भारतीय समाज और हिन्दू धर्म में औरत को दोयम दर्जा और औरत का कोमल और भावनाओं में बह जाने वाला स्वभाव, यह ऐसे कारक है जिसके कारण हम आज धर्म के नाम पर सिर्फ 10% धर्म और 90% पाखंड ढो रहे हैं| दोयम दर्जा हमेशा औरत को ऐसा करने के लिए उकसाता रहता है जिससे वो खुद को पुरुष के आगे साबित कर सके| घर में अपना अस्तित्व सिद्ध और कायम करने हेतु अपनी कोमलता और भावनात्मकता के चलते पाखंडियों और ढोंगियों की लालची और डरावनी चालों में फंस के जो धन पुरुष या वो खुद भी घर में घर के अगले दरवाजे से लाते है, उसी नेक-कमाई को घर के पिछले दरवाजे से इन मुस्टंडों के पेटों में उतारती रहती हैं|
और इसमें क्या अशिक्षित औरत और क्या पढ़ी लिखी; पढ़ी लिखी भी सिर्फ कोई घरेलू वाली नहीं अपितु ऐसी तक भी जो मल्टीनेशनल्स (multinationals) में कार्यरत हैं, उनको मैंने ढोल-ताबीज-टूना-टोटका वालों के चक्करों में भटकते देखा तो माथा ठनक गया|
और नतीजा यह हुआ कि मेरी ग्रेजुएशन के वक्त की एक सखी से उस वक्त की दोस्ती टूट गई, जब उसने मुझे एक दिन कहा कि फूल प्लीज मुझे इतने पैसे दे दे, मुझे मेरे पति और घर पर पड़े बुरी आत्माओं के सायों को काबू करने के लिए फलाने बाबा को 60000 रूपये देने हैं| मैंने कहा तू खुद महीने के एक लाख कमा रही है तो भी मेरे से मांग रही है? बोलती है कि तू समझता नहीं है, मेरा और मेरे पति का जॉइंट अकाउंट है, उससे निकाला तो वो और मेरी सास मुझे घर से निकाल देंगे|
मैं हैरत में था कि यह कैसी घर की ओवेरकरिंग कि जिसके लिए पैसे भी घर और पति से चोरी छुपे देने पड़ते हैं और फिर अंत में घर से निकाले जाने का डर वो अलग से?
एक बार तो मैं तैयार हो गया, क्योंकि पुरानी दोस्ती थी| पर फिर मैं संभला और उसको भी समझाने की कोशिश करी और उसको बोला कि इन चक्करों में मत पड़| तो बोली कि यार अब बीच में नहीं छोड़ सकती, बाबा ने तीन महीने से इलाज शुरू कर रखा है और अब पूरा करना ही होगा| मैंने कहा अब से पहले कितने दे चुकी है? बोलती है एक 60000 की इन्सटॉलमेंट (installment) पहले से दे चुकी हूँ| और मैं हतप्रभ रह गया|
एक पल को सोचा कि हम एमबीए, इंजीनियरिंग, डॉक्टर्स की डिग्री ले-ले के वैसे ही चौड़े हुए फिरते हैं| यह देखो बाबा का बिज़नेस एक क्लाइंट (client) से 120000 वो भी मात्र तीन महीनों में| बाबा के एक टाइम में ऐसे तीन क्लाइंट भी रहते होंगे तो बाबा तो बैठे-बिठाए महीने में एक MNC के मैनेजर से ज्यादा फोड़ लेता है| दोस्त मान नहीं रही थी तो मैंने थोड़ी देर सोचने के बाद कहा कि एक काम कर बाबा से 'सर्विस गारंटी पेपर' ले आ, तब तक मैं तेरे लिए पैसा अरेंज करता हूँ| बोली कि, "फूल तू समझेगा नहीं, छोड़"|
मैंने कहा ठीक है तो जा किसी ऐसे के पास इलाज करवा जो "सर्विस गारंटी" का पेपर देता हो| तो बोली कि ऐसा तो कोई नहीं| तो मैंने कहा कि फिर जा पहले गवर्नमेंट को बोल कि इन बाबाओं में से सिर्फ उसी को यह कार्य करने दिया जाए, जो "सर्विस गारंटी" का पेपर साथ देवें| यह सुन दोस्त बोली तू भाड़ में जा, एक हेल्प मांगी थी, उसके लिए इतनी चिक-चिक|
