उत्तरी भारत कभी मंडी-फंडी की पद्द्ति पर नहीं जिया वरन जाटू सभ्यता की
पद्द्ति पर जिया है, और आज "मंडी-फंडी अधिनायक थ्योरी" "जाटू सोशल थ्योरी"
को रद्द कर खुद को लागू करना चाहती है; बस यही भर है यह मंडी-फंडी द्वारा
फैलाया गया जाट बनाम नॉन-जाट का मसला|
उन्नीसवीं सदी में एक ब्रिटिश समाजशास्त्री हुए श्रीमान आर. सी. टेम्पल (1850-1931), उन्होंने पूरे भारत की नरविज्ञान (एंथ्रोपोलॉजी) का अध्यन किया और अपने शोध में पाया कि जहां बाकी के भारत में मंडी-फंडी की अधिनायक थ्योरी का एकछत्र राज चलता है, इसी की पद्द्ति पर लोग जीते हैं; वहीँ जाट बाहुल्य उत्तरी भारत में इसका बिलकुल विपरीत है| यहां लोग "जाटू सोशल थ्योरी" की खाप लोकतान्त्रिक पद्द्ति से जीते हैं| वो आगे कहते हैं कि "जाटू सोशल थ्योरी" इतनी ताकतवर और आमजन की प्रिय रही है कि इसने कभी भी मंडी-फंडी अधिनायकवाद को यहां प्रभावशाली नहीं होने दिया|
और जो आज के हरयाणा का सारा माहौल जाट बनाम नॉन-जाट बना खड़ा है यह और कुछ नहीं सिवाय मंडी-फंडी सोशल थ्योरी बनाम जाटू सभ्यता सोशल थ्योरी की लड़ाई के| आज की इस लड़ाई में जहां जाट शांत और प्रतिक्रियाहीन सा दीखता है वहीँ मंडी-फंडी पूरी आक्रामकता से जाटू सभ्यता के प्रभाव को निष्क्रिय करने में तल्लीन है| मंडी-फंडी यहां जाटू सभ्यता को हटा अपनी पद्द्ति लागु करना चाहता है, और इसीलिए उसने नॉन-जाट के नाम पर हर वो समाज भी तोड़ने की कोशिश कर रखी है जिसको यह खुद कभी शूद्र तो कभी दलित तो कभी अछूत तो कभी ओबीसी ठहराते, लिखते और कहते आये हैं| और ताज्जुब की बात तो यह है कि यह सब लोग इनके इस जाल से सम्मोहित चल रहे हैं|
लेकिन मंडी-फंडी यह नहीं जानते कि जो "सोशल इकनोमिक मॉडल" जाटू सभ्यता रखती और बरतती आई है वो ना ही तो इनके पास है और एक पल को जाटू वाले की कॉपी करके ऐसा ही कुछ करना भी चाहें तो कभी नहीं कर सकते, क्योंकि उसको अपनाना इनके जींस में ही नहीं है|
इन दोनों बेसिक मॉडल में जो फर्क हैं और जो ना सिर्फ जाट के लिए अपितु मंडी-फंडी के बहकावे में आने वाले नॉन-जाट के लिए भी जानने जरूरी हैं वो इस प्रकार हैं:
1) खाप सोशल थ्योरी "सीरी-साझी" यानी गूगल जैसी कंपनी के वर्किंग कल्चर "पार्टनर" की संस्कृति पे सदियों से चलती आई है जबकि जहां-जहां मंडी-फंडी सोशल थ्योरी का एकछत्र राज है यह लोग वहाँ "नौकर-मालिक" की पद्द्ति पर चलते हैं और चलते आये हैं|
