Saturday, 19 December 2015

जिंदगी में आज पहली बार शाहरुख़ खान की फिल्म रिलीज़ के हफ्ते में ही देख डाली, and due credit goes to अन्धभक्तमंडली!

वर्ना एक वो भी जमाना होता था कि दोस्तों के लाख कहने पर भी पांच साल तक तो "DDLJ" तक नहीं देखी थी| मुझे आज भी याद है 1995 में जब डीडीएलजे आई थी तो मेरे हाई स्कूल के दोस्तों के साथ स्कूल बस से अलग 'बागी बनके' अपनी गाडी करके, हम करीब 25-26 दोस्त दिल्ली घूमने गए थे| दरअसल एक टीचर से ठन गई थी, जो स्कूल बस से जाने वाले टूर का इंचार्ज था और हमें 'ब्लैक-लिस्टेड' घोषित करते हुए, टूर पर ले जाने से मना कर गया था| ना-ना defaulters का टोला मत समझना हमें, हाई स्कूल का इंग्लिश मीडियम का मेरिट सेक्शन था हमारा; टोटल 49 में से 45 की मेरिट (including this नाचीज) और no one below 70% आये थे|

तो हम भी पूरे बागी थे टीचर ने हमें ले जाने से मना कर दिया तो, दिन-के-दिन अगले दिन के लिए 'लम्बे वाली मेटाडोर' करी| परन्तु अगले दिन कोई रैली-वैली थी तो जो मेटाडोर बुक करी थी, उसको RTO ने उठा के ऐन उस वक्त रैली के लिए बुक कर दिया, जब हम स्कूल के आगे खड़े दिल्ली निकलने को मेटाडोर के आने की इंतज़ार कर रहे थे| सुन के मुंह से हरयाणवी में यही निकला कि "यें किसकी बेबे के फेरे होए"| हम 1-2 दोस्त पहुंचे RTO ऑफिस जींद बस अड्डे पे| और RTO से विनती करी, 'जी म्हारी मेटाडोर छोड़ दो', बाकी चाहे सारे हरयाणे के रेहडू-गाड्डे रैली के लिए बुक कर लो| मखा ऐसे-ऐसे इज्जत का सवाल बना हुआ है| खुशकिस्मती से RTO साहब मान गए और थोड़ी देर पहले ही जब्त करके जींद बस डिपो के वर्कशॉप में लॉक करी मेटाडोर छुड़वा लाये| ड्राइवर भी कूदता हुआ आया कि छूटा पिंड मुफ्त में गाडी तुड़वाने से|

खैर, आगे स्कूल का बैनर लगाया और निकल लिए स्कूल बस के जस्ट एक दिन के टूर के जवाब में दो दिन का टूर ले के| पहले दिन दिल्ली घूमने का प्लान था और अगले दिन क्योंकि प्रगति मैदान में स्कूल बस टूर भी ट्रेड-फेयर देखने आ रहा था तो; साथ आने वाले टीचर्स को यह दिखा के कि देखो हम बच्चे हैं तो क्या हुआ, जो बच्चों को टूर दिखा के तुम चौड़े होते हो वो हम तुम्हारे फुफ्फे अकेले भी देख के आ सकते हैं|

खैर, उससे पहले वाली रात को दिन में घूमने-घुमाने के बाद लेट नाईट मूवी देखने का प्लान हुआ| जा के एक थिएटर के बगल में गाडी रोक दी| तब मल्टीप्लेक्स नहीं हुआ करते थे, एक थिएटर में एक ही मूवी लगती थी| जहां हम गए थे पता लगा कि उस थिएटर में 'DDLJ’ लगी हुई है| मैंने दोस्तों से कहा कि भाई तुम लोग देख आओ, मैं यह फिल्म नहीं देखूंगा| और मैं पास के पार्क में जा के टहलता रहा, शायद एक-दो दोस्त और रुक गया था मेरे साथ|

साला जिनकी मूवीज को देखने की by-default मन में ना हुआ करती थी, इन पनौती अंधभक्तों की वजह से आज हम उन्हीं के फैन हो गए| good work शाहरुख़-काजोल-कृति-वरुण-अजय| काश! यह अंधभक्त 1995 में भी होते तो मुझे शाहरुख़ का फैन बनने में इतना अरसा ना लगता और ना ही मैं DDLJ पांच साल बाद देखता, वरन उसी दिन देख डालता दोस्तों के साथ ही|

जय हो अंधभक्तो की!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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