मैंने आगे कहा अभी तक कुछ फर्क पड़ा तेरे घर की स्थिति में? तो बोली कि नहीं| मैंने आखिरी बार यही कहा कि पड़ेगा भी नहीं| और फिर कहा कि बावली, क्यों जिंदगी खो रही है इस मोड्डे के चक्कर में? परन्तु उसको तो उस पाखंड की खाई से नहीं निकाल पाया, हाँ इस चक्कर में मेरी और उसकी दोस्ती और खट्टी पड़ गई| उस दिन से गाँठ बांध ली कि किसी भी दोस्त के घर में यह अघोरी-पाखंडी चाहे दिन-दहाड़े धुआं-धाणी करते रहो, मैं नहीं इस तरफ ध्यान देने वाला|
लेकिन बाद में विचार करता रहा कि सॉफ्टवेयर एग्जीक्यूटिव स्तर (software executive level) पर पहुँच कर भी अगर हमारे समाज की महिला इतनी जकड़ी और रुकी हुई सोच की रह जाती है तो इसके कारण क्या हैं? मर्म और धरातलीय सच्चाई पे जा के सोचा तो यही पाया जो ऊपर पहले पहरे में कहा|
एक विचार और आया कि भारत की राजनीति के गन्दा होने का दोष हम तथाकथित संभ्रांत पढ़े-लिखे वर्ग वाले बेकार ही भारत के गरीब-गुरबे तबके को बड़ी बेगैरत से यह कहते हुए दे देते हैं कि "जहां एक बोतल और चंद सिक्कों के लिए वोट बिकते हों, वहाँ तुम और कैसी राजनीति की अपेक्षा करोगे?" परन्तु नहीं जनाब उनके पास तो बिकने की वजह मजबूरी या अज्ञान है परन्तु आप और हम तो उससे भी घातक बीमारी डर और किसी को काबू में करने की लालसा से ग्रस्त हैं| और मेरी दोस्त जैसा महिलावर्ग तो घर में अपना अस्तित्व ही साबित करने के लिए इन बिमारियों से ग्रसित है, जो कि लगभग हर दूसरे भारतीय घर की सच्चाई है|
मुझे वो जमाना याद आता है जब मेरे गाँव में घर पे बड़े बुजुर्ग अपने कुनबों की औरतों के साथ पाक्षिक या मासिक सर पर सामूहिक काउंसलिंग (group counselling) किया करते थे और हर औरत को आगाह किया करते थे कि किसी भी ढोंगी-पाखंडी को घर की दहलीज पे कदम मत रखने देना| चलो वो पुरुषप्रधान थे, परन्तु अपनी पुरुषप्रधानी ढंके की चोट पर निभाते तो थे, यह आजकल वाले तो घर में आँखों के सामने भी इनकी औरतें इन प्रपंचों में पड़ती हैं तो टोक तक नहीं पाते| शायद इन लोगों ने जेंडर सेंसिटिविटी (gender sensitivity) और जेंडर इक्वलिटी (gender equality) का कुछ और ही अर्थ निकाल लिया है|
उद्धघोषणा: प्राकृतिक सी बात है, दोस्त की अपनी प्राइवेसी हेतु दोस्त का नाम तो बताऊंगा नहीं, परन्तु यह वाकया मेरी सॉफ्टवेयर एग्जीक्यूटिव दोस्त की जिंदगी का वास्तविक वाकया है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
और इसमें क्या अशिक्षित औरत और क्या पढ़ी लिखी; पढ़ी लिखी भी सिर्फ कोई घरेलू वाली नहीं अपितु ऐसी तक भी जो मल्टीनेशनल्स (multinationals) में कार्यरत हैं, उनको मैंने ढोल-ताबीज-टूना-टोटका वालों के चक्करों में भटकते देखा तो माथा ठनक गया|
और नतीजा यह हुआ कि मेरी ग्रेजुएशन के वक्त की एक सखी से उस वक्त की दोस्ती टूट गई, जब उसने मुझे एक दिन कहा कि फूल प्लीज मुझे इतने पैसे दे दे, मुझे मेरे पति और घर पर पड़े बुरी आत्माओं के सायों को काबू करने के लिए फलाने बाबा को 60000 रूपये देने हैं| मैंने कहा तू खुद महीने के एक लाख कमा रही है तो भी मेरे से मांग रही है? बोलती है कि तू समझता नहीं है, मेरा और मेरे पति का जॉइंट अकाउंट है, उससे निकाला तो वो और मेरी सास मुझे घर से निकाल देंगे|
मैं हैरत में था कि यह कैसी घर की ओवेरकरिंग कि जिसके लिए पैसे भी घर और पति से चोरी छुपे देने पड़ते हैं और फिर अंत में घर से निकाले जाने का डर वो अलग से?
