Sunday, 29 November 2015

खाली, ठाल्ली, निखट्टू, निठ्ठले मोडे/बाबाओं/पुजारियों आदि को और काम ही क्या है?

सबसे पहले तो बता दूँ कि आपको जानकार आश्चर्य होगा कि यह लाइन "नफरत की सोशल थ्योरी ऑफ़ प्रतिकर्षण" के तहत खुद मोडे/बाबाओं/पुजारियों ने ही समाज में फैलवा रखी है| ताकि लोग बाहर से खाली, ठाल्ली बैठे दिखने वाले इन लोगों को खाली, ठाल्ली की गाली देने में ही अपनी ऊर्जा गंवाते रहें और उस रहस्य रुपी अध्यात्म और ध्यान को ना जान पाएं, जो यह इस खाली/ठाल्ली की मुद्रा में बैठ के करते हैं| और एक जगह बैठे-बैठे और खाली/ठाल्ली से घूमते दिखने से ही सारे समाज के चप्पे-चप्पे का ज्ञान अर्जित कर जाते हैं|

मोडे/बाबाओं/पुजारियों को इस खाली/ठाल्ली से इतना तक प्यार है कि जब बुद्धकाल में जाट और दलित बौद्ध भिक्षु बन हर गाँव-गली चौराहे पर ध्यानमग्न नजर आने लगे थे तो इनमें कोहराम मच गया| यह लोग अंदर से अशांत हो गए और चिंता में पड़ गए कि जिस "खाली ठाल्ली" के टैटू के पीछे छुप के हम इतना गहन कार्य किया करते थे अब अगर यह लोग भी इसको करने लगे तो हमारी तो सत्ता ही खत्म| बहुत ध्यान भटकाने की कोशिशें करी, बुद्ध की बेइज्जती तक करवाई, उनकी जितनी हो सके उतनी आलोचना करवाई, परन्तु फिर भी लोग नहीं माने, तो अपनी इस विधा की रक्षा हेतु इन्होनें ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र सुंग, राजा शशांक, राजा चच और उसके बेटे राजा दाहिर के हाथों बुद्ध भिक्षु बने जाटों और दलितों के कत्ले-आम करवाये| बौद्ध मठ तक तोड़े गए| इतना क्रूर तांडव मचवाया कि कहावतें चल पड़ी, "ले भाई मार दिया मठ", "हो गया मठ" आदि-आदि|

क्योंकि बुद्ध धर्म सम्पूर्णत: शांति का संदेश देता है, तो जाट तपस्या में लीन रहते हुए भी कटते गए, परन्तु कुछ ना बोले| अब तक यह एक ऐसा मैदान लड़ रहे थे, जिसमें दूसरा पक्ष तो अभी तक हथियार उठाया ही नहीं था| तब जब लगा कि कहीं अस्तित्व ही खत्म ना हो जावे, तब जा कर जाटों ने अपनी भृकुटि यानी तीसरी आँख खोली और भारतीय स्पार्टन यानी खापों ने एक हो इनको जवाब देने की ठानी| मशहूर इतिहासकार श्री के. सी. यादव कहते हैं कि पांचवीं सदी में एक ऐसी विध्वंशकारी लड़ाई हुई जिसमें एक तरफ इनकी एक लाख सेना और दूसरी तरफ जाटों की मात्र नौ हजार सेना थी| युद्ध बहुत ही विघटनकारी हुआ परन्तु जाटों ने जब तांडव मचाया तो मात्र पंद्रह सौ जाट खोते हुए अत्याचारियों की पूरी की पूरी सेना को धूल चटा दी| तब जाकर यह लोग रुके थे बुद्धों पर अत्याचार करने से|

और यह सब था किसलिए, सिर्फ इस लेख के शीर्षक में कही बात की रक्षा के लिए| इसके बाद यह ऊपर से तो शांत बैठ गए, परन्तु जिस मुद्रा को हम अक्सर निठ्ठला और खाली बैठना कह देते हैं, उसमें बैठे-बैठे लगातार षड्यंत्र करते रहे| वक्त गुजरा और सिख धर्म की स्थापना हुई| अधिकतर जाट सिख धर्म में पलायन करने लगा| परन्तु इतिहास से सीख लेते हुए इन्होनें अबकी बार मारकाट के रास्ते की बजाये, पूना में ब्राह्मण सभा कर, महर्षि दयानंद के जरिये आर्य समाज का फुलप्रूफ पैकेज उतारा और आर्य समाज की पुस्तक "सत्यार्थ प्रकाश" में "जाट जी" जैसे शब्दों के साथ जाट की स्तुति करवाई गई| मान-सम्मान को सुरक्षित समझ जाट सिख धर्म में पूर्णत: पलायन करने से रुक गया|

जाट की स्वछँदता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि आर्य समाज में रहते हुए जाट ने शादी-बयाह में फेरे करने, शांत-शीतल जगहों पर बैठ के चिंतन-मनन-ध्यान लगाने जारी रखे| और हमारे समाज में सब कुछ ठीक रहा|

लेकिन मोडे/बाबाओं/पुजारियों लोग चिंतन-मनन-ध्यान को ठाल्ली-निट्ठलों का काम है, ऐसी लाइन हमारे समाज के बच्चों-बुड्ढों की जुबान पर फिर से लाने में कामयाब रहे| और आज हालत यह है कि दस में से शायद ही दो जाट चिंतन-मनन-ध्यान में बैठते हों| और जब से यह विधि-पद्धति हमारे समाज से लुप्तप्राय होने को आई है, तब से जाट समाज का ह्रास ही होता चला जा रहा है|

अत: आज के सिर्फ जाट ही नहीं अपितु तमाम किसान और दलित युवा/युवती से विनती है कि इस पद्धति को पकड़े रखो, इसको छोडो मत| और नहीं तो यह कह के कि चिंतन-मनन-ध्यान किया करो कि "या तो बुद्ध को हिन्दू धर्म का नौवां अवतार कहना बंद करो, पीएम से विदेशों में भारत को ब्रह्मा-विष्णु-महेश आदि की बजाय बुद्ध का देश कहलवाना बंद करवाओ अन्यथा मुझे बुद्ध की शरण में जाने दो|"

और सच कहूँ तो "बुद्धम शरणम गच्छामि" मतलब भी यही होता है कि आपको खुद की बुद्धि की शरण में जा के चिंतन करना है। किसी इंसानी सेल्फ-स्ट्य्लेड गुरु/गॉडमैन के आगे नतमस्तक हो के चमचागिरी वाली भगति नहीं करनी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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