2) खाप अथवा जाटू सोशल थ्योरी का अपना एक "विलेज इकनोमिक मॉडल" रहा है जिसके तहत हर गाँव एक स्वतंत्र गणराज्य व् लोकतंत्र के साथ-साथ उन्मुक्त आर्थिक समर्थता का मॉडल होते हुए "गाँव" की जगह "नगरी" कहलाता आया है| जबकि जहां-जहां मंडी-फंडी थ्योरी चलती आई है, वहाँ सिर्फ इन्हीं लोगों की अधिनायकवादी (totalitarian) सामंती चलती आई है और आज भी मौजूद है|
3) जहां जाटू सोशल थ्योरी में जाट किसान अपने सीरी के साथ (स्वतंत्र लिखित कॉन्ट्रैक्ट के तहत) कंधे-से-कंधा मिला के काम करता आया है वहीँ मंडी-फंडी सिस्टम में खेत के किनारे खड़ा हो के नौकरों से (बंधुआ मजदूरी के तहत) काम लेने की संस्कृति रही है| और जहां-जहां यह आज भी एकछत्र हैं, वहाँ ऐसा ही वर्किंग कल्चर है|
4) जहां जाटू सभ्यता की संस्कृति में एक खाप पंचायत में किसी भी जाति सम्प्रदाय का आदमी पंच, अध्यक्ष या आयोजक आदि होता/बनता आया और आज भी होता/बनता है, वहीँ मंडी-फंडी सभ्यता में सिर्फ यही लोग पंचायत में पंच, अध्यक्ष या आयोजक हो सकते हैं| इसके प्रत्यक्ष उदहारण देखने हैं तो इनके एकछत्र राज वाले भागों में जा के देखे जा सकते हैं|
5) आज अगर उत्तरी भारत (जाट-बाहुल्य क्षेत्र) में बाकी भारत की अपेक्षा धार्मिक कर्मकांड-पाखंड-ढोंग की अति वाले कुकृत्य जैसे कि दलितों की बेटियों को मंदिरों में देवदासी (चिंगारी और गिद्द जैसी फिल्म देखें) बनाना, लड़की के व्रजस्ला होते ही मंदिरों के गर्भगृहों में उसका भोग लगाना ('माया' फिल्म देखें), विधवा को पुनर्विवाह की जगह विधवाश्रम भेजना (वाटर एवं दामुल फ़िल्में देखें) आदि बिलकुल भी नहीं और बाकी भी एक नियंत्रित अवस्था यानी अपनी हद की परिधि में रही हैं तो यह सिर्फ जाटू सभ्यता के प्रभाव की वजह से| ऊपर से जाट आर्य-समाज की विचारधारा ने भी इनके मनमाने पाखंडों को उत्तरी भारत में पैर पसारने से बहुत हद तक रोका है| और यही वो उत्तेजना और बेचैनी है कि आज यह जाटू सोशल थ्योरी को जितना हो सके उतना बदनाम कर रास्ते से राह के रोड़े की भांति हटाना चाहते हैं|
ऐसे ही बहुत सारे तुलनात्मक उदाहरण हैं जो इन दोनों सोशल थ्योरीज़ को एक दूसरे के विपरीत खड़ा करते हैं| जिन पर एक खुली बहस भी की जा सकती है| इसको ज्यादा ना खींचते हुए अब आता हूँ कि आखिर जब जाटू सभ्यता ना ही तो मंडी-फंडी सभ्यता की तरह आज के दिन इतनी आक्रामक दिख रही और ना ही ऐसे प्रोपेगैंडे रच रही जैसे कि मंडी-फंडी इसके खिलाफ रच रही है तो जाटू सभ्यता फिर भी इतनी जकड़न में क्यों आई हुई है?
