मेरा
सवाल है दादरी कांड पे अवार्ड लौटने वालों से भी और अभी मालदा कांड पे
दादरी कांड पे अवार्ड लौटने वालों की चुप्पी पे सवाल उठाने वालों से भी कि
यह हरयाणा में "जाट बनाम नॉन-जाट" पे क्यों नहीं तुम लोग अवार्ड लौटाते;
मालदा पे रोने वाले तुम लोग क्यों नहीं पहले हरयाणा के जाट बनाम नॉन-जाट पे
रोते?
और इनसे भी बड़ा सवाल उन जाटों से है जो दादरी कांड पे भी दुःख मनाते हैं और मालदा के लिए भी रोते हैं| तुम इन अपने ही धर्म वाले कहलाने वालों द्वारा जाट कौम को दिए दुखों, उत्पीड़नों और भेदभावों पे कब रोवोगे? बाज आ जाओ सबके मसीहा बनने का ढोंग करने से ऐ नादाँ जाटो, वर्ना ढूंढी ना मिलेगी तुम्हारी जाटू सभ्यता और जाटू बोली| और यह नहीं बचे तो फिर तुम्हारा कोई नामलेवा ना होगा; शायद तुम खुद भी खुद को जाट कहने से डरा करोगे|
इसलिए सुनो ओ सबके मसीहा बनने वालो, अब तो रुक के साँस ले लो; आज तुम्हारी मसीहाई की सबसे ज्यादा जरूरत तुम्हारी अपनी कौम की जाटू सभ्यता और जाटू बोली को है| इनके यह कभी दादरी तो कभी मालदा के रुदाली विलाप तो तब भी चलते रहेंगे जब तुम इनके दर पे अपनी चमड़ी भी बेचने लग जाओगे या बेचने की नौबत तक पहुंच जाओगे; परन्तु क्या उससे तुम्हारी अपनी सभ्यता संस्कृति बच पायेगी? आज खड़ा करो जाटों का कोई तक्षिला या नालंदा; जिसमें सिर्फ जाट-खाप-हरयाणा शब्दों और इनसे जुडी काल्पनिकता से दूर वास्तविक और व्यवहारिक थ्योरियों पर ही शोध-विमर्श-मंथन और चर्चे होवें|
दिखती सी बात है जो खुद की कौम की मसीहाई करने से डरता हो, वो बाकी के समाज की मसीहाई भी उसी हद तक कर पाता है जहां तक उसको अकेले पड़ जाने का डर ना सताने लग जाए| और ज्यूँ ही डर सताने लगता है तो इनसे जुड़ने का कारण बस वही डर ही रह जाता है और यही बैठा दिया गया है आपके दिलों में कि कहीं हम अकेले तो ना पड़ जावें इसलिए इनके सुर-में-सुर मिलाने में ही भलाई|
कैसी पीढ़ी हो आप आज के जाट कि "जाट बनाम नॉन-जाट" के अखाड़े सजे खड़े हैं, आपको अकेला छोड़ दिए जाने के पुख्ता इंतज़ाम हो चले हैं और आप फिर भी सबकी मसीहाई का ठेका लिए टूल रहे हो| जरा ठहरो, लौटा दो इनके ठेके और पहले अपनी कौम-सभ्यता रुपी घर की मसीहाई का धर्म पुगाओ|
याद करो अपने पुरखों का जमाना, जिनकी चाल पे चल के उत्तरी भारत ने सभ्यता जी है| यह जो आज आपसे छींटक के जाते से प्रतीत होते हैं इनको हमारे पुरखे पकड़ के नहीं लाये थे या इनकी मानमनुहार नहीं किया करते थे कि आप जाटू सभ्यता से जियो या जाटू उर्फ़ हरयाणवी बोली बोलो| यह लोग बोला करते थे क्योंकि वो हमारे पुरखे जाट अपनी सभ्यता और बोली को गर्व से पकड़ के रखा करते थे| जी हाँ, सामाजिक परिदृश्य में सभ्यता और बोली का गर्व ही वो अस्त्र है जिसको पकड़े रहने पर ही दूसरे लोग आपसे जुड़े रहते हैं|
ग्लोबल सोच की कौम है हमारी, इसको जाट बनाम नॉन-जाट के षड्यंत्र से हो सकने वाले अलगाव के भय के चलते मत त्यागो| हिंदी-हरयाणवी-अंग्रेजी को सीखते और काम में लेते हुए हमें अपनी सभ्यता-संस्कृति और बोली की मसीहाई करनी है अब|
अत: "तुम अपनी जगह राजी, हम अपनी जगह राजी" उर्फ़ "ना इनसे से बैर ना इनसे से दोस्ती" की नीति पे चलना ही आज की घड़ी में अपनी सभ्यता-संस्कृति बचने का सर्वोत्तम रास्ता होगा| कारोबारी राह पर आंच ना आवे और हमारी सभ्यता-संस्कृति भी जीवंत-अनंत चलती रहे, ऐसी राह और ऐसे सूत्र निकालने होंगे|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
