Saturday, 26 December 2015

इससे पहले कि जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी का कुछ और अर्थ बन जाए, सावधान!

कहीं इन दो टैग्स की आड़ में फंडी-मीडिया-एन.जी.ओ. आपके घर में मंडी के जरिये पाड़ तो नहीं लगाए हुए हैं?
ज्यादा नहीं आज से डेड-दो दशक पहले तक भी हरयाणा (वर्तमान हरयाणा, वेस्ट यूपी, दिल्ली) के हर एक गाँव में कुनबे-ठोळे के बुजुर्ग लोग पाखंड-ढोंग-आडंबर से अपने घरों के संस्कार और धन दोनों सुरक्षित रखने हेतु अपने घर की औरतों की पाक्षिक अथवा मासिक काउंसलिंग किया करते थे| इन काउंसलिंग में चर्चा के साथ निर्देश भी होते थे कि धर्म के नाम पर आडंबर फैलाने वालों से कैसे और क्यों के बचे रहना है| सतसंग-कीर्तन में नहीं जाना है क्योंकि यह पाखंडी वर्ग द्वारा घर के पिछले दरवाजे से फंडी और व्यापारी दोनों का धन कमाने के जरिये से फ़ालतू कोई प्रसाधन नहीं|

आजकल मर्द, गाँव की बैठक-चौपालों में या शहर के चाक-चौराहों-धर्मशालाओं में बैठते तो हैं परन्तु इन बातों पर विरले ही चर्चा करके, अपनी औरतों से इन मुद्दों पर एक स्थाई कम्युनिकेशन बनाये रखे हुए हैं| जबकि मंडी-फंडी समुदाय अपनी औरतों को इस बात पर पूरी तरह ट्रैंड करता है कि कैसे किसान-ओबीसी-दलित की औरतों को शीशे में उतारना है और उनके यहां यह पाखंड (डर-ईर्ष्या-द्वेष-लालच) नाम की तमाम उम्र दूध देने वाली दुधारू गाय बाँध के आनी है| इन समुदायों (किसान-ओबीसी-दलित) की शहरी हो या ग्रामीण, दोनों वर्गों की औरतों की सोच में पाखंड के झांसे में आने के मामले में रत्तीभर भी फर्क नहीं; बल्कि शहरी तो ग्रामीण से ज्यादा झांसे में आई बैठी हैं| क्योंकि गाँव के मर्द तो आज भी अपनी औरत को टोकते हुए इतने नहीं कतराते, परन्तु ऐसा लगता है कि शहरियों ने तो यह चेक्स करने ही छोड़ रखे हैं|

और इसका सारा श्रेय जाता है समाज के प्रति खुद का ठोर-ठिकाना ना रखने वाले फंडी-मीडिया-एन.जी.ओ. को| इन तीनों की तरफ से इस शील्ड को तोड़ने की एक बड़ी सिलसिलेवार तीन तरफ़ा शुरुवात हुई|

हमारे यहाँ जो कोई भी गाँव की बहु-बेटी को छेड़ता-बदतमीजी करता उसको पब्लिक हियरिंग के जरिये सार्वजनिक दंड दिया जाता था, जिनको सबसे पहले इन एनजीओ वालों ने मानवाधिकार का मुद्दा बनाते हुए, बैन करवाने का सिलसिला शुरू किया| फिर एनजीओ वाले खुद तो देखते ही क्यों, कि जिस महिला-औरत से छेड़खानी हुई है उसके भी कुछ मानवाधिकार होते हैं| और ना ही यह पहलु ग्रामीण उठा पाये, जबकि इसको उठाने से इन एनजीओ वालों को बड़े अच्छे से टैकल किया जा सकता था| इससे हुआ यह कि गाँव में बुजुर्गों का आत्मबल और विश्वास मंद पड़ा और उन्होंने इन कार्यों में रुचि लेनी बंद कर दी और साथ ही औरतों की क्रमिक काउंसलिंग भी बंद होती चली गई|

फिर रोल आया फंडी का, हर गाँव में दो-चार ऐसी औरतें होती हैं जो 'घर बिगाड़ू और घुमन्तु' श्रेणी में आती है या यूँ कह लो कि जिनके यहां सिर्फ उनकी चलती है| अब सतसंग-पाखंड-कीर्तन-जगराते वालों ने इन औरतों से सम्पर्क साध इनको उकसाना शुरू किया और ऐसे हमारे गाँवों में इनकी एंट्री होनी शुरू हुई| शहर में तो खैर गाँव से मॉडर्न दिखने और इसी को शहरीपन मानने की अंधी लत में जो भी ग्रामीण हरयाणवी औरत शहर निकलती गई वो इनमें धंसती चली गई| और यह इसकी भी एक बड़ी वजह है कि क्यों आज शहरी हरयाणवी खुद को हरयाणवी कहने में भी शर्मिंदा महसूस करते हुए पाये जाते हैं|

