नौनिहाल-ददकान-पितृसाल के वो गलियार-खेड़े याद आते हैं,
हवेलियों-चौबारों-चौपालों की अटारियाँ और मंडेर याद आते हैं|
उन मुंडेरों की फिरकियों में जो घूमा करते थे, वो मोर याद आते हैं,
पिछवाड़े धूप लगे जो मारा करते थे, वो मरोड़े जी-तोड़ याद आते हैं|
खेतों को जाते रेवड़ों-रेहड़ों के घूं-चूं करते लारे आज भी जगा जाते हैं,
बंगले की बुर्जियों-हालों-पलंगों पर जो सजते थे, वो सभागार याद आते हैं|
पनघट की पौड़ियों पे छन-छम करते बजते-भिड़ते टूमों के टाल याद आते हैं,
कुँए की फिरकी से चर-चर-चूं-चूं करते चढ़ते-उतरते ढोल के राग याद आते हैं|
लीला-काका के साथ मिलके वो आक पे बर्तन चढाने याद आते हैं,
ददकाने में चलाने सीखे मेस्सी-फोर्ड-आयशर के हाल याद आते हैं|
उबलते घुड़ के कढ़ाहे में पकवा के खाए वो गजरैले याद आते हैं,
दादी-नानी के चरखे पे उतरती कुकडियों के घुमाव याद आते हैं|
घुड़चढ़ी के आगे धौंसे की ताल पे नाचती चलती घोड़ी के ढमढमे याद आते हैं,
बारिस के पतरालों में धुल के जो चमचमा उठती थी वो गलियाँ याद आते हैं|
चढ़ती-सिसकती शिखर दुपहरी में ट्यूबवेल पे वो नंग-धड़ंग नहाने याद आते हैं,
नहर के किनारे धुंए-धुआरें भून के जो खाते थे, वो चने के होळ याद आते हैं|
या फलाने नगर की लाड़ली, ब्याही फलाने गाम, के हल्कारे याद आते हैं,
चन्द्रबादी के सांग, आरों पे मुंह से सतहीर उठाने वाले जौहर याद आते हैं|
"दादा-खेड़ा" पे ज्योत लगाने जाती बीर-बानियों के गीत और बाणे याद आते हैं,
पिंडारे वाले झोटे के जोहड़ में नहाने से बच्चे जनने के हंसी-मखौल याद आते हैं|
'फुल्ले-भगत' लिल्ल-पेरिस की गलियों में भी तो मिलते हैं वही नज़ारे,
फिर क्यों तुझे वो ठोर-डहारे-कल्लर-कारे ही यूँ रह-रह याद आते हैं?
जय यौद्धेय!
Author: Phool Kumar Malik
हवेलियों-चौबारों-चौपालों की अटारियाँ और मंडेर याद आते हैं|
उन मुंडेरों की फिरकियों में जो घूमा करते थे, वो मोर याद आते हैं,
पिछवाड़े धूप लगे जो मारा करते थे, वो मरोड़े जी-तोड़ याद आते हैं|
खेतों को जाते रेवड़ों-रेहड़ों के घूं-चूं करते लारे आज भी जगा जाते हैं,
बंगले की बुर्जियों-हालों-पलंगों पर जो सजते थे, वो सभागार याद आते हैं|
पनघट की पौड़ियों पे छन-छम करते बजते-भिड़ते टूमों के टाल याद आते हैं,
कुँए की फिरकी से चर-चर-चूं-चूं करते चढ़ते-उतरते ढोल के राग याद आते हैं|
लीला-काका के साथ मिलके वो आक पे बर्तन चढाने याद आते हैं,
ददकाने में चलाने सीखे मेस्सी-फोर्ड-आयशर के हाल याद आते हैं|
उबलते घुड़ के कढ़ाहे में पकवा के खाए वो गजरैले याद आते हैं,
दादी-नानी के चरखे पे उतरती कुकडियों के घुमाव याद आते हैं|
घुड़चढ़ी के आगे धौंसे की ताल पे नाचती चलती घोड़ी के ढमढमे याद आते हैं,
बारिस के पतरालों में धुल के जो चमचमा उठती थी वो गलियाँ याद आते हैं|
चढ़ती-सिसकती शिखर दुपहरी में ट्यूबवेल पे वो नंग-धड़ंग नहाने याद आते हैं,
नहर के किनारे धुंए-धुआरें भून के जो खाते थे, वो चने के होळ याद आते हैं|
या फलाने नगर की लाड़ली, ब्याही फलाने गाम, के हल्कारे याद आते हैं,
चन्द्रबादी के सांग, आरों पे मुंह से सतहीर उठाने वाले जौहर याद आते हैं|
"दादा-खेड़ा" पे ज्योत लगाने जाती बीर-बानियों के गीत और बाणे याद आते हैं,
पिंडारे वाले झोटे के जोहड़ में नहाने से बच्चे जनने के हंसी-मखौल याद आते हैं|
'फुल्ले-भगत' लिल्ल-पेरिस की गलियों में भी तो मिलते हैं वही नज़ारे,
फिर क्यों तुझे वो ठोर-डहारे-कल्लर-कारे ही यूँ रह-रह याद आते हैं?
जय यौद्धेय!
Author: Phool Kumar Malik
No comments:
Post a Comment