और इनसे भी बड़ा सवाल उन जाटों से है जो दादरी कांड पे भी दुःख मनाते हैं और मालदा के लिए भी रोते हैं| तुम इन अपने ही धर्म वाले कहलाने वालों द्वारा जाट कौम को दिए दुखों, उत्पीड़नों और भेदभावों पे कब रोवोगे? बाज आ जाओ सबके मसीहा बनने का ढोंग करने से ऐ नादाँ जाटो, वर्ना ढूंढी ना मिलेगी तुम्हारी जाटू सभ्यता और जाटू बोली| और यह नहीं बचे तो फिर तुम्हारा कोई नामलेवा ना होगा; शायद तुम खुद भी खुद को जाट कहने से डरा करोगे|
इसलिए सुनो ओ सबके मसीहा बनने वालो, अब तो रुक के साँस ले लो; आज तुम्हारी मसीहाई की सबसे ज्यादा जरूरत तुम्हारी अपनी कौम की जाटू सभ्यता और जाटू बोली को है| इनके यह कभी दादरी तो कभी मालदा के रुदाली विलाप तो तब भी चलते रहेंगे जब तुम इनके दर पे अपनी चमड़ी भी बेचने लग जाओगे या बेचने की नौबत तक पहुंच जाओगे; परन्तु क्या उससे तुम्हारी अपनी सभ्यता संस्कृति बच पायेगी? आज खड़ा करो जाटों का कोई तक्षिला या नालंदा; जिसमें सिर्फ जाट-खाप-हरयाणा शब्दों और इनसे जुडी काल्पनिकता से दूर वास्तविक और व्यवहारिक थ्योरियों पर ही शोध-विमर्श-मंथन और चर्चे होवें|
दिखती सी बात है जो खुद की कौम की मसीहाई करने से डरता हो, वो बाकी के समाज की मसीहाई भी उसी हद तक कर पाता है जहां तक उसको अकेले पड़ जाने का डर ना सताने लग जाए| और ज्यूँ ही डर सताने लगता है तो इनसे जुड़ने का कारण बस वही डर ही रह जाता है और यही बैठा दिया गया है आपके दिलों में कि कहीं हम अकेले तो ना पड़ जावें इसलिए इनके सुर-में-सुर मिलाने में ही भलाई|
कैसी पीढ़ी हो आप आज के जाट कि "जाट बनाम नॉन-जाट" के अखाड़े सजे खड़े हैं, आपको अकेला छोड़ दिए जाने के पुख्ता इंतज़ाम हो चले हैं और आप फिर भी सबकी मसीहाई का ठेका लिए टूल रहे हो| जरा ठहरो, लौटा दो इनके ठेके और पहले अपनी कौम-सभ्यता रुपी घर की मसीहाई का धर्म पुगाओ|
याद करो अपने पुरखों का जमाना, जिनकी चाल पे चल के उत्तरी भारत ने सभ्यता जी है| यह जो आज आपसे छींटक के जाते से प्रतीत होते हैं इनको हमारे पुरखे पकड़ के नहीं लाये थे या इनकी मानमनुहार नहीं किया करते थे कि आप जाटू सभ्यता से जियो या जाटू उर्फ़ हरयाणवी बोली बोलो| यह लोग बोला करते थे क्योंकि वो हमारे पुरखे जाट अपनी सभ्यता और बोली को गर्व से पकड़ के रखा करते थे| जी हाँ, सामाजिक परिदृश्य में सभ्यता और बोली का गर्व ही वो अस्त्र है जिसको पकड़े रहने पर ही दूसरे लोग आपसे जुड़े रहते हैं|
ग्लोबल सोच की कौम है हमारी, इसको जाट बनाम नॉन-जाट के षड्यंत्र से हो सकने वाले अलगाव के भय के चलते मत त्यागो| हिंदी-हरयाणवी-अंग्रेजी को सीखते और काम में लेते हुए हमें अपनी सभ्यता-संस्कृति और बोली की मसीहाई करनी है अब|
अत: "तुम अपनी जगह राजी, हम अपनी जगह राजी" उर्फ़ "ना इनसे से बैर ना इनसे से दोस्ती" की नीति पे चलना ही आज की घड़ी में अपनी सभ्यता-संस्कृति बचने का सर्वोत्तम रास्ता होगा| कारोबारी राह पर आंच ना आवे और हमारी सभ्यता-संस्कृति भी जीवंत-अनंत चलती रहे, ऐसी राह और ऐसे सूत्र निकालने होंगे|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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