तीसरा किरदार आया मीडिया का, इसने इस जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी के मुद्दे पे ऐसे ललित निबंध टाइप के कार्यक्रम किये, कि मर्द भी बावले हो गए|

और यहां सफल हुआ इन तीनों यानी फंडी-मीडिया-एनजीओ का षड्यंत्र, और इसको फाइनेंस कौन देता था या आज भी देता है, वो दो हैं एक आपका घर और दूसरा मंडी|

सफलता यह हुई कि आपको थोथी जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी के नाम पर बौरा दिया गया और आपने अपनी औरतों को टोकना बंद कर दिया| यानि इन तीनों की वह साजिस कामयाब हुई जिसके तहत इनको आपकी औरतों को आपके नियंत्रण कह लो या डायलॉग से छींटकना था| ताकि इनकी बातें घर की औरतें आपको ना बताएं और आप इनको टोकें ना| यानि आपके मुंह पे टैबू लगा दिया गया "जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी" का|

दूसरा औरतों ने पुरुषप्रधान समाज में अपना औचित्य और अस्तित्व सिद्ध करने हेतु अपने घरों में इतने अंधाधुंध मोडे-आडंबर-पाखंड-कीर्तन-जगराते-भंडारे घुसा लिए कि आज हर दूसरे घर में खड़ताल बजती हैं| और इसमें जिस चीज ने और अच्छे से हेल्प करी वो है औरतों का कोमल और भावुक हृदय, जिसको डराना, परिवार के हित या पड़ोसन से जलन के चलते वश में करना इन पाखंडियों के दायें हाथ का खेल है|

देखा है ना कमाल, अगर इनको जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी से कुछ लेना-देना होता तो उस औरत के भी मानवाधिकार इनको दीखते, जिसको छेड़ने वालों को आप सार्वजनिक सजा दिया करते थे?

अब चिंतनीय बात है कि इन चारों मंडी-फंडी-मीडिया-एनजीओ को जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी से कुछ लेना-देना होता तो ना ही तो आज कोख में बेटियां मर रही होती, ना हॉनर किलिंग हो रही होती, ना दहेज़ उत्पीड़न हो रहे होते| और अगर हरयाणा से बाहर की धरती पर निकल के चलो तो इन मुद्दों के साथ-साथ वहां ना विधवाएं पतियों की प्रॉपर्टी से बेदखल कर आश्रमों में बिठाई जा रही होती, ना देवदासियां मंदिरों में बिठाई जा रही होती, ना बहु-पति प्रथा होती, ना सतीप्रथा होती, ना पहली दफा व्रजस्ला होने पर लड़की का मंदिरों में सामूहिक भोग लग रहा होता| दुकानों-मकानों-फैक्ट्रियों-शॉपिंग माल्स-मंदिरों-ट्रस्टों आदि में आधा हिस्सा औरतों को देते|

इसलिए कृपया जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी के इस वाले झांसे में मत फंसिए जो सिर्फ इसको कहने वालों की जेबें भरे और आपके घरों में किसी जहाज की तली में फूटे हुए छेद की भांति आपके घर को आर्थिक और आध्यात्मिक तौर पर इतना खोखला कर दे कि वो गोते खाने लग जाए या फिर एक दिन डूब ही जाए|

आगे बढ़िए और अपनी औरतों को समझाईये और रोकिये कि तुझे जेंडर इक्वलिटी और सेंसिटिविटी के नाम पर फ्रीडम चाहिए तो जा नौकरी कर ले, अपना कारोबार कर ले, जितना चाहे उतना पढ़ ले, या आगे बढ़ के समाज की सड़क-गली को इतनी सुरक्षित करने हेतु संगठन बना ले कि कोई भी लड़की दिन ढलते ही घर से निकलते हुए घबराये ना|

यह होगी असली वाली जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी| इसलिए आज के समाज के मर्द अपने घरों के यह तामसिक बैक-डोर एंट्री बंद करवाएं और फ्रंट-डोर खोल के अपनी औरतों को सात्विक जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी पर आगे बढ़ने में को प्रेरित करें|

वर्ना इतना समझ लेना अगर आप यूँ ही इस झूठी जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी के नाम पर अपने घरों में औरतों को हर उल-जुलूल पाखंड को घुसाने की मौन भरी चुप्पी दिए रखे तो इन चारों (मंडी-फंडी-मीडिया-एनजीओ) ने तो आपके घर की ना सिर्फ आर्थिक हैसियत वरन आध्यात्मिक और बौद्धिक हैसियत भी उस कंगाली और दिवालियेपन के स्तर तक ले जाने की ठानी हुई है, जहां आप सिर्फ इनके इशारों मात्र पे एक दुम हिलाने वाले पालतू से ज्यादा कुछ नहीं रह जाओगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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