आरएसएस के जरिये मंडी-फंडी ने उत्तरी भारत में दो तरीके से अपना सामाजिक
आधार मजबूत किया है| एक लोगों के बीच पहुँच के और दूसरा इनकी
चिरप्रतिदव्न्दी धर्म-जाति से रहित खाप व्यवस्था की नकारात्मकता बारे
प्रोपगैंडे फैला के|
जिसमें सबसे बड़ा प्रोपेगैंडा होता है कि खापें तो अतिप्राचीन कांसेप्ट होने की वजह से रूढ़िवादी हो चुकी| और ताज्जुब होगा यह जानकार कि ऐसा तर्क देने वाले शायद खापों से भी पुराने मनुवाद, ग्रन्थ-शास्त्र इत्यादि को मानने वाले होते हैं| तो ऐसे में जाहिर सी बात है एक समयकाल मात्र के सिद्धांत पर खापें रूढ़िवादी कैसे हो सकती हैं?
आगे विचारने की बात यह है कि जब मंदिर एक जाति की सत्ता होने पर भी सबके कहलाते हैं तो खाप एक जाति द्वारा जन्मित व् पोषित होने पर एक ही जाति की कैसे कहला सकती हैं? क्योंकि उत्तरी भारत के मूल-समाजों की सामाजिक जीवन शैली "खाप सोशल इंजीनियरिंग" पद्द्ति से चलती आई है, इसलिए व्यवहारिकता में यह एक जाति की हो भी नहीं सकती|
बेशक जैसे ब्राह्मण जाति मंदिर व्यवस्था को चलाने हेतु समाज में फैली उनकी आलोचना पर ध्यान देने की बजाये, यही ही सोचती है कि इन आलोचनाओं से पार पाते हुए अपने आपको अग्रणी कैसे रखना है| वो भावुक हो के नहीं बैठते और ना ही यह सोचते कि तुम्हारे फैलाये वर्ण-नश्ल-रंग-छुआछूत भेद से समाज तुमको कितना कोसता है| बावजूद 36 बिरादरी का समाज उन्हीं मंदिरों में चढ़ने हेतु लालायित रहता है|
और फिर खाप तो ऐसे वाले नकारात्मक कार्य भी नहीं करती| तो फिर किसी प्रोपेगंडा के तहत फैलाई जाने वाली आलोचनाओं को थामने हेतु उनके जवाब व् सटीक कदम उठाने में कोई रुकावट भी नहीं होनी चाहिए| कोई आपका साथ छोड़ के जा रहा है या आपकी आलोचना कर रहा है, ऐसे कहने या इस विरह और विपदा में भावुक हो के बैठने से यह मसले कदापि हल नहीं हो सकते|
खाप प्रणाली सर्वसमाज की तभी है जब तक समाज को यह पता है कि जाट-समाज इसको पालने और संभालने में सक्षम है| अगर जाट समाज खाप व्यवस्था की आलोचना देख, उसके सुधार के उपाय करने की बजाय, इस मोह में घिर जायेगा कि लोग तो तुम्हें छोड़ने लगे हैं; तो निसंदेह वो एक दिन असली में ही छोड़ देंगे|
ऐसे में घबराना अथवा आत्मविश्वास नहीं खोना चाहिए तो नहीं कहूँगा क्योंकि जाट समाज में यह चीजें तो हैं ही नहीं| बल्कि उसमें तो इसका उल्टा है और वो है "देख लेंगे, के बिगड़े सै" वाला एटीच्यूड| इसलिए इसके चक्कर में सब कुछ छोड़ निष्क्रिय बैठने से स्थिति में कभी सुधार नहीं हुआ करता| अपितु बात को अपनी चेतना पर लेते हुए बाकी के समाज से दूर हट के, ठीक उसी तरह जैसे ब्राह्मण उनके मंदिर चलाने हेतु एकांत मंथन किया करता है, जाट समाज को ऐसे एकांत मंथन करने चहिये। अगर इस मंथन से निकले कदम में सुधार का वो माद्दा होगा जो कि समाज को चाहिए तो वो फिर से वापिस आन जुड़ेगा|
इसलिए अकेला होकर भी कुछ समय बिताना पड़े तो खापों को इससे परहेज नहीं करना चाहिए| वैसे भी खाप सोशल इंजीनियरिंग मॉडल में आपके पास एकांत और अकेले में बैठ के मंथन करने का विकल्प मौजूद है| और वो है सिर्फ 'जाट सर्वखाप' के तले बैठ पहले खुद के समाज में वो चीजें ठीक करने का जिसकी कि बाकी का समाज शिकायत करता है या प्रोपेगंडा उठाता है| खुद के यहां ठीक करके फिर उसको 'सर्वजातीय सर्वखाप मंच' पे ले के जाया जायेगा तो निसंदेह सर्वसमाज उसको ज्यादा तवज्जो से अपनाएगा|
विशेष: चूंकि इस लेख का विषय शुद्ध रूप से सोशल इंजीनियरिंग है, जिसको समझने हेतु मंदिर और धर्म-ग्रंथों का सिर्फ तुलनात्मकता प्रयोग किया गया है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
जिसमें सबसे बड़ा प्रोपेगैंडा होता है कि खापें तो अतिप्राचीन कांसेप्ट होने की वजह से रूढ़िवादी हो चुकी| और ताज्जुब होगा यह जानकार कि ऐसा तर्क देने वाले शायद खापों से भी पुराने मनुवाद, ग्रन्थ-शास्त्र इत्यादि को मानने वाले होते हैं| तो ऐसे में जाहिर सी बात है एक समयकाल मात्र के सिद्धांत पर खापें रूढ़िवादी कैसे हो सकती हैं?