इसका सबसे बड़ा कारण है कि जाटों में बहुत से ऐसे लोग हैं जो मंडी-फंडी सभ्यता के जातिपाती से ले छुआछूत और ऊँच-नीच के पाश को अपने गले में डाले चल रहे हैं| इसका परिणाम यह होता है कि इससे मंडी-फंडी को दलित-पिछड़े के आगे जाट को उनका उसी चीज के लिए दुश्मन बताने का प्रोपेगेंडा फ़ैलाने का मौका मिलता है जो वास्तव में इन्हीं की देन है| यानि जाटों की यह नादानी इनको ही मंडी-फंडी का सॉफ्ट-टारगेट बनाती है|
दूसरा सबसे बड़ा कारण है खाप जैसी सोशल इंजीनियरिंग मॉडल में अपग्रेडेशन कर इन द्वारा अपने लिए एसजीपीसी की भांति एक अम्ब्रेला बॉडी ना खड़ी करना| इसको कुछ इस तरह समझें| जैसे पुराने मकानों में चिमनी वाले चूल्हे होते थे, और ताकि बरसात का पानी या पक्षी की बीट वगैरह अंदर ना आ सके इसलिए वो चिमनियां एक छतरी से ढंकी जाती थी| आज की खापों की हालत यही हो रखी है कि इन्होनें उस चिमनी को एसजीपीसी की भांति एक अम्ब्रेला बॉडी रुपी छतरी से नहीं ढंका हुआ| इसलिए मंडी-फंडी का खड़ा किया हुआ एंटी-जाट मीडिया लेता है और उसमें प्रोपेगेंडा रुपी पानी की दो-चार बूँदें टपका जाता है और नीचे ठीकठाक चलते उस चूल्हें में वो बूँदें गिरने से सब धुआं-धुआं हो जाता है|| अगर कोई इस चिमनी पे छतरी ढंक दे तो सारी समस्या हल|
तीसरा सबसे बड़ा कारण है कि शहरी जाट ग्रामीण और ग्रामीण जाट शहरी से तालमेल नहीं कर रहा| इसको कुछ इस तरीके से समझें| एक कमरे में छत से लगता परन्तु चार-एक फुट नीचे टांड (शेल्फ) होता है| अब मान लो ग्रामीण जाट तो बैठा है उस कमरे के फर्श पे यानी धरती पे और शहरी जाट तरक्की करके जा बैठा है उस टांड पे| दोनों के स्तर में इतना फर्क तो आया कि शहरी जाट ग्रामीण से ऊपर उठ गया परन्तु हैं दोनों उसी कमरे में और दोनों के ऊपर जो छत है वो है मंडी-फंडी की| जिसको तोड़ने के लिए दोनों की एकता और तालमेल जरूरी है| वो तालमेल स्वत: तो हो ही नहीं रहा, खुद जाट कर नहीं रहे और इसीलिए परेशान हुए जा रहे हैं, मंडी-फंडी की जकड़न में घुट बैठे हैं| अगर शहरी जाट टांड से नीचे उतर आये और ग्रामीण थोड़ा ऊपर हाथ बढ़ा के उनको सहयोग करे तो जब चाहें इस मंडी-फंडी के छत रुपी जिंक को तोड़ सकते हैं|
जाट बस इतना मात्र कर लेवें, और अपनी शुद्ध बिना मिलावट की "दादा खेड़ा" और जातिपाती से रहित शुद्ध खाप परम्परा को शुद्ध करके उसको पकड़े रहे तो मंडी-फंडी और जाटों के खिलाफ इनके प्रोपेगण्डे खुद ही अपनी मौत मर जायेंगे|
इन चीजों को करने का इतना फायदा और होगा कि सारा भले ही ना आये परन्तु आज के दिन मंडी-फंडी के बहकावे में चढ़ जो दलित-ओबीसी जाट से दूर जाता सा प्रतीत हो रहा है, असल में जा रहा है वो अधिकतर वापिस आ जायेगा|
