत: हमें इनकी थ्योरियों में नहीं घुसना, अपितु अपनी प्रक्टिकल्स को डॉक्यूमेंट करना है।

2) प्राचीन समय से खापलैंड का हर गाँव एक "स्वतंत्र इकनोमिक मॉडल" होता आया है। हमें इस मॉडल को आज के अनुसार फिट बना के अपने यहां के हर गाँव में उतारना होगा।

3) मोदी जैसे नेता जब यह कहें कि पश्चिमोत्तर भारत के गाँव तो बहुत अग्रणी हैं, यहां का इंफ्रा बहुत मजबूत है इसलिए पैसा भारत के अन्य हिस्सों में ले जाने की जरूरत है तो कहा जाए कि जनाब हमें नगरी से गाँव नहीं नगर बनना है। देश के बाकी हिस्से को जो पैसा देना है दो, परन्तु हमें इतंजार क्यों? क्या जब तक वो झुग्गी-झोंपड़ी-बस्ती से गाँव और गाँव से नगरी बनेंगे तब तक हम इतंजार करेंगे? बिलकुल नहीं, ऐसे तो हम ही नगरी से गाँव और गाँव से झुग्गी-झोंपड़ी बन जाएंगे। हमें हमारा हिस्सा लगातार मिलना चाहिए ताकि हम नगरी से गाँव बनते जा रहे, वापिस नगरी और फिर उससे नगर बनें। अब हमें हमारे हर गाँव में शहर की भांति सीवरेज का इंफ्रा चाहिए।

4) धर्म-पाखंड के दिन-प्रतिदिन चादर से बाहर पसरते जा रहे पांवों को चादर में समेटना होगा और मंडी-फंडी के अधिनायकवाद से बाहर निकल शुद्ध खाप सोशल थ्योरी के सोशल इन्जिनीरिंग मॉडल पे वर्कआउट करना होगा। ताकि गाँव-नगरियों में किसान इतनी सूझ-बूझ बना सकें कि अपने गाँव के खाद्दान और फल-सब्जी की जरूरतें अपने ही गाँव से पूरी कर सकें। आखिर क्या नहीं है हमारे पास। हमारे पुरखों द्वारा हाड-तोड़ मेहनत से तैयार किये समतल खेत, सिंचाई के साधन और तमाम तरह का मित्र कलाइमेट। गाँवों को खुद को फिर से स्वतंत्र अर्थव्यवस्था घोषित कर आपस में आयत-निर्यात शुरू करना होगा।

5) किसानों को यह समझना होगा कि अगर आप एक दूसरे की जरूरत पूर्ती का जरिया नहीं बने तो फिर आपकी जरूरतें वो पूरी करेंगे जो आपसे आपकी फसल भी लेंगे और दाम भी मनमर्जी के देंगे।

6) एक ऐसे मॉडल के तहत जिसमें एक गाँव में हर प्रकार की जरूरत पूरी हो ऐसी लघु मार्किट (इकोनॉमी सेंटर) खड़ी करनी होंगी।

बिंदु और भी बहुत हैं, परन्तु फ़िलहाल इतना ही कहना है कि हरयाणा वालो जाट बनाम नॉन-जाट के कौतुक से बाहर निकल के इस हरयाणवी माँ की भी सुध ले लो| शरणार्थी यहां सिर्फ पैसा कमाता है, हद मार के वापिस अपनी ही संस्कृति में घुस जाता है। तुम्हारी तीज – सांझी – अहोई – संक्रांत - मेख(बैशाखी) - सीली सात्तम - हरयाणा शहीदी दिवस - बसंत पंचमी आदि ना कोई "जय माता दी" वाला मनाएगा और ना ही कोई "छट पूजा" या "काली कलकत्ते वाली" वाला| यह तो तुमको ही मनानी होंगी। इससे यह भी समझना होगा कि यह लोग तुम्हारी ही धरती पे आकर अपने त्यौहार तक मनाने लग जाते हैं परन्तु तुम्हारों में कभी नहीं घुलते-मिलते फिर तुम बेशक चाहे कितने ही इनके चौकी-चुबारे सर पे धरे बौराये फिरो।

विशेष: मैं उस धरती और सभ्यता का सपूत हूँ जो क्षेत्रवाद-जातिवाद-धर्मवाद-भाषावाद पर ना ही तो लड़ना सिखाती और ना ही उलझना, इसलिए इस लेख को कोई भी इस तरीके से ना लेवे कि यह मैंने क्या कह दिया। कहीं कोई ठाकरे/पेशवा तो नहीं हरयाणा पर उतर आया, बिलकुल भी नहीं क्योंकि हम मरहमपट्टी/फर्स्ट-ऐड (पानीपत की तीसरी लड़ाई) करने वाले लोग हैं, इसलिए हम इनकी तरह उत्तरी भारतियों की पिटाई वाले रंडी-रोणों में यकीन नहीं किया करते। परन्तु इससे भी आगे नरम और सीधा बने रह के कटना नहीं है हमें, क्योंकि सीधे पेड़ ही सबसे पहले काटे जाया करते हैं। और यकीन मानिए हरयाणवी काटे जा रहे हैं। आशा करता हूँ कि इस लेख को हर कोई सिर्फ इस मंशा लेगा कि हरयाणा-हरयाणवी-हरयाणत को कैसे बचाना है, उस बारे इसमें लिखा है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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