आगे विचारने की बात यह है कि जब मंदिर एक जाति की सत्ता होने पर भी सबके कहलाते हैं तो खाप एक जाति द्वारा जन्मित व् पोषित होने पर एक ही जाति की कैसे कहला सकती हैं? क्योंकि उत्तरी भारत के मूल-समाजों की सामाजिक जीवन शैली "खाप सोशल इंजीनियरिंग" पद्द्ति से चलती आई है, इसलिए व्यवहारिकता में यह एक जाति की हो भी नहीं सकती|
बेशक जैसे ब्राह्मण जाति मंदिर व्यवस्था को चलाने हेतु समाज में फैली उनकी आलोचना पर ध्यान देने की बजाये, यही ही सोचती है कि इन आलोचनाओं से पार पाते हुए अपने आपको अग्रणी कैसे रखना है| वो भावुक हो के नहीं बैठते और ना ही यह सोचते कि तुम्हारे फैलाये वर्ण-नश्ल-रंग-छुआछूत भेद से समाज तुमको कितना कोसता है| बावजूद 36 बिरादरी का समाज उन्हीं मंदिरों में चढ़ने हेतु लालायित रहता है|
और फिर खाप तो ऐसे वाले नकारात्मक कार्य भी नहीं करती| तो फिर किसी प्रोपेगंडा के तहत फैलाई जाने वाली आलोचनाओं को थामने हेतु उनके जवाब व् सटीक कदम उठाने में कोई रुकावट भी नहीं होनी चाहिए| कोई आपका साथ छोड़ के जा रहा है या आपकी आलोचना कर रहा है, ऐसे कहने या इस विरह और विपदा में भावुक हो के बैठने से यह मसले कदापि हल नहीं हो सकते|
खाप प्रणाली सर्वसमाज की तभी है जब तक समाज को यह पता है कि जाट-समाज इसको पालने और संभालने में सक्षम है| अगर जाट समाज खाप व्यवस्था की आलोचना देख, उसके सुधार के उपाय करने की बजाय, इस मोह में घिर जायेगा कि लोग तो तुम्हें छोड़ने लगे हैं; तो निसंदेह वो एक दिन असली में ही छोड़ देंगे|
ऐसे में घबराना अथवा आत्मविश्वास नहीं खोना चाहिए तो नहीं कहूँगा क्योंकि जाट समाज में यह चीजें तो हैं ही नहीं| बल्कि उसमें तो इसका उल्टा है और वो है "देख लेंगे, के बिगड़े सै" वाला एटीच्यूड| इसलिए इसके चक्कर में सब कुछ छोड़ निष्क्रिय बैठने से स्थिति में कभी सुधार नहीं हुआ करता| अपितु बात को अपनी चेतना पर लेते हुए बाकी के समाज से दूर हट के, ठीक उसी तरह जैसे ब्राह्मण उनके मंदिर चलाने हेतु एकांत मंथन किया करता है, जाट समाज को ऐसे एकांत मंथन करने चहिये। अगर इस मंथन से निकले कदम में सुधार का वो माद्दा होगा जो कि समाज को चाहिए तो वो फिर से वापिस आन जुड़ेगा|
इसलिए अकेला होकर भी कुछ समय बिताना पड़े तो खापों को इससे परहेज नहीं करना चाहिए| वैसे भी खाप सोशल इंजीनियरिंग मॉडल में आपके पास एकांत और अकेले में बैठ के मंथन करने का विकल्प मौजूद है| और वो है सिर्फ 'जाट सर्वखाप' के तले बैठ पहले खुद के समाज में वो चीजें ठीक करने का जिसकी कि बाकी का समाज शिकायत करता है या प्रोपेगंडा उठाता है| खुद के यहां ठीक करके फिर उसको 'सर्वजातीय सर्वखाप मंच' पे ले के जाया जायेगा तो निसंदेह सर्वसमाज उसको ज्यादा तवज्जो से अपनाएगा|
विशेष: चूंकि इस लेख का विषय शुद्ध रूप से सोशल इंजीनियरिंग है, जिसको समझने हेतु मंदिर और धर्म-ग्रंथों का सिर्फ तुलनात्मकता प्रयोग किया गया है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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