अब कोई जाट यह कहे कि क्या दलित-पिछड़े को खुद नहीं दीखता कि वो किधर जा रहे हैं, तो जवाब यही है कि आप पहले उनके ऊपर से मंडी-फंडी के जाल का आवरण हटाओ, तभी तो वो आपको और आपके साथ रहने से उनके फायदे देख पाएंगे| और यह आवरण उनपे किस हद तक हावी है इसको फसलों के धरती में मिला दिए गए भाव से समझा जा सकता है| इस सरकार के एक साल में ही दलितों पर दोगुने हुए उत्पीड़न व् अत्याचारों (पिछले साल जहां 470 के करीब दलित उत्पीड़न के मामले दर्ज हुए थे वहीं इस साल 830 के करीब हुए हैं) से समझा जा सकता है|
ओबीसी और अन्य किसानी जातियों को मंडी-फंडी ने जाट के इतना खिलाफ कर दिया है कि इस नफरत में उनको फसलों की लागत तक पूरी ना कर देने वाले भाव की वजह से अपने घरों की खस्ता हाल होती जा रही इकनोमिक हालत भी 'जाट-विरोध' के आगे नहीं दिख रही| और शायद दिखने भी लगी है तो इसके खिलाफ चुप्पी साधे हुए हैं| वह चुप्पी भय की भी हो सकती है या अनिश्चितता की भी हो सकती है| और अनिश्चितता यह हो सकती है कि शायद वो जाट के उठ खड़ा होने की इंतज़ार कर रहा हो कि जाट उठे तो उसके सुर में मैं भी सुर मिलाऊँ|
दलित भी शायद 'मंडी-फंडी' के षड्यंत्र को भांप चुका है, परन्तु शायद वो इंतज़ार कर रहा है कि कब जाट "मंडी-फंडी" की दी हुई जातिपाती और ऊँच-नीच की मानसिकता से बाहर निकले और हम एक हों|
इसलिए जाट समाज को इतना तो जरूर करना होगा कि मंडी-फंडी के आवरण को तोड़ो| बेशक इसके लिए मंडी-फंडी की भांति जाट को आक्रामक होने की जरूरत नहीं, बस जाट का उठ के इन चीजों के प्रति बोलना शुरू कर देना और चल देना ही काफी होगा| इसी से "मंडी-फंडी" के हाथ-पाँव फूल जायेंगे, इनकी बुग्गी सी उलळ जाएगी| बुग्गी सी उलळ जाना को हिंदी में औंधे मुंह गिरना कहते हैं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
उन्नीसवीं सदी में एक ब्रिटिश समाजशास्त्री हुए श्रीमान आर. सी. टेम्पल (1850-1931), उन्होंने पूरे भारत की नरविज्ञान (एंथ्रोपोलॉजी) का अध्यन किया और अपने शोध में पाया कि जहां बाकी के भारत में मंडी-फंडी की अधिनायक थ्योरी का एकछत्र राज चलता है, इसी की पद्द्ति पर लोग जीते हैं; वहीँ जाट बाहुल्य उत्तरी भारत में इसका बिलकुल विपरीत है| यहां लोग "जाटू सोशल थ्योरी" की खाप लोकतान्त्रिक पद्द्ति से जीते हैं| वो आगे कहते हैं कि "जाटू सोशल थ्योरी" इतनी ताकतवर और आमजन की प्रिय रही है कि इसने कभी भी मंडी-फंडी अधिनायकवाद को यहां प्रभावशाली नहीं होने दिया|