एक बार तो मैं तैयार हो गया, क्योंकि पुरानी दोस्ती थी| पर फिर मैं संभला और उसको भी समझाने की कोशिश करी और उसको बोला कि इन चक्करों में मत पड़| तो बोली कि यार अब बीच में नहीं छोड़ सकती, बाबा ने तीन महीने से इलाज शुरू कर रखा है और अब पूरा करना ही होगा| मैंने कहा अब से पहले कितने दे चुकी है? बोलती है एक 60000 की इन्सटॉलमेंट (installment) पहले से दे चुकी हूँ| और मैं हतप्रभ रह गया|
एक पल को सोचा कि हम एमबीए, इंजीनियरिंग, डॉक्टर्स की डिग्री ले-ले के वैसे ही चौड़े हुए फिरते हैं| यह देखो बाबा का बिज़नेस एक क्लाइंट (client) से 120000 वो भी मात्र तीन महीनों में| बाबा के एक टाइम में ऐसे तीन क्लाइंट भी रहते होंगे तो बाबा तो बैठे-बिठाए महीने में एक MNC के मैनेजर से ज्यादा फोड़ लेता है| दोस्त मान नहीं रही थी तो मैंने थोड़ी देर सोचने के बाद कहा कि एक काम कर बाबा से 'सर्विस गारंटी पेपर' ले आ, तब तक मैं तेरे लिए पैसा अरेंज करता हूँ| बोली कि, "फूल तू समझेगा नहीं, छोड़"|
मैंने कहा ठीक है तो जा किसी ऐसे के पास इलाज करवा जो "सर्विस गारंटी" का पेपर देता हो| तो बोली कि ऐसा तो कोई नहीं| तो मैंने कहा कि फिर जा पहले गवर्नमेंट को बोल कि इन बाबाओं में से सिर्फ उसी को यह कार्य करने दिया जाए, जो "सर्विस गारंटी" का पेपर साथ देवें| यह सुन दोस्त बोली तू भाड़ में जा, एक हेल्प मांगी थी, उसके लिए इतनी चिक-चिक|
मैंने आगे कहा अभी तक कुछ फर्क पड़ा तेरे घर की स्थिति में? तो बोली कि नहीं| मैंने आखिरी बार यही कहा कि पड़ेगा भी नहीं| और फिर कहा कि बावली, क्यों जिंदगी खो रही है इस मोड्डे के चक्कर में? परन्तु उसको तो उस पाखंड की खाई से नहीं निकाल पाया, हाँ इस चक्कर में मेरी और उसकी दोस्ती और खट्टी पड़ गई| उस दिन से गाँठ बांध ली कि किसी भी दोस्त के घर में यह अघोरी-पाखंडी चाहे दिन-दहाड़े धुआं-धाणी करते रहो, मैं नहीं इस तरफ ध्यान देने वाला|
लेकिन बाद में विचार करता रहा कि सॉफ्टवेयर एग्जीक्यूटिव स्तर (software executive level) पर पहुँच कर भी अगर हमारे समाज की महिला इतनी जकड़ी और रुकी हुई सोच की रह जाती है तो इसके कारण क्या हैं? मर्म और धरातलीय सच्चाई पे जा के सोचा तो यही पाया जो ऊपर पहले पहरे में कहा|
एक विचार और आया कि भारत की राजनीति के गन्दा होने का दोष हम तथाकथित संभ्रांत पढ़े-लिखे वर्ग वाले बेकार ही भारत के गरीब-गुरबे तबके को बड़ी बेगैरत से यह कहते हुए दे देते हैं कि "जहां एक बोतल और चंद सिक्कों के लिए वोट बिकते हों, वहाँ तुम और कैसी राजनीति की अपेक्षा करोगे?" परन्तु नहीं जनाब उनके पास तो बिकने की वजह मजबूरी या अज्ञान है परन्तु आप और हम तो उससे भी घातक बीमारी डर और किसी को काबू में करने की लालसा से ग्रस्त हैं| और मेरी दोस्त जैसा महिलावर्ग तो घर में अपना अस्तित्व ही साबित करने के लिए इन बिमारियों से ग्रसित है, जो कि लगभग हर दूसरे भारतीय घर की सच्चाई है|
मुझे वो जमाना याद आता है जब मेरे गाँव में घर पे बड़े बुजुर्ग अपने कुनबों की औरतों के साथ पाक्षिक या मासिक सर पर सामूहिक काउंसलिंग (group counselling) किया करते थे और हर औरत को आगाह किया करते थे कि किसी भी ढोंगी-पाखंडी को घर की दहलीज पे कदम मत रखने देना| चलो वो पुरुषप्रधान थे, परन्तु अपनी पुरुषप्रधानी ढंके की चोट पर निभाते तो थे, यह आजकल वाले तो घर में आँखों के सामने भी इनकी औरतें इन प्रपंचों में पड़ती हैं तो टोक तक नहीं पाते| शायद इन लोगों ने जेंडर सेंसिटिविटी (gender sensitivity) और जेंडर इक्वलिटी (gender equality) का कुछ और ही अर्थ निकाल लिया है|
उद्धघोषणा: प्राकृतिक सी बात है, दोस्त की अपनी प्राइवेसी हेतु दोस्त का नाम तो बताऊंगा नहीं, परन्तु यह वाकया मेरी सॉफ्टवेयर एग्जीक्यूटिव दोस्त की जिंदगी का वास्तविक वाकया है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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