और जो आज के हरयाणा का सारा माहौल जाट बनाम नॉन-जाट बना खड़ा है यह और कुछ नहीं सिवाय मंडी-फंडी सोशल थ्योरी बनाम जाटू सभ्यता सोशल थ्योरी की लड़ाई के| आज की इस लड़ाई में जहां जाट शांत और प्रतिक्रियाहीन सा दीखता है वहीँ मंडी-फंडी पूरी आक्रामकता से जाटू सभ्यता के प्रभाव को निष्क्रिय करने में तल्लीन है| मंडी-फंडी यहां जाटू सभ्यता को हटा अपनी पद्द्ति लागु करना चाहता है, और इसीलिए उसने नॉन-जाट के नाम पर हर वो समाज भी तोड़ने की कोशिश कर रखी है जिसको यह खुद कभी शूद्र तो कभी दलित तो कभी अछूत तो कभी ओबीसी ठहराते, लिखते और कहते आये हैं| और ताज्जुब की बात तो यह है कि यह सब लोग इनके इस जाल से सम्मोहित चल रहे हैं|
लेकिन मंडी-फंडी यह नहीं जानते कि जो "सोशल इकनोमिक मॉडल" जाटू सभ्यता रखती और बरतती आई है वो ना ही तो इनके पास है और एक पल को जाटू वाले की कॉपी करके ऐसा ही कुछ करना भी चाहें तो कभी नहीं कर सकते, क्योंकि उसको अपनाना इनके जींस में ही नहीं है|
इन दोनों बेसिक मॉडल में जो फर्क हैं और जो ना सिर्फ जाट के लिए अपितु मंडी-फंडी के बहकावे में आने वाले नॉन-जाट के लिए भी जानने जरूरी हैं वो इस प्रकार हैं:
1) खाप सोशल थ्योरी "सीरी-साझी" यानी गूगल जैसी कंपनी के वर्किंग कल्चर "पार्टनर" की संस्कृति पे सदियों से चलती आई है जबकि जहां-जहां मंडी-फंडी सोशल थ्योरी का एकछत्र राज है यह लोग वहाँ "नौकर-मालिक" की पद्द्ति पर चलते हैं और चलते आये हैं|
2) खाप अथवा जाटू सोशल थ्योरी का अपना एक "विलेज इकनोमिक मॉडल" रहा है जिसके तहत हर गाँव एक स्वतंत्र गणराज्य व् लोकतंत्र के साथ-साथ उन्मुक्त आर्थिक समर्थता का मॉडल होते हुए "गाँव" की जगह "नगरी" कहलाता आया है| जबकि जहां-जहां मंडी-फंडी थ्योरी चलती आई है, वहाँ सिर्फ इन्हीं लोगों की अधिनायकवादी (totalitarian) सामंती चलती आई है और आज भी मौजूद है|
3) जहां जाटू सोशल थ्योरी में जाट किसान अपने सीरी के साथ (स्वतंत्र लिखित कॉन्ट्रैक्ट के तहत) कंधे-से-कंधा मिला के काम करता आया है वहीँ मंडी-फंडी सिस्टम में खेत के किनारे खड़ा हो के नौकरों से (बंधुआ मजदूरी के तहत) काम लेने की संस्कृति रही है| और जहां-जहां यह आज भी एकछत्र हैं, वहाँ ऐसा ही वर्किंग कल्चर है|
4) जहां जाटू सभ्यता की संस्कृति में एक खाप पंचायत में किसी भी जाति सम्प्रदाय का आदमी पंच, अध्यक्ष या आयोजक आदि होता/बनता आया और आज भी होता/बनता है, वहीँ मंडी-फंडी सभ्यता में सिर्फ यही लोग पंचायत में पंच, अध्यक्ष या आयोजक हो सकते हैं| इसके प्रत्यक्ष उदहारण देखने हैं तो इनके एकछत्र राज वाले भागों में जा के देखे जा सकते हैं|
5) आज अगर उत्तरी भारत (जाट-बाहुल्य क्षेत्र) में बाकी भारत की अपेक्षा धार्मिक कर्मकांड-पाखंड-ढोंग की अति वाले कुकृत्य जैसे कि दलितों की बेटियों को मंदिरों में देवदासी (चिंगारी और गिद्द जैसी फिल्म देखें) बनाना, लड़की के व्रजस्ला होते ही मंदिरों के गर्भगृहों में उसका भोग लगाना ('माया' फिल्म देखें), विधवा को पुनर्विवाह की जगह विधवाश्रम भेजना (वाटर एवं दामुल फ़िल्में देखें) आदि बिलकुल भी नहीं और बाकी भी एक नियंत्रित अवस्था यानी अपनी हद की परिधि में रही हैं तो यह सिर्फ जाटू सभ्यता के प्रभाव की वजह से| ऊपर से जाट आर्य-समाज की विचारधारा ने भी इनके मनमाने पाखंडों को उत्तरी भारत में पैर पसारने से बहुत हद तक रोका है| और यही वो उत्तेजना और बेचैनी है कि आज यह जाटू सोशल थ्योरी को जितना हो सके उतना बदनाम कर रास्ते से राह के रोड़े की भांति हटाना चाहते हैं|
ऐसे ही बहुत सारे तुलनात्मक उदाहरण हैं जो इन दोनों सोशल थ्योरीज़ को एक दूसरे के विपरीत खड़ा करते हैं| जिन पर एक खुली बहस भी की जा सकती है| इसको ज्यादा ना खींचते हुए अब आता हूँ कि आखिर जब जाटू सभ्यता ना ही तो मंडी-फंडी सभ्यता की तरह आज के दिन इतनी आक्रामक दिख रही और ना ही ऐसे प्रोपेगैंडे रच रही जैसे कि मंडी-फंडी इसके खिलाफ रच रही है तो जाटू सभ्यता फिर भी इतनी जकड़न में क्यों आई हुई है?
इसका सबसे बड़ा कारण है कि जाटों में बहुत से ऐसे लोग हैं जो मंडी-फंडी सभ्यता के जातिपाती से ले छुआछूत और ऊँच-नीच के पाश को अपने गले में डाले चल रहे हैं| इसका परिणाम यह होता है कि इससे मंडी-फंडी को दलित-पिछड़े के आगे जाट को उनका उसी चीज के लिए दुश्मन बताने का प्रोपेगेंडा फ़ैलाने का मौका मिलता है जो वास्तव में इन्हीं की देन है| यानि जाटों की यह नादानी इनको ही मंडी-फंडी का सॉफ्ट-टारगेट बनाती है|
दूसरा सबसे बड़ा कारण है खाप जैसी सोशल इंजीनियरिंग मॉडल में अपग्रेडेशन कर इन द्वारा अपने लिए एसजीपीसी की भांति एक अम्ब्रेला बॉडी ना खड़ी करना| इसको कुछ इस तरह समझें| जैसे पुराने मकानों में चिमनी वाले चूल्हे होते थे, और ताकि बरसात का पानी या पक्षी की बीट वगैरह अंदर ना आ सके इसलिए वो चिमनियां एक छतरी से ढंकी जाती थी| आज की खापों की हालत यही हो रखी है कि इन्होनें उस चिमनी को एसजीपीसी की भांति एक अम्ब्रेला बॉडी रुपी छतरी से नहीं ढंका हुआ| इसलिए मंडी-फंडी का खड़ा किया हुआ एंटी-जाट मीडिया लेता है और उसमें प्रोपेगेंडा रुपी पानी की दो-चार बूँदें टपका जाता है और नीचे ठीकठाक चलते उस चूल्हें में वो बूँदें गिरने से सब धुआं-धुआं हो जाता है|| अगर कोई इस चिमनी पे छतरी ढंक दे तो सारी समस्या हल|
तीसरा सबसे बड़ा कारण है कि शहरी जाट ग्रामीण और ग्रामीण जाट शहरी से तालमेल नहीं कर रहा| इसको कुछ इस तरीके से समझें| एक कमरे में छत से लगता परन्तु चार-एक फुट नीचे टांड (शेल्फ) होता है| अब मान लो ग्रामीण जाट तो बैठा है उस कमरे के फर्श पे यानी धरती पे और शहरी जाट तरक्की करके जा बैठा है उस टांड पे| दोनों के स्तर में इतना फर्क तो आया कि शहरी जाट ग्रामीण से ऊपर उठ गया परन्तु हैं दोनों उसी कमरे में और दोनों के ऊपर जो छत है वो है मंडी-फंडी की| जिसको तोड़ने के लिए दोनों की एकता और तालमेल जरूरी है| वो तालमेल स्वत: तो हो ही नहीं रहा, खुद जाट कर नहीं रहे और इसीलिए परेशान हुए जा रहे हैं, मंडी-फंडी की जकड़न में घुट बैठे हैं| अगर शहरी जाट टांड से नीचे उतर आये और ग्रामीण थोड़ा ऊपर हाथ बढ़ा के उनको सहयोग करे तो जब चाहें इस मंडी-फंडी के छत रुपी जिंक को तोड़ सकते हैं|
जाट बस इतना मात्र कर लेवें, और अपनी शुद्ध बिना मिलावट की "दादा खेड़ा" और जातिपाती से रहित शुद्ध खाप परम्परा को शुद्ध करके उसको पकड़े रहे तो मंडी-फंडी और जाटों के खिलाफ इनके प्रोपेगण्डे खुद ही अपनी मौत मर जायेंगे|
इन चीजों को करने का इतना फायदा और होगा कि सारा भले ही ना आये परन्तु आज के दिन मंडी-फंडी के बहकावे में चढ़ जो दलित-ओबीसी जाट से दूर जाता सा प्रतीत हो रहा है, असल में जा रहा है वो अधिकतर वापिस आ जायेगा|
अब कोई जाट यह कहे कि क्या दलित-पिछड़े को खुद नहीं दीखता कि वो किधर जा रहे हैं, तो जवाब यही है कि आप पहले उनके ऊपर से मंडी-फंडी के जाल का आवरण हटाओ, तभी तो वो आपको और आपके साथ रहने से उनके फायदे देख पाएंगे| और यह आवरण उनपे किस हद तक हावी है इसको फसलों के धरती में मिला दिए गए भाव से समझा जा सकता है| इस सरकार के एक साल में ही दलितों पर दोगुने हुए उत्पीड़न व् अत्याचारों (पिछले साल जहां 470 के करीब दलित उत्पीड़न के मामले दर्ज हुए थे वहीं इस साल 830 के करीब हुए हैं) से समझा जा सकता है|
ओबीसी और अन्य किसानी जातियों को मंडी-फंडी ने जाट के इतना खिलाफ कर दिया है कि इस नफरत में उनको फसलों की लागत तक पूरी ना कर देने वाले भाव की वजह से अपने घरों की खस्ता हाल होती जा रही इकनोमिक हालत भी 'जाट-विरोध' के आगे नहीं दिख रही| और शायद दिखने भी लगी है तो इसके खिलाफ चुप्पी साधे हुए हैं| वह चुप्पी भय की भी हो सकती है या अनिश्चितता की भी हो सकती है| और अनिश्चितता यह हो सकती है कि शायद वो जाट के उठ खड़ा होने की इंतज़ार कर रहा हो कि जाट उठे तो उसके सुर में मैं भी सुर मिलाऊँ|
दलित भी शायद 'मंडी-फंडी' के षड्यंत्र को भांप चुका है, परन्तु शायद वो इंतज़ार कर रहा है कि कब जाट "मंडी-फंडी" की दी हुई जातिपाती और ऊँच-नीच की मानसिकता से बाहर निकले और हम एक हों|
इसलिए जाट समाज को इतना तो जरूर करना होगा कि मंडी-फंडी के आवरण को तोड़ो| बेशक इसके लिए मंडी-फंडी की भांति जाट को आक्रामक होने की जरूरत नहीं, बस जाट का उठ के इन चीजों के प्रति बोलना शुरू कर देना और चल देना ही काफी होगा| इसी से "मंडी-फंडी" के हाथ-पाँव फूल जायेंगे, इनकी बुग्गी सी उलळ जाएगी| बुग्गी सी उलळ जाना को हिंदी में औंधे मुंह गिरना कहते हैं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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